गुरुवार, 10 नवंबर 2016

कविता - अमृता प्रीतम


शरद कोकास की कविता, वास्तव में यह कविता मेरे मित्र शरद कोकास की है, जो सोशल मीडिया में न जाने किस तरह से अमृता प्रीतम के नाम से प्रकाशित की गई है। बहरहाल इसे आडियो में नहीं बदल पाया हूं, पर यह साफ कर दूँ कि गलती से यह कविता मेरे ब्लॉग पर अमृता प्रीतम के नाम से प्रसारित हो गई। इसके लिए क्षमा चाहता हूं।
कविता का अंश... वह कहता था, वह सुनती थी। जारी था एक खेल, कहने-सुनने का। खेल में थी दो पर्चियाँ, एक में लिखा था - कहाे, एक में लिखा था - सुनो। अब यह नियति थी, या महज संयाेग? उसके हाथ लगती रही वही पर्ची, जिस पर लिखा था - सुनो। वह सुनती रही, उसने सुने आदेश, उसने सुने उपदेश। बंदिशें उसके लिए थी। उसके लिए थी, वर्जनाएँ । वह जानती थी, कहना-सुनना नहीं है केवल क्रियाएँ। राजा ने कहा - पत्थर बनो। वह अहिल्या हो गई। प्रभु ने कहा - निकल जाओ। वह सीता हो गई। चिता से निकली चीख, किसी कानों ने नहीं सुनी, वह सती हो गई। घुटती रही उसकी फरियाद, अटके रहे शब्द। सिले रहे होंठ, रूँधा रहा गला। उसके हाथ कभी नहीं लगी वह पर्ची, जिस पर लिखा था - कहो। नारी हृदय की यह करूण भावनाएँ ऑडियो की मदद से सुनिए...

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