शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

एक थे गाँधीजी

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एक थे गांधीजी
डॉ. महेश परिमल
गांधी यानी कौन? ऐसा सवाल आज भले ही कहीं नहीं पूछा जाए, पर ‘गांधी’ यानी कौन से गांधी? यह सवाल आजकल प्रासंगिक होता जा रहा है। गांधी यानी करेंसी नोट में जिनकी तस्वीर है, वो? या फिर उनकी समाधि पर फूल-मालाएं चढ़ाने की परंपरा, जिसमें विदेश से आए मेहमान का वहां जाना अनिवार्य है। गांधी यानी महात्मा मंदिर वाले गांधी? गांधी यानी ‘राष्ट्रवादी हिंदू’, इन्हीं पर ये आरोप है कि गांधीजी की हत्या के बाद इनके अनुयायियों द्वारा मिठाई बांटी गई थी। गांधी यानी मजबूरी नहीं, बल्कि दंभ का नाम। गांधी यानी देश-विदेश में उनकी प्रतिमा स्थापित करने की प्रथा। गांधी यानी उनके नाम पर चलने वाले राजनीति की कथित दुकानें और उनकी बेशुमार दौलत। गांधी यानी उनके चरित्र को हनन करने की प्रवृत्ति आज उनकी हत्या के 66 साल बाद भी लोगों को नशे की ‘किक’ देती है। गांधी यानी जिसे अंबेडकर ने अपना कट्‌टर विरोधी माना, वो। या फिर गांधी यानी वो, जिन्होंने दलित के मामले को मुख्य धारा में लाने के लिए तन-मन से प्रयास किया। या फिर उनके नाम से देश में चल रहा स्वच्छता अभियान?
आज गांधी को हर कोई अपनी तरह से परिभाषित करता है। अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करता है। कुछ माह पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गांधी जी को एक बार हाशिए पर लाकर सरदार वल्लभ भाई पटेल को सामने लाने का प्रयास किया था, पर बाद में उन्हें लगा कि इस देश में बिना गांधी को साथ लिए कोई भी बड़ा काम नहीं किया जा सकता, इसलिए उन्होंने सफाई के नाम पर उनका नाम जोड़ दिया, ताकि उसके सहारे देश को गांधी के सपनों का भारत बनाया जा सके। इस तरह से गांधी जी हम सबके बीच व्यावहारिक हो गए। वे हमारे बीच आकर अपनी बातें कहने लगे। सफाई के नाम पर आज देश में हर कोई उन्हें याद कर रहा है। इस तरह से यह संदेश गया कि गांधी जी को भूलकर इस देश में राजनीति हो ही नहीं सकती। जिस तरह से पाकिस्तान में कश्मीर के बिना राजनीति की ही नहीं जा सकती, ठीक उसी तरह भारत में जो गांधी को भूला, लोग उसे भूलने में देर नही करते हैं। गुजरात में उनके नाम पर भव्य महात्मा मंदिर बनाया गया। इस मंदिर को वे स्वयं देखते, तो शर्मिंदा हो जाते। इस भव्य मंदिर का काम विदेशियों को भारत में पूंजी निवेश के लिए लुभाने का ही है। यानी विदेशियों को लुभाना है, तो भी गांधी जी का सहारा।
आज हर कोई गांधी का उपयोग करने में लगा है। इसमें कोई माहिर है, तो कोई फिसड्‌डी। गांधी जी को सामने रखकर किस तरह से अपनी बात को लोगों तक पहुंचाई जाए, यही मुख्य मुद्दा है। गांधी जी के तमाम अनुयायी अपने-अपने क्षेत्रों में सफल सिद्ध हुए हैं। सभी ने उनका इस्तेमाल कर स्वयं को ही विकसित किया है। इसे वे प्रगति का नाम देते हैं। गांधी जी के सच्चे अनुयायी आज भी सुदूर गांवों में कुछ न कुछ ऐसा कर रहे हैं, जो उनके नाम को जीवित रखे हुए हैं। कई विदेशी भी इसमें शामिल हैं, जिन्हें यह विश्वास ही नहीं है कि इस देश में कभी कोई ऐसा व्यक्ति भी था, जो हाड़-मांस का एक लोथड़ा ही था। जिसमें गजब की ताकत थी। वह हिंसा का जवाब अहिंसा से देता था। उसके विरोध करने का तरीका एकदम ही अलग था। वह लोगों को शांति का पाठ पढ़ाता था। जिसकी वाणी में वह ताकत थी कि लोग अपना सब कुछ छोड़कर उनके साथ हो लेते थे।
आज की पीढ़ी गांधीजी को रिचर्ड एटनबरो के माध्यम से जानती है। वह ‘गांधी’ फिल्म देखकर उन्हें समझने की कोशिश करती है। उन्हें तो यह सुनकर अजूबा लगता है कि एक विदेशी ने गांधी को किस तरह से समझा और उन्हें फिल्म में उतारा। क्या हमारे देश में कोई भी ऐसा नहीं है, जो गांधी को सच्चे स्वरूप में हमारे सामने लाए? किताबों वाले गांधी जी में काफी विकृति अा गई है। गांधी जी के नाम पर सबसे अधिक पाप तो किताबों के माध्यम से ही हुआ है। गांधी पर लिखी किताब हमारे देश में विवादास्पद न हो, ऐसा संभव ही नहीं। गांधी की सही तस्वीर तो उनकी जीवनी ‘सत्य के प्रयोग’ में ही मिलती है। पर वह भी उनके जीवन को पूरी तरह से नहीं दर्शाती। जीवनी में 1920 तक के जीवन का ही जिक्र है, उसके बाद उनका जीवन सार्वजनिक हो गया। ऐसे में उन्हें पूरी तरह से समझना आज की पीढ़ी के बस की बात नहीं। इस देश में गांधी के नाम पर जितने तमाशे हुए हैं, उतने किसी के नाम पर नहीं हुए। जिसने भी उनके नाम पर तमाशा खड़ा किया, कुछ समय बाद वह और अधिक चर्चित हो गया। गांधी जी स्वयं गरीब रहे, गरीबों के रहनुमा रहे, उनके अनुयायी भी गरीब ही बने रहे, पर जिसने उनके नाम की दुकानें चलाई, वह देखते ही देखते अमीरों की श्रेणी में आ गया।
गांधी जी ने देश को बहुत कुछ दिया। पर गांधी के नाम पर देश ने बहुत कुछ खोया भी। आज देश में ईमानदारी का स्थान भ्रष्टाचार ने ले लिया है। देश में भ्रष्टाचारियों की लंबी फेहरिस्त है। कोई विभाग ऐसा नहीं है, जो भ्रष्ट न हो। न्याय आज रईसजादों की जेब में रहता है। यह तो कई न्यायाधीशों के भ्रष्ट होने से ही पता चल जाता है। आज सत्ता भी कुबेरपतियों के हाथों की कठपुतली बन गई है। सत्ता का मद ऐसा छाया है कि वह सत्तासीन के हाथों से अलग ही नहीं होती।
गांधी जी आज भले ही न हों, पर वे आज भी जीवित हैं, तो केवल सत्य में, सादे जीवन में, दु:ख में, विलाप में, सद्भावना में ही हैं। निराशामय जीवन में एक ज्योति के रूप में हैं। सुदूर गांवों में कहीं कोई वीतरागी यदि सत्कार्य करता है, तो वह गांधी जी के करीब है। कहीं कोई अत्याचार से पीड़ित है और उसमें प्रतिकार की क्षमता नहीं है, तो वह बहुत दूर है गांधी जी से। गांधी हमारे कोमल हृदय में हैं। हमारी सादगी में हैं। हमारी सांसों में रचे-बसे हैं, बस वे कदापि वहां नहीं हैं, जहां उनके होने का दावा किया जा रहा है।
‎ डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 24 जनवरी 2015

अच्छे दिनों की राह देखती पथराई आंखें

डॉ. महेश परिमल
पेट्रोल के नाम पर सरकार किस तरह से आम जनता को लूट रही है, इसका अंदाजा अब जाकर लगा है। एक बार फिर सरकार ने पेट्रोल पर उत्पाद शुल्क बढ़ा दिया है। अगर सरकार ऐसा नहीं करती, तो पेट्रोल हमें और 6 रुपए सस्ता मिलता। पर सरकार ने ऐसा नहीं किया। अभी वह अपना राजकोषीय संतुलन बनाने में लगी है। पेट्रोल के उत्पाद शुल्क में हाल ही में दो रुपए प्रति लीटर की वृिद्ध की गई है। दो महीने में यह तीसरी बार वृद्धि की गई है। इस पर सरकार के अपने तर्क हैं। पर आम जनता यह जानना चाहती है कि सरकार महंगाई कम करने का दावा तो करती है, पर आज भी महंगाई पर काबू नहीं पाया जा सका है। आमतौर पर ठंड में सब्जियों के दाम कम हो जाते हैं, पर इस बार कड़ाके की ठंड पड़ने के बाद भी सब्जियों के दामों में किसी प्रकार की कमी नही आई है। सरकार लगातार ऐसे निर्णय ले रही है, जिससे व्यापारियों को लाभ हो। जिस तेजी से कच्चे तेल की कीमतें गरी हैं, उसके एवज में पेट्रोल सस्ता नहीं हुआ है। जून के बाद क्रूड आयल की कीमतें आधी रह गई हैं, पर उस तेजी से पेट्रोल की कीमतें कम नहीं हुई है।
सरकार की तरफ से कहा गया है कि ढांचागत परियोजनाओं के लिए फंड जुटाने को पेट्रोल-डीजल पर उत्पाद शुल्क बढ़ाया जा रहा है। इस राशि का इस्तेमाल चालू वर्ष और अगले वित्त वर्ष के दौरान 15,000 किलोमीटर सड़क बनाने में किया जाएगा,मगर हकीकत यह है कि इस शुल्क वृद्धि से जनता को पेट्रोल-डीजल की कीमत में राहत नहीं मिल पाई है। अगर नवंबर, 2014 के बाद से देखे तो गैर ब्रांडेड पेट्रोल पर उत्पाद शुल्क दर 1.20 से बढ़कर 6.95 रुपए और डीजल पर 1.46 से बढ़कर 5.96 रुपए प्रति लीटर हो गई है। यानी पेट्रोल पर शुल्क 5.75 रुपए और डीजल पर 4.50 रुपए प्रति लीटर बढ़ाया जा चुका है। अगर उक्त शुल्क वृद्धि नहीं की जाती तो पेट्रोल और डीजल की कीमत इतनी ही कम हुई होती। दो माह के भीतर पेट्रोल-डीजल पर उत्पाद शुल्क में तीन बार वृद्धि से साफ है कि राजकोषीय घाटा काबू में रखना सरकार के लिए कितना चुनौतीपूर्ण हो गया है। ताजा आंकड़े बताते हैं कि पहले नौ माह में ही इस घाटे की राशि पूरे वित्त वर्ष के लगभग बराबर पहुंच चुकी है।
नया साल शुरू हो चुका है, अनुभवी कहते हैं कि केवल वर्ष बदलता है, पर हालात वही रहते हैं। हमें हमेशा नई चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। 2015 में भी आर्थिक तेजी, रोजगार के अवसर और आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई जारी रहेगी। न जाने कितनी ऐसी समस्याएं हैं, जिनके समाधान न होने पर लोग अब थक चुके हैं। आवश्यक जिंसों के दाम लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं। बिचौलियों की चांदी हो गई है। पेट्रोल-डीजल की कीमतों में कमी के बाद भी सरकार तेल कंपनियों के मुनाफ के बारे में ही सोच रही है। ऐसा जब पिछली सरकार करती थी, तो भाजपा के पास तेल की कीमत कम करने की कई योजनाएँ थी, पर अब जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमतें लगातार कम हो रही हैं, तो भी सरकार कीमतें कम कर लोगों को राहत नहीं देना चाहती।
माेदी सरकार ने वादा किया था कि अच्छे दिन आने वाले हैं। छह महीने बाद भी जब अच्छे दिन नहीं आए, तो यह सोचना पड़ रहा है कि क्या अच्छे दिन आएंगे? अब तो सबकी नजर सरकार के पहले बजट की ओर है। जिससे पता चलेगा कि अच्छे दिन आएंगे या नहीं? यह बजट दस साल बाद नए हाथों से आएगा। वेतनभोगी चाहते हैं कि उन्हें टैक्स में राहत मिले। गरीब अधिक से अधिक सुविधाएं बिना टैक्स के चाहते हैं। अमीरों की चाहत है कि बार-बार उनकी जेब पर कैंची न चलाई जाए। 2015 पर 2014 ने अपेक्षाओं का बहुत सारा बोझ लाद दिया है। मोदी सरकार ने वैश्विक संबंधों पर जितना जोर दिया है, उतना जोर यदि देश की समस्याओं पर नहीं दिया। देश का नेटवर्किंग मजबूत बनाने की जवाबदारी सरकार की है, परंतु मोदी सरकार का नेटवर्क शपथ के बाद ही ढीला दिखाई देने लगा है। लगता है यह पूरा वर्ष आर्थिक नीतियों के सुधार में ही चला जाएगा। कार्पाेरेट क्षेत्र भी इस वर्ष अपने मुनाफे के गणित में लग गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी निश्चित रूप से बिजनेस-फ्रेंडली हैं, पर अभी तक उन्होंने ऐसा कोई ठोस निर्णय नहीं लिया है, जिसे बिजनेस-फ्रेंडली कहा जाए। महंगाई कम करने के लिए इस देश में अभी तक किसी नेता ने जन्म ही नहीं लिया है, ऐसा कहा जा सकता है। जिस तरह से पिछली सरकार महंगाई पर लगाम नहीं कस पाई, ठीक उसी रास्ते पर नई सरकार भी जा रही है। महंगाई बढ़ती ही जा रही है। सरकार उत्पादन से बिक्री तक का ट्रेक ढूंढने में विफल रही है। यह पूरा ट्रेक महंगाई बढ़ाने के काम में आ रहा है। 20 रुपए की वस्तु आज बाजार में 60 रुपए की हो गई है। आखिर क्या वजह है कि ऐसा हो रहा है? सरकार इसका कारण भी नहीं खोज पा रही है।
सरकार नए उद्योगों को लाने के लिए प्रयासरत है। विदेशी पूंजी निवेश के लिए वह लाल जाजम बिछा रही है। नए उद्योगों को जमीन देनी होगी, इसके लिए कानून लाना होगा, यदि किसानों की जमीन ली जाती है, तो उसका उचित मुआवजा भी देना होगा। उद्याेग शुरू होंगे, तो रोजगार मिलेगा। राेजगार करने वालों का शोषण न हो, इसके लिए सख्त कानून बनाने के अलावा ईमानदार अधिकारियों का पूरा नया अमला भी तैयार करना होगा। यह प्रक्रिया काफी लंबी है, फिर भी यह कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री के सामने यह एक बड़ी चुनौती है। इसके अलावा कई ऐसी चुनौतियां भी हैं, जो बैठे-ठाले मिल गई हैं। जैसे धर्मांतरण, घर वापसी जैसे कार्यक्रम अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय आरएसएस के संगठन नहीं कर पाए, वे पेंडिंग काम मोदी सरकार के माध्यम से सहयोगी संगठन करवाना चाहते हैं। भू-अधिग्रहण अध्यादेश लाकर सरकार ने यह बता दिया कि उसकी दिलचस्पी उद्योगों में कितनी अधिक है।
सरकार के सामने अभी सस्ते मकान, संरक्षण, सुरक्षा और उत्पादन, औद्योगिक कारिडोर, ग्रामीण संरचना के लिए जमीन संपादन आदि सुलगती समस्याएं बन गई हैं। निजी प्रोजेक्ट्स के लिए जमीन संपादन पहले करना होगा, जमीन संपादन के लिए मुआवजा अब दोगुना किया गया है, वह निश्चित रूप से सराहनीय है, परंतु किसान इसकी क्या प्रतिक्रिया देते हैं, यह देखना बाकी है। इस तरह से देखा जाए, तो केवल सरकार के सामने ही नहीं, एक आम आदमी के सामने भी समस्याओं के अंबार हैं। पर इस सबसे अलग होकर इंसान खुशी के पलों को भी आखिर बटोर ही लेता है। साल कोई भी हो, उसके आगमन पर उसे खुशी ही होती है। हमेशा नए की खुशी मनाने वाला यह इंसान आखिर कब भीतर से खुशी मनाएगा?
  डॉ. महेश परिमल

  

शुक्रवार, 23 जनवरी 2015

वायब्रंट गुजरात से कई राज्यों की लार टपकी

डॉ. महेश परिमल
गुजरात की राजधानी में वायब्रंट समिट का सफल आयोजन हुआ। अन्य राज्यों की आंखें ही चौंधिया गई। इन राज्यों ने सपने में भी नहीं सोचा था कि विदेशियों को आमंत्रित कर उनसे राज्य में निवेश के लिए इस तरह से लुभाया जा सकता है। अब तो पश्चिम बंगाल, केरल और ओडिसा भी इस लाइन में देखे जा रहे हैं। वे अब अपनी तरफ से पूरा प्रयास कर रहे हैं कि किसी भी तरह से हमारे देश के अप्रवासी भारतीय आएं और अपनी पूंजी लगाएं। इसमें गुजरात सबसे आगे निकल गया है, इसमें कोई शक नहीं। पर कई राज्य अभी तक इस बात पर आश्वस्त नहीं हैं कि उन्हें उक्त राज्य में पूरा संरक्षण मिल पाएगा भी नहीं। इन राज्यों को अब कड़ी मेहनत करनी होगी। क्योंकि जब तक पूंजी निवेशकों में आश्वस्ति का भाव नहीं आएगा, तब तक वे एक पैसा भी निवेश नहीं करेंगे।
गुजरात वायब्रंट में करोड़ों रुपए का एमओयू हुआ। सबसे आश्चर्य की बात यह रही कि इस महाआयोजन की सफलता को देखकर कई राज्यों के मुंह में लार टपकने लगी है। अब इसका वायरस देश भर में फैलने लगा है। गुजरात में आयोजित इस महा आयोजन के पहले पश्चिम बंगाल में इस तरह का आयोजन हुआ था, जिसमें मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने लोगों को राज्य में निवेश के लिए गुहार लगाई थी। यह आयोजन गुजरात की तरह चमकीला नहीं था। पर इसमें ममता बनर्जी ने आमंत्रित लोगों से हाथ जोड़कर निवेदन किया कि वे पश्चिम बंगाल में पूंजी निवेश करें। कार्पोरेट सर्कल के सामने कहा कि मैं विश्वास दिलाती हंू कि यहां निवेश कर आप सभी को बहुत लाभ होगा। इस दौरान ममता जितनी मुलायम दिखाई दी, उससे यही लग रहा था कि ममता का लोगों के सामने हाथ जोड़ना ही बाकी रह गया था। इस समारोह में वित्त अरुण जेटली भी उपस्थित थे।
देश-विदेश के पूंजी निवेशक यह मानते हैं कि पश्चिम बंगाल में पंूजी लगाना खतरनाक है। ममता ने जिस तरह से टाटा-नैनो प्रोजेक्ट के खिलाफ खुली गंुडागर्दी दिखाई, उसे सबने देखा और समझा। लोगों ने देखा कि ममता की गुंडागर्दी की वजह से ही टाटा का नैनो प्रोजेेक्ट किस तरह से गुजरात पहुंच गया। गुजरात इसके लिए पहले से ही तैयार था। उसने उद्याेगों के लिए लाल जाजम बिछाकर रखा था। अपने राज्य से एक उद्योग को बाहर करने वाली ममता आज स्वयं उद्याेगों को अपने राज्य में लाने के लिए मशक्कत कर रहीं हैं। उस समय पश्चिम बंगाल उद्योगों की कीमत नहीं जानता था, आज उसे उद्योगों की आवश्यकता है। इसके बाद भी वह केंद्र से किसी प्रकार का तालमेल नहीं करना चाहती। किसी राज्य के विकास के लिए उद्योगों की कितनी आवश्यकता है, इसे गुजरात ने बता दिया। इसे अब सभी राज्य समझने लगे हैं। गुजरात वायब्रंट की तरह इस समय केरल में भी इसी तरह का आयोजन किया जा रहा है। वहां भी इन्वेस्टर समिट चल रहा है। ओडिसा में भी माहांत में इस तरह का आयोजन होने वाला है। उत्तर प्रदेश में भी इसकी तैयारियां चल रही हैं। कुछ दिनों पहले अखबारों में उत्तर प्रदेश सरकार ने जिस तरह से विज्ञापन दिए, उससे लगता है कि वह भी तैयार है, पूंजी निवेशकों को लुभाने के लिए।
आश्चर्य इस बात का है कि इसके पहले किसी राज्य के मुख्यमंत्री ने यह प्रयास नहीं किया कि उनके राज्य में भी वायब्रंट जैसा आयोेजन कर पूंजी निवेशकों को आमंत्रित किया जाए। पर गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी ने पहली बार विदेश में बसे भारतीयों को भारत में पूंजी निवेश के लिए प्रेेरित किया। इसे नाम दिया वायब्र्रंट गुजरात। 2003 में पहली बार जब यह समारोह आयोजित किया गया, तब केवल कुछ एनआरआई ही इसमें शामिल हुए। आज दस साल बाद वायब्रंट उद्योगों एवं कार्पोरेट गृहों के लिए स्वयंबर की तरह हो गया है। गुजरात सरकार ने इस आइडिए को इसलिए अमल में लाया था कि देश-विदेश के उद्योगपतियों से सीधा सम्पर्क कर और उन्हें उद्योग लगाने में होने वाली समस्याओं को समझा जा सके। उनके आइडिए को भी समझने की कोशिश की जाए। उस समय हालात यह थे कि यदि विदेश के उद्योगों को भारत में पूंजी निवेश करना होता था, तो पहले योजना आयोग से सम्पर्क करना पड़ता था। आयोग इस प्रपोजल को फाइल कर देती थी। क्योंकि उसके पास यह अधिकार नहीं था कि वह उक्त उद्योग को किसी राज्य में स्थापित करने की सिफारिश करे। इस तरह से निवेश के पहले ही उसकी भ्रूण हत्या हो जाती थी। गुजरात ने इन कंपनियों को जब आमंत्रित किया था, तब उन्हें जमीन, फाइनांस जैसी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने का वचन दिया था। सभी यह मानकर चल रहे थे कि ये वायब्रंट एक नाटक की तरह है। परंतु जब सबने इसका परिणाम देखा, तो दंग रह गए।
राज्यों में स्थिर सरकार के बिना कोई भी इस दिशा में पूंजी निवेश के लिए विचार तक नहीं करता। जब राज्यों में बेरोजगारी की समस्या मुंह फाड़कर खड़ी हो, तो सभी को उद्योगों और पूंजी निवेशकों की याद आने लगती है। अब सभी राज्य उद्योगों को सुविधाएं देने का वचन देने लगे हैं। सस्ती जमीन, सस्ता लोन, लंबे समय तक चलने वाली करों में राहत, प्रोजेक्ट को तुरंत स्वीकृति आदि की बात भी जोर-शोर से होने लगी है। अब सभी राज्य बिजनेस फ्रेंडली बनने लगे हैं। जब ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में टाटा-नैनो प्रोजेक्ट के खिलाफ आंदोलन की छेड़ दिया था, तब वे स्वयं भी विरोधी पार्टी की नेता थी, आज सत्ता पर काबिज हैं। आज उन्हें यह समझ में आ रहा है कि टाटा-नैनो प्रोजेक्ट का विरोध कर उन्होंने कितना गलत किया है। उसके कारण उसे कितना नुकसान उठाना पड़ा है। आज भारत के बड़े उद्योग गृहों टाटा, रिलायंस, एस्सार, टोरंट आदि गुजरात में अपने विशाल यूनिट खड़े किए हैं, उसके पीछे गुजरात सरकार द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं के अलावा वह वचन भी है, जो उसने दिए और उसे अमल में लाया। गुजरात सरकार का आइडिया गुजरात का गौरव बन गया है।
कितने राज्यों की नीयत में ही खोट है, क्योंकि पूंजी निवेशक उनकी मंशा समझ चुके हैं। पूंजी निवेशक उत्तर प्रदेश, ओडिसा जाने को तैयार ही नहीं हैं। देश का सबसे बड़ा पूंजी निवेश पॉस्को प्रोेजेक्ट ओडिसा में ही स्थापित होने वाला था। वहां उस प्रोजेक्ट के खिलाफ कई आंदोलन हुए, आखिरकार वह प्रोेजेक्ट कर्नाटक में स्थापित किया गया। ऐसे उद्योग विरोधी राज्यों के कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। भाजपा सरकार ने एनडीएफ के लिए लाल जाजम बिछा रही है, तब विदेश के उद्योग गृहों उद्योग लगाने के लिए सुरक्षित राज्यों की तलाश में हैं। केंद्र सरकार ऐसे प्रोजेक्टों का आतुरता से प्रतीक्षा कर रही है। ताकि बेराेजगारों को रोजगार मिल सके। रोजगार मिले, तो राज्यों का विकास होगा ही, यह विकास दिखाई भी देने लगेगा। हम जिसे सर्वांगीण विकास कहते हैं, वह नए पूंजी निवेशकों के आने से ही हो सकता है।
  डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 20 जनवरी 2015

युवराज जैसी स्थिति धोनी की भी होगी

डॉ. महेश परिमल
यह तो तय है कि जो ऊपर जाता है, उसे नीचे आना ही है। इस दुनिया में जो आया है, वह जाएगा ही। इसका अनुभव हम सबको हो ही चुका है। क्षेत्र चाहे राजनीति का हो या फिर खेल का। फिल्म का हो या फिर कला-संस्कृति का। सभी क्षेत्रों में कई हस्तियां ऊपर आई और अंधेरे में खोे गई। जब तक उनके हाथों में सत्ता होती है या कहा जाए कि अपनी प्रतिभा को साबित करने का अवसर मिलता है, तब तक उसकी तूती बोलती है। धीरे-धीरे लोग उन्हें भूलने लगते हैं। कई लोग इसे अपने जीते-जी देख भी लेते हैं। फिल्म के क्षेत्र में कभी दिलीप कुमार की तूती बोलती थी, फिर लोगों ने राजेश खन्ना को भी आसमान में देखा। अमिताभ बच्चन आज भी नई ऊर्जा के साथ दिखाई देते हैं। खेल के मैदान में कभी अजीत वाडेकर, सुनील गावस्कर, कपिल देव, साैरव गांगुली, सचिन तेंदुलकर, महेंद्र सिंह धोनी के बाद आज विराट कोहली की तूती बोल रही है। सभी के अच्छे दिन आते ही हैं, पर यह कितने समय तक टिके रहेंगे, कोई नहीं कह सकता।
वर्ल्ड कप के लिए भारतीय क्रिकेटरों की टीम घोषित कर दी गई है। युवराज को अनदेखा कर दिया गया। स्वयं को अनदेखा होने से पहले से ही युवराज ने इसे भांप लिया था। एक बार उन्होंने कहा था कि जब तक बल्ला चलता है, तब तक सब ठीक है, उसके बाद सबकी हालत खराब होनी ही है। इस तरह के हालात के लिए सभी को हमेशा तैयार रहना चाहिए। राजकोट में जब युवराज मैच खेलने आए थे, तब उन्हें शेयरिंग टैक्सी में बिठाया गया था। तब उन्हें लग गया था कि अब उनके बुरे दिन आने वाले हैं। उसके बारे में यह कहा जाता है कि यदि वह पिच पर जम जाए, तो प्रतिद्वंद्वी टीम को हारना होता है। 6 बॉल में 6 छक्के मारने वाले युवराज ने कैंसर से जीतकर धमाकेदार एंट्री ली थी। धीरे-धीरे उनका प्रदर्शन कमजोर होने लगा और वे हाशिए पर जाने लगे। राजकोट में भी केवले खिलाड़ियों ने ही नहीं, बल्कि आम जनता ने भी उन्हें अनदेखा किया था। यहां उसने अपने क्रिकेट के कैरियर के सूरज को अस्त होते देख लिया था। लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी, अपनी उपेक्षा के बाद भी राजकोट में वे 200 रन बनाने से चूक गए थे। उनकी धुआंधार बल्लेबाजी के सभी कायल थे। पर अपने बल्ले पर अटूट विश्वास रखने वाले युवराज ने अपने अच्छे दिनों में ही कह दिया था कि जब तक बल्ला चलेगा, लोग उसके सामने नतमस्तक होंगे, जिस दिन बल्ला नहीं चला, लोग पहचानना भी छोड़ देंगे। आज उनका वही हाल हुआ।
लोग कहते हैं कि जाे हश्र युवराज का हुआ है, वही धोनी के साथ भी होने वाला है। टेस्ट क्रिकेट को अलविदा कहने वाले धोनी के साथ विज्ञापनों के कई ब्रांड जुड़े हुए हैं। अब यह कहा जा रहा है कि धोनी की ब्रांड वेल्यू को झटका लगेगा। इन ब्रांड से करोड़ों रुपए कमाने वाली विज्ञापन एजेंसी धोनी के टेस्ट क्रिकेट से अलविदा कहने से इसका नकारात्मक प्रभाव अपने ब्रांड पर नहीं पड़ने देंगे। इससे धोनी की छवि और उसके साथ ब्रांड दोनों की स्थिति में बदलाव आएगा ही। छवि में कभी न कभी गिरावट आती ही है। इसका अनुभव हर क्षेत्र की ऊंचाई पर जाने वाले लोगों को हुआ है। राजनीति में चुनाव हारने वाले नेता हताशा में आ जाते हैं। उनके जीवन के सभी समीकरण उल्टे पड़ने लगते हैं। जिससे मिलने के लिए कभी लाइन लगती थी, उससे बात करना भी लोग अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। सत्ता के भोगी सत्ता के नहीं रहने पर स्वयं को अनाथ समझने लगते हैं। क्योंकि सत्ता का नशा बहुत ही मादक होता है। यह बहुत ही मुश्किल से छूटता है। सत्ता का चले जाना उन्हें जरा भी रास नहीं आता। इसलिए वे येन केन प्रकारेण वापस सत्ता में आना चाहते हैं।
यही हाल बॉलीवुड का है। जिसकी फिल्म हिट होती है, उसका बोलबाला हो जाता है। फिर बाद में उसे कोई पूछता नहीं। नायिकाओं के हाल तो और भी बुरे हैं। मायानगरी में नायिकाएं एक-दो फिल्मों के बाद फिंक जाती हैं। अपने अच्छे दिनों में वे दुकानों, ब्यूटी पार्लर आदि की दुकानों के उद्घाटन के लिए भी जाती हैं, पर बाद में उन्हें भी कोई नहीं पूछता।
हमारे देश के नेता मोटी चमड़ी के होते हैं। वे अपनी हार से सबक लेते हैं। पर आम आदमी का जीवन जीने वाला काेई अचानक ही प्रभावशाली बनकर बदनाम हो जाए, तो वह किसी को अपना मुंह भी बताने लायक नहीं रह जाता। को-ऑपरेटिव बैंकों के चेयरमेन जब बेशुमार दौलत बटोरने के आरोप में जेल जाते हैं, तब उनके साथ के कई निर्दोष डायरेक्टरों को भी जेल जाना पड़ता है। चेयरमेन पर तो खुला आरोप होता है, वे बिंदास होकर जेल में रह भी लेते हैं। पर निर्दोष डायरेक्टरों को जेल की यातना सहनी होती है। जब वे जेल से छूट जाते हैं, तो चेयरमेन की पूछ-परख होती है, पर निर्दोष डायरेक्टरों की हालत बहुत ही खराब हो जाती है। सहारा के सुब्रतो राय हों या फिर विजय माल्या जैसे लोग करोड़ों रुपए का खाकर भी उन पर उसका कोई असर नहीं होता। पुलिस विभाग में भी महकमे के उच्च अधिकारियों की जी-हुजूरी करने वाले भी समय की राह देखते रहते हैं। जब वे ही अधिकारी सेवानिवृत्त हो जाते हैं, तो उनका फोन उठाना भी मुनासिब नहीं समझते। ऐसा उन व्यक्तियों के साथ होता है, जो अपने अधिकारों पर गर्व करते हैं, पर कर्तव्य के नाम पर शून्य होते हैं।
सबसे खराब स्थिति तो नेताओं की ही होती है। जब वे सत्ता में होते हैं, तो पुलिस वाले भी उनकी बहुत इज्जत करते हैं। पर जब वे सत्ता में नहीं होते, तो कोई पुलिस वाला उन्हें देखना भी पसंद नहीं करता। मध्यप्रदेश के पूर्व शिक्षा मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा एक समय अपने मातहतों से घिरे रहते थे, आज वे जेल में हैं, जब कभी अदालत आते हैं, तो वह तामझाम कहीं नहीं दिखता। न लाल बत्ती, न सलाम ठोंकने वाले पुलिसकर्मी और न ही उनके कथित समर्थक। सभी गुम हो जाते हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जैसा युवराज के साथ हुआ, ठीक वैसा ही पश्चिम बंगाल में सौरव गांगुली के साथ भी हुआ। हमारे यहां क्रिकेट का क्रेज है, इसलिए उसके खिलाड़ियों के नाम सामने आते रहते हैं। बाकी तो अन्य खेल जैसे बॉक्सिंग, कबड्‌डी, हॉकी के खिलाड़ियों को स्वयं आगे आकर सम्मान माँगना पड़ रहा है। युवराज ही नहीं धोनी हो या फिर विराट कोहली, जिनका बल्ला चलता रहेगा, उनकी तूती बोलेगी। जिस दिन बल्ले से कहना नहीं माना, तो समझो, अच्छे दिन विदा होने वाले हैं। अपने अच्छे दिनों में सचिन ने भी लोगों की जहालत झेली है। हममें से किसी को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि दुनिया चढ़ते सूरज को सलाम करती है।
 डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 16 जनवरी 2015

आतंक की यह पतंग कटनी ही चाहिए





                               दैनिक हरिभूमि के संपादकीय पेज पर आज प्रकाशित मेरा आलेख


आतंक की यह पतंग कटनी ही चाहिए
डॉ. महेश परिमल
पेशावर की आर्मी स्कूल फिर से शुरू हो गई है। यह इस बात का सुबूत है कि आतंक के खिलाफ अब बच्चों में भी जोश है। कहते हैं कि बच्चों मंे खुदा होता है और आतंकियों ने खुदा को ही मार डाला। 16 दिसम्बर को जब यह घटना हुई थी, तब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने कहा था कि अब आतंक के खिलाफ पाकिस्तान पूरी ताकत से लड़ेगा। वास्तविकता यह है कि पाकिस्तान ने अभी तक इस दिशा में केवल 10 आतंकियों को फांसी दी है और आर्मी स्कूल की दीवार को कुछ ऊंचा किया है। इस समय पतंग का माहौल है, हर कोई यही पूछ रहा है कि पिछले कुछ समय से पेशावर, पोरबंदर और पेरिस में आतंक का जो रूप दिखाई दिया, तो इस तरह के आतंकवाद की पतंग को आखिर कौन काटेगा? पेरिस में आतंंक के खिलाफ एक साथ दस लाख लोग सड़कों पर उतर आए। ऐसा नजारा हमारे देश में कभी देखने में नहीं आया। न मुम्बई धमाके के समय, न ही संसद पर हमले के समय। हर बार यदि कुछ होने को होता है, तो राजनीति ही आड़े आ जाती है। हम भारतीय कभी किसी घटना को राजनीति से ऊपर उठकर देखने की आदत कब डालेंगे?
इस समय पूरे विश्व में आतंकवाद की पतंग खुलकर उड़ रही है। अब तो वह कभी भी किसी भी देश में घुसकर मौत का नंगा नाच भी करने लगी है। सभी चाहते हैं कि आतंकवाद का सफाया हो, पर बयानबाजी से आगे बात बढ़ ही नहीं पाती। पाकिस्तान हमेशा अड़ंगा लगाता ही आया है। वास्तव में वह भारत से शांति चाहता ही नहीं है। वह आतंकवाद को पनाह देने में विश्वास रखता है। यदि वह सचमुच आतंकवाद के खिलाफ होता, तो दाऊद को वह कब का भारत को सौंप चुका होता। उसके भीतर वैमनस्य की भावना कूट-कूटकर भरी हुई है। इससे वह कभी अलग हो ही नहीं सकता।
पेशावर, पोरबंदर और पेरिस की ये तीन घटनाएँ मानव संहार से जुड़ी हुई हैं। इन घटनाओं के पीछे यही उद्देश्य है कि कोई अपना ध्यान सबसे हटाकर अपनी ओर करना चाहता है। पोरबंदर में जिस बोट से कुछ आतंकी आ रहे थे, समय रहते भारत को जानकारी मिल गई, इसलिए बोट में सवार सभी लोगों ने बोट पर आग लगा दी और अपने जीवन की आहुति दे दी। पेशावर की घटना तो दिल दहला देने वाली थी। इसमें आतंकियों ने 140 मासूमों को गोलियांे से उड़ा दिया। यह घटना निंदनीय है। शाला की शिक्षिका को सबके सामने जलाकर मार डालना कहां की मर्दानगी है? इस तरह के दृश्य देखकर कई मासूमों की बोलती ही बंद हो गई। इसके पहले मासूमों ने आतंक और आतंकवादियों की बातें सुनी थी, पर जो मंजर उन्होंने अपनी आंखों के सामने देखा, तो उन बच्चोें की बोलती ही बंद हो गई। पेशावर की वह शाला अब फिर से खुल गई है। कई पालकों ने अपने बच्चों को इस बार भी स्कूल नहीं भेजा था, क्योंकि वे डर गए हैं। पेरिस की घटना ने तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर जो हमला बोला है, उसकी निंदा पूरे विश्व में हो रही है। यह आतंकियों का समृद्ध समाज पर सीधा हमला था। पेरिस में उदारमना लोग रहते हैं। इसलिए अब वहां की सुरक्षा एजेंसियों ने अपनी नीति में बदलाव किया है। पेशावर, पोरबंदर और पेरिस इन तीनों घटनाओं में नरसंहार की योजना थी।
यह देश का दुर्भाग्य है कि पोरबंदर की घटना के मामले में राजनैतिक दलों ने अपनी रोटियां सेंकनी शुरू कर दिया। जिस तरह से अन्य दलों के बयान आए, उससे आतंकवाद को प्रोत्साहन ही दिया गया। दूसरी तरफ पेरिस की घटना को लेकर लाखों लोग एक स्थान पर आकर विरोध प्रकट करने लगे। हमारे देश में इसके पहले भी कई बार आतंकी हमले हुए, पर एक बार भी इसका विरोध करने के लिए आम जनता लाखों की संख्या में एक स्थान पर जमा नहीं हुई। इससे कहा जा सकता है कि हमारे देश में जागृति का अभाव है। सरकार आतंकवाद को कुचलने के लिए कोई भी कदम उठाती है, तो विरोधी दल यह आरोप लगाता है कि यह अल्पसंख्यकों की स्वतंत्रता पर हमला है। सरकार चाहे तो आतंकवाद के खिलाफ सीधे न सही,पर छद्म रूप से लड़ाई लड़ सकती है। सरकार के कुछ सख्त कदम ही आतंकवादियों की हालत खराब कर सकते हैं। आतंकवादी जब चाहे तब एयरपोर्ट उड़ाने, विमान उड़ा देने, नेताओं की हत्या करने आदि तरह की धमकियां देते रहते हैं।
इस तरह की आतंकवादी घटनाएं कई बार सुरक्षा की पोल खोलकर रख देती हैं। पेशावर की आर्मी स्कूल में आतंकी बिना किसी रोक-टोक के घुस गए। पोरबंदर की बोट भी भारतीय सीमा में घुस गई थी। पेरिस में तो आतंकियों का लक्ष्य ही था, अखबार वालों की हत्या करना। पेरिस ने इस घटना से सबक लिया। भारत की समुद्री शक्ति भी अब चौकस हो गई है। पर पाकिस्तान ने कोई सबक सीखा, ऐसा लगता नहीं। स्कूल पर हमले के एक महीने बाद भी पाकिस्तान अब तक केवल दस आतंकियों को ही फांसी दे पाया है। वास्तव में देखा जाए, तो पेशावर, पोरबंदर और पेरिस की घटनाओं में आतंकवाद की पतंग हवा में है। हम सभी चाहते हैं कि यह पतंग कट जाए, पर इसके लिए कोई तैयार ही नहीं हो रहा है। शायद आतंकवाद की पतंग को काटने वाली कोई डोर तैयार ही नहीं हुई है। उस डोर पर हम सभी को अपने गुस्से का मांजा लगाना होगा। तभी वह धारदार होगा। यह काम सामूहिक प्रयास से ही होगा। पर सवाल यही है कि करे कौन?
‎ डॉ. महेश परिमल
 

गुरुवार, 15 जनवरी 2015

पतंग का अनुशासन



बुधवार, 14 जनवरी 2015

जीने का सलीका सिखाती पतंग

#http://epaper.jagran.com/epaper/14-jan-2015-262-National-Page-1.html#
आज जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में प्रकाशित मेरा आलेख

शनिवार, 10 जनवरी 2015

लोकोत्तर में लगातार तीन दिनों तक प्रकाशित मेरे आलेख



भोपाल से प्रकाशित दैनिक लोकोत्तर में प्रकाशित मेरे आलेख

शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

शब्दों की मोहक दुनिया

डॉ. महेश परिमल
शब्दों का सौंदर्य अद्भुत होता है। जब भी हमारे सामने कुछ शब्द विशेष सामने आते हैं, तो हम उस पर एक तरह से फिदा ही हो जाते हैं। मुँह से अनायास ही निकल जाता है कि वाह क्या शब्द है। शब्द और भाषा का अपना विशिष्ट शास्त्र है। शब्द समय के साथ बनते रते हैं, साथ ही इतिहास के गर्त में गुम भी होते रहते हैं। एक ओर जहां अंगरेजी के एक-एक शब्द पर शोध होते रहते हैं, वही दूसरी ओर अन्य भाषाओं के लिए यह जुनून नजर नहीं आता। हाल ही में आक्सफोर्ड वर्ड ऑफ द ईयर के रूप में ‘सेल्फी’ शब्द का चयन किया गया है। इस शब्द का आशय है कि  मोबाइल या कैमरे से अपनी ही तस्वीर लेकर उसे फेसबुक या अन्य किसी विशेष मीडिया साइट पर अपलोड करना। हर वर्ष वर्ल्ड ऑफ इयर की स्पर्धा में नए-नए शब्दों का समावेश किया जाता है। जिस शब्द का चयन होता है, उसे शब्दकोश में स्थान मिलता है। यह सब देखकर और जानकर ऐसा लगता है कि इस तरह के कार्य यदि हमारी भाषा में हो, तो कितना अच्छा हो।
शब्द जीवंत हैं, क्योंकि इसे हम बोलते, लिखते और पढ़ते रहते हैं। हर शब्द अपने आप में एक मुहावरा होता है। हर शब्द की अपनी पहचान होती है। हर शब्द अपने आप में इतिहास को संजोया हुआ होता है। शब्द में इतिहास ही नहीं, बल्कि वर्तमान के दर्शन होते हैं। आश्चर्य यह है कि शब्द का भूगोल भी होता है, क्योंकि कुछ शब्द केवल कुछ ही देश अथवा राज्य में ही प्रयुक्त होते हैं। नए शब्दों का जन्म होता रहता है। हमेशा नए-नए शब्द अस्तित्व में आते रहते हैं। यह भी सच है कि शब्दों की मौत भी होती है। काल के शब्द रसातल में चले जाते हैं और लुप्त हो जाते हैं। कितने ही शब्द निजी होते हैं। अक्सर प्रेयसी अपने प्रियतम को एक विशेष नाम से पुकारती है। प्रेमी भी ऐसा ही करते हैं। पति और पत्नी के बीच भी वार्तालाप में कुछ शब्द ऐसे होते हैं, जिसका अर्थ वह नहीं होता, जिसका अर्थ साधारणतया वही होता है। ऐसे शब्द या नाम लीविंग सर्टिफिकेट या पासपोर्ट में नहीं होते। केवल दिल में ही होते हैं। कुछ शब्द इतने निजी होते हैं कि किसी व्यक्ति विशेष की उपस्थिति में ही बोले जाते हैं। महामहिम शब्द राष्ट्रपति या राज्यपाल के लिए ही प्रयुक्त होता है। मी लार्ड योर ऑनर आदि शब्द केवल अदालत में न्यायमूर्ति के लिए प्रयुक्त होते हैं। शब्द घिसते हैं, पिटते हैं और नए शब्दों की रचना के लिए मार्ग दिखाते हैं। देखते ही देखते लाइब्रेरी कब रायबरेली हो गया, हमें पता नहीं चला। रेफ्रिजेरेटर, फ्रिज और टेलीविजन टीवी हो गया, हमें पता ही नहीं चला।
भाषाशास्त्री शब्दों और वाक्यों पर घात लगाकर बैठे होते हैं। वे उस शब्द की व्युत्पत्ति से लेकर उसके विसर्जन तक का हिसाब रखते हैं। कहा जाता हे कि चार कोस पर पानी बदले और चार कोस पर बानी। हिंदी को ही ले लीजिए, वही हिंदी उत्तर प्रदेश में कुछ और तरीके से बोली जाती है, और मध्यप्रदेश में कुछ और तरीके से। पंजाब की हिंदी और बंगला की हिंदी में जमीन आसमान का अंतर है। इसी तरह छत्तीसगढ़ी रायपुर, बिलासपुर, राजनांदगांव आदि में विभिन्न स्वरूपों में मिलती है। इस वर्ष ऑक्सफोर्ड ऑफ द ईयर 2013 में ‘सेल्फी’ का समावेश किया गया है। यह शब्द पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष 17 हजार बार अधिक प्रयुक्त हुआ है। शब्दों पर शोध ऐसे ही नहीं होता। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी उसके लिए रिसर्च प्रोग्राम बनाती है। ‘सेल्फी’  इंटरनेट पर सबसे अधिक प्रयुक्त हाने वाले शब्दों में से है। आक्सफोर्ड डिक्शनरी के संपादक जुडी पियरसल का कहना है कि सामाजिक, राजनैतिक और तकनीक बदलाव से शब्द भी आकार प्राप्त करते हैं। शब्द जुड़ते हैं, बिखरते हैं, नए बनते हैं और पुराने लुप्त हो जाते हैं। यह सब लोगों द्वारा ही होता है। माँ के स्थान पर मम्मी, मॉम या मम्मा शब्द आ गए, आपको पता चला? पिताश्री या पापा का स्थान पर पप्पा ने ले लिया। अब पप्पा का स्थान डेड ले रहा है। हमें पता ही नहीं चलता कि भाषा बदल रही है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने एक शब्द दिया है-अफरा-तफरी, यह शब्द इतना अधिक प्रचलित हो गया है कि हर कोई आपाधापी के लिए इसी शब्द का प्रयोग कर रहा है। जिम को आज जिम के रूप में ही कहा जाता है, किसी को व्यायामशाला या कसरत स्थल कहते कभी सुना है आपने? क्रीडांगन अब ग्राउंड बन गया है।
अब फिर आते हैं शब्द ‘सेल्फी’  पर। आज की पीढ़ी शायद ही इस शब्द से अपरिचित हो। सभी ऐसा ही करने लगे हैं। अपनी ही तस्वीर अपने मोबाइल या कैमरे से खींचते हैं, फिर उसे सोशल साइट्स पर अपलोड कर देते हैं। इस कार्य से अब सेलिब्रिटिश भी बच नहीं पाए हैं। 2002 में सबसे पहले ऑस्ट्रेलियन फोरम में ‘सेल्फी’ शब्द का प्रयोग किया गया था। 2004 में क्लिकर्स वेबसाइट पर हैगटैग के लिए ‘सेल्फी’ का प्रयोग किया गया। फिर 2012 तक फिर इसका उपयोग अधिक नहीं हो पाया। 2012 में सोशल मीडिया पर सेल्फ पोर्टेट फोटोग्राफ्स का शार्टकट रूप ‘सेल्फी’ शब्द उपयोग में लाया गया। उसके बाद तो इसका बेपनाह प्रयोग होने लगा। सोशल मीडिया पर क्रिश्चियन धर्मगुरु  पोप के साथ यंगस्टर्स की एक तस्वीर खूब शेयर की गई। इस तस्वीर ने ‘सेल्फी’ शब्द के प्रयोग में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस समय ‘सेल्फी’  के अलावा दो अन्य शब्द स्पर्धा में थे। इसमें से एक शब्द है ‘ट्वर्क’ और दूसरा है‘बिंगवाय’। यह शब्द ट्वर्क माइली सायरस के सेक्सी डांस के एक स्टेप का नाम है। बिंगवाय यानी अधिक समय तक टीवी देखना। इन दोनों शब्दों के साथ लड़ाई में ‘सेल्फी’  जीत गया। इस शब्द का समावेश अभी ऑक्सफोर्ड की ऑनलाइन डिक्शनरी में दिखाई नहीं दे रहा है, शायद कुछ समय बाद दिखाई देने लगे। 
पिछले साल का विजेता शब्द था ओम्नीशैबल्स
वष 2012 में ऑक्सफोर्ड ऑफ द ईयर के रूप में जिस शब्द का चयन किया गया वह शब्द था ओम्नीशैबल्स। इस शब्द का अर्थ होता है ऐसी स्थिति, जिसमें कुछ भी सच्चई नहीं, शुरू से आखिर तक गड़बड़झाला। ए सिचुएशन विचइज सेम्बोलिक फ्राम एवरी पॉसिबल ऐंगल मिन्स ओम्नीशैबल्स। यह शब्द सबसे पहले 2009 में बीबीसी के पॉलिटिक्स सटायर के कार्यक्रम ‘द थिंक ऑफ इट’ में प्रयुक्त किया गया था। उसके बाद तो यह शब्द बोलचाल की भाषा में ही शामिल हो गया। ब्रिटिश पार्लियामेंट में विपक्ष के नेता एड मिलिबेड ने संसद की कार्यवाही के दौरान ओम्नीशैबल्स शब्द का इस्तेमाल किया था। इसे संसद के मिनिट्स में भी शामिल कर लिया गया। इसके बाद तो सरकार पर आरोप लगाने और उसकी बुराई करने के लिए यह शब्द खूब लोकप्रिय हुआ। इतना ही नहीं, इस शब्द को जोड़कर नए शब्द भी बनने लगे।  रोम की प्रेसिडेंट के चुनाव अमेरिका के मिट रोम प्रत्याशी थे, इस दौरान वे लंदन गए, तब उन्होंने आम सभाओं में कई तरह के शब्दों का इस्तेमाल किया, इन सभी को रोम्नीशैवल्स के रूप में आज भी जाना जाता है। 2012 में कई अन्य शब्द भी स्पर्धा में थे। इसमें यूरोगेडॉन, ममीपोर्न, ग्रीन ऑन ब्ल्यू, गेम्समेकर, सेकंड स्क्रिनिंग आदि शामिल हैं। यूरोजोन को यूरोगेडोन कहा जाता है। यह शब्द 50 शेड्स नाम किताब से लिया गया। लंदन ओलिम्पिक वालेंटियर के रूप में काम करने वाले लड़कों-लड़कियों के लिए गेम्स मेकर जैसा शब्द काम में लाया गया। सेकंड स्क्रिनिंग शब्द का मतलब होता है टीवी देखते-देखते मोबाइल या टेबलेट का इस्तेमाल करना।
अंगरेजी के अन्य शब्दों की रोचक बातें
फेसबुक और दूसरे अन्य मीडिया साइट्स से किसी को हटा दिया जाता है, तो उसे हमें कहते हैं कि मैंने आपको अनफ्रेंड कर दिया। यह अनफ्रेंड शब्द भी बहुत पुराना नहीं है। 2009 में ऑक्सफोर्ड वर्ल्ड ऑफ द ईयर के रूप में इस शब्द का चयन किया गया था। उस समय डिक्शनरी में साइंटिस्ट क्रिस्टन लिंडबर्ग ने कहा था कि शब्द की दृष्टि से अनफ्रेंड शब्द धारदार है। हाल में हलो शब्द पर जो शोध सामने आया है, वह भी बहुत ही मजेदार है। हलो ग्राहम बेल की गर्लफेंड का नाम था, जब उन्होंने टेलिफोन का अविष्कार किया, तो सबसे पहले इसी शब्द का इस्तेमाल किया। आज यह शब्द सबसे अधिक बोला जाता है। हलो के बाद सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द है ओ के। इस शब्द के बारे में यह कहा जाता है कि अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति एण्ड्रुज जेक्शन आल करेक्ट शब्द को संक्षिप्त रूप में ओके कहते। तभी से इस शब्द का प्रचलन शुरू हुआ। इस शब्द को लेकर अन्य कई कहानियां भी प्रचलित हैं। कहते है कि अमेरिका के रेल्वे स्टेशन में काम करने वाला एक क्लर्क ओबडिया केली सभी पार्सल की जांच के बाद अपने ही नाम का संक्षिप्त रूप ओके लिख देता था। इससे यह शब्द काफी प्रचलित हुआ। कई लोग इस शब्द को रेड इंडियन की देन मानते हैं।
इस तरह से देखा जाए, तो शब्दों की अपनी अलग ही दुनिया है, जहां वे प्रचलित होकर घिसते-पीसते हुए रसातल में समा भी जाते हैं। कुछ शब्द अमर हो जाते हैं। इसके पीछे किसी व्यक्ति विशेष का आग्रह भी हो सकता है। कुछ लोगों के तकिया कलाम भी नए शब्दों को जन्म देते हैं। पर सच तो यह है कि जहां शब्द हमें बेधकर रख देते हैं, वहीं यह राहत पहुंचाने वाले भी होते हैं। हर शब्द अपने आप में एक मुहावरा है। एक शब्द से युद्ध और शांति का सबक मिल सकता है। इसलिए इसका उपयोग सावधानीपूर्वक किया जाए, तो ही बेहतर।
डॉ. महेश परिमल 

गुरुवार, 8 जनवरी 2015

‘पी.के.’ का विरोध करने के पहले यह भी सोचें

डॉ. महेश परिमल
रिलीज होने के एक सप्ताह बाद आमिर खान की फिल्म ‘पी.के.’ का विरोध शुरू हो गया है। तब तक इस फिल्म ने कमाई का रिकॉर्ड स्थापित कर लिया है। फिल्म के विरोधी यही कह रहे हैं कि इससे हिंदू धर्म की भावनाओं को ठेस पहुंचती है। फिल्म में धर्म के नाम पर चलते ढकोसलों पर कटाक्ष किया गया है। विशेषकर हिंदू धर्म को लेकर। वैसे देंखा जाए, तो फिल्म ‘ओह माय गॉड’ में जो कुछ संवादों के माध्यम से कहा गया है, वही सब कुछ ‘पी.के.’ में दृश्यों के माध्यम से कहा गया है। ओह माय गॉड का विरोध इसलिए अधिक नहीं हुआ,क्योंकि उसमें जो कुछ कहा गया है, वह सब प्रमाण के साथ कहा गया है। ‘पी.के.’ का विरोध तभी शुरू हुआ, जब स्वामी स्वरूपानंद ने यह बयान दिया कि इस फिल्म से हिंदू धर्म की भावनाएं आहत हुई हैं।
जैसे-जैसे फिल्म पी के का विरोध बढ़ता जा रहा है, वैसे-वैसे उसकी कमाई भी तेजी से बढ़ती जा रही है। वैसे देखा जाए, तो इसका विरोध वही लोग कर रहे हैं, जिनका फिल्म के विवादास्पद दृश्यों से कोई वास्ता ही नहीं है, वे तो केवल विरोध के नाम पर ही विरोध कर रहे हैं। सवाल यह उठता है कि वाकई में क्या ‘पी.के.’ हिंदू विरोधी है? धर्म का मामला बहुत ही नाजुक और संवेदनशील होता है। धर्म पर आधारित कोई नाटक खेलना हो, या फिर फिल्म बनाना हो, तो धर्म का पालन करने वाले करोड़ों लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचती है। नाटककार या फिल्मकार को इसका ध्यान रखना पड़ता है। राजकुमार हीरानी की फिल्म ‘पी.के.’ को लेकर इन दिनों कुछ वैसा ही माहौल है। हिंदू संगठन इस फिल्म का विरोध करते हुए फिल्म पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे हैं। फेसबुक और ट्वीटर पर ‘बायकाट ‘पी.के.’ नाम से अभियान भी चलाया जा रहा है। फिर भी लाखों लोग इस फिल्म को देख रहे हैं। फिल्म को काफी सराहना भी मिल रही है। फिल्म का विरोध करने वाले से अधिक इसको पसंद करने वाले हैं। जो कुछ नहीं कह रहे हैं। समझ में नहीं आता है कि फिल्म में जो ढकोसले दिखाए गए हैं, उस पर कोई संगठन किसी तरह की कोई टिप्पणी नहीं कर रहा है। कुछ लोग आमिर खान को इसलिए दोषी बता रहे हैं, क्योंकि एक कलाकार होने के नाते उन्होंने इस्लाम की हंसी नहीं उड़ाई है।
‘पी.के.’ में केवल हिंदू धर्म की ही हंसी उड़ाई गई है, ऐसा नहीं है, बल्कि मिशनरियों द्वारा धन के लालच में लोगों के धर्म परिवर्तन करने की बात को भी जोर-शोर से उठाया गया है। परंतु जब मुस्लिमों के मस्जिद में जाने की बात होती है, तो आमिर खान को उसके दरवाजे से ही भगा दिया जाता है। इसी तरह जब रेल्वे स्टेशन पर बम धमाका होता है, तो इसका भी खुलासा नहीं किया गया है कि बम धमाके लिए कौन जिम्मेदार है? धमाका करने वाले किस धर्म को मानते हैं, या फिर किस धर्म के लोग इस धमाके में मारे गए। इसके बाद भी इस फिल्म को इतने अधिक लोग क्यों देख रहे हैं कि वह कमाई का रिकॉर्ड स्थापित करने लगे? इसका सीधा-सा यही कारण है कि फिल्म में दुनिया के लगभग सभी धर्मों में चलने वाले ढकोसलों का पर्दाफाश किया गया है। यह हम सब कदम-कदम पर देख-समझ रहे हैं। पर विरोध नहीं कर पा रह हैं। हम इसका भी विरोध नहीं कर पा रहे हैं कि धार्मिक स्थलों में होने वाले शोर क्यों होता है? धार्मिकता के नाम पर बाबाआंें को इतनी अधिक जमीन कैसे मिल जाती है कि वे अपना गोरखधंधा चला लेते हैं। आसाराम, सतपाल बाबा का असली चेहरा हम सबने देख लिया है, उसके बाद भी इन्हें सर-आंखों पर बिठाने वाले आज भी हमारे बीच हैं। आखिर इन बाबाओं को शह कहां से मिलती है? कौन हैं इनके संरक्षक? बिना मजबूत संरक्षण के ये इतने बड़े पैमाने पर गोरखधंधा नहीं कर सकते? यह काम तो जनता का है, जनता ही ऐसे बाबाओं की पोेल खोल सकती है। लेकिन जनता को जगाने वाली फिल्म का विरोध हो रहा है।
सबसे बड़ी बात यह है कि क्या हिंदू धर्म की बुनियाद इतनी अधिक कमजोर है कि एक फिल्म से ही कमजोर होने लगी है। हजारों वर्षों से हिंदू धर्म अनवरत चला आ रहा है। इससे बड़ी-बड़ी ताकतों ने इसे नेस्तनाबूद करने की कोशिश की, पर आज तक इसका बाल भी बांका नहीं हुआ। तो फिर क्या एक फिल्म मात्र से हिंदू धर्म संकट में आ जाएगा? इतना तो कमजोर कतई नहीं है हिंदू धर्म। यदि हमें यह कहीं कमजोर नजर भी आता है, तो उसे मजबूत करने की कोशिश की जानी चाहिए, न कि उन शक्तियों का विरोध किया जाना चाहिए, जो धर्म को कथित रूप से कमजोर बनाने का काम कर रहीं हैं। किसी फिल्म का विरोध करने के बजाए हमें यह सोचना होगा कि फिल्म वाले ने वह विषय आखिर कहां से उठाया है। समाज से ही ना? तो फिर समाज में यह विकृति आई कहां से? हमें समाज की विकृति पर ध्यान देना चाहिए।
शिवलिंग पर चढ़ाया जाना वाला दूध यदि गटर पर जा रहा है, तो हमें इस परंपरा पर सोचना चाहिए। उस दूध को किस तरह से गरीब बच्चों तक पहुंचाया जाए, हमें इस पर विचार करना चाहिए। मजार पर हजारों चादरें चढ़ाई जाती हैं, तो आखिर उन चादरों का इस्तेमाल क्या होता है, क्या उससे ठंड में ठिठुरते बच्चों के लिए रजाइयां नहीं बनाई जा सकती? चर्च में मोमबत्ती जलाने की अपेक्षा किसी गरीब के घर पर जलाई जानी चाहिए, ताकि उनकी झोपड़ी रोशन हो। धर्म में परंपरा के नाम पर ढकोसलों पर हमारे तथाकथित साधू-संतों काे विचार करना चाहिए। यह सच है कि आमिर की फिल्म में यदि कोई संदेश न होता, तो दर्शक टाॅकीज तक जाते ही नहीं। कुछ तो ऐसा है कि सभी धर्मों के लोग फिल्म देखने जा रहे हैं और उसे सराह भी रहे हैं। आमिर तो एक उद्देश्य लेकर सामने आए हैं, पर समाज का कोढ़ बनते तथाकथित बाबाओं के खिलाफ क्यों कोई सामने नहीं आता? किस तरह से इन्होंने लूटा है, भक्तों को। किस तरह से उनकी भावनाओं से खेला गया है? आखिर भक्तों का क्या कुसूर? वे तो अपनी पीड़ाओं से मुक्ति पाने के लिए बाबाओं की शरण में पहुंचे थे। बाबाओं की सल्तनत को हिलाने की ताकत आखिर किसमें है? आखिर जनता को ही यह बीड़ा उठाना होगा। तभी समाज में एक स्वस्थ परंपरा कायम होगी।
‘पी.के.’ का विरोध करने वाली संस्थाओं काे लगता है कि इसमें केवल हिंदू देवी-देवताओं पर हमला किया गया है, तो वे पाकिस्तान के शोएब मंसूर की फिल्म ‘खुदा के लिए’ अवश्य देखनी चाहिए। यह फिल्म 2007 में बनी थी। यह फिल्म ओएमजी और ‘पी.के.’ से कहीं अधिक आक्रामक है। इसमें पूरी तरह से साफगोई है। इसमें कहीं भी कामेडी नहीं है। डायरेक्टर ने अपनी बात पूरी शिद्दत के साथ की है। फिल्म का संदेश यही है कि इस्लाम मुसलमान की दाढ़ी में नहीं है। किसी भी धर्म पर अपनी राय रखने के पहले हमें उस धर्म का अध्ययन भी कर लेना चाहिए। बिना जाने-समझे हमें अपने विचार रखने का अधिकार नहीं है। फिल्मों का विरोध हमेशा से होता रहा है। पर विरोध सकारात्मक होना चाहिए। हमें यह भी सोचना होगा कि आखिर फिल्म वाले को हमारी झूठी परंपरा एवं आडम्बर पर कटाक्ष करने की हिम्मत कैसे हुई? आशय स्पष्ट है िक दोष हमारी परंपरा में ही है। फिल्मों में वही बताया जा रहा है, जो समाज में हो रहा है। साहित्य समाज का दर्पण होता है, पर िसनेमा भी साहित्य का एक अंग है। इसे अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। अपनी पिछली फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ में आमिर ने शिक्षा की वर्तमान स्थिति पर जोरदार कटाक्ष किया, उससे आखिर क्या हुआ? शिक्षा की कितनी दुकानें बंद हुई? कितने विद्यार्थियों को आत्महत्या से रोका गया? देश की कितनी प्रतिभाओं को पलायन से रोकने के प्रयास हुए? अगर हम ऐसे सुलगते सवालों का जवाब नहीं ढूंढ पाए, तो हमें कोई हक नहीं है कि किसी की बिंदास अभिव्यक्ति के खिलाफ सड़क पर उतर जाएं।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 6 जनवरी 2015

आपा खो रही हैं ममता बनर्जी

डॉ. महेश परिमल
जनता के अथक परिश्रम की कमाई को डकारने वाले ममता के सभी साथी एक-एक करके कानून के हत्थे चढ़ रहे हैं। अपने साथियों से जुदा होकर ममता अपना आपा खो रही हैं। शारदा चीट फंड से जुड़े ममता के एक और साथी मदन मित्रा की गिरफ्तारी पिछले दिनों हुई। उसके तीन साथी पहले ही गिरफ्तार हो चुके हैं। इस कारण ममता बार-बार गलतियां कर रही हैं। पहली तो भाजपाध्यक्ष अमित शाह की रैली होने में बाधा पहुंचाई। उसके बाद जब अदालत ने अनुमति दे दी, तो वे मन मसोसकर रह गई। इसके बाद वे बार-बार ललकार रही हैं कि प्रधानमंत्री में दम हो, तो मुझे गिरफ्तार करके दिखाएं। पर भाजपा यह अच्छी तरह से जानती है कि उन्हें गिरफ्तार कर उन्हें हीरो नहीं बनाना है। इसलिए उसके िवश्वसनीय साथियों की धरपकड़ कर उसे कमजोर बनाने में लगी हुई है।
ममता के आसपास कानून का घेरा लगातार कसता जा रहा है। उसकी गिरफ्तारी अभी भले ही न हो, पर उसे कमजोर बनाने में भाजपा ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। देखा जाए, तो शारदा घोटाला और सहारा का घोटाला दोनों एक जैसे ही हैं। जो उत्तर प्रदेश में सुब्रतो रॉय ने किया, वही पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के साथियों ने किया। दोनों घोटालों के षड्यंत्रकारी इन समय जेल में हैं। दाेनों घोटाले राज्य सरकार की सरपरस्ती में ही हुए हैं। दोनों घोटालों में प्रजा की पाई-पाई की कमाई को जमकर लूटा गया। जब भी इन पर कानूनी शिकंजा कसा, तोेे जमकर बवाल भी हुआ। उनके समर्थक सड़कों पर आ गए। पर लोगों की हाय ने अपना काम कर दिखाया। विरोध काम नहीं आया। शारदा घोटाले में जब सरकारी एजेंसियां अपना काम कर रही थीं, तो ममता को उसकी सहायता करनी चाहिए। इसके बजाए वे बार-बार भाजपा सरकार को ललकार रही हैं। उनके इस व्यवहार से लोगों को यह शंका हो रही है कि वे भी कहीं न कहीं इस घोटाले में शामिल हैं। आखिर मामला गरीबों के सपनों के टूटने का है। उनकी जमा-पंूजी को हजम कर लिया गया है। अगर ममता वास्तव में गरीबों की हमदर्द हैं, तो उसे केंद्र सरकार की मदद करनी चाहिए।
इस समय केंद्र सरकार द्वारा जो कुछ किया जा रहा है, उसे ममता बदले की कार्रवाई बता रही है। जबकि उसे केंद्र की सहायता करनी चाहिए, ताकि उसकी साफ छवि बन सके। लेकिन जिस तरह वे मोदी सरकार को ललकार रही है, उससे तो यही लगता है कि वे अपनी खीझ ही निकाल रही हैं।
आखिर में जिस मदन मित्रा की धरपकड़ की गई, उस संबंध में ममता ने 2013 में एक आम सभा में मदन मित्रा को सबके सामने लाते हुए लोगों से यह पूछा था कि क्‍या ये आपको चोर दिखाई देते हैं।  ममता जिन 5 लोगों को स्‍वच्‍छ छवि का बता रही थीं, उनमें से तीन आज सीबीआई की कस्‍टडी में हैं। वे बार-बार यही कह रहीं हैं कि मोदी सरकार उनके खिलाफ षड्यंत्र कर रही हैं, इस तरह से वे अपने साथियों की गिरफ्तारी का राजनैतिक लाभ उठाना चाहतीहैं। अब तो ऐसा लगता है कि ममता खुद अपने ही बनाए जाल में फंसती जा रही है।
ममता बनर्जी की सबसे बड़ी खासियत यही है कि उन्‍होंने अपने दम पर 34 बरसों से जमे वामपंथियों की सरकार को उखाड़ फेंका। यह एक ऐतिहासिक कार्य था। लेकिन अब लगता है कि ममता अब लोगों के बीच अपनी पकड़ कायम नहीं रख पा रही हैं। तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की बढ़ती दादागिरी और नए उद्योगों को प्रदेश में न लाने के लिए उनकी जिद के अब दुष्‍परिणाम सामने आने लगे हैं। वैसे वे तो अब यह मान ही बैठी हैं कि उनकी सरकार को पलटाने के लिए केंद्र सरकार हरसंभव प्रयास कर रही है। उनके साथियों की धरपकड़ के पीछे यही साजिश है। पिछले महीने ही केंद्र सरकार ने कहा था कि पश्‍चिम बंगाल आतंकवादियों के लिए स्‍वर्ग के समान है। सरकार का यह बयान वर्धमान में हुए विस्‍फोट के संदर्भ में था, पर ममता ने इस गलत ही तरीके से लिया और केंद्र के खिलाफ अनर्गल प्रलाप करने लगीं।
भाजपाध्‍यक्ष अमित शाह की सभा के लिए पहले तो उन्‍होंने अनुमति न देकर अपने ही पांव पर कुल्‍हाड़ी मारी है। जब हाईकोर्ट ने मंजूरी दी, तब अमित शाह ने ममता को उनके ही गढ़ में ललकारा था। गुजरातीभाषी होने के बाद भी उन्‍होंने टूटी-फूटी बंगला में अमित शाह ने जो कुछ भी बोला, वह बंगालियों को अच्‍छा लगा। वास्‍तव में वहां की प्रजा भी तृणमूल कार्यकर्ताओं की गुंडागिरी से तंग आ चुकी है। सिंगूर का घाव अभी भी ताजा ही है। अब तक तो वे यही मानती आ रही थीं कि पश्‍चिम बंगाल में उनका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता, पर अब वे अपनी कमजोरी को समझने लगी है, इसलिए बिफरने लगी हैं। जबान पर लगाम नहीं रख पा रही हैं। अब उसके अभिमान का गुब्‍बारा फूटने लगा हैा पहले वे यही मानकर चल रहीं थी कि उसके सामने केवल वामपंथी और कांग्रेस ही हैं, पर भाजपा बीच मे आ गई, इसलिए वे तीन ओर से घिर गई हैं। उनके ही गढ़ में प्रधानमंत्री की सभा के होने से लोगों में ममता के प्रति आक्रोश दिखाई देने लगा है। मोदी का विरोध करने वालों में ममता सबसे आगे रही हैं। इसलिए मुख्‍यमंत्रियों की बैठक का उन्‍होंने बहिष्‍कार भी किया था।
शारदा चीट फंड घोटाले के संचालकों के पास तृणमूल कांग्रेस के नेताओं ने घाटे में चल रही कितनी ही कंपनियों के शेयर को ऊंची कीमत पर लेने के लिए दबाव बनाया था। ऐसी एक नहीं पर कई कंपनियों के लिए कहा गया। इस तरह से शारदा चीट फंड के संचालक अपनी धनराशि गंवाते रहे। इधर प्रजा से लिए गए धन को लौटाने की चिंता वे नहीं कर पा रहे थे। जब धन लौटाने की बारी आई, तो चीटफंड के संचालकों से अपने हाथ खड़े कर दिए। लोगों ने इस दिशा में अभियान ही चला दिया। तब तृणमूल कांग्रेस जनता के साथ नहीं थी। जब शारदा चीट फंड के संचालकों की धरपकड़ शुरू हुई, तब समझ में आया कि ये सभी ममता बनर्जी के ही साथी हैं। आज ममता लाचार है। अपने ही साथियों की दगाबाजी से वे आहत हैं। क्‍या करें, क्‍या न करें की स्‍थिति में वे अब अपना आपा ही खोने लगी है। सही गलत का निर्णय नहीं ले पा रही हैं।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 5 जनवरी 2015

मुझे भी कुछ कहना है....



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रविवार 4 जनवरी 2015 को दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित मेरा आलेख

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