शुक्रवार, 6 जनवरी 2017
कहानी - हवेली - आशीष त्रिवेदी
हवेली... कहानी का अंश...
वृंदा जिस समय हवेली पहुँची वह दिन और रात के मिलन का काल था. उजाले और अंधेरे ने मिलकर हर एक वस्तु को धुंधलके की चादर से ढंक कर रहस्यमय बना दिया था. हवेली झीनी चुनर ओढ़े किसी रमणी सी लग रही थी. जिसका घूंघट उसके दर्शन की अभिलाषा को और बढ़ा देता है. वृंदा भी हवेली को देखने के लिए उतावली हो गई.
इस हवेली की एकमात्र वारिस थी वह. इस हवेली की मालकिन उसकी दादी वर्षों तक उसके पिता से नाराज़ रहीं. उन्होंने उनकी इच्छा के विरूद्ध एक विदेशी लड़की से ब्याह कर लिया था. लेकिन अपने जीवन के अंतिम दिनों में जब एकाकीपन भारी पड़ने लगा तो उसके पिता आकर उन्हें अपने साथ ले गए. वृंदा का कोई भाई बहन नही था. अपने में खोई सी रहने वाली उस लड़की के मित्र भी नही थे. दो एकाकी लोग एक दूजे के अच्छे मित्र बन गए. दादी और पोती में अच्छी बनती थी. दादी किस्से सुनाने में माहिर थीं. उनका खास अंदाज़ था. वह हर किस्से को बहुत रहस्यमय तरीके से सुनाती थीं. उनके अधिकांश किस्सों में इस हवेली का ज़िक्र अवश्य होता था. यही कारण था कि यह हवेली उसके लिए किसी तिलस्मी संदूक की तरह थी. जिसके भीतर क्या है जानने की उत्सुक्ता तीव्र होती है.
दादी की मृत्यु के बाद हवेली उसके पिता को मिल गई. उसने कई बार अपने पिता से इच्छा जताई थी कि वह इस हवेली को देखना चाहती है. किंतु पहले उनकी व्यस्तता और बाद में बीमारी के कारण ऐसा नही हो पाया. दो साल पहले उनकी मृत्यु के बाद वह इस हवेली की वारिस बन गई. उस समय उसका कैरियर एक लेखिका के तौर पर स्थापित हो रहा था. उसकी लिखी पुस्तक लोगों ने बहुत पसंद की थी. उसके लेखन का क्षेत्र रहस्य और रोमांच था. वह इस हवेली के बारे में लिखना चाहती थी. इसीलिए यहाँ आई थी.
अंधेरा गहरा हो गया था. हवेली और भी रहस्यमयी बन गई थी. उसका कौतुहल और बढ़ गया था. यहाँ एक अलग सी नीरवता थी. वैसे भी जिस परिवेश में वह पली थी उससे नितांत अलग था यह माहौल. आधुनिकता से दूर. जैसे वह किसी और काल में आ गई हो. वह जल्द से जल्द पूरी हवेली देखना चाहती थी. लेकिन हवेली बहुत बड़ी थी. लंबी यात्रा ने शरीर को थका दिया था. यह थकावट अब कौतुहल पर भारी पड़ रही थी. परिचारिका उसे पहली मंज़िल पर उसके कमरे में ले गई. खिड़की से उसने बाहर देखा. दूर दूर तक सब अंधेरे में ढंका था. एक अजीब सी सिहरन पैदा कर रहा था.
वह आकर लेट गई. कुछ ही देर में नींद ने उसे अपनी आगोश में ले लिया.
आवरण रहस्य को जन्म देता है. रहस्य आकर्षण को. बंद दरवाज़ों के पीछे के रहस्य को हर कोई जानना चाहता है. किंतु आवरण के हटते ही या दरवाज़े के खुलते ही आकर्षण समाप्त हो जाता है.
सुबह जब वृंदा जगी तो सारा कमरा प्रकाश से भरा था. उसने खिड़की से बाहर देखा. सब स्पष्ट दिखाई दे रहा था. बाहर आकर उसने हवेली पर नज़र डाली. रौशनी में नहाई हवेली एकदम अलग लग रही थी. रहस्य से परे कुछ कुछ जानी पहचानी सी.
इस कहानी का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
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कहानी,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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