शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2016

कहानी - गुलाबी शॉल - सपना शिवाले सोलंकी

कहानी का अंश… माँ की तबियत खराब होने की खबर सुनकर शशि का मन बेचैन हो उठा। उसने तुरंत सुधीर को फोन कर टिकट बुक करने के लिए कहा। सुधीर ने कुछ देर बाद बताया कि कन्फर्म टिकट नहीं मिल रहा है। जब मिल जाएगा, तब चली जाना। उन्होंने उसे बहुत समझाया लेकिन शशि नहीं मानी और आनन-फानन में अपना सूटकेस तैयार कर लिया। जाड़े के दिन थे, इसलिए सूटकेस में गरम कपड़े भी रखने जरूरी थे। शशि ने एक ओवरकोट पहना और ऊपर एक गुलाबी शॉल अपनी पसंद का डाल दिया। स्टेशन पहुँच कर जो डिब्बा पहले दिखाई दिया उसी में जाकर खिड़की के पास वाली सीट पर बैठ गई। कोई आएगा तो देखा जाएगा। यह सोचते हुए वह उस खाली सीट पर बैठ गई। तभी उसे खिड़की के बाहर एक तीन-चार साल का मासूम दिखाई दिया। ठंड के कारण वह ठिठुर रहा था। वह बड़ा मासूम था। शशि का मन उसे देखकर करूणा से भर गया। मन किया कि अपनी शॉल उसे ओढ़ा दे। उसने शॉल को अपने कंधे से उतारा और उसकी कशमीरी कढ़ाई को प्यार से सहलाया। अचानक उसे याद आया कि वह शॉल तो उसे सुधीर ने दी थी। जब वे लोग हनीमून के लिए गए थे, तो शिमला की मॉल रोड से सुधीर ने उसके लिए ये शॉल खरीदी थी और प्यार से उसके कंधे पर ओढ़ा दी थी। मधुर स्मृति में खोकर उसने वह शॉल उसे ओढ़ाने का अपना इरादा बदल दिया। ट्रेन चल पड़ी और वो प्लेटफार्म पर खड़े उस मासूम को देखती रही। धीरे-धीरे सब कुछ आँखों से ओझल हो गया। वह बच्चा भी। उसने अपने आप को समझाया। लेकिन उसे बार-बार उस बच्चे का खयाल आता रहा। आखिर शशि ने क्या किया? यह जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए…

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