शनिवार, 22 मार्च 2014

देश की बिगड़ी फिटिंग का क्या करूं ?

डॉ. महेश परिमल
अभी कुछ दिनों पहले ही हमारे बहुत करीब से गुजर गया प्लम्बर दिवस। जी हां 11 मार्च को प्लम्बर दिवस ही था। हमें याद नहीं रहा। याद भी कैसे रहे, इतने सारे दिन तो आते ही रहते हैं, इसमें यदि प्लम्बर डे निकल गया, तो कौन सी आफत आ पड़ी? ऐसा तो नहीं कि इस दिन को मनाने के बाद अब हमें प्लम्बर के लिए इधर-उधर भागना नहीं पड़ेगा। हम आज भी भाग रहे हैं, वे मिलते ही नहीं। उनको ढूंढ पाना ही टेढ़ी खीर है। वे मिल भी गए, तो उनसे पहले समय लेना पड़ता है। यदि वह उस नियत समय पर आ भी गया, तो उसके नखरे इतने बड़े-बड़े होते हैं कि बरातियों के नखरे छोटे दिखने लगे। मेरा दावा है कि हमारे काम को करते हुए प्लम्बर की फरमाइशें पूरी करते हुए आपको पसीना न आ जाए, तो मेरा नाम ही बदल दें। उस पर काम सही होने की कोई गारंटी नहीं। आपके घर का पानी टपकता ही रहेगा। कहते हैं कि यदि आपके घर के नल से एक-एक बूंद पानी टपक रहा है, तो समझो आपका एक-एक पैसा बेकार जा रहा है। पर प्लम्बर को इससे क्या? वह तो बड़ी मुश्किल से काम करने आपके घर पधारेगा? उसके बाद उसी दिन काम हो गया, तो आपसे बढ़कर कोई अच्छी किस्मत वाला इस दुनिया में है ही नहीं। छोटे से छोटा काम भी दो-दिन तो लगा ही देता है। इस बीच वह मोबाइल से भी बात करेगा, बीच-बीच में चाय भी पियेगा। अपने निजी काम से कुछ देर के लिए बाहर भी जाएगा। यह सब करते हुए यदि आपका खून जल रहा है, तो जलने दो। ऑफिस से आपने छुट्टी ली है, उसने तो नहीं ली। पहले तो वह बताएगा कि काम कुछ घंटे का है, फिर वही काम एक दिन का हो जाएगा। जब उसने काम करना शुरू कर दिया, तो वही काम तीन दिन का हो जाता है। आपने उसके कहने से आफिस से एक या दो दिन का अवकाश लिया है। पर जब तीन दिन हो जाए, तब क्या करना? काम इतना बड़ा तो कतई नहीं था। इस बीच ऐसे-ऐसे सामान भी लाने पड़े, जिसकी आवश्यकता ही नहीं थी। जब जिसे छोटी बीमारी समझ रहे थे, उसके हाथ लगते ही वह बड़ी बीमारी हो गया। घर की दीवारें खुद गई, हमें खुदा याद आ गए। अब उसके लिए अलग से मजदूरों को लगाया जाएगा। उनके भी नखरे तो होंगे ही। प्लम्बर का भुगतान करने में पसीना छूटा सो अलग। क्योंकि हमने एक दिन की मजदूरी के हिसाब से सोचा था, उसने तीन दिन की मजदूरी ले ली। दीगर काम बढ़ गए, आफिस से एक दिन का और अवकाश लेना पड़ा। परिवार परेशान रहा, सो अलग। इस सारी बातों से ऐसा लगा, मानो हमारा नल बहता ही रहता, तो ठीक था। हम पानी बरबाद करने के भागी बन जाते। पर इतनी परेशानी तो नहीं होती। क्या मिलेगा हमें प्लम्बर डे मनाने से, आप ही बताएं? पानी के रूप में न जाने कितना खून टपक गया हमारा। इसे कौन समझेगा? हालांकि मैं तो फिर भी घर के लिए दो दिन का अवकाश और तीन हजार रुपए बर्दाश्त कर लूंगा, लेकिन देश का क्या, उसकी बिगड़ी फिटिंग ठीक कराना मेरी औकात के बाहर है।
डॉ. महेश परिमल


बुधवार, 12 मार्च 2014

नारी तुम सचमुच शक्ति हो

 डॉ. महेश परिमल
महिलाओं के स्वालम्बन और आत्मनिर्र्भर होने की बात हमेशा कही जाती है, पर इसे चरितार्थ करने के नाम पर केवल बयानबाजी होती है। इस दिशा में जब तक महिलाएँ स्वयं आगे नहीं आएँगी, तब तक कुछ होने वाला नहीं। हाल ही में दो घटनाएँ ऐसी हुई,जिससे लगता है कि महिलाओं ने न केवल आत्मनिर्भरता की दिशा में, बल्कि अपनी जिंदादिली का परिचय आगे आकर दिया। इन दोनों ही घटनाओं से इन महिलाओं ने यह बता दिया कि उनमें भी कुछ कर गुजरने का जज्बा है, इसके लिए वे पुरुषों के आगे किसी प्रकार की सहायता की भी अपेक्षा नहीं करतीं।हुआ यूँ कि राजस्थान के उदयपुर में बारहवीं की परीक्षा चल रही थी, एक केंद्र में साधारण रूप से जैसी आपाधापी होती है, उसी तरह हर तरफ मारा-मारी मची थी। किसी को अपनी सीट नहीं मिल रही थी, किसी को रोल नम्बर ही नहीं मिल रहा था। कोई अपने साथी की तलाश में था, तो कोई बहुत ही बेफिक्र होकर अपना काम कर रहा था। ऐसे में परीक्षा शुरू होने में मात्र दस मिनट पहले एक विचित्र घटना उस परीक्षा केंद्र में हुई। सभी ने अपने-अपने काम छोड़ दिए और उस नजारे को देखने लगे। बात यह थी कि एक नवयौवना दुल्हन परीक्षा केंद्र के बरामदे से गुजरने लगी। शादी का जोड़ा, शरीर पर थोड़े से गहने, हाथों पर मेंहदी, घँघट निकला हुआ, यह थी उषा, जो उस दिन उस परीक्षा केंद्र में बारहवीं की परीक्षा में शामिल होने आई थी। साधारण मध्यम वर्ग परिवार की उषा के माता-पिता की इतनी अच्छी हैसियत नहीं थी कि बहुत सारा दहेज देकर बिटिया की शादी किसी अमीर घर में करते, इसलिए अभी उषा की उम्र शादी लायक नहीं थी, फिर भी उन्होंने उसके लिए योग्य वर की तलाश में थे। योग्य वर मिल भी गया, उन्होंने समझा कि परीक्षा तक सब कुछ ठीक हो जाएगा। उषा ने अपने भावी पति को देखा, दोनों ने मिलकर तय किया कि बारहवीं की परीक्षा तक शादी नहीं होगी, भावी पति ने उषा को बारहवीं की परीक्षा देने की अनुमति भी दे दी। अब किसे पता था कि शादी का मुहूर्त और परीक्षा की तारीख में एक दिन का अंतर होगा। अब मजे की बात यह है कि उषा तो सच्चे मन से परीक्षा की तैयारी कर रही थी। जिस दिन शादी, उसके ठीक दूसरे दिन परीक्षा का पहला पेपर। अब शादी कोई ऐसे तो हो नहीं जाती, पंडितों के सभी प्रसंग निपटाते-निपटाते आधी रात बीत चुकी थी। उसके बाद भोजन और फिर विदाई, बज गए चार। परीक्षा शुरू होनी थी सुबह सात बजे। समय मात्र तीन घंटे का। ऐसे में पढ़ाई आवश्यक थी, सो उषा ने जो थोड़ा समय मिला, उसे पढ़ाई में लगा दिया। अब वह दुल्हन के जोड़े में ही पहुँच गई, परीक्षा भवन। यह उसकी दृढ़ता ही थी, जो उसे यह सब करने के लिए प्रेरित कर रही थी। कुछ कर बताने का साहस ही उसे शक्ति प्रदान कर रहा था। उसने वह सब कुछ किया, जो उसे करना था। इसी से स्पष्ट है कि नारी यदि ठान ले कि उसे यह करना है, तो वह कर के ही रहती है।

एक और घटना राजस्थान से काफी दूर सिकर गाँव की है। इस गाँव में एक स्नातक गृहिणी सुभीता रहती हैं। पति की सहायता करने के लिए उसे शिक्षिका बनने की ठानी। इसके लिए बी.एड. करना आवश्यक था। पति सेना में हैं, इसलिए घर की कई जिम्मेदारियाँ उसे ही सँभालनी पड़ती थी। एक बार जब पति काफी समय बाद सेना से अवकाश लेकर आए, तो सुभीता ने उससे कहा कि घर में कई बार उसे लगता है कि वह केवल घर के कामों में ही सिमटकर नहीं रहना चाहती, वह कुछ और करना चाहती है। पति राजेंद्र को इस पर कोई आपत्ति नहीं थी। पति के बाद ससुराल वालों ने भी कोई दलील नहीं दी। उन्होंने भी सोचा कि बहू बाहर जाकर कुछ करे, तो उससे समाज का ही भला होगा। अब स्थितियाँ अनुकूल हो, इसके लिए पति-पत्नी ने मिलकर ईश्वर से प्रार्थना की कि उनकी इच्छा पूरी कर दे। पर ईश्वर तो सुभीता को किसी और ही परीक्षा के लिए तैयार कर रहे थे। वह सुभीता को एक जाँबाज महिला के रूप में प्रस्तुत करना चाहते थे। यहाँ भी कुदरत ने अपनी करामात दिखाई। राजेंद्र जब छुट्टियाँ खत्म कर सीमा पर गया, उसके पहले अपने प्यार का बीज सुभीता की कोख पर स्थापित कर गया। सुभीता के लिए अब शुरू हो गई परीक्षा की घड़ी। एक तरफ पढ़ाई, दूसरी तरफ घर के रोजमर्रा के काम और तीसरी तरफ अपने प्यार की निशानी का धयान रखना। समय के साथ-साथ सब कुछ बदलता रहा।

अचानक एक सूचना ने सुभीता को हतप्रभ कर दिया। बीएड परीक्षा की समय सारिणी घोषित की गई, तब उसे ध्यान में आया कि उसकी डॉक्टर ने डिलीवरी की भी वही तारीख दी है। अब क्या होगा, पति हजार किलोमीटर दूर। परीक्षा भी देनी ही है, नहीं तो साल भर की मेहनत पर पानी फिर जाएगा। अब क्या किया जाए? संकट की घड़ी चारों तरफ से अपने तेज घंटे बजा रही थी। परीक्षा की तारीख आ पहुँची, परीक्षा शुरू होने में गिनती के घंटे बचे थे कि सुभीता को प्रसव पीड़ा शुरू हो गई। घर परिवार के सभी सदस्य तनाव में आ गए। अब क्या होगा? इधार सुभीता आश्वस्त थी कि जो भी होगा, अच्छा ही होगा। उसे ईश्वर पर पूरा विश्वास था। आधी रात को उसने एक तंदुरुस्त बच्चे को जन्म दिया। उसके बाद फोन पर अपने पति से कहा- मैं एक भारतीय सिपाही की पत्नी हूँ, मैं इससे भी विकट परिस्थिति के लिए तैयार थी। हमारा बेटा स्वस्थ है और अभी कुछ ही घंटों बाद मैं परीक्षा देने जा रही हूँ। उधार पति को उसकी जीवटता पर आश्चर्य हो रहा था, लेकिन वह खुश था कि मेरी पत्नी ने एक जाँबाज महिला होने का परिचय दिया है। उधार परीक्षा केंद्र में इसकी सूचना दे दी गई, वहाँ के लोगों ने उसके लिए विशेष व्यवस्था करते हुए उसे एक अलग कमरे में पेपर लिखने की छूट दे दी। सुभीता एम्बुलेंस से परीक्षा केंद्र पहुँची और पेपर समाप्त कर तुरंत ही अस्पताल पहुँच गई।

दोनों ही विकट परिस्थितियों में परीक्षा दी, यह बताते हुए खुशी हो रही है कि दोनों ने ही फर्स्ट क्लास में परीक्षा पास की। इस घटना ने साबित कर दिया कि ईश्वर हमारी हर घड़ी परीक्षा लेता है। यह काम इतने खामोश तरीके से होता है कि किसी को पता ही नहीं चलता। इसमें जो पास हो जाता है, उसके लिए फिर एक नई परीक्षा की तैयारी की जाती है। इसी तरह हर घड़ी परीक्षा देते हुए इंसान नए रास्ते तलाशता रहता है। उसे नई मंजिल मिलती रहती है। उन दोनों जाँबाज महिलाओं को सलाम......
 डॉ. महेश परिमल
हम समवेत

प्रत्याशी चयन बनाम आग का दरिया

डॉ. महेश परिमल
लोकसभा चुनाव की रणभेरी बज चुकी है। इसी के साथ शुरू हो गई है, टिकटों के लिए रस्साकशी,मतभेद और विवाद। वास्तव में प्रत्याशियों का चयन एक अग्निपरीक्षा ही है, जिसमें अपनों के आक्षेपों एवं कटाक्षों को सुनना पड़ता है। कोई बेहद अपना थोड़ी ही देर में बेहद पराया हो जाता है। बरसों तक पार्टी के लिए समर्पित एक कार्यकर्ता केवल टिकट न मिलने या मिल जाने के बाद कटने से वह जिस तरह से बिखर जाता है, उससे उसकी मानसिक स्थिति का पता चलता है। कई बार हालात इतने अधिक बेकाबू हो जाते हैं कि पार्टी प्रमुख को भी कुछ सोचने के लिए विवश कर देते हैं। टिकट वितरण का कार्य तलवार की तीखी धार पर चलने जैसा है। हर किसी को टिकट की आस होती है। पर मिलता उसे ही है, जो रसूखदार होता है। कई बार उपेक्षा का शिकार सही प्रत्याशी टिकट न मिलने के कारण निर्दलीय खड़ा हो जाता है और जीतकर दिखाता है। इससे यह संदेश जाता है कि कई बार पार्टी प्रमुख भी टिकट देने में पक्षपात करते हैं। अपने चहेतों को आगे बढ़ाने के चक्कर में वे अपनी एक सीट ही खो देते हैं। इसलिए सही प्रत्याशियों का चयन एक ऐसी परीक्षा है, जिसमें सभी उत्तीर्ण नहीं होते।
लोकसभा चुनाव की घोषणा होते ही प्रत्याशियों के चयन का सिलसिला शुरू हो गया है। सभी दल हर स्तर पर अपने प्रत्याशियों की सूची जारी कर रहे हैं। प्रत्याशियों के चयन की प्रक्रिया में इतनी अधिक सावधानी बरती जा रही है कि किसी को भी कानो-कान खबर न हो और प्रत्याशी की घोषणा हो जाए। उसके बाद भी विवाद और मतभेदों को नहीं रोका जा सकता। इस समय आम आदमी पार्टी भी लोकसभा चुनाव के लिए ताल ठोंक चुकी है। दिल्ली विधानसभा में इस पार्टी को मिली सफलता से हर कोई हैरत में था। अब भले ही उसकी लोकप्रियता में कमी आ गई हो, पर उनका खौफ बरकरार है। स पार्टी ने अभी यह तय नहीं किया है कि कौन व्यक्ति किस सीट का प्रत्याशी होगा। अभी तक उसने अपने सौ प्रत्याशियों की सूची जारी की है। अगले सप्ताह तक सभी दल अपने-अपने प्रत्याशी घोषित कर देंगे। अभी प्रादेशिक दलों के प्रत्याशियों के लिए कशमकश जारी है। लालू यादव ने अपने बेटी और पत्नी को प्रत्याशी घोषित कर दिया है। कुछ दल भले ही प्रादेशिक हों, पर उसके प्रत्याशी अन्य राज्यों में भी चुनाव लड़ते हैं। इसके मद्देनजर प्रादेशिक दलों को अपने प्रत्याशी घोषित करने पर काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है। क्योंकि कई बार अन्य दलों से समझौते भी होते हैं। वैसे सभी प्रादेशिक दल यही चाहते हैं कि उनके कम से कम दस प्रत्याशी तो जीत ही जाएं। ऐसी धारणा है कि दस सांसदों वाले दलों का भी रुतबा होता है, वे भी सरकार बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सपा-बसपा ने अपने सांसदों के बल पर केंद्र में सरकार बनाने में मदद की और उसे काफी परेशान भी किया।
सभी दलों की यही कोशिश होती है कि उनका प्रत्याशी जीत हासिल करे। कई बार टिकट खरीदे भी जाते हैं। यदि प्रत्याशी मालदार है, तो वह वोट खरीदने की भी क्षमता रखता है, इसलिए उसे टिकट मिल जाता है। इससे कई संभावित प्रत्याशी नाराज हो जाते हैं, वे बागी हो जाते हैं। उसके बाद शुरू होता ह्रै, उन्हें मनाने का सिलसिला। प्रत्याशियों का चयन एक सरदर्द प्रक्रिया है। बड़े दलों ने अपने प्रत्याशियों की सूची पहले ही तैयार कर ली है। पर उसे घोषित करने में हिचक रहे हैं। यह भी सच है कि जिस प्रत्याशी का चयन हो, उसकी जीत सुनिश्चित हो। चयनकर्ता के पास पहले तो एक ही सीट के लिए कई प्रत्याशी होते हैं, उसके बाद उनमें से फिर चयन होता है, यह प्रक्रिया काफी समय तक चलती रहती है, आखिर में केवल दो पर आकर सिलसिला खत्म हो जाता है। इसके बाद उन दो में से एक का काफी जद्दोजहद बाद चयन होता है। जो दल केंद्र सरकार के समर्थक होते हैं, उनके प्रत्याशियों के चयन में अक्सर कोई फेरफार नहीं होता। समर्थक दल के प्रत्याशी बार-बार अपने क्षेत्र से जीतते ही रहते हैं। इसमें व्यतिक्रम नहीं आता। कई बार मतदाताओं के सामने आयातित प्रत्याशी को खड़ा कर दिया जाता है। ऐसे प्रत्याशियों को लालू यादव ‘हेलीकाप्टर ’ कहते हैं, जो ऊपर से आते हैं और ऊपर ही चले जाते हैं। कभी आम जनता या अपने संसदीय क्षेत्र में दिखाई नहीं देते। ऐसे प्रत्याशी यदि पार्टी में किसी महत्वपूर्ण पद पर होते हैं, तो उनकी जीत में कोई बाधा नहीं आती, पर क्षेत्र के लिए प्रत्याशी नया हो, तो काफी मुश्किलें आती हैं। कई बार ऐसे प्रत्याशी जीत ही नहीं पाते हैं। कई बार मतदाता अपनी समझदारी का परिचय देते हुए ऐसे आरोपित प्रत्याशियों को एक सिरे से ही नकार दते हैं। पार्टी को अपनी इस गलती का अहसास बहुत बाद में होता है।
जिन प्रत्याशियों को नागरिकों के बीच रहना आता है, वे जमीन से जुड़े होते हैं, ऐसे लोग मतदाताओं का विश्वास बहुत ही जल्द प्राप्त कर लेते हैं। पर कुछ प्रत्याशियों को मतदाता आखिर तक अपना नहीं मान पाते। राहुल गांधी और डॉ. मनमोहन को लेकर लोग ऐसा ही सोचते हैं कि वे अपने नहीं हैं, पर सोनिया गांधी को लेकर मतदाताओं में अपनापा देखा जाता है। इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए रोटी-कपड़ा और मकान का नारा दिया था, अरविंद केजरीवाल सड़क-बिजली और पानी के नारे के साथ जनता के सामने आए। रोटी-कपड़ा और मकान के नारे में इंदिरा गांधी का अनुभव काम आया। पर अरविंद केजरीवाल ज्वलंत मुद्दों के साथ भले ही सामने आएं हों, पर उनमें अनुभव की कमी के कारण उनका सड़क पर आना भी लोगों को नागवार गुजरा। जनता क्या चाहती है, उसकी नब्ज पर हाथ रखकर प्रत्याशी आगे बढ़ें, तो जीत सुनिश्चित होती है। पिछले दस वर्षो में हम सबने देखा कि इतनी अधिक चलनियों से गुजरने के बाद भी प्रत्याशी जीत तो जाते हैं, पर बाद भी उनमें सत्ता का मोह ऐसा जागता है कि वे भ्रष्टाचारी, सेक्सकांड में उलझने वाले या फिर दलाली के चक्कर में फंस जाते हैं। इससे पार्टी बदनाम होती है। कई सांसद तो संसद में प्रश्न पूछने के लिए भी रिश्वत लेते हैं। यह भी जगजाहिर हो चुका है। इसके लिए होना तो यह चाहिए कि सांसद के काम की हर साल समीक्षा होनी चाहिए। यदि इसमें वह फिट नहीं बैठते, तो पार्टी को उसके खिलाफ सख्त कदम उठाने चाहिए, ताकि दूसरे सांसदों को सबक मिले। टिकट देने में जितनी उदारता बरती जाए, उतने ही सख्त उनके कार्यकलापों के लिए भी होना चाहिए, तभी पार्टी और उसके द्वारा चयनित प्रत्याशियों की छवि बेदाग होती है।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 10 मार्च 2014

मोदी बनाम केजरीवाल: मुकाबला दिलचस्प होगा

 डॉ. महेश परिमल
चुनाव रणभेरी बज चुकी है। आचार संहिता लागू हो गई है। ऐसे में गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी मोदी के खिलाफ आम आदमी पार्टी के अध्यक्ष अरविंद केजरीवाल ने ताल ठोंक दी है। गुजरात जाकर उन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज भी कर दी है। सबकी निगाहें इसी बात पर टिकी हैं कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ वाराणसी से यदि अरविंद केजरीवाल चुनाव लड़ते हैं, तो इसका पूरा लाभ केजरीवाल को ही होगा। क्योंकि उसके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। नरेंद्र मोदी यदि डरकर वाराणसी से चुनाव नहीं लड़ते हैं, तो केजरीवाल कहेंगे कि वे मुझसे डर गए। यदि नरेंद्र मोदी वाराणसी से चुनाव जीत जाते हैं, तो केजरीवाल यही कहेंगे कि पॉवर और मनी की जीत हुई। अब से 16 मई तक देश के नागरिकों को अन्य किसी मनोरंजन की आवश्यकता नहीं होगी। सभी राजनैतिक समीकरण में उलझे हुए नजर आएंगे। इस दौरान लोग बॉलीवुड और आईपीएल को भी भूल जाएंगे, यह तय है।
इस बार लोगों का भरपूर मनोरंजन करने के लिए राहुल गांधी, नरेंद्र मोदी, अरविंद केजरीवाल आदि हम सबके सामने हैं। दिल्ली की जनता को नाराज कर केजरीवाल ने वाराणसी से नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने की घोषणा कर सबको चौंका दिया है। यदि नरेंद्र मोदी वाराणसी में केजरीवाल के खिलाफ चुनाव लड़ने की भूल करते हैं, तो केजरीवाल के लिए विन-विन की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। भाजपा को यदि दिल्ली में सत्ता पर काबिज होना है, तो हिंदी हाटलैंड माने जाने वाले उत्तर प्रदेश-बिहार से अधिक से अधिक सीटें जीतनी होंगी। शायद इसीलिए मोदी के सलाहकार उन्हें गुजरात के अलावा एक हिंदी प्रदेश से चुनाव लड़ने की सलाह दे रहे हैं। वाराणसी अपनी धार्मिक आस्थाओं के कारण अलग से पहचाना जाता है। इसलिए नरेंद्र मोदी के लिए यह सीट सुरक्षित दिखाई दे रही है। पर अरविंद केजरीवाल ने यहां से चुनाव लड़ने की घोषणा कर विकट स्थिति पैदा कर दी है। यदि केजरीवाल का मुकाबला करना है, तो सबसे बड़ा शस्त्र उनकी उपेक्षा करना है। अब तक तो मोदी यह काम बड़ी चालाकी से करते दिखाई दे रहे हैं। अब यदि वास्तव में वाराणसी में दोनों की टक्कर होती है, तो निश्चित रूप से मोदी केजरीवाल की उपेक्षा नहीं कर पाएंगे। केजरीवाल चुनाव जीते या हारें, नरेंद्र मोदी के खिलाफ लड़कर वे अपना कद ऊंचा तो कर ही लेंगे। आखिर प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के सामने चुनाव लड़ रहे हैं। उन्हें केवल इसी का लाभ मिलेगा। इसका लाभ उन्होंने अभी से ही लेना शुरू भी कर दिया है। अब गेंद मोदी के पाले में है। यदि मोदी वाराणसी से चुनाव नहीं लड़ते, तो केजरीवाल कहेंगे कि वे मुझसे डर गए। यदि मोदी अपने निर्णय पर अडिग रहे और अपनी तमाम शक्ति चुनाव जीतने में लगा भी देते हैं, तो पूरे देश में वे अपना प्रचार ठीक से नहीं कर पाएंगे। पार्टी को उनका पूरा लाभ नहीं मिलेगा। यदि केजरीवाल जीत जाते हैं, तो वे जाइंट किलर बन जाएंगे। यदि मोदी बहुत ही कम अंतर से जीतते हैं, तो इसे केजरीवाल की नैतिक जीत बताया जाएगा। यदि भारी बहुमत से जीतते हैं, तो केजरीवाल को यह कहने का मौका मिल जाएगा कि पॉवर और मसल पॉवर की जीत हुई है।
इस चुनावी जंग में एक खिलाड़ी ऐसा है, जिसके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। दूसरा खिलाड़ी ऐसा है, जो यदि जीतता है या हारता है, तो उसे बहुत कुछ खोना पड़ सकता है। जो यह समझते हैं कि केजरीवाल राजनीति के नए खिलाड़ी हैं, उसे गंभीरता से न लिया जाए, तो यह उनकी भूल होगी। यही भूल दिल्ली के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस-भाजपा ने की थी। जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा था। राजनीति के कई ऐसे खिलाड़ी रहे हैं, जो बरसों से राजनीति की बाजी खेल रहे हैं, पर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक नहीं पहुंच पाए, लेकिन केजरीवाल ने यह कर दिखाया। उन्होंने यह चमत्कार एक वर्ष में ही कर दिखाया। दिल्ली में शीला दीक्षित को हराना बहुत ही मुश्किल था, पर वे हार गई। उन्हें भी पराजय का स्वाद चखना पड़ा। कांग्रेस की व्यूह रचना अब नरेंद्र मोदी के खिलाफ राहुल गांधी के बदले अरविंद केजरीवाल का इस्तेमाल कर रही है। केजरीवाल की कांग्रेस के साथ शायद कुछ गोपनीय सौदेबाजी हुई है, इसलिए आम आदमी पार्टी अब कांग्रेस की बी टीम की भूमिका निभा रही है। आम आदमी पार्टी की रचना ही भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने के लिए हुई है। दिल्ली के चुनाव में उनका मुख्य मुद्दा भ्रष्टाचार ही था। जिसका उन्हें व्यापक समर्थन मिला। इसी की बदौलत उन्हें 28 सीटें मिल भी गईं। दिल्ली के चुनाव का परिणाम आया, तब तक केजरीवाल के लिए कांग्रेस-भाजपा दोनों ही उसके कट्टर दुश्मन थे, पर उसके बाद हालात बदले और आप ने कांग्रेस के सहारे सरकार बना ली। 49 दिनों तक मुख्यमंत्री रहकर केजरीवाल लगातार झूठ पर झूठ बोलकर  अपने मतदाताओं से दूर होते गए। कुछ ही दिन पहले उन्होंने कहा था कि उनके दुश्मन नम्बर वन भाजपा(नरेंद्र मोदी) हैं। उनका मानना है कि आज देश में भ्रष्टाचार से भी अधिक गंभीर मुद्दा जातिवाद है। अब वे जातिवाद की लाठी से भाजपा को फटकारने में लगे हैं। उनकी इस कार्यशैली में कांग्रेस का हाथ है।
आज की तारीख में अरविंद केजरीवाल सबसे बड़े तमाशेबाज हैं। पहले उन्होंने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चलाया। तमाशा बने और बनाया भी। उनके इस तमाशे से नागरिकों को काफी पीड़ा हुई। इसलिए अब उन्होंने अपने सुर बदल दिए। तमाशे पर तमाशे करते रहे। कभी सड़क पर तो कभी विधानसभा में। अंतत: उन्हें मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। जिस जनलोकपाल विधेयक को लेकर उन्होंने अपनी लड़ाई शुरू की, उसी बिल ने उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटने के लिए विवश किया। देश के तमाम नेताओं पर कीचड़ उछालकर उन्होंने अपनी पार्टी को पूरी तरह से बेदाग बताया। यही उनकी भूल सामने आई। टीवी पर लगातार चमकने की कला उन्हें खूब आती है। पर यही कला उन्हें ले डूबी। जिस तरह से तमाम चैनलों ने उन्हें हाथो-हाथ लिया, उन्हीं चैनलों से वे एकदम ही छिटक गए। ये सारी बातें उत्तर प्रदेश के वाराणसी में चुनाव के दौरान सामने आएंगी। वहां जबर्दस्त लड़ाई का माहौल दिखाई देगा। वहां सपा, बसपा, कांग्रेस और सभी भाजपा विरोधी हैं। यदि ये सभी एक हो जाएं और वाराणसी से अपने उम्मीदवार ही खड़े न करे, तो मोदी-केजरीवाल के बीच सीधी जंग होगी। इन हालात में नरेंद्र मोदी को अपनी पूरी शक्ति वाराणसी में ही केंद्रित करनी होगी। तब चुनाव समीकरण बदल सकते हैं। देखना यही है कि राजनीति का यह ऊंट किस करवट बैठता है?
  डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 6 मार्च 2014

प्रदूषण की सारी सीमाएं तोड़ता चीन

 

सोमवार, 3 मार्च 2014

जहर के प्रचारक नायक


जनसत्‍ता के 3 मार्च के रविवारीय में प्रकाशित मेरा आलेख

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