गुरुवार, 21 जुलाई 2016

कहानी - सजनवा - 1 - डॉ. शरद ठाकर

डॉक्टर शरद ठाकर एक गायनेकोलॉजिस्ट होने के साथ-साथ कलम के धनी भी हैं। गुजरात के पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कलम चलती है और क्या खूब चलती है। उन्हें एक साहित्यकार एवं कहानीकार के रूप में घर-घर में पहचाना जाता है। विशेषकर महिलाओं के तो वे प्रिय लेखक हैंं। उनकी इस कहानी को पढ़ते हुए हमें बेहद खुशी हो रही है। आप भी इनकी लेखनी से परिचित होकर प्रसन्नता अनुभव करेंगे। ऐसा मेरा विश्वास है। कहानी का कुछ अंश.... ‘बापू, प्रणाम!’ पच्चीस वर्षीय हमीरसिंह ने पिता के चरणों में मस्तक झुकाया। साथ में घूँघट ओढ़े खड़ी नववधू का सिर भी आशीर्वाद की आशा में झुक गया। रूद्रप्रताप सिंह की आँखों में क्रोधाग्नि की तेज चिंगारियाँ भड़क उठी, ‘तो तूने मेरी अवहेलना करते हुए इसके साथ संबंध जोड़ ही लिया, है ना ?’ ‘यूँ ही संबंध नहीं जोड़ा है बापू! अग्नि को साक्षी मानते हुए आर्यसमाज विधि से मैंने हलक का हाथ थामा है।’ ‘तो अब चुपचाप वो थामा हुआ हाथ लेकर इस दहलीज से बाहर निकल जा। एक क्षण का भी विलंब किया, तो दोनों को धक्के मारकर बाहर निकाल दूँगा।’ ‘बापू!!’ ‘खबरदार, जो आज के बाद फिर कभी मुझे बापू कहकर पुकारा है तो! मुझे बापू कहकर बुलाने वाले दूसरे छह बेटे हैं मेरे घर में! और जाने से पहले एक-दो बातें कान खोलकर सुनता जा। आज से तेरा-मेरा रिश्ता हमेशा-हमेशा के लिए खत्म। मैं ये मान लूँगा कि मेरे सात बेटों में से एक बेटा मलेरिया से मर गया। मर्द हो तो जिंदगी में कभी अपना मुँह मत दिखाना। मेरी सारी जमीन-जायदाद, मकान, खेत-खलिहान, पैसा-जेवर सभी से तुझे बेदखल करता हूँ। जा, अपनी पत्नी को लेकर निकल जा यहाँ से।’ पिता के प्रति कितना भी आदर-सम्मान क्यों न हो, लेकिन आशीर्वचन के स्थान पर ऐसे कड़वे बोल सुनने के बाद कौन बेटा होगा, जो वहाँ एक क्षण भी खड़ा रहेगा? और उसमें भी क्षत्रिय जाति का पूत? घर छोडने में क्षण भर का भी विलंब हो, तो खून-खराबा होने में देर न लगे। अपमान का कड़वा घूँट गले से नीचे उतारते हुए हमीरसिंह और हलक रूद्रप्रताप सिंह जाडेजा के मकान से बाहर निकल गए। तीस वर्ष पहले घटित यह एक सत्य घटना है। रूद्रप्रताप सिंह राजकोट जिले के एक छोटे से गाँव के बड़े जमींदार थे। उनकी जमीन कई एकड़ में फैली हुई थी। छह बेटों का विवाह हो चुका था। छोटा हमीरसिंह कुँवारा था। वो उनका सबसे अधिक लाडला था। हमीरसिंह को लेकर रूद्रप्रताप सिंह ने अपेक्षाओं की बहुमंजिली इमारत बना रखी थी, लेकिन राजकोट पढ़ने के लिए गया हमीर एक दिन छुट्टियों में जब गाँव आया, तो पिता का दिल तोडऩे वाली बात कह गया। ‘बापू, मेरे लिए लड़की खोजने की मेहनत मत करना।’ ‘क्यों? तेरे लिए लड़की ये तेरा बाप नहीं खोजेगा, तो कौन खोजेगा?’ ‘मैं... मैं...’ हमीर हकलाने लगा, ‘लड़की मैंने खोज ली है। मेरे साथ ही पढ़ती है। सुंदर है, संस्कारी है, मुझे पसंद करती है, और मैं भी उसे...’ ‘जाति क्या है ?’ ‘ब्राह्मण है।’ ‘तो उसे चुटकी भर आटा दान देकर विदा कर दे।’ ‘बापू!!’ ‘आवाज नीचे कर, हमीर। इस संबंध में मुझे तुम्हारे साथ कोई बहस नहीं करनी है। क्षत्रिय के घर में क्षत्राणी ही शोभा बढ़ाती है। बस, इतना समझ ले कि बात यही खत्म हो गई।’ लेकिन हमीरसिंह समझा नहीं। पढ़ाई पूरी हुई। पी.डब्ल्यू.डी. में नौकरी मिल गई। दूसरे ही महीने उसने आर्यसमाज मंदिर में जाकर प्रेमिका के साथ फेरे ले लिए। पिता के स्वभाव से परिचित होने के बाद भी पत्नी की जिद के सामने विवश होकर वह गाँव आया। पिता के चरणों में माथा झुकाया और अपमानित होकर वापस लौट आया। आगे की कहानी ऑडियो की मदद से जानिए...

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