सोमवार, 15 अप्रैल 2013

प्राण नहीं प्राणवान

डॉ. महेश परिमल
परदे पर प्राण के होने का मतलब यही नहीं है कि एक बुरा आदमी भला कितना बुरा हो सकता है। उसकी नीचता कहां तक जा सकती है। वह कितना गिर सकता है। उसकी इंसानियत की मौत कब हुई। उसकी हैवानियत क्या कहती है। उसकी दरिंदगी की हद क्या है? इसके बाद भी जब वे परदे पर आते हैं, तो विश्वास हो जाता है कि अब कुछ बुरा होने ही वाला है। निश्चित ही अब मानवता मर जाएगी। अत्याचार और अन्याय अपनी सीमाएं पार कर देगा। परदे पर एक बुरा आदमी का आना उतना नहीं डराता, बल्कि उस बुरे आदमी की आंखें ही सब कुछ बता देती हैं कि वह अब क्या करने वाला है? उसकी हरकतें ही उसकी भाषा बन जाती हैं। यह सब देखना हो, तो केवल प्राण साहब के अभिनय में देखा जा सकता है। 93 वर्ष की उम्र में उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार मिलने से वे भले ही रोमांचित हों, पर सरकार को शर्म आनी चाहिए। अब यदि घोषणा कर ही दी है, तो प्राण साहब को यह पुरस्कार उनके घर पर जाकर दिया जाना चाहिए। तभी वे स्वयं को गौरवान्वित महसूस करेंगे।
मायानगरी में केवल प्राण साहब ही ऐसे शख्स रहे हैं, जो केवल परदे पर ही खलनायकी करते रहे। आम जिंदगी में वे कभी खलनायक नहीं बन पाए। अन्य खलनायकों की कहानियां आते रहती हैं कि वे रियल लाइफ में भी खलनायकी कर चुके हैं। पर प्राण साहब हमेशा खलनायक नहीं रहे। अपने आप को बदलने में लगे रहे। 60 से 70 के दशक का वह दौर जब प्राण साहब अपने कैरियर के सबसे ऊंचे मुकाम पर थे, तब हालत यह थी कि वे हीरों से अधिक मेहनताना लेते थे। उस दशक में पैदा होने वाले बच्चों में किसी का नाम प्राण नहीं रखा गया। भला हो, मनोज कुमार जी का, जिन्होंने पहले उन्हें शहीद में और फिर उपकार में उन्हें लीक से हटकर भूमिका दी। उपकार में जब उन्हें मलंग बाबा की भूमिका दी गई, इसके लिए मनोज कुमार ने उनके लिए अलग से किरदार लिखा। तब लोगों ने मनोज कुमार से यही कहा कि ऐसा कभी मत करना, फिल्म नहीं चल पाएगी। उसके बाद जब यह बात सामने आई कि इस फिल्म में प्राण एक गाना भी गाएंगे, तो लोगों ने मनोज कुमार को सरफिरा घोषित कर दिया। उन्हें आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा। लेकिन मलंग बाबा की भूमिका ने प्राण के जीवन में एक नया मोड़ ही ला दिया। इसके बाद प्राण वास्तव में वही हो गए, जो आम जिंदगी में थे। सबका भला करने वाले, नर्म दिल, कविताओं का शौक रखने वाले, प्रतिभावानों की सिफारिश करने वाले।
ये कतई गलत नहीं है कि पूरी फिल्म इंडस्ट्री में प्राण जैसा प्राणवान कोई नहीं है। जंजीर में अमिताभ को लेने के लिए प्रकाश मेहरा से सिफारिश प्राण साहब ने ही की थी। वे जब भी विलेन के रूप में परदे पर आए, तो कभी मुंह बिचका कर, कभी आंखें तरेरकर, कभी सिगरेट के छल्ले बनाकर, कभी ठीक है ना ठीक बोलकर अपनी शैतानियत का खुलासा करते। फिल्म में वे चाहे डाकू बने या फिर स्मगलर या फिर लुटेरे, हर तरह की भूमिका में उन्होंने जान डाल दी। जब उन्होंने चरित्र अभिनेता की भूमिका शुरू की, तो लाचार पिता बनने में उन्हें गुरेज नहीं था।  यह कहना गलत न होगा कि प्राण ने फिल्मों को प्राणवान बनाया। अपने साथ-साथ वे अन्य साथी कलाकारों के लिए भी अभिनय का संग्रहालय होते। साथी कलाकार उनसे प्रेरणा लेते। मायानगरी के उम्रदराज प्राण को फाल्के अवार्ड मिलना उनके लिए बड़ा सम्मान है। पर यह फिल्म नगरी का भी सम्मान है। शायद ही कोई होगा, जो इस खबर को सुनकर दु:खी होगा। सभी ने अपनी खुशी जाहिर की है। किसी ने सरकार को दोष भी दिया है, पर इसमें प्राण साहब के लिए सम्मान ही है। फिल्मों में उनकी भूमिका ऐसी होती थी कि लोग उन्हें गाली देते थे। पर आम जिंदगी में वे उतने ही सज्जन हैं। यह तो उनकी भूमिका का ही प्रभाव है कि लोग उनसे नफरत भी करते थे। अभिनय सर चढ़कर बोला, तभी तो नफरत आई। आम जीवन में वे फिल्मी बुराइयों से दूर हैं। उनकी संतानों का नाम फिल्मी दुनिया में सुनने को नहीं मिलता।
प्राण साहब का होना ही इस बात का परिचायक है कि वे अपने अभिनय से फिल्म के हीरो पर भारी पड़ेंगे। ऐसा बार-बार हुआ। खलनायकी के वे बेताज बादशाह रहे। ऐसी बात नहीं है कि उनका नाम पहली बार कमेटी में पुरस्कर के लिए आया और घोषणा हो गई। प्राण साहब का नाम दादा साहेब फाल्के पुरस्कार के लिए पहले भी एकाधिक मौकों पर आया था। लेकिन किसी न किसी वजह से उनके नाम पर सहमति नहीं बन पाई थी। फिल्म इंडस्ट्री के इस सबसे बडे सम्मान के विजेता के चुनाव के लिए जो समिति बनी, उस समिति के किसी न किसी सदस्य को या तो उनके नाम पर ऐतराज रहा या कभी क्षेत्रवाद हावी हो गया और दक्षिण की किसी हस्ती को यह पुरस्कार नसीब हो गया। 93 वर्ष की उम्र पार कर चुके प्राण साहब इस सम्मान से दूर ही रहे। मनोरंजक यह है कि हर बार की तरह इस बार भी फिल्म इंडस्ट्री के कुछ लोग खुद को यह सम्मान दिलवाने के लिए सक्रिय रहे। कुछ ऐसे लोग सदस्य के तौर पर शामिल नहीं हो पाए जो कभी नहीं चाहते थे कि प्राण साहब को यह सम्मान मिले। एक नामी फिल्म निर्देशक और राज्यसभा सांसद तथा एक मशहूर मलयाली फिल्मकार इस बार चुनाव समिति से दूर रहे। वे सालों से इस चुनाव समिति में बतौर दादा साहेब फाल्के विजेता शामिल होते रहे थे। वाजिब तर्क यह दिया गया कि सिर्फ कुछ चुनिंदा लोगों को क्यों हर बार चुनाव समिति का सदस्य बनाया जाए।् सूचना-प्रसारण मंत्रालय के दिशा-निर्देशों के मुताबिक, फाल्के सम्मान के चयन के लिए जो समिति बनती है, उसमें कुल पांच सदस्य होने चाहिए और उनमें से कम से कम एक या दो वे हों जिन्हें पहले यह सम्मान मिल चुका है। संयोग ऐसा रहा कि इस बार की चुनाव समिति में सायरा बानो, आशा भोंसले, रमेश सिप्पी और डी. रामानायडू जैसे लोग शामिल किए गए, जो प्राण साहब के नाम पर सहमत हो पाए। ये लोग पहले से ही चाहते थे कि प्राण साहब इस सम्मान के हकदार काफी पहले से हैं। उनके पक्ष में एक बात और गई कि वे पहले चरित्र अभिनेता हैं, जिन्हें इस सम्मान से नवाजा जा रहा है।
हिन्दी फिल्मों के जाने माने नायक, खलनायक और चरित्र अभिनेता प्राण का जिR आते ही आंखों के सामने एक ऐसा चेहरा नजर आ जाता है जिसके चेहरे पर हमेशा मेकअप रहता है और भावनों आ तूफान नजर आता है जो अपने हर किरदार में जान डालते हुए यह अहसास करा जाता है कि उसके बिना यह किरदार बेकार हो जाता। उनकी संवाद अदायगी की शैली को आज भी लोग भूले नहीं हैं। प्राण की शुरुआती फिल्में हों या बाद की फिल्में उन्होंने अपने आप को कभी दोहराया नहीं। उन्होंने अपने हर किरदार के साथ पूरी ईमानदारी से न्याय किया। इसीलिए अपने किरदार का वे घर पर पहले स्केच बनवाते, फिर उनका मेकअप होता। ताकि रोल में पूरी तरह से डूब जाएं। शेर खान की भूमिका करते हुए जब यारी है ईमान मेरा गीत फिल्माया जा रहा था, तब उनकी पीठ में काफी दर्द था, फिर भी उन्होंने जमकर नृत्य किया, जिसे आज भी भुलाया नहीं जा सकता। अभिनय के प्रति यही समपॅण आज उन्हें फिल्म पुरस्कार के ऊंचे मकाम पर खड़ा कर दिया है। शायद ही ऐसी कोई फिल्म हो, जिसमें उन्होंने अपना तकियाकलाम ‘बर्खुरदार’ का इस्तेमाल न किया हो। प्राण साहब ने फिल्मों में जितना डराया, उतना हंसाया भी। विक्टोरिया नम्बर 203 देखकर आपको हंसने के लिए मजबूर होना ही पड़ेगा।
प्राण हमेशा प्राणवान रहे, फिल्म इंडस्ट्री को प्राणवान करते रहें, यही कामना।
डॉ. महेश परिमल

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