बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

हमारे प्रमुख वित्त मंत्री


डॉ. महेश परिमल
फरवरी का माह देश के बजट का होता है। माह की शुरुआत से ही लोग अपने बजट पर कम लेकिन देश के बजट पर अधिक चर्चा करते नजर आते हैं। इसी माह रेल बजट भी घोषित होता है। बजट चाहे घर का हो, या फिर देश का, चिंतित अवश्य करता है। आमदनी के आधार पर वर्ष भर की योजनाओं पर कार्य करने के लिए मुस्तैद होना होता है। कई बार देश का बजट आम आदमी के लिए भारी पड़ जाता है। वैसे बजट में हमेशा आम आदमी को ही रखा जाता है। पर यह उसी के लिए घातक होता है। सरकार अपने खर्च की भरपाई करने के लिए टैक्स में बढ़ोत्तरी करती है। इधर आम आदमी पर उसका असर बुरी तरह से पड़ता है। फिर भी हर वर्ष यह सोचा जाता है कि इस बार शायद आम आदमी को बजट में राहत मिले। कई बार बजट में जिन उत्पादों से कर हटाया जाता है, या जिन उत्पादों को सस्ता किया जाता है, उसका लाभ आम आदमी को नहीं मिल पाता। इस देश में ऐसा होता आया है कि एक बार जो वस्तु महंगी हो गई, वह कभी सस्ती नहीं होती। लोगों को चीजें सस्ती मिले, इसके लिए कोई प्रयास नहीं होते। बजट में केवल चीजें सस्ती होने की घोषणा मात्र ही होती है। कई बार महंगाई बढ़ाने में यही बजट जिम्मेदार होते हैं। पिछले कुछ समय से देश में जो भी बजट लाया गया है, उसे प्रस्तुत करने वाले या तो अर्थशास्त्री हैं, या फिर उच्च शिक्षा प्राप्त। इन्होंने जब भी बजट तैयार किया है, उसमें किसी तरह की राजनैतिक मनमानी नहीं चली है। देश के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पहले वित्त मंत्री रह चुके हैं, इसके अलावा पी.चिदम्बरम कल देश का बजट संसद में पेश करेंगे, ये दोनों ही अमेरिकी की डिग्री से विभूषित हैं।
डॉ. मनमोहन सिंह
प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पंजाब यूनिवसिर्टी में 1948 में मेट्रिक की परीक्षा पास की। आगे की शिक्षा उन्होंने इंग्लंड की यूनिवर्सिटी ऑफ केब्रिज में प्राप्त की। यही उन्होंने 1957 में अर्थशास्त्र में फस्र्ट क्लास ऑनर्स की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने 1962 में आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की न्यू फिल्ड कॉलेज से अर्थशास्त्र में पी-एच.डी की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने पंजाब यूनिवर्सिटी और प्रतिष्ठित दिल्ली स्कूल ऑफ इकानामिक्स में काम किया। इन अनुभवों के कारण उन्हें 1987 में जिनेवा में साउथ कमिशन में सेक्रेटरी जनरल के रूप में काम करने का अवसर मिला। 1971 में  डॉ. मनमोहन सिंह केंद्र के वाणिज्य विभाग में आर्थिक सलाहकार के रूप में अपनी सेवाएं दी। इसके बाद 1952 में वे वित्त विभाग में मुख्य आर्थिक सलाहकार बने। इसके बाद वित्त सचिव, योजना आयोग के अध्यक्ष, रिजर्व बैंक के गवर्नर जनरल, प्रधानमंत्री के सलाहकार और यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमिशन के अध्यक्ष का भी पद संभाला।
पलनीयचप्पन चिदम्बरम
इनका सेवाकाल 31 जुलाई 2012 से अभी तक, 22 मई 2004 से 30 नवम्बर 2008, 1 मई 1997 से 19 मार्च 1998, 1 जून 1996 से 21 अप्रैल 1997 तक। शिक्षा, मद्रास यूनिवर्सिटी से बीएससी, बीएल, एमबीए के बाद बोस्टन की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में भी अध्ययन किया। चिदम्बरम ने मद्रास क्रिश्चियन हायर सेकेंडरी स्कूल में शिक्षा लेने के बाद लोयोला कॉलेज से प्री-यूनिवर्सिटी डिग्री प्राप्त की थी। चेन्नई के प्रेसीडेंसी कॉलेज में स्टेटीक्स विषय में बीएससी की डिग्री लेने के बाद उन्होंने मद्रास लॉ कॉलेज, जिसे अभी डॉ. अंबेडकर गवर्मेट लॉ कॉलेज के नाम से जाना जाता है, में एलएलबी की डिग्री प्राप्त की।  1984 में वे सीनियर एडवोकेट बने। उन्होंने देश की विभिन्न हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट में कानूनी प्रेक्टिस की और चेन्नई तथा दिल्ली में अपना कार्यालय भी खोला।
प्रणव मुखर्जी
सेवा का कार्यकाल 24 जनवरी 2009 से 25 जून 2012, 15 जनवरी 1982 सं 31 दिसम्बर 1984। प्रणब मुखर्जी ने वीरभूम जिले के सूरी क्षेत्र से सूरी विद्यासागर कॉलेज में पढ़ाई की। वे राजनीति शास्त्र और हिस्टी में मास्टर्स डिग्री रखते हैं। कलकत्ता यूनिवर्सिटी से उन्होंने एलएलबी की डिग्री भी उन्होंने प्राप्त की है। राजनीति में आने के पहले वे कलकत्ता में डाकतार विभाग में डिप्टी एकाउंट जनरल के कार्यालय में अपर डिवीजन क्लर्क के रूप में भी काम किया है। 1963 में उन्होंने दक्षिण 24 परगना क्षेऋ की विद्यानगर कॉलेज में अध्यापन कार्य किया। इसके साथ-साथ उन्होंने देशेर डाक नामक बंगला अखबार के लिए पत्रकारिता भी की। इसके बाद वे खुलकर राजनीति में आए।
यशवंत सिन्हा
सेवाकाल: 19 मार्च 1998 से 1 जुलाई 2002,  10 नवम्बर 1990 से 21 जून 1991। यशवंत सिन्हा ने 1957 में राजनीति शास्त्र में मास्टर्स डिग्री प्राप्त की। 1971 से 1073 में जर्मनी के बोन शहर में भारतीय दूतावास के फस्र्ट सेकेट्ररी कर्मिशियल थे।1973-74 के दौरान उन्हें फ्रेंकफर्ट में काउंसर जनरल ऑफ इंडिया के रूप में काम किया। इसके बाद बिहार में सरकार के डिपार्टमेंट ऑफ इंडस्ट्रीयल इंफ्रांस्टक्चर में काम किया। इसके अलावा केंद्र के उद्योग विभाग में हरकर विदेशी औद्योगिक संबंधों, तकनीकी आयातों, इंटेलेक्चुअल प्रापर्टी राइट्स और इंडस्ट्रीयल एप्रूवल का काम संभाला। 1980 से 1984 तक केंद्र के सरफेस ट्रांसपोर्ट विभाग के सहसचिव के रूप में काम किया।
जसवंत सिंह
सेवाकाल: 1 जलाई 2002 से 22 मई 2004 और 15 मई 1995 से 1 जून 1996। जसवंत सिंह ने अपना कैरियर सेना से शुरू किय था। साथ-साथ डिफेंस सर्विस इंस्टीट्यूट, इंस्टीट्यूट आफ डिफेंस एंड स्ट्रेटेजिक स्टडीज तथा इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट आफ स्टट्रेजिक स्टडीज, लंदन के साथ भी जुड़े रहे। 1960 के दशक में वे भारतीय सेना के अधिकारी थे। इसके अलावा मेघो कॉलेज तथा खड़कवासला में स्थित नेशनल डिफेंस अकादमी में भी बड़े पद पर रह चुके हैं।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

‘चमड़े के थैले’ से निकला है ‘बजट’ शब्द

बजट आया फ्रेंच शब्द बूजेत से, जिसका अर्थ है चमड़े का थैला या झोला। लेकिन हम बजट का अर्थ निकालते हैं आय-व्यय के ब्योरे से। अक्सर यह भी कहते हैं कि फलां वस्तु बजट से बाहर है, यानी हमारे बस की बात नहीं है? आखिर बजट शब्द प्रचलन में कैसे आया?
इंग्लैंड से शुरू हुई परंपरा: किस्सा 1733 का है। ब्रिटिश वित्तमंत्री सर रॉबर्ट वालपोल संसद में वित्तीय प्रस्ताव पेश कर रहे थे। उन्होंने इससे जुड़े कागज चमड़े के थैले से निकाले। वालपोल का मजाक उड़ाते हुए कुछ दिन बाद एक पुस्तका प्रकाशित हुई, जिसका शीर्षक था -‘बजट खुल गया’। उसी समय से सरकार के वार्षिक आय-व्यय के विवरण के लिए बजट शब्द का इस्तेमाल होने लगा। धीरे-धीरे यह ब्रिटिश राज में आने वाले देशों में भी प्रचलित हो गया।
भारत में कैसे आया बजट: 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दमन के दो साल बाद वायसराय लॉर्ड केनिंग ने अपनी कार्यकारिणी में वित्त विशेषज्ञ जेम्स विल्सन को शामिल किया। विल्सन ने 18 फरवरी 1860 को वायसराय की परिषद में पहली बार बजट पेश किया। इसके बाद हर साल बजट पेश होने लगा। वायसराय की परिषद में भारतीय प्रतिनिधियों को बजट पर बहस करने का अधिकार नहीं था। 1920 तक एक ही बजट बनता था। 1921 में रेल बजट अलग हुआ। तब से दो बजट पेश किए जाते हैं- रेल बजट और आम बजट।
संविधान में व्यवस्था: संविधान के अनुच्छेद 112 के अनुसार राष्ट्रपति हर वर्ष सरकार को संसद में ‘वार्षिक वित्तीय विवरण’ रखने को कहते हैं। इसमें एक अप्रैल से 31 मार्च तक की अवधि का वित्तीय अनुमान होता है। 1967 से पहले तक वित्त वर्ष की अवधि एक मई से 30 अप्रैल तक होती थी, लेकिन कृषि फसल चक्र के हिसाब से ये नई अवधि तय की गई है। 1998-99 तक बजट शाम पांच बजे पेश किया जाता था। तत्कालीन वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा ने परंपरा तोड़ी और सुबह 11 बजे बजट पेश होने लगा।

शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

फांसी की राजनीति: फायदा किसी को नहीं होगा

डॉ. महेश परिमल
लोकसभा चुनाव को अभी एक वर्ष की देर है। पर मुलायम सिंह यादव की मानें,तो चुनाव समय से पहले ही हो सकते हैं। यह उनका गणित है। दूसरी ओर कांग्रेस देश में महंगाई पर काबू पाने, भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में पूरी तरह से विफल साबित हुई है। लोगों का ध्यान दूसरी ओर करने के लिए इस बार भावनाओं को जगाने वाले संवेदनशील मुद्दों का सहारा लिया गया है। इससे अन्य विफलताओं पर लोग नजरअंदाज कर जाएंगे। ऐसा कांग्रेस सोच रही है, पर इस बार वह भुलावे में न रहे, तो ही अच्छा। क्योंकि जनता अब जाग चुकी है। अब वह प्रलोभनों में नहीं आने वाली। उसे काम चाहिए और काम करने वाले नेता। इस बार वे नेता बुरी तरह हारेंगे, जिन्होंने काम नहीं किया। यह तय है। लोग विकास चाहते हैं, कुछ नया होता देखना चाहते हैं। अब उन्हें प्रलोभन डिगा नहीं पाएंगे।
मौत को जिंदा रखकर राजनीति करना भारतीय परंपरा रही है। किसी की मौत से क्या-क्या फायदे हो सकते हैं, यह पुलिस भले ही बाद में सोचे, पर भारतीय राजनीति में यह बहुत पहले सोच लिया जाता है। आतंकी अफजल गुरु की फांसी के बाद अब उससे किसको क्या फायदा होगा, किसको क्या नुकसान होगा, इसकी चर्चा चल पड़ी है। इसमें विशेष बात यह देखने में आई कि लगातार निष्क्रियता और अनिर्णयात्मकता के आरोपों से घिरी सरकार ने अचानक ही पहले अजमल कसाब और फिर अफजल गुरु के मामले में जो जल्दबाजी, गोपनीयता और साहस का परिचय दिया, उससे यह निकलकर आ रहा है कि लोकसभा चुनाव के बारे में मुलायम सिंह जो कह रहे हैं, उसमें सच्चई है। कोई भी निर्णय कब लिया जाए, इसमें समय बहुत बड़ा कारक है। अफजल को जिस तरीके से फांसी दी गई, उसके पहले कांग्रेस ने अच्छा होमवर्क किया, यह स्पष्ट है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की दूसरी पारी में जो निष्फलताएं सामने आई, उनके निर्णय न लेने की स्थिति, अपनों को नियंत्रण में न रख पाने की स्थिति आदि को देखते हुए कांग्रेस को यह सिद्ध करना था कि वह अपने निर्णयों पर दृढ़ रहती है, त्वरित फैसले लेती है, इस छवि को स्थापित करने के लिए उसने यह सब किया। ताकि चुनाव से पहले अपने आपको एक मजबूत सरकार के रूप में प्रस्तुत कर सके।
पिछले महीने जयपुर में आयोजित कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में इस संबंध में निर्णय लिया गया ािा और कांग्रेस की थिंकटेंक द्वारा सरकार की छवि सुधारी जाए, इसके साथ ही विपक्ष के आरोपों की धार को किस तरह से भोथरी किया जाए, ऐसे तमाम मुद्दों की सूची तैयार की गई थी। महंगाई और भ्रष्टाचार ये यूपीए सरकार का सबसे बड़ा कलंक है, इसे धोने के लिए तमात प्रयास किए जाने की भी वकालत की गई। इस संबंध में यह तय किया गया कि सरकार की आक्रामक छवि बनाई जाए और संवेदनशील मुद्दों पर अधिक ध्यान दिया जाए। ताकि अन्य विफलताओं पर लोगों का ध्यान न जा पाए। खुदरा व्यापार में एफडीआई सहित कई मुद्दों पर सरकार ने जो दृढ़ता दिखाई, उससे ममता, मुलायम और मायावती जैसे कद्दावर नेताओं ने सरकार की नाक दबा रखी है। सरकार अपनी दृढ़ता दिखाने के लिए पहले कसाब और फिर अफजल को फांसी पर लटका दिया। संवेदनशील मुद्दों पर काम करने की दिशा में यह पहला कदम था। कसाब को फांसी देने पर कहीं से भी विरोध के स्वर नहीं उठे, पर अफजल को फांसी देने का सबसे अधिक विरोध कश्मीर में ही हुआ। इसकी वजह यही है कि अफजल शिक्षित था और उसकी पृष्ठभूमि आतंकवाद से नहीं जुड़ती थी। इसलिए लोग उससे सहानुभूति रखते थे।
दूसरी तरफ आगामी चुनाव में उज्जवल परिणाम की आशा रखकर आक्रामक हो रही भाजपा को भी कांग्रेस कम नहीं आंक रही है। भाजपा हिंदुत्व का कार्ड लेकर चुनाव मैदान में उतर रही है। नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की घोषणा कर वह सरकार के निर्णय न लेने के मुद्दे उछाले जाए, इस संभावना के बीच अफजल को फांसी देकर कांग्रेस ने एक पत्थर से दो शिकार किए हैं। अफजल को फांसी देकर वह अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण कर रही है, इससे वह स्वयं को दृढ़ होकर निर्णय लेने वाली सरकार साबित करना चाहती है। राजनैतिक मोर्चो पर मुकाबलों के बाद सरकार के पास आखिरी मुद्दा देश की रक्षा का है। अफजल को फांसी देकर कश्मीर के चरमपंथी फिर आक्रमक बन सकते हैं। अफजल की मौत का बदला जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तोएबा किस तरह से लेते हैं। यह एक गंभीर प्रश्न है। इस समय कश्मीर में चरमपंथी बिखरे हुए हैं। अफजल जिस जेकेएलएफ का सदस्य था, उसके अध्यक्ष यासीन मलिक अभी पाकिस्तान में सईद के साथ दिखने से विवादास्पद हैं। संभवत: उनका पासपोर्ट ही जब्त हो जाए। इसलि कश्मीर में वह कुछ कर पाएगा, इसकी संभावना कम ही है।
पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में इस समय शांति है, इसलिए कुछ फिल्मों की शूटिंग भी हो रही है। अबोटाबाद में अमेरिका ने एक ऑपरेशन के तहत जिस तरह से ओसामा बिन लादेन को मारा था, उससे कमजोरी सामने आने के डर से पाकिस्तान ने कश्मीर के आसपास अपने सारे प्रशिक्षण शिविर बंद कर दी थी। संसद पर हमले के लिए जिन्होंने अफजल को  लश्कर-ए-तोएबा ने कई तरह की सहायता की थी, वही अभी गंभीर आर्थिक संकट से गुजर रहा है। ऐसी अमेरिकी जासूसी संस्था सीआईए और रॉ की खबर है। लादेन की मौत के बाद अल कायदा बिना नेतृत्व के है, इन हालात में आतंकवादी संगठन का पूरा तंत्र ही आर्थिक रूप से जर्जर है, उसकी नेटवर्किग और जानकारियों का लेन-देन भी बंद है। अल कायदा की भूमिका यह है कि यदि वह कमजोर पड़ता है, तो मध्य-पूर्व एशिया में लगभग सभी आतंकवादी संगठन भी कमजोर पड़ जाते हैं। जैश और लश्कर की कमजोर आर्थिक स्थिति के पीछे भी यही कारक काम कर रहा है। इन हालात में यदि अफजल को फांसी पर लटका दिया गया है, तो कश्मीर में आरंभिक विरोध के बाद अब कोई बड़ा विरोध नहीं होगा। ऐसी सरकार की धारणा है। कश्मीर की आंतरिक राजनीति  भी सरकार के लिए सहायक है। उमर अब्दुल्ला की ट्विटर पर व्यक्त किए गए विचार एक तरफ उनकी नाराजगी को दर्शाते हैं, तो दूसरी तरफ उन्होंने जिस तरह से ट्विट किया है, उससे यह संदेश जाता है कि वे भी सरकार से किसी तरह का पंगा लेना नहीं चाहते। उनकी नाराजगी का सूर ही यह बता देता है। उमर इससे अधिक विरोध नहीं कर सकते थे।
इसके बाद भी भाजपा अफजल को फांसी देने के मामले में अपनी नैतिक विजय देख रही है। रातो-रात निर्णय लेकर अफजल को दी गई फांसी हिंदुत्व कार्ड और मोदी का नाम उछलने का असर के रूप में देख रही है। लेकिन यह भाजपा का भ्रम ही है। अफजल को फांसी का मामला अधिकतम आठ दिनों तक ही मीडिया में छाया रहेगा। इसके बाद तो प्रधानमंत्री पद की दावेदारी और आगामी चुनाव की ही चर्चा होनी ही है। अल्पसंख्यकों के दिलों से डर निकालने के लिए कांग्रेस स्वयं भी अफजल के भूत को दूर करना पसंद करेगी। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि अफजल की मौत से किसी को कोई फायदा नहीं होने वाला। सरकार के खिलाफ नाराजगी के और भी कारण है, जिसमें महंगाई, भ्रष्टाचार के अलावा अन्य कई मुद्दे हैं। सरकार को इससे ही निस्बत नहीं है। भाजपा भी इन मुद्दों को अधिक नहीं भुना सकती। इसलिए अफजल की फांसी को भाजपा भी अधिक तूल देकर उससे लाभ नहीं ले सकती। दोनों को ही यह पता चल गया है कि सबसे बड़े मुद्दे महंगाई और भ्रष्टाचार के आगे शेष सभी मुद्दे गौण हैं। इसलिए मोदी की तरह विकास की बात करके ही आगे बढ़ा जा सकता है।
   डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013

सृष्टि का यौवन है वसंत








सृष्टि का यौवन है वसंत
डॉ. महेश परिमल
प्रकृति का सबसे रमणीय रूप देखना हो, तो वसंत ऋतु को आत्मसात कर लो। इस समय प्रकृति में जो कुछ भी हो रहा है, उसे ध्यान से देखो। सोलह कलाओं से खिल उठने वाली प्रकृति, सौंदर्य लुटाने वाली प्रकृति सभी को लुभाती है। जिस तरह से हम प्रेम उत्सव मनाते हैं, ठीक उसी तरह प्रकृति भी अपना उत्सव मनाती है। प्रकृति के इसी उत्सव को हम वसंत कहते हैं। जो प्रकृति के साथ रहते हैं, वे भला वसंत को किस तरह से अनदेखा कर सकते हैं? उल्लास और उमंग का ही दूसरा नाम है वसंत ऋतु। वसंत यह तो सृष्टि का यौवन है और यौवन ही जीवन का वसंत है। वसंत यानी निसर्ग का छलकता वैभव। वसंत यानी जीवन खिलने का उत्सव। वसंत ऋतु यानी पेड़ों का श्रंगार। वसंत यानी नव पल्लवित, आम्रकुंजों की महक से सुवासित उल्लास और प्रसन्नता से छलकता प्रकृति का वातावरण। इसमें गूंजने वाली कोयल की कू-कू मन को आनंदविभोर कर देती है।
वसंत ऋतु यानी सभी तरह की समानता। इन दिनों कड़कड़ाती ठंड नहीं लगती। पसीना लाने वाली गर्मी भी नहीं होती। सभी को प्यारा लगे, वैसा मौसम। जीवन का वसंत खिलता है, तो जीवन में आने वाले सुख-दु:ख, जय-पराजय, यश-अपयश आदि में भी समानता रखनी चाहिए। जिस तरह से मौसम में तब्दीली देखी जाती है, ठीक उसी तरह से मानव जीवन में भी एक मौसम पतझड़ का आता है। इस दौरान यदि अपने इष्ट देवता पर दृढ़ता से विश्वास रखा जाए, तो हमारा जीवन भी खुशियों से खिल उठेगा। आशा का दीप सतत प्रज्ज्वलित रखने की सूचना वसंत ही देता है। हमारा जीवन हरियाली से युक्त होगा, इस गारंटी देता है वसंत। वसंत ऋतु एक वेदकालीन पर्व है।
वसंत यानी प्रेम, रोमांस और उन्माद का समय, क्योंकि गहरे प्रेम की शर्मीली अभिव्यक्ति यानी वसंत। प्यार की यादों की अभिव्यक्ति यानी वसंत। कहीं मां का वात्सल्य यानी प्रेम, तो कहीं समुद्री किनारे प्रेयसी के साथ हाथ में हाथ डालकर सब कुछ भूलकर बिताए गए पलों की जुगाली यानी वसंत। कहीं सब कुछ भूलकर भक्त की नवधा भक्ति यानी वसंत। इन सभी स्थानों में जहां प्रेम है, वहां है वसंत। वसंत कोई भौतिक वस्तु नहीं है, पर एक  हृदय से महसूस किया जाने वाला एक अहसास है। समस्त जड़-चेतन प्रकृति में प्राण फूंकते हैं, इससे प्रकृति स्वयं ही नृत्य करने लगती है। जीवन में जिस तरह से किशोरावस्था के बाद यौवन आता है, ठीक उसी तरह से वसंत में प्रकृति पर यौवन झूमने लगता है। जब किसी को प्रेयसी की स्वीकारोक्ति मिलती है, तब उसके जीवन में वसंत का आगमन होता है, ठीक उसी तरह से वसंत में प्रकृति चारों तरफ से खिल उठती है।प्रकृति नवोदित बन जाती है। पेड़ों पर नई कोंपलें आने लगती हैं। नए पत्तों से पूरा पेड़ ही लहलहाने लगता है, ये नयनाभिराम दृश्य मन को मोह लेता है। प्रकृति नई दुल्हन की तरह पूरे श्रंगार के साथ हमारे सामने होती है। इस दौरान मिलने वाले आनंद और उत्साह को किसी ने नापा नहीं जा सकता। प्रकृति के इस अनुपम उपहार को निहारने के लिए हम भला किसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं?
इस ऋतु में आकाश साफ होता है। बादलों की अनुपस्थिति होती है। इसलिए रात में तारों का प्रकाश पृथ्वी पर सीधे आता है। दिन में धूप भी सुहानी लगती है। इस समय हवा में ही पागलपन भरा होता है। बातें प्रेम की ही अधिक होती है। प्रेमियों के मिलन का स्वागत पूरी प्रकृति करती है। फूल अपनी हंसी देते हैं। कोयल के कंठ से प्रेम की बोली निकलती है। फूलों की सुवास चारों और फैल जाती है। तालाब-सरोवर कमल के फूलों से ढंक जाते हैं। रात में  कमल के ये फूलं चंद्रमा की किरणों और भी प्यारे दिखाई देते हैं। खेतों में सरसों के फूलों को देखकर लगता है कि प्रकृति ने इन खेतों पर पीली चादर बिछा दी हो। इस ऋतु में पीले रंग का बहुत ही महत्व है। इस समय सभी को अपने प्रिय की याद आती ह। वे उससे मिलने को आतुर दिखाई देते हैं। आनंद, उत्साह, स्फूर्ति इस ऋतु की देन है। पीला रंग ज्ञान का प्रतीक रूप है। ज्ञान से पवित्र कुछ भी नही है। पीला वस्त्र धारण करने के पीछे यही उद्देश्य है कि ऊर्जा हमारी बुद्धि में प्रकट हो। इस ऋतु में चंद्रमा को अपार बल प्राप्त होता है। चंद्र मन का कारक देव है। इसी कारण इस ऋतु को मधु ऋतु भी कहा जाता है, क्योंकि इस ऋतु में मधुरता का प्रसार होता है।
इस ऋतु को जीव और ईश्वर के मिलन की ऋतु कहा जाता है। शारदा पूजन से बुद्धि पवित्र होती है, उससे जीव ही पवित्र हो जाता है। यह आदान-प्रदान की ऋतु है। इस ऋतु का एक ही संदेश है-आशा के सहारे समदृष्टि से प्रकृति की गोद में खेलते-खेलते परमात्मा द्वारा की गई कृपा का सदुपयोग करने से जीवन का वसंत खिल उठेगा। वसंत के आगमन से पृथ्वी का रस वृक्षों की शाखाओं में फैल जाता है, तो फिर हमारे हृदय में प्रेम की उष्मा भी उछलेगी। यदि हम वसंत के आगमन की प्रतीक्षा करते रहेंगे, तो वसंत में जो सत्य है,वही वसंत का मन-वचन एवं कर्म से स्वागत कर सकता है।. अब वसंत को जरा हटके विज्ञान की दृष्टि से देखें। वसंत उन्माद का दूसरा नाम है। प्रकृति नया चोला पहनती है। हवा में एक तरह की ऊर्जा बहती है। युवा में इसे उन्माद के रूप में देखा जा सकता है। इस समय मानव मस्तिष्क में फिरोटीन नामक द्रव्य का स्तर कम-ज्यादा होता है। इस प्रक्रिया से ही उन्माद पैदा होता है। रोमांस को गति मिलती है।
जिस तरह से वसंत ऋतु में आम की बौर आती है, उसी तरह वसंत में उन्माद का आना स्वाभाविक है। शास्त्रों में भी लिखा है कि आम के पेड़ों पर बौर आने से मस्तिष्क हिलोरें लेने लगता है। शरीर में ऋतु के अनुसार बायोकेमेस्ट्री बदलती है। वसंत ऋतुओं का राजा होने के कारण इस दौरान मानव का मूड सबसे बेहतर होता है। प्रकृति भी इस समय नव सृजन में लग जाती है। मानव मस्तिष्क का भी नवसर्जन होता है। इस समय कोई भी व्यक्ति प्रेम में पड़ सकता है। उसमें उन्माद पैदा होता है। वह रोमांटिक होने लगता है। कई लोग इसकी अधिकता के कारण मेनिया डीसीज का शिकार हो जाते हैं। अब से एक महीने तक समय पूरे वर्ष के सर्वश्रेष्ठ महीनों में से एक होगा। टेसू के फूलों को देखकर निराश हृदय में आशा का संचार होगा। अब पूरे रास्तों पर लाल, पीले टेसू के फूलों से लबालब दिखाई देंगे। सभी प्राणियों में मनुष्यों में एक अलग ही तरह की खुशी दिखाई देगी। तो आओ, वसंत के इस झूले में झूलने की कोशिश करें। प्रकृति का खुले हृदय से स्वागत करें। इससे खुशियों के रंगों में ेजीना सीखें। प्रृति का भरपूर आनंद लेकर कहें, स्वागत वसंत।
  डॉ. महेश परिमल
 

मंगलवार, 12 फ़रवरी 2013

मेरी दूसरी किताब आ गई

 

सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

अस्ताचल की ओर अन्ना का युग

डॉ. महेश परिमल
केवल दो वर्ष में ही अन्ना हजारे नाम को जो सूरत भारतवर्ष के आसमान में एक नक्षत्र की तरह दिखाई दिया था, वह शायद अब अस्ताचल की ओर है। एक-एक करके उनके विश्वस्त साथी उनका साथ छोड़ते जा रहे हैं। अरविंद केजरीवाल ने उनके मतभेद हुए और उन्होंने अपनी अलग पार्टी बना ली। अब तक उनके साथ रहीं किरण बेदी के भी विचार उनसे अलग होने लगे हैं। दो वर्ष पहले अन्ना हजारे बहुत बड़े ब्रांड थे, उनके एक इशारे पर पूरा देश विशेषकर युवा सड़क पर उतर आए थे, उसी अन्ना की बात उनके अपने ही नहीं सुन रहे हैं। कहां गए वो नारे, जिसमें कहा जाता था कि अन्ना एक क्रांति है, अन्ना एक आंधी है, अन्ना दूसरे गांधी हैं। दो वर्ष पहले देश के कोने-कोने में इस तरह के नारे खुले आम गूंजते थे। लोगों ने उनमें एक नए युग का सूत्रपात करने वाला इंसान देखा था। वह युग केवल दो वर्ष में ही अस्ताचल की ओर होने लगा। आखिर ऐसी क्या बात हो गई कि लोग अब उनकी बातें सुनना पसद नहींे करते।
इसमें कोई दो मत नहीं कि अन्ना हजारे की नीयत पर कोई शक नहीं कर सकता। पूर्व में किए गए आंदोलन के बची उनकी सच्चई सामने आ रही थी। भ्रष्टाचार मुक्त भारत का विचार लेकर वे जिस तरह से सामने आए, तो हर किसी ने उनका सम्मान किया। भ्रष्टाचार ने इस देश को निगल लिया है, यह सभी जानते हैं। इस दिशा में कोई भी अपना सब कुछ छोड़कर आगे आने को तैयार नहीं था। अन्ना की भूल केवल इतनी ही थी कि जो उनके साथ जुड़े, उन्हें वे पहचान नहीं पाए। अन्ना परिवर्तन चाहते थे, पर उनके साथियों को चाहिए थी सत्ता। आज अन्ना की हालत यह है कि एक सामान्य रैली में लोग इकट्ठा नहीं हो रहे हैं। पटना में आयोजित जनतंत्र रैली का आयोजन हुआ था। पूरे राज्य में यह मुनादी की गई थी कि राज्य में कुछ ऐसा अनोखा होने जा रहा है, जो इसके पहले नहीं हुआ। पटना का गांधी मैदान में जनसैलाब उमड़ने की कल्पना करने वालों ने देखा कि पूरा मैदान ही खाली है। गिनती के ही कुछ लोग अन्ना को सुनने आए थे। इस रैली को जंगी जनतंत्र नाम दिया गया था। ये मात्र एक सामान्य आम सभा बनकर रह गई। जो मीडिया अन्ना के पीछे दौड़ता था, उसने भी कोई खास तवज्जोह नहीं दी। यह भी जान गया है कि लोगों की रुचि अब अन्ना में नहीं है।
ऐसा भी नहीं है कि अन्ना की वाणी अभी भी ओजस्वी नहीं है। उन्होंने नए राष्ट्रीय स्तर के संगठन की घोषणा की और उसे नाम दिया जनतंत्र मोर्चा। आज हालत यह है कि आज अन्ना के पास न तो जन है और न ही तंत्र, मोर्चा तो हो ही नहीं सकता। अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, प्रशांत भूषण जैसे महारथी अन्ना का साथ छोड़ चुके हैं। अभी अन्ना के साथ यदि कोई जाना-पहचाना नाम है तो वह है किरण बेदी। इन्होंने ही अन्ना को चेताया था कि अपने साथियों को पहचानो, इन सबसे दूर रहो, ये सत्याग्रही नहीं हैं, सत्ता आग्रही हैं। आज लोकपाल के मुद्दे पर यही किरण बेदी के विचार अन्ना से मेल नहीं खा रहे हैं। संशोधित लोकपाल विधेयक का अन्ना ने विरोध किया है, वहीं किरण बेदी ने इसका समर्थन किया है। अन्ना को लोगों ने एक क्रांति के रूप में देखा था, लेकिन सच तो यह है कि क्रांति स्पष्ट ध्येय, सटीक विचार और तटस्थ निर्णयों से होती है। कोरी गप्पबाजी से नहीं। अब अन्ना के भाषण में प्रलाप अधिक हैं, विचार कम हैं।
अन्ना के साथ दूसरी बात यह है कि वे जहां जो बात करनी होती है, नहीं करते। अपने भाषण में वे दूसरों की ही बातें अधिक करते हैं। पटना की रैली का ही उदाहरण देख लो, वहां उन्होंने गुजरात में लोकायुक्त और अन्य बातें की, बिहार की कोई बात नहीं की। उनके भाषण में ऐसा कुछ भी नया नहीं था, जिसे उन्होंने पहली बार कहा हो, वही पुराना घिसा-पिटा रिकॉर्ड। जिसे लोगों ने कई बार सुना है। इसमें कोई शक नहीं है कि देश में जब भी लोकपाल का नाम आएगा, अन्ना को याद किया जाएगा। पटना की रैली के दूसरे दिन दिल्ली में लोकपाल के नए मुद्दे की चर्चा के लिए केंद्रीय केबिनेट की बैठक आयोजित की गई। इस बैठक में सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि पूरे समय अन्ना का न तो नाम आया न ही लोकपाल विधेयक पर उनके असर को देखा गया। आज यदि जंतर-मंतर पर अन्ना की सभा का आयोजन किया जाए, तो कितने लोग आएंगे? यह सवाल है। पर देश ने जब वर्ल्ड कप जीता था, उसके तुरंत बाद के दिनों का याद किया जाए, तो अन्ना तो अकेले ही आए थे। लोग आते गए और कारवां बनता गया। फिर जेल, विवाद, सत्ता का लालच, बदनाम करने की कोशिशें, आरोप-प्रत्यारोप का ऐसा घालमेल हुआ कि अन्ना अकेले पड़ गए।
पटना की रैली में अन्ना ने कहा कि उनके नया संगठन जनतंत्र मोर्चा चुनाव नही लड़ेगा। यही बात जब अरविंद केजरीवाल कहते थे, तब उन्हें समझाने की आवश्यकता थी। वैसे अरविंद केजरीवाल भी कोई खास नहीं कर सके। केवल कुछ उद्योगपतियों और नेताओं की पोल खोलकर वे कोई बड़ी क्रांति नहीं कर रहे हैं। अभी शीला दीक्षित पर उन्होंने जो आरोप लगाए हैं, उसे मीडिया में कोई खास महत्व नहीं मिला। लगता है कि अब उन्हें अपनी औकात अच्छी तरह से समझ में आ गई है।  मैं आम आदमी हूं के नारे के साथ केजरीवाल ने अपने दल आम आदमी की घोषणा की,उसे अभी चार महीने भी नहीं हुए हैं, इतने ही दिनों में वे काफी सिमट गए हैं। अब न तो उनकी पार्टी की कहीं चर्चा होती है, न ही उनके बयानों पर। इसमें सबसे बड़ी बात यह रही कि लोगों ने जो परिवर्तन का सपना देखा था, वह पूरा नहीं हो पाया। ऐसा लगा कि हम सब मिलकर एक सपना ही देख रहे थे कि अचानक हमें जगा दिया गया। अब तो अन्ना को देखकर अपने अधूरे सपने के टूटने का अहसास होता है। सपने के टूटने की वेदना बहुत ही कष्टदायक होती है,  इसे अन्ना समझेंगे, या केजरीवाल?
   डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 7 फ़रवरी 2013

धैर्य से दूर कमल हासन

डॉ. महेश परिमल
अपनी फिल्म विश्वरूपम को लेकर कमल हासन ने जिस तरह से देश छोड़ने का बयान दिया है, उसकी सर्वत्र आलोचना की जा रही है। आज हर क्षेत्र का काम चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है। क्षेत्र चाहे फिल्म का हो या साहित्य का। लोग आलोचना करने के लए तैयार बैठे हैं। लोगों की धार्मिक सहिष्णुता कम होती जा रही है। दूसरी ओर तुष्टिकरण की राजनीति के कारण कई अर्थ का अनर्थ हो जाता है। कई धार्मिक धारावाहिक बनाने वाले संजय खान ने जब इस्लाम पर धारावाहिक बनाने की घोषणा की, तब उसका विरोध होना शुरू हो गया। इसी तरह ईसा मसीह पर एक धारावाहिक दूरदर्शन पर शुरू हुआ, पर कुछ एपिसोड के बाद उसे बंद कर दिया गया। कट्टरवाद आज सभी ओर हावी है। ऐसे में कुछ नई सोच के साथ काम करना मुश्किल हो जाता है। कमल हासन ने देश छोड़ने का बयान हताशा में आकर दिया लगता है। विश्वरूपम उसका सपना है, इसमें पूरे जुनून के साथ अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया है। इस सपने पर ग्रहण लग जाने से हतजाशा में उन्होंने इस तरह का बयान दिया है। लोगों को उनसे ऐसे बयान की अपेक्षा नहीं थी। एक तरह से वे अपनी खैर मना सकते हैं, दूसरे देशों में ऐसा होता, तो अब तक उनके खिलाफ फतवा जारी हो गया होता। फिल्म का विरोध कतई बुरा नहीं है, विरोध करने का तरीका अवश्य बुरा है। इस मसले पर यह फैसला दर्शकों पर छोड़ देना चाहिए कि यदि वे फिल्म में कोई बुराई देखेंगे, तो उसे नकार देंगे। संगठनों को आगे आने की आवश्यकता नहीं है। दर्शक ही तय करें फिल्म को हिट करना है या फ्लाप।
कमल हासन की मानसिक स्थिति को देखकर कई लोग उनके समर्थन में आ खड़े हुए हैं। इसमें सबसे प्रमुख हैं रजनीकांत और सलमान खान। फिल्मी दुनिया में दोस्ती की बहुत सी मिसालें दी जाती हैं। पर ऐन मौके पर सारी दोस्ती एक तरफ हो जाती है। फिल्मी दोस्ती परदे पर ही अच्छी लगती है। पर आम जिंदगी में यदि दोस्ती का सही अर्थ जानना हो, तो रजनीकांत की पहल से जाना जा सकता है। यूं तो कमल हासन और रजनीकांत प्रतिस्पर्धी अभिनेता हैं। लेकिन कमल हासन की फिल्म विश्वरूपम के विवादास्प्द होते ही सबसे पहले यदि अपनी दोस्ती निभाने के लिए आगे आए, तो वे थे रजनीकांत। इसके पहले जब शाहरुख खान की फिल्म ‘माय नेम इज खान’ प्रदर्शित हुई, तब बाल ठाकरे ने उसका काफी विरोध किया था। तब उनके समर्थन में कोई कलाकार सामने नहीं आया, केवल जावेद अख्तर और शबाना आजमी ने शाहरुख के समर्थन में अपना बयान दिया। इस बार रजनीकांत ने खुले रूप में कमल हासन को अपना समर्थन देकर यह बता दिया कि कमल हासन से उनके मतभेद हो सकते हैं, पर मनभेद कतई नहीं है। आज जहां अहंकार का टकराव है, गला काट स्पर्धा है, ऐसे में रजनीकांत का कमल हासन के समर्थन में आना यह साबित करता है कि मित्र हमेशा ही मित्र होता है। आज रजनीकांत ने सच में मित्रता को परिभाषित किया है। क्योंकि आज कमल हासन अपनी सोद्देश्य फिल्म को लेकर करीब एक करोड़ रुपए के तनाव में आ गए हैं। रजनीकांत ने मुस्लिमों से अपील करते हुए कहा है कि कमल हासन के मन में मुस्लिमों के खिलाफ किसी प्रकार का द्वेष नहीं है। यदि ऐसा होता, तो वे मुस्लिमों के लिए इस फिल्म की खास स्कीनिंग नहीं रखते। आज ऐसी दोस्ती बड़ी मुश्किल से दिखती है। अब तो सलमान खान भी कमल हासन का समर्थन कर रहे हैं।
आखिर विवाद क्या है
विश्वरूपम में  कमल हासन ने आतंकवाद को विषय बनाया है। मुस्लिम संगठनों का यह दावा है कि फिल्म में मुस्लिमों और इस्लाम को गलत तरीके से पेश किया गया है। फिल्म का एक पात्र कुरान पढ़ने के बाद आतंकवादी हरकतें करता है। इसके अलावा एक दाढ़ीवाले मुस्लिम को बम रखने की फिराक में दिखाया गया है। यही नहीं, फिल्म के माध्यम से यह बताने की कोशिश की गई है कि आतंकवाद के मूल में पवित्र कुरान ही है। फिल्म में जब भी  आतंकवाद के दृश्य आते हैं, तब बेकग्राउंड में कुरान की आयतें सुनाई देती हैं। फिल्म में मुस्लिमों को घातक बताया गया है। दर्शकों पर इसका असर यह होगा कि वे मुस्लिमों के बारे में वे उनके जेहन में नकारात्मक छवि ही उभरेगी। इसके अलावा फिल्म में तालिबानी नेता मुल्ला उमर को मदुराई और कोयतम्बूर में छिपा होना बताया गया है। फिल्म का विरोध करने वाले लोग यह भी मानते हैं कि यह फिल्मं अंतरराष्ट्रीय स्तर की तकनीक का इस्तेमाल कर बनाई गई मुस्लिम विरोधी दस्तावेजी फिल्म है। फिल्म में कमल हासन भारतीय गुप्तचर संस्था रॉ के एजेंट हैं, जो कश्मीरी आतंकी का नकली वेश धारण कर अमेरिकी गुप्तचर संस्था सीआईए के साथ मिलकर विश्व में फैले आतंकियों का सफाया करते हैं। दूसरी ओर कमल हासन कहते हैं कि फिल्म में धर्म के नाम पर आतंकवाद फैलाने वाले तत्वों को बताया गया है, मेरी पूरी कोशिश है कि इसमें भारतीय मुस्लिमों को किसी प्रकार से गलत तरीके से प्रस्तुत न किया जाए। उल्लेखनीय है कि इसके पहले कमल हासन की मेयर मागन और विरुमांडी जैसी फिल्में इसी तरह के विवाद में फंस चुकी हैं। इन फिल्मों में भी विशेष समुदाय पर आपत्तिजनक टिप्पणी की गई थी।
फिल्म की कहानी
फिल्म की कहानी कुछ इस प्रकार है। उमर और सलीम नामक दो अफगानी आतंकी न्यूयार्क शहर में सेसियम बम के विकिरण फैलाना चाहते हैं। विश्वनाथ न्यूयार्क में कथक नृत्य की शिक्षा देने का काम करता है। वास्तव में वह जासूस होता है। निरुपम परमाणु वैज्ञानिक है। केवल न्यूयार्क में रहने की इच्छा के कारण वह अपनी उम्र से बड़े विश्वनाथ से शादी कर लेती है। निरुपम अपने बॉस दीपक कुमार से प्रेम करती है, जो आतंकी उमर के साथ मिल गया है। अमेरिका को परमाणु बम से उड़ा देने की योजना में वह उसका साथ देता है। विश्वनाथ भूतकाल में अल-कायदा की आतंकी छावनी में काम कर चुका है। बाद में उसका हृदय परिवर्तन हो जाता है और वह रॉ से जुड़ जाता है। विश्वनाथ की सही पहचान उमर को पता चल जाती है, वह उसे गिरफ्तार करवा देता है। उसके बाद विश्वनाथ किस तरह से आतंकवादियों के पंजे से छूटकर किस तरह से न्यूयार्क को बचाता है, यही देखना है। कमल हासन कहते हैं कि इस फिल्म में मुस्लिमों का किसी भी तरह से खराब चित्रण नहीं किया गया है। बल्कि उनका गौरव ही बढ़ाया गया है। लेकिन मुस्लिम समुदाय इस बात को मानने के लिए तैयार ही नहीं है। भारतीय मुस्लिम अपनी कट्टरता के लिए जाने जाते हैं। इन हालात में फिल्मों में मुस्लिमों का किसी प्रकार से गलत चित्रण न हो, इसका पूरा खयाल रखा जाता है। कमल हासन ने भी अपनी फिल्म में इस तरह की पूरी सावधानी बरती है। इसके बाद भी मुस्लिम न जाने किस कारण इस फिल्म का विरोध कर रहे हैं। क्या भारतीय मुस्लिम नेता यह मानते हैं कि भारत का कोई भी मुस्लिम देशप्रेमी नहीं हो सकता और आतंकवादियों के खिलाफ लड़ नहीं सकता? ऐसी कलात्मक फिल्म का विरोध कर मुस्लिम नेता अपनी कौम का किस प्रकार का नेतृत्व कर रहे हैं, इसे आसानी से समझा जा सकता है।
कमल हासन जैसा बुद्धिजीवी और संवेदनशील व्यक्ति देश छोड़ने की वाहियात बात करेगा, ऐसी अपेक्षा किसी ने नहीं की थी। विश्वरूपम के पहले भी कई लोगों की कई फिल्मों का विरोध हुआ है। हासन अकेले नहीं हैं। फिल्मों का विरोध हमेशा से ही होता रहा है। फिल्मों का इतिहास ही बताता है कि किसी भी फिल्म या दूसरी कला के विरोध में बंद का आयोजन भी बाधाजनक नहीं रहा। कमल हासन यह गलत सोच रहे हैं कि फिल्म का विरोध ही न हो, तो यह संभव नहीं। विश्वरूपम के खिलाफ विरोध तो अभी अदालत तक ही पहुंचा है। वे अभी से क्यों डर रहे हैं? अभी तो अदालत का फैसला नहीं आया है। जो विरोध से डरे, उसे कलाकार नहीं कह सकते। कमल हासन को यह नहीं भूलना चाहिए कि जहां भी कुछ भी यदि नया हुआ है, तो उसका विरोध हुआ ही है। आखिर उन्होंने यह कैसे सोच लिया कि उन्हें न्याय नहीं मिलेगा। मद्रास हाईकोर्ट ने पिछले दिनों ही विश्वरूपम से प्रतिबंध हटा लिया है। अन्य निर्णयों की राह भी देखनी चाहिए। इतना धीरज तो कलाकार में होना ही चाहिए। यदि अन्याय हो रहा है, तब वेदना का दबाना मुश्किल होता है, इसलिए हताशा में देश छोड़ने का बयान दे डाला।
पद्मभूषण के लिए नाम हट गया
कमल हासन के खिलाफ कुछ तत्व निश्चित रूप से काम रहे हैं। क्योंकि आजादी की पूर्व संध्या पद्मभूषण के लिए जो सूची बनाई गई थी, उसमें उनका नाम भी था, किंतु अ¨तम क्षणों में उनके नाम को हटा दिया गया। उसके पीछे उनकी इसी फिल्म का विरोध ही होगा। विरोध के कारण माहौल उनके खिलाफ पहले से ही बनने लगा था। आज कमल हासन अकेले नहीं हैं। कई हस्तियां उनके साथ हैं। इतना तो तय है कि यदि उनके साथ न्याय होता है, तो क्या वे देशवासियों से माफी मागेंगे? वास्तव में इस फिल्म के पीछे तुष्टिकरण की राजनीति हावी हो गई है। जैसा कि बहुत पहले रोम्या रोला कह चुके हैं कि कोई व्यवस्था आराम से चल रही हो, तो उसमें थोड़ी सी राजनीति डाल दो, व्यवस्था बरबाद हो जाएगी। कुछ ऐसा ही विश्वस्वरूप के साथ हो रहा है। पर रजनीकांत ने अपना मित्रवत धर्म जिस तरह से निभाया है, उसे दोस्ती की नजीर के रूप में देखा जाना चाहिए। समय की यही मांग है कि दोस्त यदि मुसीबत में हो, तो उसकी सहायता के लिए दुश्मनों को भीे आगे आना चाहिए।
    डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 4 फ़रवरी 2013

आर्मस्ट्रांग: शिखर से शून्य तक

बिना घोड़ों के तबेले पर ताला लगाने से क्या होगा?
डॉ. महेश परिमल
सफलता और शार्टकट के बीच कितना अंतर होता है। इसे साइकिलिस्ट आर्मस्ट्रांग के जीवन से समझा जा सकता है। आर्मस्ट्रांग को जुर्म कबूलने की वजह से कॅरियर के दौरान कमाई सारी जमा पूंजी लौटानी पड़ सकती है। प्रचार कंपनियां उनसे पैसा मांग सकती हैं। टेक्सास स्थित कंपनी एससीए प्रमोशन पहले ही आर्मस्ट्रांग को भुगतान की गई 1.2 करोड़ डॉलर की राशि वापस मांग चुकी है। अंतरराष्ट्रीय ओलिंपिक समिति ने आर्मस्ट्रांग से वर्ष 2000 में सिडनी ओलंपिक का कांस्य पदक छीन लिया है। अंतरराष्ट्रीय साइकिलिंग यूनियन भी उनसे सभी सातों टूर-डी-फ्रांस खिताब वापस ले चुका है। उनका बैंक खाता कभी भी खाली हो सकता है। विश्वसनीयता के सभी घोड़े भाग जाने के बाद ख्रिताब वापस लेना ठीक ऐसा ही है, जैसे खाली तबेले पर ताला लगा दिया गया हो। साइकिलिस्ट आर्मस्ट्रांग की टीम के साथी टेलर हेमिल्टन की किताब ‘द सिक्रेट रेस’ में ड्रग्स के सेवन करने वाले आर्मस्ट्रांग के फंडे कई चौंकाने वाली जानकारियां सामने आई। ड्रग्स लेने के बाद ब्लड टेस्ट में न पकड़े जाने के लिए आर्मस्ट्रांग डेढ़ सौ ग्राम मिर्च खा जाते थे। एंडी डोपिंग के विज्ञापन चाहे जितनी भी तरक्की कर लें, पर लगातार एक दशक तक डर्र्ग्स लेकर भी न पकड़े जाने वाले आर्मस्ट्रांग ने जो चाहा, उसे प्राप्त किया। एक तरफ उसने भारी प्रसिद्धि प्राप्त की, तो दूसरी तरफ कैंसर जैसे रोग से भी मुकाबला किया। कैंसर को मात देने की उसकी इच्छाशक्ति की सबने तारीफ की। क्रिकेटर युवराज ने भी उससे प्रेरणा ली।
आर्मस्ट्रांग के जीवन से यही सीखा जा सकता है कि सफलता प्राप्त करने के लिए येनकेनप्रकारेण कुछ भी किया जा सकता है। कहा जाता है कि जिस तरह से प्यार और जंग में सब कुछ जायज है,तो फिर साइकिलिंग भी किसी जंग से कम न थी आर्मस्ट्रांग के लिए। उसने अपने तमाम सुख-चैन निश्चित कर लिए। अब चाहे उसके सारे खिताब ले लिए जाएं, बैंक खाता खाली कर दिया जाए, फिर भी उसके पास ऐसा कुछ तो है ही, जिससे जीवन शांतिपूर्वक बिताया जा सके। आखिर कई कंपनियों की आय उसके विज्ञापन से ही तो बढ़ी होगी, जिनका विज्ञापन आर्मस्ट्रांग ने किया। आज भले ही उस पर हावी हो, पर जब उसके सितारे चमक रहे थे, तब यही कंपनियां उससे भारी मुनाफा कमा रही थी। अब तक अ को वर्ल्ड साइकिलिस्ट के रूप में लांस आर्मस्ट्रांग को कुल एक करोड़ 82 लाख डॉलर के इनाम प्राप्त हुए हैं। इसके अलावा अनेक निजी कंपनियों एक विश्वविजेता के साथ अपने ब्रांड एम्बेसेडर को अंडरवियर से लेकर बाथरुम के फव्वारे तक का खर्च स्पांसर किया है। वह नाइकी, आईबीएम, मोटोरोला जैसी 21 कंपनियों का ब्रांड एम्बेसेडर रह चुका है। अमेरिका के अलावा फ्रांस, जर्मनी और इंग्लैंड में आर्मस्ट्रांग के नाम पर पार्क, रास्ते और इमारतें हैं। फ्रांस के एक अत्यंत जोखिम ढलान को भी आर्मस्ट्रांग स्केवर का नाम दिया गया है। इन सबको अब नशीले आर्मस्ट्रांग के नाम पर हटाया जाना मुश्किल है।
टूर डी फ्रांस विजेता के रूप में अपार सफलता प्राप्त करने वाले आर्मस्ट्रांग ने एल ए स्पोर्ट्स अकादमी शुरू की है, 50 लाख डॉलर की यह उसके पास चल-अचल सम्पत्ति के रूप में है। दूसरे ओर कैंसर का इलाज करने वाली उसकी संस्था को स्वैच्छिक अनुदान के रूप में 8 करोड़ डॉलर मिले हैं। अब तक दुनिया यह मानती थी कि इस शान शौकत, लोकप्रियता, प्रतिष्ठा के पीछे आर्मस्ट्रांग एक साइकिलिस्ट होने के दौरान प्राप्त किया पराक्रम ही जिम्मेदार है, पर अब जब पता चल ही गया है कि इन सबके पीछे गैरकानूनी रूप से ड्रग्स का सेवन जवाबदार है, तो लोगों को एक झटका लगता है। पर यह झटका कोई सबक नहीं देता। आर्मस्ट्रांग का दोष केवल इतना ही नहीं है कि उसने ड्रग्स लेकर साइकिलिंग की कई स्पर्धाएं जीती। उसका दोष उस समय बढ़ गया, जब उसने लगातार दस वर्ष तक अपनी पूरी टीम को इस तरह का ड्रग्स लेने के लिए उकसाया। वो कभी पकड़ा भी न जाता, यदि उसकी टीम के साथी ने किताब न लिखी होती। किताब के लेखक हेमिल्टन के अनुसार साइकिलिंग की रेस जीतने के लिए उसके कोच और स्पोर्ट्स मेडिसीन के डॉक्टर अधिकतम क्षमता में 5 से 7 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी करना चाहते थे। उस समय उसे अर्थरोपोयटिन (ईपीओ) के रूप में जाने जाने वाले द्रव्य लेने को कहा गया था। खिलाड़ियों को यह ड्रग्स लेने के लिए मनाने की जिम्मेदारी आर्मस्ट्रांग ने उठाई थी। उस समय आर्मस्ट्रांग का वर्चस्व इतना अधिक था कि ड्रग्स लेने से इंकार करने वाले खिलाड़ी का कैरियर ही चौपट हो सकता था। यदि आर्मस्ट्रांग की टीम में शामिल होना है, तो ईपीओ का सेवन अत्यावश्यक था। उनके आदेश का पालन न केवल हेमिल्टन बल्कि ग्रेग हेनकेपी और फ्लायड लेंडिस ने भी किया। ‘द सिक्रेट रेस’ में किए गए रहस्योद्घाटन के अनुसार ड्रग्स का असर पकड़ में न आने पाए, इसके लिए आर्मस्ट्रांग ने डॉक्टरों की मदद से ऐसे अनेक तरकीबें आजमाई, जिससे शारीरिक क्षमता का विकास होता हो। आमतौर पर वे शाम के समय ड्रग्स का सेवन करते थे, क्योंकि रात में डोपिंग एजेंसी के अधिकारी जांच नहीं करते और 8-9 घंटे बाद लिए जाने वाले ब्लड के नमूने मे ईपीओ के पकड़े जाने की संभावना नहीं के बराबर होती है। साइकिल स्पोर्ट्स में खिलाड़ी के साथ कितनी ही मान्यता प्राप्त एनर्जी ड्रिंक्स ले जाने की छूट होती है।
आर्मस्ट्रांग ने अपनी टीम के लिए वितरित किए गए कोकाकोला के टीन का ढक्कन तोड़कर उसमें ईपीओ के इंजेक्शन छिपाकर उसे एल्यूमिनियम की नीब से टीन का सील बंद कर देने का नुस्खा अपनाया था। इस तरह से उसने बरसों तक डोपिंग एजेंसी को धोखा दिया। कितनी ही बार तो आर्मस्ट्रांग ने रेस के महत्वपूर्ण राउंड में अपने प्रतिस्पर्धी को अधिक अंतर से हराने के लिए सुबह ही ड्रग्स लेने का खतरा उठाया। टेलर हेमिल्टन ने कबूल किया है कि जब सुबह ड्रग्स लेने का आदेश आर्मस्ट्रांग अपने साथियों को देते थे, तो उनकी हालत खराब हो जाती थी। क्योंकि ड्रग्स लेने के बाद डोपिंग टेस्ट में न पकड़े जाएं, इसलिए आर्मस्ट्रांग अपने सामने ही उन्हें 100-150 ग्राम तीखी मिर्च धीरे-धीरे चबाचबाकर लेने को कहते। मिर्च में शामिल केप्सिनोइड और अन्य रसायन के कारण ब्लड के नमूने में ईपीओ के लक्षण बदल जाते थे। कितनी ही बार तात्कालिक और तेज एनर्जी डोज की आवश्यकता होती, तब डॉक्टर बड़ा खतरा उठाते हुए दूसरा तरीका आजमाते। सभी खिलाड़ियों के शरीर में से 300 सीसी रक्त निकालकर लेबोरेटरी में उस पर प्रक्रिया कर उसमें बहुत अधिक मात्रा में रक्तकण डाला जाता और उस पाउच में ही अर्थरोपोयटिन ड्रग मिला दिया जाता था। इसके बाद खिलाड़ियों को सुबह होटल में अपने कमरे में दीवार पर एडहेसिव टेप की सहायता से पाउट लटकाकर स्वयं ही रक्त अपने शरीर पर ले लिया करते। इससे खिलाड़ी में ताकत, स्फूर्ति और जुनून को बूस्टर डोज तैयार होता और उसकी क्षमता में 20 से 25 प्रतिशत का इजाफा देखने को मिलता।
इतने गलत तरीके से प्राप्त ताकत और जुनून को साथ लेकर आर्मस्ट्रांग पहाड़ों की कठिन चढ़ाई साइकिल से तेजी से पूरी कर लेते। उसे देखकर हम सब तालियां बजाकर उसकी ताकत और क्षमता की प्रशंसा करते। अब पता चला कि पहाड़ों की कठिन चढ़ाई पार करने के लिए आर्मस्ट्रांग ने किस तरह से शार्टकट का रास्ता तैयार किया। उसने स्वयं ही ड्रग्स लेकर नियमों को भंग किया, बल्कि अपने साथी खिलाड़ियों को भी उसका चस्का लगा दिया। इतने बड़े अपराध का सजा केवल इनाम और पदक को वापस ले लेने से पूरी नहीं हो सकती। यदि उसकी सारी सम्पत्ति को हस्तगत किया जाए और उसे जेल भेज दिया जाए, तो भविष्य में अन्य खिलाड़ी भी इस तरह का कार्य करने से एक बार डरेंगे। आर्मस्ट्रांग जब तक जेल में होंगे, लोग उन्हें एक धोखेबाज के रूप में ही पहचानेंगे। उसे तो उन प्रतिभाशाली खिलाड़ियों के हिस्से की प्रतिभा को नष्ट करने का भी आरोप लगाया जाना चाहिए। कई ऐसे खिलाड़ियों को उसने हराया होगा,जो वास्तव में पदक के हकदार थे, पर उसके सामने टिक नहीं पाए, तो गुमनामी के अंधेरे में खो गए। उनमें से न जाने कितने ऐसे होंगे, जिनका सपना एक जांबाज साइकिलिस्ट बनना रहा होगा, पर आर्मस्ट्रांग के तरीकों ने उन्हें कहीं का नहीं रखा। दूसरी ओर डोपिंग टेस्ट केलिए नई जांच पद्धति का आविष्कार होना चाहिए। ताकि फिर कोई नया आर्मस्ट्रांग किसी भी प्रतिभाशाली खिलाड़ी के सपने को तोड़ने की हिम्मत न कर सके।
   डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2013

यह ब्रह्म ज्ञान शाहरुख को कहां से आया?

डॉ. महेश परिमल
पाकिस्तान को शाहरुख खान की सुरक्षा की चिंता है। यह तो वही बात हुई कि घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने। जिस देश में केवल आतंकी ही सुरक्षित हों, वहॉं कोई भारतीय भला कैसे सुरक्षित रह सकता है? यह बात पाकिस्तान को समझ में नहीं आ रही है। पर शाहरुख खान को यह ब्रह्मज्ञान कहां से मिला, यह कोई बताना नहीं चाहता। इस समय देश भर से ऐसे-ऐसे बयान सामने आ रहे हैं कि ऐसा लगता है हम किसी असभ्य देश में रह रहे हैं। अभी तक जितने भी बयानवीर हमारे सामने आए हैं, वे सभी शिक्षित हैं, साथ ही अपने माध्यम से दूसरों को भी शिक्षित करने का काम करते हैं।  यह बयानबाजी दिल्ली के राजनैतिक गलियारों को पार करती हुई बापू के सत्संग से होते हुए अब मायानगरी में जाकर फुल, लाइट, कैमरे में जाकर अटक गई है। यहां से जो बयान जारी हुआ, उसकी प्रतिक्रिया पाकिस्तान से आ रही है। यह विवादास्पद बयान किंग खान यानी शाहरुख खान की तरफ से आया है। अपने बयान में उन्होंने कहा है कि मुझे हमेशा अपने नाम के कारण इस देश में राजनीति का शिकार होना पड़ा है। अपने परिवार की सुरक्षा को लेकर मैं चिंतित रहता हूं। इस पर भारत से भले ही कोई प्रतिक्रिया न आई हो, पर पाकिस्तान में रहने वाले आतंकी हाफीज सईद ने उन्हें ससम्मान अपने यहां बुलाया है। समझ में नहीं आता है कि जिस देश की धरती पर शाहरुख रह रहे हैं, उनके पिता ने स्वतंत्रता की इसी देश में स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी, आज इतने वर्षो बाद उन्हें यह ब्रह्मज्ञान कहां से प्राप्त हो गया कि उनका पूरा समुदाय ही खतरे में दिखाई दे रहा है। भारतीय दर्शकों की अपार प्रशंसा पाने वाला यह कलाकार अपने कैरियर के ढाई दशक बाद और अपनी आयु के साढ़े चार दशक पार करने के बाद अपने मुस्लिम धर्म को स्वयं के लिए अड़चन मानता है। इसे बीसवीं सदी का सबसे बड़ा मजाक कहा जा सकता है। शाहरुख कोई सलमान खान नहीं है, जो अपनी उद्दंडता से पहचाना जाए, शाहरुख कोई आमिर खान भी नहीं है, जो बिना किसी विरोध के अपनी बात कहता हो, शाहरुख अमिताभ बच्चन भी नहीं है, जो हमेशा धुरंधर राजनीतिज्ञों को भी पानी पिलाने की कूब्बत रखता हो और उसी सज्जनता से व्यवहार करता हो, जो हर शब्द नाप-तौल कर बोलता है।
हम सब 1988 से शाहरुख को देख रहे हैं। उन्हें अब पहचानने भी लगे हैं। फौजी, सर्कस टीवी धारावाहिक में वे दिखाई देते थे। गाल पर गड्ढे पर अब उम्र हावी होने लगी है। वे हम सबके सामने ही बड़े हुए। फिल्मी परदे पर उनकी सारी हरकतों को हमने सर आंखों पर बिठाया। वे कभी राहुल बने, कभी राज मल्होत्रा बने, कभी डॉन बने। उनके हर रूप को हमने अपने कांधों पर लिया। उनकी अच्छी फिल्मों को सराहा, कभी झटका भी दिया। उसकी खुशी में हम नाचे, तो उसके गम में शरीक भी हुए। आज ढाई दशक बाद हमें यह मालूम है कि वो एक ऐसे शख्स हैं, जो अपनी अनुकूलताओं के बीच विवादों को सुलगाने में सलमान की तरह है, सयम अनुकूल हो, तब विवादास्पद बयान देकर अपनी दृढ़ता बताते समय वे आमिर खान की तरह सख्त हो जाते हैं और अपना स्वार्थ पूरा हो जाने के बाद विवाद को विराम देने में अमिताभ की तरह डिप्लोमेटिक भी हैं। उनके जीवन के कुछ उतार-चढ़ाव को थोड़ा स्लो-मोशन में देखें, तो स्पष्ट होगा कि वे किस तरह के इंसान हैं:- एक जमाना था, जब वे कुंदन शाह, अजीज मिर्जा के साथ उनकी अच्छी जमती थी। टीवी के जमाने की वह दोस्ती ने ही राजू बन गया जेंटलमेन और कभी हां कभी ना, जैसी फिल्में मिली। इसके बाद कुंदन शाह के साथ कुछ विवाद हुआ, तो उन्होंने कुंदन शाह के लिए कहा-कुंदन थिंक्स एंड एक्ट लाइट मेजोरिटी हिंदू, और उनसे नाता तोड़ लिया। उधर अजीज मिर्जा को फाइनेंस करना जारी रखा। एक समय वे सलमान को अपना भाई कहते थे, उसी सलमान के साथ उनकी  कैटरीना कैफ की बर्थ डे पार्टी पर जोरदार बहसबाजी हुई, आज दोनों के बीच अबोला है।
इसी तरह वीर-जारा के प्रदर्शन के समय जानबूझकर सलमान और ऐश्वर्या के संबंधों को लेकर अभद्र भाषा का प्रयोग सलमान के साथ आने वाली फिल्म ‘मुझसे शादी करोगे’ पर अपनी जीत हासिल करने की कोशिश की। इन्हीं दिनों आने वाली सलमान की फिल्म ‘द प्राइड आफ ऑनर’ के लिए शाहरुख ने यह कहा कि इस फिल्म का नाम ‘गर्व द फिल्म ऑफ फुलिश’ होना था। इसके बाद सलमान के सितारे बुलंद होते गए, वक्त की नजाकत को समझते हुए उन्होंने सलमान को उपहार भेजा और सलमान के दुश्मन विवेक ओबेराय के साथ की फिल्म में काम करने से इंकार कर सलमान को खुश करने की कोशिश की। सलमान को छेड़ते वक्त और सलमान को रिझाने के दौरान उनका मकसद एक ही था, अपना लाभ। ऐसा ही उन्होंने अमिताभ बच्चन के साथ भी किया। अपनी होम प्रोडक्शन फिल्म ‘पहेली’ के लिए उन्हें अमिताभ की आवश्यकता थी, तब कोरी चेकबुक भेजी, फिर जब सफलता के लिए उन्हीं शाहरुख ने खुद को बड़ा साबित करने अमिताभ के लिए बंबु डांस कहकर उनके डांस करने की स्टाइल की खिल्ली भी उड़ाते हैं। ‘मोहब्बतें’ के लिए अमिताभ से बड़ी भूमिका, दमदार संवाद और छा जाने वाले सीन प्राप्त करने के लिए अथक प्रयास करते हैं। उधर खुले आम यह भी कह रहे हैं कि एक्टिंग की स्कूल के साथ काम कर रहा हूं। यह शाहरुख की फितरत है। उनके इस स्वभाव को सभी जान गए हैं। इसलिए न तो अमिताभ, न सलमान और न ही आमिर खान उनके बयानों को गंभीरता से लेते हैं। इनके मौन से ही सब कुछ समझ में आ जाता है।
एक समय ऐसा भी था, जब शाहरुख और फरहा खान की खूब जमती थी। वे फरहा को हमेशा मेरी अजीज दोस्त कहकर अवार्ड फंक्शन में मिनटों तक उसे बाहों में भर लेते थे। क्योंकि उस समय फरहा प्रोमिसिंग फिल्म मेकर मानी जाती थीं। सन 2000 में प्रदर्शित ‘मोहब्बतें’ के बाद लगातार 5 फिल्में उनके खाते में आईं। फरहा खान की ‘मैं हूं ना’ से उन्हें आशा जागी थी। इसके बाद तो ‘ओम शांति ओम’ के बाद फरहा के साथ ऐसा छूटा कि शाहरुख ने उनके पति शिरीष कुंदर को पत्नी से घबराने वाला पति कह दिया, उसके बाद एक फंक्शन में उन्हें थप्पड़ भी रसीद कर दिया। दूसरे दिन भले ही दोनों में सुलह हो गई, पर यह बात फरहा के दिल में चुभ गई। ‘माय नेम इज खान’ को सफल होना ही था, क्योंकि दो वर्ष से शाहरुख की एक भी ब्लॉक बस्टर फिल्म नहीं आई थी। दूसरी ओर सलमान, आमिर तेजी से आगे बढ़ रहे थे। इसलिए शाहरुख ने अमेरिका के एयरपोर्ट पर उनके साथ हुई कड़ी पूछताछ को विवाद के रूप में पेश किया। यहां पर पहली बार उन्होंने अपने अल्पसंख्यक कार्ड खेला। इसके बाद आईपीएल में वानखेड़े स्टेडियम में शाहरुख ने सुरक्षा गार्ड से बद्तमीजी की। पहले तो उन्होंने गार्ड पर यह आरोप लगाया कि उसने मेरे धर्म के खिलाफ कुछ कहा है, बाद में पता चला कि वह सुरक्षा गार्ड भी मुस्लिम है, तो शाहरुख ने अपना बचाव करते हुए कहा कि उसने मेरी संतानों को धक्का मारा था, इसलिए मैं अपने गुस्से को रोक नहीं पाया। सुरक्षा गार्ड से हुई झड़प को लोगों ने टीवी पर कई बार देखा भी होगा। आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाड़ियों को न खिलाने के मामले पर विरोध करने वाली शिवसेना के खिलाफ भी शाहरुख ने पहले तो अल्पसंख्यक कार्ड का ही इस्तेमाल किया। बाद में जब आईपीएल खत्म हो गया, तो सारे जहां से अच्छा की ट्यून बजाकर बाल ठाकरे, शिवसेना को प्रखर देशभक्त बताकर उनकी खुशामद भी की। यही नहीं, जब तक है जान, में स्वयं को एक सैनिक अधिकारी बताया, ताकि शिवसेना किसी भी प्रकार का विरोध ही न कर सके।
अब वही शाहरुख खान कह रहे हैं कि मैं बार-बार नेताओं का निशाना बनता रहा हूं। भारत में मुस्लिमों के साथ बहुत बुरा सलूक हो रहा है। उनकी निष्ठा को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। मैं उनका प्रतीक हूं। शाहरुख खान से यह पूछा जाए कि पिछले 25 सालों से जब हमें उनकी फिल्मों को सुपर-डुपर हिट बना रहे थे, तब उन्हें यह अहसास नहीं हुआ कि वे मुस्लिम हैं। फौेजी धारावाहिक में वे अभिनय के नाम पर क्या कर रहे थे, फिर भी हमने उन्हें सर आंखों पर बिठाया और उन्हें वालीवुड किंग बनाया। तब याद नहीं आया कि वे मुस्लिम हैं। अब अचानक ही आपको मुस्लिमों के लिए इंडिया अनकम्फर्टेबल लगने लगा।  वक्त की नजाकत को समझते हुए उन्होंने फिर पैंतरा बदला और कहने लगे कि भारत में खुद को असुरक्षित कहे जाने संबंधी मीडिया में आए उनके कथित बयान पर उपजे विवाद को कोरी बकवास करार देते हुए कहा कि इसे लेकर बेवजह हंगामा खड़ा किया गया है। उन्होंने कहा कि लोग मेरे लेख को पढ़े बिना किसी तरह की टिप्पणी नहीं करे तो बेहतर होगा। मैंने ऐसी कोई बात नहीं कही है। मुझे भारतीय होने पर गर्व है। मुझे इस देश में करोड़ों लोगों का प्यार मिला है। अब वे कह रहे हैं कि हम भारत में पूरी तरह महफूज और खुश हैं। मेरी सुरक्षा कभी कोई मुद्दा नहीं रहा है। ये तो कुछ लोग हैं जो धर्म के नाम पर नफरत फैलाने का काम करते हैं और हम जैसे भारतीय मुसलमानों को इसके लिए इस्तेमाल करने की नापाक कोशिश करते हैं। इससे ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि वे किस तरह की फिल्मी राजनीति करते हैं। पल में तोला-पल में माशा जैसा मुहावरा उनके व्यक्तित्व को सही रूप में परिभाषित करता है।
डॉ. महेश परिमल

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