गुरुवार, 8 सितंबर 2016

कविता – वह एक आदमी – कृष्ण कुमार अस्थाना

कविता का अंश… शहर शमशान के किसी अँधेरे कोने में मरा पड़ा है। घंटाघर में वक्त की कैंची, कबूतरों के पर कतर रही है। मौसम के साथ वक्त के हाशिए पर, आदमी और उसकी आत्मा की, मौत दर्ज कर दी गई है। वक्त की इस नई सतह पर, हिजड़ों की एक पूरी पीढ़ी, अतीत और भविष्य पर, बहस में जुटी है। मृत आदमी और जीवित नाग के बीच, संबंध को तलाशती। बुद्धिमानों का अंधापन और अंधों का विवेक, मापने के लिए, हिटलरी कुर्सी अपने पंजों के नीचे से, कुछ शब्द निकालकर रख देती है। अचानक… सड़कें, इश्तिहारों के रोजनामचों में तब्दील हो जाती है… इस अधूरी कविता का पूरा आनंद लेने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए…

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