सोमवार, 4 अप्रैल 2016
हारे नहीं हैं हम अभी - 2
हर माँ को अपनी बेटी प्यारी होती है। जन्म के साथ ही माँ की आँखों में बेटी की एक झलक देख कर ही हजारों सपने पलने लगते हैं। उसका मन सपनों के सागर में गोते लगाने लगता है। दुआओं के लिए हाथ उठते हैं और सजदे में सिर झुकता है।
उस माँ ने भी जब अपनी बेटी की एक झलक देखी, तो उसे देखती ही रह गई! रूई-सा कोमल, गुलाबी फाहा उसके हाथों पर ईश्वर के अनुपम वरदान के रूप में रखा हुआ था और वह अपलक उसकी सुंदरता निहार रही थी!! उसने ईश्वर को इस भेंट के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद दिया। उसकी तारीफ में माँ ने शब्दों के मोती खुल कर लुटाए। जो भी उसे अस्पताल में देखने आता, उसके सामने वह अपनी बेटी की सुंदरता की तारीफ करने में कोई कमी न रखती। सबसे यही कहती कि भगवान ने मेरे घर अप्सरा भेज दी है। कभी वह उसे इन्द्रलोक की अप्सरा कहती तो कभी परीलोक की सबसे सुंदर परी कहकर पुकारती। उस परी की तारीफ करने में, उसे दुलारने में, अपना प्यार उँड़ेलने में वह कोई कसर बाकी न रखती। उस नन्हीं बिटिया के बखान करते उसके होंठ न थकते। जीभ तो मानों चुप रहना ही भूल गई थी। रात-दिन, सुबह-शाम, परिचित या अपरिचित सभी के सामने बस वह अपनी बिटिया की सुंदरता की तारीफ करती और ईश्वर को लाख-लाख धन्यवाद देती। हिम-सी ठंडक देने वाले उस कलेजे के टुकड़े का नाम रखा गया-हेमा। जो कोई हेमा को देखता, बस देखता ही रह जाता। तारीफ के लिए शब्द कम पड़ते, लेकिन नजरें नहीं। उसे देखने के लिए लोगों का आना-जाना लगा ही रहता।
तारीफों का पुल वैसे भी बड़ा कमजोर होता है। उसे जल्द ही दुनिया की नजर लग जाती है और इस नन्हीं गुड़िया को तो अपनी माँ की ही नजर लग गई। मानों बंद मुट्ठी से सरसराते हुए रेत फिसल रही हो, यूँ तेजी से उस ममता की मूरत की जिंदगी से उसके अरमान फिसलने लगे। विधाता के द्वारा खिलाए गए इस कोमल गुलाब की सुंदरता दो महीने बाद ही फीकी पड़ गई। टायफाइड जैसे भयावह रोग ने इस मासूम को अपने शिकंजे में ले लिया।
माता-पिता के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी, इसलिए इलाज में कोई कसर बाकी नहीं रखी। पैसा पानी की तरह बहा... मगर अफसोस... जिंदगी बर्फ की तरह जम गई। हाँ, हेमा की जिंदगी एक बर्फ की तरह जमी हुई जिंदगी कही जा सकती है, क्योंकि टायफाइड उस मासूम के मस्तिष्क पर अपना गहरा असर डाल चुका था। आज के दौर की बात होती, तो पूरे विश्वास के साथ कह सकते हैं कि टायफाइड जैसा रोग चुटकी बजाते ही गायब हो सकता था, क्योंकि अब तो हम कैंसर, एड्स जैसे भयावह रोग से भी लड़ने का हौसला रखते हैं, लेकिन यह बात है 40 साल पहले की। जब किसी रोग का नाम ही अपने आप में भयावह होता था। इलाज की तो बात ही दूर थी। फिर भी माता-पिता ने पैसा और वक्त दोनों ही लुटा दिए। किस्मत को वक्त और पैसों का लुट जाना मंजूर था और इन दोनों के साथ-साथ हेमा की खुशियाँ भी लुट गईं। आगे क्या हुआ जानने के लिए सुनिए हेमा की कहानी... हिम सी ठंडक देती हेमा...
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दिव्य दृष्टि,
लेख
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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