शुक्रवार, 1 अप्रैल 2016

कहानी - अपना घर

अपना घर होने का सपना कौन नहीं देखता। सभी की आँखों में ये सपना पलता है। चाहे वह अमीर हो या गरीब । उसके सपनों का महल हमेशा सुंदर से सुंदरतम ही होता है। प्रकाशबाबू की आँखों में भी ये सपना पल रहा था। इसे पूरा करने के लिए वे वर्षों से जी-तोड़ मेहनत कर रहे थे। उम्र के ढलते पड़ाव पर आकर भी उनका ये सपना नन्हे शिशु की तरह उनकी आँखों में मचल रहा था। उसे पूरा करने के लिए आर्थिक हालात साथ नहीं दे रहे थे, पर वे थे कि पूरजोर कोशिश कर रहे थे। ऐसे में उन्होंंने एक ऐसा निर्णय लिया, जो उन्हें अपने सपने के बिलकुल करीब ले गया। बल्कि वो सपना उनकी हथेली पर ही आ गिरा और साकार हो कर उनके सामने खड़ा हो गया। वे खुश थे। बहुत खुश। एक छोटे बच्चे जैसी खुशी उनकी आँखों में दिखाई दे रही थी। रात-दिन एक कर उन्होंने जो रूपए जोड़े थे, उसका उपयोग हो रहा था। उनका सपना सच हो रहा था। बस कुछ पैसों की कमी पूरी करने के लिए उन्होंने एक कठोर निर्णय ले लिया। आखिर क्या था वो निर्णय जिसने उन्हें सब कुछ देकर भी अंत में खाली हाथ रख दिया। उनकी सपने में डूबी आँखें पथरा गईं और वे उस सुख के साझेदार भी न बन सके, इसी सपने की सच्चाई जानने के लिए सुनिए ये भावपूर्ण कहानी, अपना घर...

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