गुरुवार, 5 जनवरी 2017

कविता - कुकुरमुत्ता - भाग - 1 - सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

कविता का अंश... एक थे नव्वाब, फ़ारस से मंगाए थे गुलाब। बड़ी बाड़ी में लगाए, देशी पौधे भी उगाए, रखे माली, कई नौकर गजनवी का बाग मनहर लग रहा था। एक सपना जग रहा था, सांस पर तहजबी की, गोद पर तरतीब की। क्यारियां सुन्दर बनी चमन में फैली घनी। फूलों के पौधे वहाँ लग रहे थे खुशनुमा। बेला, गुलशब्बो, चमेली, कामिनी, जूही, नरगिस, रातरानी, कमलिनी, चम्पा, गुलमेंहदी, गुलखैरू, गुलअब्बास, गेंदा, गुलदाऊदी, निवाड़, गन्धराज, और किरने फ़ूल, फ़व्वारे कई, रंग अनेकों-सुर्ख, धानी, चम्पई, आसमानी, सब्ज, फ़िरोज सफ़ेद, जर्द, बादामी, बसन्त, सभी भेद। फ़लों के भी पेड़ थे, आम, लीची, सन्तरे और फ़ालसे। चटकती कलियां, निकलती मृदुल गन्ध, लगे लगकर हवा चलती मन्द-मन्द, चहकती बुलबुल, मचलती टहनियां, बाग चिड़ियों का बना था आशियाँ। साफ़ राह, सरा दानों ओर, दूर तक फैले हुए कुल छोर, बीच में आरामगाह दे रही थी बड़प्पन की थाह। कहीं झरने, कहीं छोटी-सी पहाड़ी, कही सुथरा चमन, नकली कहीं झाड़ी। आया मौसिम, खिला फ़ारस का गुलाब, बाग पर उसका पड़ा था रोब-ओ-दाब; वहीं गन्दे में उगा देता हुआ बुत्ता पहाड़ी से उठे-सर ऐंठकर बोला कुकुरमुत्ता- “अब, सुन बे, गुलाब, भूल मत जो पायी खुशबु, रंग-ओ-आब, खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट, डाल पर इतरा रहा है केपीटलिस्ट! कितनों को तूने बनाया है गुलाम, माली कर रक्खा, सहाया जाड़ा-घाम, हाथ जिसके तू लगा, पैर सर रखकर वो पीछे को भागा औरत की जानिब मैदान यह छोड़कर, तबेले को टट्टू जैसे तोड़कर, शाहों, राजों, अमीरों का रहा प्यारा तभी साधारणों से तू रहा न्यारा। वरना क्या तेरी हस्ती है, पोच तू कांटो ही से भरा है यह सोच तू कली जो चटकी अभी सूखकर कांटा हुई होती कभी। रोज पड़ता रहा पानी, तू हरामी खानदानी। चाहिए तुझको सदा मेहरून्निसा जो निकाले इत्र, रू, ऐसी दिशा बहाकर ले चले लोगो को, नही कोई किनारा जहाँ अपना नहीं कोई भी सहारा ख्वाब में डूबा चमकता हो सितारा पेट में डंड पेले हों चूहे, जबां पर लफ़्ज प्यारा। देख मुझको, मैं बढ़ा डेढ़ बालिश्त और ऊंचे पर चढ़ा और अपने से उगा मैं बिना दाने का चुगा मैं कलम मेरा नही लगता मेरा जीवन आप जगता तू है नकली, मै हूँ मौलिक तू है बकरा, मै हूँ कौलिक तू रंगा और मैं धुला पानी मैं, तू बुलबुला तूने दुनिया को बिगाड़ा मैंने गिरते से उभाड़ा तूने रोटी छीन ली जनखा बनाकर एक की दी तीन मैने गुन सुनाकर। काम मुझ ही से सधा है शेर भी मुझसे गधा है चीन में मेरी नकल, छाता बना छत्र भारत का वही, कैसा तना सब जगह तू देख ले आज का फिर रूप पैराशूट ले। विष्णु का मैं ही सुदर्शनचक्र हूँ। काम दुनिया मे पड़ा ज्यों, वक्र हूँ। उलट दे, मैं ही जसोदा की मथानी और लम्बी कहानी- सामने लाकर मुझे बेंड़ा देख कैंडा तीर से खींचा धनुष मैं राम का। काम का- पड़ा कन्धे पर हूँ हल बलराम का। सुबह का सूरज हूँ मैं ही चांद मैं ही शाम का। कलजुगी मैं ढाल नाव का मैं तला नीचे और ऊपर पाल। मैं ही डांड़ी से लगा पल्ला सारी दुनिया तोलती गल्ला मुझसे मूछें, मुझसे कल्ला मेरे उल्लू, मेरे लल्ला कहे रूपया या अधन्ना हो बनारस या न्यवन्ना रूप मेरा, मै चमकता गोला मेरा ही बमकता। लगाता हूँ पार मैं ही डुबाता मझधार मैं ही। डब्बे का मैं ही नमूना पान मैं ही, मैं ही चूना मैं कुकुरमुत्ता हूँ, पर बेन्जाइन वैसे बने दर्शनशास्त्र जैसे। ओमफ़लस और ब्रहमावर्त वैसे ही दुनिया के गोले और पर्त जैसे सिकुड़न और साड़ी, ज्यों सफ़ाई और माड़ी। कास्मोपालिटन और मेट्रोपालिटन जैसे फ़्रायड और लीटन। फ़ेलसी और फ़लसफ़ा जरूरत और हो रफ़ा। सरसता में फ़्राड केपिटल में जैसे लेनिनग्राड। सच समझ जैसे रकीब लेखकों में लण्ठ जैसे खुशनसीब मैं डबल जब, बना डमरू इकबगल, तब बना वीणा। मन्द्र होकर कभी निकला कभी बनकर ध्वनि छीणा। मैं पुरूष और मैं ही अबला। मै मृदंग और मैं ही तबला। चुन्ने खां के हाथ का मैं ही सितार दिगम्बर का तानपूरा, हसीना का सुरबहार। मैं ही लायर, लिरिक मुझसे ही बने संस्कृत, फ़ारसी, अरबी, ग्रीक, लैटिन के जने मन्त्र, गज़लें, गीत, मुझसे ही हुए शैदा जीते है, फिर मरते है, फिर होते है पैदा। वायलिन मुझसे बजा बेन्जो मुझसे सजा। घण्टा, घण्टी, ढोल, डफ़, घड़ियाल, शंख, तुरही, मजीरे, करताल, करनेट, क्लेरीअनेट, ड्रम, फ़्लूट, गीटर, बजानेवाले हसन खां, बुद्धू, पीटर, मानते हैं सब मुझे ये बायें से, जानते हैं दाये से। ताताधिन्ना चलती है जितनी तरह देख, सब में लगी है मेरी गिरह नाच में यह मेरा ही जीवन खुला पैरों से मैं ही तुला। कत्थक हो या कथकली या बालडान्स, क्लियोपेट्रा, कमल-भौंरा, कोई रोमान्स बहेलिया हो, मोर हो, मणिपुरी, गरबा, पैर, माझा, हाथ, गरदन, भौंहें मटका नाच अफ़्रीकन हो या यूरोपीयन, सब में मेरी ही गढ़न। किसी भी तरह का हावभाव, मेरा ही रहता है सबमें ताव। मैने बदलें पैंतरे, जहां भी शासक लड़े। पर हैं प्रोलेटेरियन झगड़े जहां, मियां-बीबी के, क्या कहना है वहां। नाचता है सूदखोर जहां कहीं ब्याज डुचता, नाच मेरा क्लाईमेक्स को पहुचंता। नहीं मेरे हाड़, कांटे, काठ का नहीं मेरा बदन आठोगांठ का। रस-ही-रस मैं हो रहा सफ़ेदी का जहन्नम रोकर रहा। दुनिया में सबने मुझी से रस चुराया, रस में मैं डूबा-उतराया। मुझी में गोते लगाये वाल्मीकि-व्यास ने मुझी से पोथे निकाले भास-कालिदास ने। टुकुर-टुकुर देखा किये मेरे ही किनारे खड़े हाफ़िज-रवीन्द्र जैसे विश्वकवि बड़े-बड़े। कहीं का रोड़ा, कही का पत्थर टी.एस. एलीयट ने जैसे दे मारा पढ़नेवाले ने भी जिगर पर रखकर हाथ, कहां,’लिख दिया जहां सारा’। ज्यादा देखने को आंख दबाकर शाम को किसी ने जैसे देखा तारा। जैसे प्रोग्रेसीव का कलम लेते ही रोका नहीं रूकता जोश का पारा यहीं से यह कुल हुआ जैसे अम्मा से बुआ। मेरी सूरत के नमूने पीरामेड मेरा चेला था यूक्लीड। रामेश्वर, मीनाछी, भुवनेश्वर, जगन्नाथ, जितने मन्दिर सुन्दर मैं ही सबका जनक जेवर जैसे कनक। हो कुतुबमीनार, ताज, आगरा या फ़ोर्ट चुनार, विक्टोरिया मेमोरियल, कलकत्ता, मस्जिद, बगदाद, जुम्मा, अलबत्ता सेन्ट पीटर्स गिरजा हो या घण्टाघर, गुम्बदों में, गढ़न में मेरी मुहर। एरियन हो, पर्शियन या गाथिक आर्च पड़ती है मेरी ही टार्च। पहले के हो, बीच के हो या आज के चेहरे से पिद्दी के हों या बाज के। चीन के फ़ारस के या जापान के अमरिका के, रूस के, इटली के, इंगलिस्तान के। ईंट के, पत्थर के हों या लकड़ी के कहीं की भी मकड़ी के। बुने जाले जैसे मकां कुल मेरे छत्ते के हैं घेरे। सर सभी का फ़ांसनेवाला हूं ट्रेप टर्की टोपी, दुपलिया या किश्ती-केप। और जितने, लगा जिनमें स्ट्रा या मेट, देख, मेरी नक्ल है अंगरेजी हेट। घूमता हूं सर चढ़ा, तू नहीं, मैं ही बड़ा।” इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...

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