शनिवार, 20 जुलाई 2013

डीजिटल ड्रेगन का बढ़ता जाल

डॉ. महेश परिमल
आज हर कोई कंप्यूटर या मोबाइल से इस तरह से जुड़ गया है, मानो उससे बढ़कर बेहतर चीज दुनिया में कोई है ही नहीं। लोग दिन भर कभी कंप्यूटर तो कभी अपने मोबाइल से चिपके रहते हैं। इसमें उनका कितना वक्त बरबाद होता हे, इसका आभास उन्हें अभी नहीं है, पर पानी जब सर से ऊपर निकल जाएगा, तब शायद समझ में आ जाए। कंप्यूटर तो शायद कुछ लोगों के पास है, पर मोबाइल जिस तरह से एक नशे के रूप में हमारे सामने आया है, उससे यही लगता है कि आज के युवाओं के पास अब कोई काम ही नहीं बचा। एक शोध से पता चला है कि दिन भर कंप्यूटर और मोबाइल के उपयोग से अंगूठा और पंजों में पीड़ा होती है, माऊस के उपयोग से भी स्नायु में दबाव बढ़ रहा है। वे भी अब जवाब देने लगी हैं। इन दो चीजों के दुष्परिणाम हमें अभी भले ही नजर न आएं, पर यह भयानक सच जब भी हमारे सामने आएगा, हमें चौंकाए बिना नहीं रहेगा।
इंटरनेट का उपयोग दिनों-दिन बढ़ रहा है। मोबाइल, टेबलेट समेत कई गेजेट्स के कारण लोग घंटों उसमें अपना दिमाग लगाते रहते हैं। अब तो हाथ के पंजे में पूरा विश्व समा चुका है। एक तरफ इसी इंटरनेट ने लोगों को काफी करीब ला दिया है, तो दूसरी तरफ उसने हमें संकुचित कर दिया है। कई सामाजिक समस्याएं उसने हमें परोस दी हैं। स्वास्थ्य संबंधी कई बीमारियां हमारी प्रतीक्षा कर रही हैं। जो इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं, वे सामान्य रूप से इस तरह की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को नजरअंदाज कर देते हैं। पर लगातार इससे जुड़े रहने वालों की आंखें दर्द करने लगी हैं। कई लोगों ने इसका भी इलाज खोज निकाला है। अब वे कंप्यूटर, लेपटॉप, या फिर टेबलेट को आंखों से एक निश्चित दूरी पर रखने लगे हैं। पर मोबाइल को आंख से कितनी दूर रखेंगे आप? इससे सफिंग करने वाले आज किस दुविधा और पीड़ा से गुजर रहे हैं, इसे वे ही अच्छी तरह से जानते हैं। यहां समस्या डीजिटल लाइफ की है। यह डीजिटल लाइफ ऐसी हो गई है, मानों जानकारियों के समुद्र में डुबकी लगाकर जिंदगी तैरने लगी है। इस स्थिति को डीजिटल ड्रेगन की संज्ञा दी जा सकती है।
जो लोग लगातार कंप्यूटर के सामने बैठकर माऊस का इस्तेमाल कर रहे हैं, वे शायद नहीं जानते कि वे प्रेटीपोज का शिकार हो रहे हैं। माऊस का उपयोग करते हुए जिस ऊंगली पर अधिक भार दिया जाता है, उससे जुड़ी नस दर्द करने लगती है। यही नहीं माऊस का उपयोग करने वाला हाथ ही दर्द करने लगा है। उसमें कमजोरी आने लगी है। कई बार ऐसा भी होता है कि कोई साइट न खुल रही हो, तो लोग अपना गुस्सा बेचारे माऊस पर उतारते हैं। इससे उनका पूरा पंजा ही दर्द करने लगता है। इससे बचने का एक ही तरीका है कि टच स्क्रीन वाले कंप्यूटर का इस्तेमाल किया जाए। ताकि माऊस के इस्तेमाल से बचा जा सके। जिस तरह से माऊस से प्रेडीपोज होता है, ठीक उसी तरह टेक्स्ट मैसेज करने से अंगूठे का जिस तरह से इस्तेमाल होता है, उससे टेनासायनोवीटीस होता है। इसके कारण अंगूठे के कोने वाले भाग में दर्द होता है। टेक्स्ट मैसेज भेजना आज एक फैशन हो गया है। यह जीवन के लिए आवश्यक भी है। तो फिर एक काम किया जा सकता है, यदि अंगूठे में दर्द हो, तो नमक वाले हल्के गर्म पानी में उसे डूबो कर रखें। यहां महत्वपूर्ण यह है कि टेक्स्ट मैसेज भेजना जहां आवश्यक हो, वहीं भेजा जाए, इसे भी एक सीमा तक ही स्वीकार करें, अधिक होने से यह एक समस्या के रूप में हमारे सामने होगा।
कई लोगों को कंप्यूटर पर गेम खेलना अच्छा लगता है। आजकल ऑनलाइन गेम एक मुनाफे के व्यापार की तरह फैल रहा है। पर इस गेम में जगमगाती लाइटें आंखों को नुकसान पहुंचा रही हैं। कुछ लोग मोबाइल हेडसेट इस तरह से पकड़ते हैं, जिससे उनके कान और कंधे दर्द करने लगते हैं। लोग वाहन चलाते समय मोबाइल को कांधे पर रखकर कान उससे सटा देते हैं, इससे वाहन भी चलता रहता है और बातचीत भी होती रहती है। यह स्थिति खतरनाक है, क्योंकि चालक का ध्यान पीछे आने वाले वाहनों की तरफ से हट जाता है, जो उसकी जान जोखिम में डाल देता है। ऐसे लोग अपनी स्नायु में पीड़ा होने की शिकायत अधिक करते हैं। इसके अलावा मोबाइल फोन के लगातार उपयोग से ब्रेन ट्यूमर होता है या नहीं, इस पर शोध जारी है। जल्द ही कुछ परिणाम सामने आएंगे। जो लेगा लगातार कंप्यूटर पर बैठे रहते हैं, उन्हें कंप्यूटर विजन सिंड्रोम की शिकायत हो सकती है। कंप्यूटर पर सतत काम करने वालों में से 50 से 69 प्रतिशत लोग इस सिंड्रोम से ग्रस्त हैं। हमारे बीच न जाने कितने ही लोग ऐसे हैं, जिन्हें इस सिंड्रोम की जानकारी तक नहीं है। पर जब शरीर टूटने लगता है, आंखें लाल होने लगती हैं, तब वे डॉक्टर के पास दौड़े चले जाते हैं। तब समझ में आता है कि उन्हें क्या हो गया है। कंप्यूटर जीवन की आवश्यकता है, डॉक्टर भी इसे समझते हैं। इसलिए वे अपने मरीजों को यह सलाह देते हैं कि कंप्यूटर पर लगातार काम न करें, बीच-बीच में आँखों पर पानी का छिड़काव करें। आंखों को राहत मिले, ऐसे उपाय भी करते रहना चाहिए। इसके अलावा जो लोग सतत मोबाइल का इस्तेमाल करते हैं,उन्हें केंटोन फोन सिंड्रोम की बीमारी होती है। उन्हें हमेशा ऐसा लगता है कि उनका फोन बज रहा है। आपके आसपास भी ऐसे लोग होंगे ही, जो इस तरह की हरकतें करते हैं। कई लोगों के पास यदि एक मिसकॉल भी आ जाए, तो वे इसी चिंता में घुलते रहते हैं कि न जाने किसने फोन किया होगा। आवश्यक होगा, तभी तो किया होगा। उसे फोन किया जा या न किया जाए। ऐसे लोग हमेशा अपने सर पर हाथ रखकर स्वयं को अलर्ट बताना चाहते हैं, वास्तव में यह आज की अत्याधुनिक तकनीक से जुड़े एक सिंड्रोम की गिरफ्त में हैं।
ऐसे ही एक डिसऑर्डर का नाम है ‘फोमो’, यानी फीयर ऑफ मिसिंग आऊट। ऐसी  स्थिति पुरुषों के बजाए महिलाओं में अधिक देखी जाती है। यह बीमारी सीधे तौर पर मानसिक रूप से जुड़ी है। स्वयं किसी से पीछे न रह जाएँ, इस तरह का डर उन्हें हमेशा लगा रहता है, इसलिए वे स्वयं को असुरक्षित समझती हैं। इस असर उनकी कार्यक्षमता पर पड़ता है। वे निर्णय नहीं ले पातीं। उन्हें अपने सभी फैसले कयास लगते हैं। इन हालात में मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि आज का युग प्रतिस्पर्धात्मक है, यह सच है, पर यदि हम थोड़े समय के लिए इस प्रतिस्पर्धा से स्वयं को दूर रखें, तो खुद को  सुकून महसूस होता । लोग आगे बढ़ते हैं, तो उन्हें बढ़ने दिया जाए, इस भाव के साथ आज की प्रतिस्पर्धा को देखा जाए, हमें यह महसूस होगा कि हम जो भी किया अच्छा किया। अनजाने में हम उन लोगों को आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध हुए, जो वास्तव में आगे बढ़ने के काबिल हैं। हम बेवजह ही उनका रास्ता रोक रहे थे। अपने स्वास्थ को दाँव पर लगाकर आखिर हम किस तरह की सिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं। कहा जाता है कि जब दांत मजबूत थे, तब चने खाने की हालत नहीं थी, आज चने खाने की स्थिति में हैं, तो दांतों ने काम करना बंद कर दिया है। कभी-कभी प्रतिस्पर्धा को एक दर्शक की भांति भी देखना चाहिए। हम हर प्रतियोगिता में भाग लेंगे, तो यह आवश्यक भी नहीं कि सभी में जीत हमारी ही होगी। इसलिए हार का सबक पहले सीख लिया जाए। तभी हम जीत को गंभीरता से लेना शुरू करेंगे।
आज डीजिटल का क्षेत्र लगातार व्यापक हो रहा है। इसके उपयोगकर्ताओं की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। आम जीवन में भी इसका दखल बढ़ता ही जा रहा है। पर इसके उपयोग में सावधानी भी हमें ही बरतनी होगी। नहीं तो यह सीधे हमारे स्वास्थ्य पर हमला कर देगा। इसलिए पहले हम अपने आसपास ऐसे लोगों को पहचानें, जो मोबाइल या फिर गेजेट्स को लेकर एक तरह से पागल हैं। उनका व्यवहार पर नजर डालें, कहीं उनमें आत्मविश्वास की कमी तो नहीं। क्या वे लोगों से आंख मिलाकर बात कर  सकते हैं। फोन आते ही क्या वे सबके सामने बात कर लेते हैं, या फिर सबसे दूर चले जाते हैं। उनमें चिंता का भाव लगातार तो नहीं रहता। वे खुलकर बात करते हैं या नहीं। ें हम उनसे अधिक पूछताछ कर उन्हें डिस्टर्ब तो नहीं कर रहे हैं। वे कितने खुश हैं और कितने दु:खी? मोबाइल या कंप्यूटर का न होना कहीं उन्हें पागल तो नहीं बना देता?  बच्चों से उनका व्यवहार कैसा है? इन बातों पर आप गौर करेंगे, तो हमें कई ऐसे मरीज मिल जाएंगे, तो वास्तव में डीजिटल ड्रेगन के जाल में उलझ गए हैं। उन्हें इससे निकालना होगा।
  डॉ. महेश परिमल

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