शनिवार, 9 मार्च 2013

दिखावे से दूर रहें

डॉ. महेश परिमल
सादा जीवन उच्च विचार, इस तरह के सूक्ति वाक्य अब केवल शालाओं एवं मंदिरों की दीवारों पर ही दिखाई देते हैं। बदलते जीवन मूल्यों के साथ सब कुछ तेजी से बदल रहा है। देखते ही देखते पानी अब बिकने लगा। पहले पानी पिलाना धर्म का काम होता था, अब पानी बेचना धंधा बन गया है। पहले गुरुकुल आश्रमों में विद्या दी जाती थी। गुरु-शिष्यों के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध थे। अब शिक्षा विशुद्ध रूप से व्यापार का एक हिस्सा हो गई है। धार्मिक कार्यक्रमों में भी आजकल व्यापार घुस आया है। इसी तरह से अब शादी समारोह केवल तीन घंटे का शो बनकर रह गया है। जिन्हें हम गरीब मानते-समझते हैं, उस परिवार में भी शादी आजकल जिस दिखावे के साथ होती है, उससे हर कोई आश्चर्य मे पड़ जाता है। धन उपार्जन के इतने अधिक संसाधन हो गए हैं कि पूछो ही मत।
शादी के मौसम में हर तरफ फिजूलखर्ची दिखाई देती है। पहले तो अपनी साख दिखाना, फिर भोजन, कपड़े, श्रंगार, बैंड-बाजे, मंडप की सजावट, बिजली आदि का खर्च ही इतना अधिक होता है कि साधारण इंसान को गश आ जाए। इसके बाद भोजन का मेनू। इसमें भी लोग जमकर प्रदर्शनबाजी करते हैं। मेहमानों के सामने अपनी धाक जमाने के लिए कई परिवार लुट चुके हैं। फिर भी इस तरह की प्रवृत्ति पर अंकुश नहीं लग पा रहा है। आखिर लोग इतना प्रदर्शन क्यों करना चाहते हैं। अब शायद जितनी चादर उतना पाँव वाली कहावत भी काम नहीं कर रही है। शायद यह जमाने का दस्तूर है कि बदलते हुए जमाने के साथ खुद को बदलो। पर इतना भी क्या बदलना, जिसमें स्वयं ही तबाह हो जाएं। फिर भी लोग बदल रहे हैं। जमाना तो आज भी यही कहता है कि जितना कमाते हो, उसमें से बचत करो। पर अब कमाई से अधिक खर्च करने की शायद परंपरा ही हो गई है। उधार लेकर भी घी पीने की कहावत को लोग अब चरितार्थ करने लगे हैं। इतना कुछ करने के बाद भी भीतर असंतोष ही जागता रहता है। संतुष्टि कहीं दिखाई नहीं देती। अधिकांश प्रदर्शन देखा-देखी के कारण हो रहे हैं। आश्चर्य की बात यह है कि हम अपनी तुलना अपने से अमीर से करते हैं। गरीब से नहीं, इसलिए हम संतुष्ट नहीं हो पाते। संतोष से शक्ति प्राप्त होती है, असंतुष्ट की शक्ति हमेशा क्षीण होती रहती है। जो शादी को एक परंपरा मानते हैं, वे ही सच्चे अर्थो में मानव हैं। पर इस परंपरा में बेपनाह खर्च कर वे अपनी असंतुष्टि को ही आमंत्रित करते हैं।
केवल विवाह ही नहीं, बल्कि यज्ञोपवित, मुंडन, विवाह, मृत्युभोज आदि में भी विचलन देखा जा रहा है। इसमें भी मानव केवल दिखावे के लिए औकात से अधिक धन खर्च करता है। इस तरह से वह अपनी सामाजिक मर्यादा को लांघ जाता है। इसका उसे अहसास तक नहीं होता। दिखावे के कारण आज कई परिवार फाके-मस्ती की स्थिति में पहुंच गए हैं, इसके बाद भी लोग अनाप-शनाप खर्च करने से बाज नहीं आ रहे हैं। बढ़ती महंगाई को देखते हुए इस दिशा में यदि स्वयं ही आगे आकर कुछ परंपराओं को तोड़ने और कुए नई परंपराएं बनाने का काम करना होगा। दूसरों के घरों में उजाला करने के लिए अपना घर जला देना कहां की बुद्धिमानी है। इसलिए यह देख लिया जाए कि क्या हममें कर्ज की किस्तें देने में सक्षम हैं, क्या भविष्य में आय के साघन ऐसे ही रहेंगे, तो ही बैंक आदि से कर्ज लें। अन्यथा बैंक तो अपना कर्ज वसूल करेंगी ही, उससे समाज में बेइज्जती होगी, सो अलग। इस समय हो यह रहा है कि खर्च लगातार बढ़ रहा हे, पर उस दृष्टि से कमाई के संसाधन लगातार कम होते जा रहे हैं, इस स्थिति में संतुलन बनाए रखना आवश्यक है। सारे आर्थिक मामलों के विवाद की जड़ में यही असंतुलन है। घर में आय-व्यय का संतुलन बनाए रखा जाए, तो कोई परेशानी नहीं होती।
अब इस दिशा में थोड़ा सा बदलाव आया है। अब धनिक वर्ग जन्म दिन में पार्टियां देने के बजाए अनाथ आश्रम जाकर बच्चों को मिठाइयां आदि बांट आते हैं। इससे मन को संतुष्टि मिलती है, तो दूसरी तरफ अनाथों को कुछ नया खाने को मिल जाता है। कई शहरों में श्राद्ध के समय अनाथ आश्रमों में इतना अधिक रस होता है कि बच्चे अधिक खाने के कारण बीमार होने लगे हैं। अक्सर अपने पितरों की याद लोगों को श्राद्ध पक्ष में ही आती है। इसलिए ऐसे बच्चों को ढूंढा जाता है, जो उनके यहां भोजन ग्रहण कर सकें। ऐसे में केवल रिश्तेदार ही घर आ पाते हैं। इसलिए दूसरों को शामिल करने के लिए लोग अनाथ आश्रम की ओर बढ़े चले आते हैं। ऐसा भी नहीं होना चाहिए। यदि उनके लिए कुछ करना ही है, तो साल में एक बार मेडिकल चेकअप करवा सकते हैं। ठंड में गरम कपड़े, कम्बल, रजाई आदि भी दी जा सकती है। इनके लिए जो भी किया जाए, वह गुप्त रूप से हो, तो ही अच्छा। इसका प्रचार-प्रसार करना अच्छी बात नहीं है। लेकिन लोग इससे भी बाज नहीं आते हैं।
इंसान यह भूल जाता है कि जितना आनंद सादा जीवन में है, उतना किसी में नहीं। लालच का क्या है, वह तो बढ़ता ही जाता है। इंसान की चाहतों का अंत कभी नहीं होता, हां इंसान अवश्य खत्म हो जाता है। इच्छाओं पर नियंत्रण ही सफल व्यक्ति की पहचान है। सीमित संसाधनों में जीवन जीने की कला बहुत कम लोगों को आती है। देश-विदेश के कई उद्योगपति ऐसे हैं, जो अपनी सादगी के कारण पहचाने जाते हैं। बेशुमार दौलत भी उनकी जीवनचर्या में परिवर्तन नहीं कर पाई। वे आज भी अपना सारा कार्य स्वयं ही करते हैं। किसी पर निर्भर नहीं रहते। किसी पर निर्भर न रहना ही जीवन का वह फंडा है, जो इंसान को सुखी बनाता है। अपनी ठाट-बाट दिखाना, शान दिखाना बुरी बात नहीं है, पर उसे दौलत के रूप में दिखाना गलत है। कई बार ऐसी स्थिति स्वयं के लिए भारी बन जाती है। आजकल लोग एक बार अपनी शान दिखाकर उसे बनाए रखने में ही अपनी पूरी ऊर्जा लगा देते हैं। यहीं उनसे चूक हो जाती है। लोग उनसे उसी शान की अपेक्षा रखने लगते हैं। इसमें जरा सी भी कमी लोगों को कटाक्ष करने के लिए विवश कर देती है।
घर के सदस्यों से अधिक वाहन, उससे दोगुने मोबाइल, बड़ा सा घर और बेशुमार दौलत ये सभी तनाव का कारण हैं। इन चीजों से न तो घर का वातावरण शुद्ध होता है, न ही आपस में प्यार पनपता है। कहा जाता है कि जिस घर के सदस्य भोजन, भजन और भ्रमण एक साथ करते हों, वहां कभी क्लेश नहीं होता। इस बात को ध्यान में रखा जाए, तो आज कितने घर ऐसे हैं, जहां उक्त तीनों कियाएं होती हों। आज परिवार में तनाव बढ़ने का यही एकमात्र कारण है कि लोग साथ नहीं होते। कुछ अवसर ही ऐसे होते हैं, जब परिवार के सभी सदस्यों को एकसाथ देखा जा सकता है। इसलिए यदि बाहरी शान, दिखावा छोड़कर सादगी के साथ जीवन जीयें, तो लोग हमसे जुडेंगे, हम उनके करीब होंगे। वे हमारा साथ देंगे, हमें उनकी सहायता करने का अवसर मिलेगा।
डॉ. महेश परिमल

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