शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

एक थे गाँधीजी

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एक थे गांधीजी
डॉ. महेश परिमल
गांधी यानी कौन? ऐसा सवाल आज भले ही कहीं नहीं पूछा जाए, पर ‘गांधी’ यानी कौन से गांधी? यह सवाल आजकल प्रासंगिक होता जा रहा है। गांधी यानी करेंसी नोट में जिनकी तस्वीर है, वो? या फिर उनकी समाधि पर फूल-मालाएं चढ़ाने की परंपरा, जिसमें विदेश से आए मेहमान का वहां जाना अनिवार्य है। गांधी यानी महात्मा मंदिर वाले गांधी? गांधी यानी ‘राष्ट्रवादी हिंदू’, इन्हीं पर ये आरोप है कि गांधीजी की हत्या के बाद इनके अनुयायियों द्वारा मिठाई बांटी गई थी। गांधी यानी मजबूरी नहीं, बल्कि दंभ का नाम। गांधी यानी देश-विदेश में उनकी प्रतिमा स्थापित करने की प्रथा। गांधी यानी उनके नाम पर चलने वाले राजनीति की कथित दुकानें और उनकी बेशुमार दौलत। गांधी यानी उनके चरित्र को हनन करने की प्रवृत्ति आज उनकी हत्या के 66 साल बाद भी लोगों को नशे की ‘किक’ देती है। गांधी यानी जिसे अंबेडकर ने अपना कट्‌टर विरोधी माना, वो। या फिर गांधी यानी वो, जिन्होंने दलित के मामले को मुख्य धारा में लाने के लिए तन-मन से प्रयास किया। या फिर उनके नाम से देश में चल रहा स्वच्छता अभियान?
आज गांधी को हर कोई अपनी तरह से परिभाषित करता है। अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करता है। कुछ माह पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गांधी जी को एक बार हाशिए पर लाकर सरदार वल्लभ भाई पटेल को सामने लाने का प्रयास किया था, पर बाद में उन्हें लगा कि इस देश में बिना गांधी को साथ लिए कोई भी बड़ा काम नहीं किया जा सकता, इसलिए उन्होंने सफाई के नाम पर उनका नाम जोड़ दिया, ताकि उसके सहारे देश को गांधी के सपनों का भारत बनाया जा सके। इस तरह से गांधी जी हम सबके बीच व्यावहारिक हो गए। वे हमारे बीच आकर अपनी बातें कहने लगे। सफाई के नाम पर आज देश में हर कोई उन्हें याद कर रहा है। इस तरह से यह संदेश गया कि गांधी जी को भूलकर इस देश में राजनीति हो ही नहीं सकती। जिस तरह से पाकिस्तान में कश्मीर के बिना राजनीति की ही नहीं जा सकती, ठीक उसी तरह भारत में जो गांधी को भूला, लोग उसे भूलने में देर नही करते हैं। गुजरात में उनके नाम पर भव्य महात्मा मंदिर बनाया गया। इस मंदिर को वे स्वयं देखते, तो शर्मिंदा हो जाते। इस भव्य मंदिर का काम विदेशियों को भारत में पूंजी निवेश के लिए लुभाने का ही है। यानी विदेशियों को लुभाना है, तो भी गांधी जी का सहारा।
आज हर कोई गांधी का उपयोग करने में लगा है। इसमें कोई माहिर है, तो कोई फिसड्‌डी। गांधी जी को सामने रखकर किस तरह से अपनी बात को लोगों तक पहुंचाई जाए, यही मुख्य मुद्दा है। गांधी जी के तमाम अनुयायी अपने-अपने क्षेत्रों में सफल सिद्ध हुए हैं। सभी ने उनका इस्तेमाल कर स्वयं को ही विकसित किया है। इसे वे प्रगति का नाम देते हैं। गांधी जी के सच्चे अनुयायी आज भी सुदूर गांवों में कुछ न कुछ ऐसा कर रहे हैं, जो उनके नाम को जीवित रखे हुए हैं। कई विदेशी भी इसमें शामिल हैं, जिन्हें यह विश्वास ही नहीं है कि इस देश में कभी कोई ऐसा व्यक्ति भी था, जो हाड़-मांस का एक लोथड़ा ही था। जिसमें गजब की ताकत थी। वह हिंसा का जवाब अहिंसा से देता था। उसके विरोध करने का तरीका एकदम ही अलग था। वह लोगों को शांति का पाठ पढ़ाता था। जिसकी वाणी में वह ताकत थी कि लोग अपना सब कुछ छोड़कर उनके साथ हो लेते थे।
आज की पीढ़ी गांधीजी को रिचर्ड एटनबरो के माध्यम से जानती है। वह ‘गांधी’ फिल्म देखकर उन्हें समझने की कोशिश करती है। उन्हें तो यह सुनकर अजूबा लगता है कि एक विदेशी ने गांधी को किस तरह से समझा और उन्हें फिल्म में उतारा। क्या हमारे देश में कोई भी ऐसा नहीं है, जो गांधी को सच्चे स्वरूप में हमारे सामने लाए? किताबों वाले गांधी जी में काफी विकृति अा गई है। गांधी जी के नाम पर सबसे अधिक पाप तो किताबों के माध्यम से ही हुआ है। गांधी पर लिखी किताब हमारे देश में विवादास्पद न हो, ऐसा संभव ही नहीं। गांधी की सही तस्वीर तो उनकी जीवनी ‘सत्य के प्रयोग’ में ही मिलती है। पर वह भी उनके जीवन को पूरी तरह से नहीं दर्शाती। जीवनी में 1920 तक के जीवन का ही जिक्र है, उसके बाद उनका जीवन सार्वजनिक हो गया। ऐसे में उन्हें पूरी तरह से समझना आज की पीढ़ी के बस की बात नहीं। इस देश में गांधी के नाम पर जितने तमाशे हुए हैं, उतने किसी के नाम पर नहीं हुए। जिसने भी उनके नाम पर तमाशा खड़ा किया, कुछ समय बाद वह और अधिक चर्चित हो गया। गांधी जी स्वयं गरीब रहे, गरीबों के रहनुमा रहे, उनके अनुयायी भी गरीब ही बने रहे, पर जिसने उनके नाम की दुकानें चलाई, वह देखते ही देखते अमीरों की श्रेणी में आ गया।
गांधी जी ने देश को बहुत कुछ दिया। पर गांधी के नाम पर देश ने बहुत कुछ खोया भी। आज देश में ईमानदारी का स्थान भ्रष्टाचार ने ले लिया है। देश में भ्रष्टाचारियों की लंबी फेहरिस्त है। कोई विभाग ऐसा नहीं है, जो भ्रष्ट न हो। न्याय आज रईसजादों की जेब में रहता है। यह तो कई न्यायाधीशों के भ्रष्ट होने से ही पता चल जाता है। आज सत्ता भी कुबेरपतियों के हाथों की कठपुतली बन गई है। सत्ता का मद ऐसा छाया है कि वह सत्तासीन के हाथों से अलग ही नहीं होती।
गांधी जी आज भले ही न हों, पर वे आज भी जीवित हैं, तो केवल सत्य में, सादे जीवन में, दु:ख में, विलाप में, सद्भावना में ही हैं। निराशामय जीवन में एक ज्योति के रूप में हैं। सुदूर गांवों में कहीं कोई वीतरागी यदि सत्कार्य करता है, तो वह गांधी जी के करीब है। कहीं कोई अत्याचार से पीड़ित है और उसमें प्रतिकार की क्षमता नहीं है, तो वह बहुत दूर है गांधी जी से। गांधी हमारे कोमल हृदय में हैं। हमारी सादगी में हैं। हमारी सांसों में रचे-बसे हैं, बस वे कदापि वहां नहीं हैं, जहां उनके होने का दावा किया जा रहा है।
‎ डॉ. महेश परिमल

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