शुक्रवार, 8 जुलाई 2016

बाल कहानी - गिरगिट का सपना - मोहन राकेश

गिरगिट का सपना... कहानी का अंश... एक गिरगिट था। अच्‍छा, मोटा-ताजा। काफी हरे जंगल में रहता था। रहने के लिए एक घने पेड़ के नीचे अच्‍छी-सी जगह बना रखी थी उसने। खाने-पीने की कोई तकलीफ नहीं थी। आसपास जीव-जन्‍तु बहुत मिल जाते थे। फिर भी वह उदास रहता था। उसका ख्‍याल था कि उसे कुछ और होना चाहिए था। और हर चीज, हर जीव का अपना एक रंग था। पर उसका अपना कोई एक रंग था ही नहीं। थोड़ी देर पहले नीले थे, अब हरे हो गए। हरे से बैंगनी। बैंगनी से कत्‍थई। कत्‍थई से स्‍याह। यह भी कोई जिन्‍दगी थी! यह ठीक था कि इससे बचाव बहुत होता था। हर देखनेवाले को धोखा दिया जा सकता था। खतरे के वक्‍त जान बचाई जा सकती थी। शिकार की सुविधा भी इसी से थी। पर यह भी क्‍या कि अपनी कोई एक पहचान ही नहीं! सुबह उठे, तो कच्‍चे भुट्टे की तरह पीले और रात को सोए तो भुने शकरकन्‍द की तरह काले! हर दो घण्‍टे में खुद अपने ही लिए अजनबी! उसे अपने सिवा हर एक से ईर्ष्‍या होती थी। पास के बिल में एक साँप था। ऐसा बढ़िया लहरिया था उसकी खाल पर कि देखकर मजा आ जाता था! आसपास के सब चूहे-चमगादड़ उससे खौफ खाते थे। वह खुद भी उसे देखते ही दुम दबाकर भागता था। या मिट्टी के रंग में मिट्टी होकर पड़ रहता था। उसका ज्‍यादातर मन यही करता था कि वह गिरगिट न होकर साँप होता, तो कितना अच्‍छा था! जब मन आया, पेट के बल रेंग लिए। जब मन आया, कुण्‍डली मारी और फन उठाकर सीधे हो गए। एक रात जब वह सोया, तो उसे ठीक से नींद नहीं आई। दो-चार कीड़े ज्‍यादा निगल लेने से बदहजमी हो गई थी। नींद लाने के लिए वह कई तरह से सीधा-उलटा हुआ, पर नींद नहीं आई। आँखों को धोखा देने के लिए उसने रंग भी कई बदल लिए, पर कोई फायदा नहीं हुआ। हलकी-सी ऊँघ आती, पर फिर वही बेचैनी। आखिर वह पास की झाड़ी में जाकर नींद लाने की एक पत्‍ती निगल आया। उस पत्‍ती की सिफारिश उसके एक और गिरगिट दोस्‍त ने की थी। पत्‍ती खाने की देर थी कि उसका सिर भारी होने लगा। लगने लगा कि उसका शरीर जमीन के अन्‍दर धँसता जा रहा है। थोड़ी ही देर में उसे महसूस हुआ जैसे किसी ने उसे जिन्‍दा जमीन में गाड़ दिया हो। वह बहुत घबराया। यह उसने क्‍या किया कि दूसरे गिरगिट के कहने में आकर ख्‍याहमख्‍याह वह पत्‍ती खा ली। अब अगर वह जिन्‍दगी - भर जमीन के अन्‍दर ही दफन रहा तो? आगे की कहानी जानिए ऑडियो की मदद से...

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