शुक्रवार, 13 दिसंबर 2013

कांग्रेस का आत्ममंथन कितना आवश्यक ?

डॉ. महेश परिमल
चार राज्यों में कांग्रेस की हार के बाद अब आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला शुरू हो गया है। शरद पवार, फारुख अब्दुल्ला, सत्यव्रत चतुर्वेदी के बाद मणिशंकर अय्यर ने कांग्रेस की करारी हार के लिए अपने बयान जारी कर दिए हैं। इन बयानों से लगता है कि अब सोनिया गांधी की पार्टी पर पकड़ कमजोर होते जा रही है। इस दौरान कई दौर ऐसे आए, जहां तुरंत निर्णय लिया जाना था, पर सोनिया गांधी तुरंत निर्णय लेने में असमर्थ साबित हुई। इंदिरा गांधी के समय निर्णय तुरंत लिए जाते थे और उस पर अमल भी तुरंत होता था। करारी हार से यूपीए सरकार के साथी पक्षों को मुंह खोलने के लिए विवश कर दिया है। अभी इस पर विचार-मंत्रणा का दौर जारी है। अभी महत्वपूर्ण यह है कि सरकार का साथ देने वाली क्षेत्रीय पार्टियों को इस बात का भरोसा दिलाना कि कांग्रेस अपनी गलतियों से सीखेगी। ऐसा हमेशा कहा जाता है, पर कांग्रेस ने अपनी गलतियों से कोई सबक अभी तक लिया हो, ऐसा देखने में नहीं आया है।
शरद पवार और मणिशंकर अय्यर के बयानों में समानता है। दोनों ही कमजोर नेतृत्व को हार के लिए दोषी मान रहे हैं। फारुख अब्दुल्ला ने हार का कारण महँगाई को बताया है। सबसे बड़ी बात यह है कि दिल्ली में कांग्रेस के प्रत्याशियों को लोगों ने पूरी तरह से अनदेखा कर दिया है। आप के साधारण से साधारण प्रत्याशी कांग्रेस के करोड़पति प्रत्याशियों पर भारी पड़े हैं। अब तक यही कहा जाता था कि इस देश में एक गरीब आदमी चुनाव नहीं लड़ सकेता, पर आम आदमी की पार्टी ने यह सिद्ध कर दिया कि आम आदमी भी चुनाव न केवल लड़ सकता है, बल्कि करोड़पति प्रत्याशियों को पछाड़ते हुए भारी मतों से जीत भी सकता है। दिल्ली में सरकार किसकी बनेगी, यह अभी तय नहीं है। पर अन्य राज्यों में कांग्रेस की हालत काफी खराब है। शरद पवार का विवादास्पद बयान आने के बाद कांग्रेस ने उसका जवाब देना भी उचित नहीं समझा। इससे कांग्रेस की मंशा स्पष्ट होती है कि वह समर्थकों दलों से अपने संबंध को और मजबूत बनाना चाहती है। यहां पर यह समझना आवश्यक है कि शरद पवार ने इसके पहले भी कई विवादास्पद बयान दिए हैं, जिससे कांग्रेस को जवाब देते नहीं बना। वैसे भी कांग्रेस में ऐसे-ऐसे बयानवीर हैं, जिनके बयानों को पढ़-सुनकर हंसी आती है। कांग्रेस में ही दबे स्वरों में महासचित दिग्विजय सिंह की आलोचना जारी है। उनके खिलाफ भी खुलकर बयानबाजी हो रही है। कांग्रेस की हार के बाद पत्रकारों के सामने शरद पवार और मणिशंकर अय्यर ही सामने आए। अन्य कोई नेता बयान देने सामने नहीं आया।  इससे यह साबित होता है कि ये दोनों ही कांग्रेस के सर्वमान्य नेता हैं। इससे ही कांग्रेस की हताशा जाहिर होती है। वैसे यह तय है कि कांग्रेस समर्थित दलों को कमजोर नेता अच्छे नहीं लगते। मनमोहन सिंह बहुत ही कमजोर नेता साबित हुए हैं। शरद पवार का निशाना प्रधानमंत्री ही हैं।
शरद पवार ने इंदिरा गांधी को याद करते हुए कहा था कि उनमें निर्णय का अमलीकरण तुरंत करने का जुनून सवार रहता। उनके रहते आम आदमी पार्टी जैसे दल की रचना ही नहीं हो पाती। उस समय झोलाछाप एक्टिविस्टों या एनजीओ से सलाह नहीं ली जाती थी। लेकिन अब ऐसा ही हो रहा है। पवार के इस बयान से कांग्रेस उलझन में पड़ गई है। यदि उनके बयान पर प्रतिक्रिया व्यक्त करती है, तो पवार निश्चित रूप से नाराज हो जाएंगे। कांग्रेस नहीं चाहती कि कोई भी समर्थन देने वाला दल उनसे नाराज हो। इसीलिए कोग्रेस को बाहर से समर्थन देने वाली सपा-बसपा द्वारा की गई कांग्रेस की आलोचना का कोई जवाब नहीं दिया। कांग्रेस के लिए यह मुश्किल भरी घड़ी है। शरद पवार की मंशा से सभी दल परिचित हैं। इससे कांग्रेस को कोई बहुत बड़ा फर्क नहीं पड़ने वाला, यही हाल फारुख अब्दुल्ला का है, उनके बयान पर किसी तरह का जवाब न देना ही उचित है। वे कांग्रेस का समर्थन अवश्य करते हैं, पर उनके रहने न रहने से कांग्रेस को कोई बहुत बड़ा फर्क नहीं पड़ने वाला। कांग्रेस की चिंता इस बात की है कि 2014 के चुनाव के पहले ही साथी दलों ने अपना राग अलापना शुरू कर दिया है। एक तरफ कांग्रेस अपनी हार का कारण खोज रही है, दूसरी तरफ साथी दल आलोचना में लगे हैं। पर यहां कांग्रेस को यह सोचना होगा कि साथी दल क्या सही बोल रहे हैं। क्या गलत। अभी तो हालत ऐसी है कि सच बोलने वाले कांग्रेस से ही निकाल दिए जाएं। कांग्रेस चापलूस पसंद रही है। हाल ही में सलमान खुर्शीद ने यह बयान देकर चौंका दिया है कि सोनिया गांधी केवल राहुल की ही मां नहीं है, बल्कि हम सभी की मां हैं। इस तरह के चापलूसी भरे बयानों से न तो कांग्रेस की सेहत सुधरने वाली है और न ही उसकी लोकप्रियता में इजाफा होने वाला।
हार के बाद कांग्रेस में अंतर्विरोध भी सामने आए हैं। कांग्रेस आलोचनाओं से घिर गई हैं। ये वही साथी दल हैं, जो पहले खुशी-खुशी कांग्रेस को अपना समर्थन दे रहे थे। अब कांग्रेस की पराजय के बाद आंखें दिखाने लगे हैं। कांग्रेस को ऐसे असवरवादी दलों से सावधान रहना होगा। दलों में विश्वास पैदा करना होगा। वैसे भी कांग्रेस ने कई फैसल समर्थन देने वाले दलों को अनदेखा कर लिया है, इसलिए इनका नाराज होना स्वाभाविक है। कांग्रेस के साथ मुश्किल यह है कि जब वह सत्ता में होती है, तो अपने आगे किसी भी दल को कुछ भी नहीं समझती। यही कारण है कि समय आने पर यही दल आंखें दिखाने ेलगते हैं। सब को साथ लेकर चलना कांग्रेस को नहीं आया। कांग्रेस की सबसे बड़ी भूल यही थी कि उसने मनमोहन सिंह को दोबारा प्रधानमंत्री बना दिया। उनका पहले पांच वर्ष का कार्यकाल ठीक-ठाक था, पर बाद के पांच वर्ष में उनकी सारी कमजोरियां सामने आ गई। चुनाव के पहले मत बटोरने के लिए अहम फैसले लेना, 2 जी स्पेक्ट्रम जैसे घोटालों पर कुछ न कहना, कैग की रिपोर्ट को अनसुना करना, कोयला खदान के आवंटन में प्रधानमंत्री को क्लिन चिट देना आदि ऐसे कई घोटाले हैं, जिसमें कांग्रेस को कड़े फैसले लेने थे, पर वह फैसले लेने में सदैव पसोपेश में रही। जहां सख्त होना था, वहां वह उदार रही। जिन फैसलों के दूरगामी असर होने थे, उसका श्रेय लेने में भी कांग्रेस पीछे रही। कसाब और अफजल को फांसी देने में जितनी सख्त रही, उतनी ही सख्त अन्य फैसलों पर भी रहती, तो उसकी छबि कुछ और ही बनती।
अब यदि वह हार के कारणों का पता लगाने में जुटी है, तो सबसे पहले उसे मतदाताओं से ही पूछना होगा कि उससे क्या गलतियां हुई। कांग्रेस की नाकामी की जानकारी उन सभी मतदाताओं को है, जिन्होंने दूसरी पार्टी को अपना कीमती वोट दिया है। भरपेट खाएंगे, कांग्रेस को लाएंगे, जैसे थोथे नारों से वोट नहीं मिलते। वोट मिलते हैं, मतदाताओं का विश्वास प्राप्त करने से। मतदाताओं का विश्वास कांग्रेस बहुत पहले खो चुकी है। अब यदि वह कुछ ऐसा काम कर दिखाए, जिससे महंगाई पर अंकुश लगाया जाए, सब्जियों के बढ़ते दाम पर नियंत्रण लाए, मुनाफाखोरों पर लगाम कसे, ताकि लोगों को आवश्यक जिंस सस्ते मिले, पेट्रोल के दाम जिस तेजी से बढ़ेे, उतनी तेजी से घटे भी। तो शायद कांग्रेस के यह काम जनता को राहत पहुंचाए, तो संभव है लोकसभा चुनाव तक मतदाता अपनी धारणा बदल दे। इसके लिए कांग्रेस को बहुत ही पापड़ बेलने होंगे, क्या कांग्रेस इसके लिए तैयार है?
   डॉ. महेश परिमल

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