गुरुवार, 1 सितंबर 2016

कविता - मंत्र हूँ... दुष्यंत कुमार

कविता का अंश... मंत्र हूँ तुम्हारे अधरों में मैं! फेंको मुझको एक बूँद आँसू में पड़कर, ऊसर मैदानों पर, खेतों खलिहानों पर, काली चट्टानों पर....। मंत्र हूँ तुम्हारे अधरों में मैं। आज अगर चुप हूँ, धूल भरी बाँसुरी सरीखा स्वरहीन, मौन; तो मैं नहीं, तुम ही हो उत्तरदायी इसके। तुमने ही मुझे कभी, ध्यान से निहारा नहीं, छुआ या पुकारा नहीं, छिद्रों में फूँक नहीं दी तुमने, तुमने ही वर्षों से, अपनी पीड़ाओं को, क्रंदन को, मूक, भावहीन, बने रहने की स्वीकृति दी; मुझको भी विवश किया, तुमने अभिव्यक्तिहीन होकर खुद! इस अधूरी कविता को पूरा सुनने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...

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