सोमवार, 8 अगस्त 2016

कविता - घर आना बेटे… - बटुक चतुर्वेदी

कविता का अंश… गर्मी की छुट्टी लगते ही घर आना बेटे, माना कष्ट गाँव में अनगिन पर आना बेटे। खेड़े वाला आम लदा है खूब कैरियों से, पके खजूर तोड़ने छोरे लड़ें बैरियों से। देख जामुनें लदी पंछियों के मन डोल रहे, फूले-फले करोंदा मन में मिसरी घोल रहे। तरबूजे की रेता में बरात सजी लगती, खरबूजे संग दुबली ककड़ी बहुत भली लगती। द्वार डटा कबीट देखता है रस्ता तेरा, उसकी ममता को तू सस्वर कर जाना बेटे। गर्मी की छुट्टी लगते ही घर आना बेटे, माना कष्ट गाँव में अनगिन पर आना बेटे। पता नहीं यह नदिया किसके बिना उदासी है, पनघट पर खामोशी रहती अच्छी खासी है। पुरखों वाला खेत आजकर बहुत अनमना है, खलिहानों वाला चबूतरा अभी अधबना है। बड़-पीपल दोनों ने लम्बी चुप्पी साधी है, कोयल-मैना की किलकन बस आधी-आधी है। आँगन चौपालों में बंद हुई बोला-चाली, दोनों को तू जल्दी आकर समझाना बेटे। गर्मी की छुट्टी लगते ही घर आना बेटे, माना कष्ट गाँव में अनगिन पर आना बेटे। मुंडी गैया खिरका जाते रोज तंगाती है, कबरी की बछिया घंटो हर रोज रंभाती है। डूंडा बैल रात दिन बेहद गुमसुम रहता है, कैरा की आँखों से हरदम पानी बहता है। भूरी भैंस भरोसे की फिर पड़ी बियानी है, कल्ली के मरने की बेहद करुण कहानी है। नागौरी बैलों की जोड़ी असमय बुढयानी, कैसे खेत जुतेंगे तू ही बतलाना बेटे। गर्मी की छुट्टी लगते ही घर आना बेटे, माना कष्ट गाँव में अनगिन पर आना बेटे। इस अधूरी कविता को पूरा सुनने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए…

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