मंगलवार, 15 नवंबर 2016

कविता - ख़याल - भारती परिमल

कविता का अंश... शाम तन्हाई में, यूँ ही खयाल आया… दिन-रात के पुल पर, जिंदगी चलती है या जिंदगी के पुल पर, दिन-रात चलते है? सुख-दुख के पहियों पर, जिंदगी घूमती है या जिंदगी के पहियों पर, सुख-दुख घूमते हैं? आशा-निराशा के झूले पर, जिंदगी झूलती है या जिंदगी के झूले पर, आशा-निराशा झूलते हैँ? यादों-वादों के जंगल में, जिंदगी उलझी है या जिंदगी के जंगल में यादें-वादें उलझे हैं? मिलन-जुदाई के दो तट पर, जिंदगी खड़ी है या जिंदगी के तट पर, मिलन-जुदाई खड़े हैं? ऐसे ही खयालों की ज़मीन पर टहलते-टहलते, रात गहरा गई, चाँदनी बिखर गई। किसी ने झटका लटों को, और कहा – खयालों को भी, यूँ ही झटक लो। देखा, तो जिंदगी थी… मुस्करा रही थी… और कह रही थी… न सोचो मेरे बारे में, न उलझों मुझ में, बस मेरे साथ-साथ चलते चलो, तुम हो तो मैं हूँ, मैं हूँ तो तुम हो। एक-दूजे का हाथ थामे, हमें चलना है, आगे बढ़ते जाना है। और मैं चल पड़ी… चलती रही… चलती रहूँगी…. चलती रहूँगी….। इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...

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