मंगलवार, 5 जुलाई 2016

कविताएँ - - मनोज चौहान

पिता और शब्दकोश... कविता का अंश... जिल्द में लिपटा पिता का दिया शब्दकोश अब हो गया है पुराना ढल रही उसकी भी उम्र वैसे ही जैसे कि पिता के चेहरे पर भी नज़र आने लगी हैं झुर्रियां मगर डटे हैं मुस्तैदी से दोनों ही अपनी -अपनी जगह पर । अटक जाता हूँ कभी तो काम आता है आज भी वही शब्दकोश पलटता हूँ उसके पन्ने पाते ही स्पर्श उँगलियों के पोरों से महसूस करता हूँ कि साथ हैं पिता थामे हुए मेरी ऊँगली जीवन के मायनों को समझाते हुए राह दिखाते एक प्रकाशपुंज की तरह। जमाने की कुटिल चालों से कदम -कदम पर छले गए स्वाभिमानी पिता होते गए सख्त बाहर से वह छुपाते गए हमेशा ही भीतर की भावुकता को। ताकि मैं न बन जाऊ दब्बू और कमजोर और दृढ़ता के साथ कर सकूँ सामना जीवन की हर चुनौती का। इस अधूरी कविता और अन्य कविताओं का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...

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