शनिवार, 8 अक्तूबर 2016

लघुकथा - आधुनिक श्रवण - रमेश ‘आचार्य’

कहानी का अंश... मिस्टर सक्सेना को इस अकेलेपन में रह-रह कर अपनी पत्नी सुनंदा की याद सता रही थी। साथ ही उन्हें अपनी पत्नी के वे शब्द भी याद आ रहे थे जो उन्होंने मरते समय उनसे कहे थे कि कभी भी अपनी पैतृक संपति को न बेचना। वक्त का कोई भरोसा नहीं है। आज वे पत्नी द्वारा कहे गए शब्दों को सच होते देख रहे थे। उन्होंने अपने दोनों पुत्रों के पालन-पोषण और पढ़ाई-लिखाई में कोई कमी न होने दी। अपने स्वास्थ्य की चिंता न करते हुए सदा उनके स्वास्थ्य का ख्याल रखा। लेकिन वे अपने दोनों पुत्रों की मीठी-मीठी बातों में आ गए और अपनी पैतृक संपति बेच दी ताकि उनके पुत्र अपना बिजनेस और आगे फैला सकें। वे सोचते थे कि उनके पुत्र बुढ़ापे में उनकी लाठी बनेंगे। लेकिन अब उनका भ्रम पूरी तरह दूर हो चुका था क्योंकि दोनों पुत्र अपने-अपने परिवार में मस्त थे। मिस्टर सक्सेना फुटबाल की भाँति कुछ-कुछ दिनों के अंतराल के बाद दोनों के घर शरण लेते थे। उन्हें लगता था कि मानो वे एक शरणार्थी है और वे जीने के लिए नहीं बल्कि मरने के लिए जी रहे हैं। फिर भी वे इसका दोष स्वयं को देते थे। अब तो वे केवल अपने पोते-पोतियों को देखकर अपने दुखी मन को किसी तरह बहला रहे थे अन्यथा उनके जीवन में एक रिक्तता के सिवाय कुछ न था। उस दिन वे अपने छोटे पोते के साथ खेल रहे थे कि न कहाँ से अचानक उनके दोनों पुत्र आ धमके। उन्होने अपने दोनों पुत्रों को महीनों के बाद देखा तो सकते मे आकार पूछा- "कहो क्या बात है?" तभी उनका बड़ा बेटा बोला- "पापा, आप तो देख ही रहे है कि हमार काम-काज कितना बढ़ गया है और हमें व्यापार के सिलसिले मे अक्सर बाहर आना-जाना पड़ता है। सो इस कारण हम आपकी सही तरीके से देखभाल भी नहीं कर पा रहे हैं। और आपको भी बार-बार हमारे पास आना-जाना पड़ता है। हम जानते हैं कि इससे आपको भी बहुत तकलीफ होती है।"... इस अधूरी कहानी को पूरा जानने के लिए आॅडियो की मदद लीजिए... सम्पर्क - acharya214@yahoo.in

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