बुधवार, 7 मई 2014

चुनाव आयोग की लाचारी



3 मई को दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में प्रकाशित मेरा आलेख

जहर उगलते नेता: खामोश चुनाव आयोग
डॉ. महेश परिमल
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र वाले देश भारत में लोकसभा चुनाव का सातवां चरण समाप्त हो चुका है। इस दौरान हम सबने देखा कि इस बार नेताओं ने अपने प्रतिद्वंद्वियों के लिए काफी जहर उगला है। किसी भी दल को कमतर नहीं आंका जा सकता। आज तक कभी किसी सभा में यह देखने में नहीं आया कि किसी नेता के अपने प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ जहर उगला, तो उसका प्रतिकार किया गया। न तो किसी पर पत्थरबाजी हुई, न ही प्रदर्शन किया गया। नेता भी श्रोताओं का मूड भांपते हुए पहले से ही आरोपों की बौछार करना शुरू कर देते हैं। इस बीच थोड़ा सा जहर उगला, तो लोगों ने तालियों से उसका स्वागत किया। बस यहीं से नेताओं को शह मिल जाती है और वे शुरू हो जाते हैं, पूरी शिद्दत के साथ, जहर उगलते रहते हैं और उन्हें तालियां मिलती रहती हैं। चुनाव आयोग के पास इसकी शिकायत पहुंचती है, उनकी ओर से कार्रवाई का आश्वासन मिलता है। आयोग के पास अधिकार तो कई हैं, पर उसका उपयोग सही समय पर सही व्यक्ति क ेसाथ नहीं हो पाता, इसलिए इस पर अभी तक न तो रोक लगी, न ही किसी नेता पर कार्रवाई हुई। आयोग को हम बिना नाखूनों का शेर कह सकते हैं। यदि आयोग को पूरी तरह से छूट मिले, तो देश के आधे नेता जहर उगलने के आरोप में सीखचों के पीछे चले जाएं। पर हमारे देश में यह संभव नहीं दिखता। चुनाव आयोग को कभी भी शक्तिशाली बनने का अवसर ही नहीं दिया गया।
हमारे देश में जब भी कोई नेता किसी जनसभा को संबोधित करता है, तो ऐसा लगता है, जैसे कोई फिल्मी संवाद बोल रहा है। आपको याद होगा कि धर्मेद्र जब परदे पर आते हैं और दुश्मन को ललकारते हुए कहते हैं कि कमीने, मैं तेरा खून पी जाऊंगा, तो दर्शक ताली बजाते हैं। आज ऐसा ही कुछ राजनीति में भी हो रहा है। आजकल राजनीति में भी बाजारवाद हावी हो गया है। यदि कोई नेता किसी जनसभा को संबोधित करता है और चुनाव आचार संहिता का पालन करते हुए भाषण करता है, तो उसका भाषण इस अधिक शुष्क होता है कि लोग बोर होने लगते हैं। ऐसे नेता का भाषण सुनने आखिर कौन जाएगा? इसलिए नेता भी अपने भाषण में इस तरह की भाषा का इस्तेमाल करते हैं, जो लोगों को पसंद आए। जिसे सुनकर लोग तालियां बजाएं। इसके लिए भाषण में तीखे आरोप होने चाहिए, जो जहर बुझे तीर का काम करे। ऐसे आरोप लगाते समय नेता स्वयं को किसी ही मेन से कम नहीं समझते। खुद को पाक-शफ्फाक बताने वाले ये नेता अपने भाषणों को लच्छेदार बनाने के लिए ऐसी भाषा बोलते हैं, जिसमें भले ही अपशब्द न हों, पर वह किसी अपशब्द से कमतर नहीं होते। सामने वाले को चुनौती देते समय पर बुरी तरह से बिफर भी जाते हैं। इस दौरान नेताओं की भाव-भंगिमा इतनी अधिक आक्रामक होती है कि वे इस समय किसी के साथ कुछ भी कर सकते हैं। यदि इस स्थिति को चुनाव आयोग देख ले, तो निश्चित ही उस नेता पर कार्रवाई हो। वेसे भी देखा जाए, तो आचार संहिता का सही रूप से पालन न करने वाले ऐसे नेता बहुत मिल जाएंगे, यदि इन पर कार्रवाई शुरू कर दी जाए, तो देश के आधे नेता सीखचों के भीतर चले जाएं। पर चुनाव आयोग की लाचारी के कारण इन पर ऐसी कोई कार्रवाई नहीं हो पा रही है, जिससे लोगों को सबक मिले।
चुनाव आयोग की भी विवशताएं हैं। आखिर कितनों के खिलाफ कार्रवाई करे? कितने दलों को चुनाव लड़ने से रोके? सभी खुद को शेर से कम नहीं समझते। दूसरी ओर शेर को सवा शेर भी मिल रहे हैं। इस बार चुनाव कुछ लम्बा हो चला है, इसलिए ये नेता अपना धीरज भी खो रहे हैं। कुछ नेताओं को भी आराम करने का समय मिल रहा है। आराम के क्षणों में वे पुन: स्फूर्ति प्राप्त कर जहर उगलने का काम शुरू देते हैं। इस दौरान दूसरा पक्ष भी ऊर्जा बटोरकर मैदान में आ जाता है। राजनीतिक दलों के बी-ग्रेड के नेता अपने समर्थकों को खुश करने के लिए बेलगाम भाषा का इस्तेमाल करते हैं। इस दौरान वे यह भी भूल जाते हैं कि ऐसा कर के वे पार्टी का ही नुकसान कर रहे हैं। आखिर इन्हें शह कौन देता है? यह प्रश्न विचारणीय है। देखा जाए तो इन्हें दल के बड़े नेताओं की ही शह मिली होती है। बड़े नेता भी यही चाहते हैं कि इनके मुंह से जहर बुझे तीर ही निकलें। सभी दलों के नेता जब चाहे कुछ भी बोल देते हैं। बाद में पार्टी को डेमेज कंट्रोल करना पड़ता है। दोष केवल बी ग्रेड के नेताओं को देना ठीक नहीं। मुलायम सिंह यादव, ममता बनर्जी, शरद पवार ऐसे नेता हैं, ये जब बोलते हैं, तो इन्हें अपना ही होश नहीं रहता। जब से मुलायम सिंह यादव ने बलात्कार के मामले में कहा है कि युवाओं से गलती हो जाती है, इसके लिए उन्हें फांसी की सजा नहीं दी जा सकती। इस बयान के लिए उन्हें देशभर की महिलाओं के कोप का भाजन बनना पड़ा। मुलायम जैसे कद्दावर नेता की जीभ फिसल सकती है, तो फिर दूसरे नेताओं का क्या कहना। अब तो ये नेता मंच से ही मतदाताओं को धमका रहे हैं। मुलायम सिंह ने शिक्षकों को स्थायी न करने और अजीत पवार वोट न देने वाले मतदाताओं को पानी न देने की धमकी दी है। चुनाव आयोग ने इस दिशा में सबूत जुगाड़ रही है, पर अजित पवार पर कोई कार्रवाई होगी, इसकी संभावना काफी कम है।
पूरे विश्व में भारतीय लोकतंत्र की साख है। यहां के चुनाव की सर्वत्र प्रशंसा की जाती है। पर अब नेताओं द्वारा भाषणों में जहर उगलने के कारण देश की छवि को धक्का पहुंचा है। अब तो ये नेता चुनाव आयोग पर भी ऊंगली उठाने से बाज नहीं आ रहे हैं। आजम खां का बयान था कि आखिर चुनाव आयुक्त की नियुक्ति का अधिकार सरकार के पास ही है। इससे दो कदम आगे बढ़ते हुए ममता बनर्जी यह कहती हैं कि चुनाव आयोग तो कांग्रेस का एजेंट है। चुनाव आयोग के आदेश के अनुसार अधिकारियों के स्थानांतरण पर पहले वे सहमत नहीं थी। दोनों में टकराव की नौबत आ गई थी, बाद में मामला सुलझ गया। ममता बनर्जी ने इसी दौरान चुनाव आयोग को कांग्रेस का एजेंट करार दिया था। इस तरह से देखा जाए, तो इस समय कोई भी दल ऐसा नहीं है, जो अपनी शालीनता के कारण अलग पहचान कायम करता हो। हर दल में एक न एक नेता आक्रामक है। किसी भी दल को बेदाग नहीं कहा जा सकता। आखिर ऐसा क्यों होता है कि नेताओं की जबान पर अंकुश रखने के लिए किसी एक नेता पर कड़ी कार्रवाई की जाए, जिससे दूसरे उससे सबक लें। वह निर्णय एक नजीर बन जाए। ताकि अगली बार नेता जहर उगलने से बचें। इसके लिए चुनाव आयोग को एक स्वतंत्र इकाई घोषित कर देना चाहिए। उस अपने अधिकार का भरपूर उपयोग की छूट मिले। ताकि देश में चुनाव को लेकर मचने वाली गहमा-गहमी से बचा जाए, और शांतिपूर्ण मतदान हो। इससे पूरे विश्व में देश की छवि सुधरेगी।
डॉ. महेश परिमल

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