मंगलवार, 16 अगस्त 2016

लघुकथा - बुआ दादी - आशीष कुमार त्रिवेदी

कहानी का अंश... सावित्री बुआ ने अपनी पूजा समाप्त कर ली थी. अब वह अपनी 108 मनकों की माला लेकर बैठी थीं. इसके दो फेरे करने के बाद ही वह अन्न जल ग्रहण करेंगी. यही उनकी दैनिक दिनचर्या थी. माला फेर लेने के बाद बुआ ने रसोई के छोटे मोटे कामों में मदद की और अपना झोला लेकर मंदिर चली गईं. उस झोले में कोई ना कोई धार्मिक ग्रंथ रहता था. मंदिर परिसर के किसी एकांत स्थान पर बैठ कर वह उसका अध्ययन करती थीं. यही उनका सैर सपाटा और मनोरंजन का साधन था. बारह वर्ष की आयु में विधवा होकर वह अपने पिता के घर आ गई थीं. संस्कारों में उन्हें यही घुट्टी पिलाई गई कि विधवा स्त्री के लिए सादगी से जीवन जीना ही उचित है. उन्होंने उसी प्रकार की जीवन शैली अपना ली. सादा भोजन, सफेद साड़ी तथा व्रत उपवास. पिता की मृत्यु के बाद घर की बाग डोर भाई ने संभाल ली. भाभी ने सदैव उन्हें पूरा आदर दिया. अब तो भतीजे की गृहस्थी भी बस गई थी. उनके नीरस जीवन में यदि कुछ पल प्रसन्नता के आते थे तो उसका कारण था उनके भाई का पोता बिट्टू. पाँच साल का बिट्टू उनसे बहुत हिला-मिला था. वह उन्हें बुआ दादी कह कर पुकारता था. आकर उनके पास बैठ जाता और उनसे ढेर सारी बातें करता था. मंदिर से लौट कर बुआ ने भोजन किया और आराम करने अपने कमरे में चली गईं. कुछ समय आराम करने के बाद अभी उठी ही थीं कि बिट्टू आ गया. बुआ ने उससे पूछा "अपना होमवरक कर लिया." बिट्टू ने उन्हें सुधारते हुए कहा "होमकरक नही होमवर्क होता है." बुआ ने हंस कर कहा "वही, अभी कर लो. शाम को शादी में जाना है ना सबको." "आज आप भी चलना मम्मी तथा दादी की तरह सजधज के." बिट्टू ने भोलेपन से कहा. उसका भोलापन उनके मन को छू गया. बुआ ने कहा कि वह कहीं नही जाती हैं. आगे की कहानी जानने के लिए आॅडियो की मदद लीजिए...

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