रविवार, 13 जनवरी 2013

बलात्‍कार- कानून के रास्‍ते में कई अवरोध कायम





बलात्‍कार- कानून के रास्‍ते में कई अवरोध कायम 
दिल्ली की घटना के बाद बलात्कार कानून को कड.ा बनाने की मांग उठने लगी है. यह जरूरी भी है, क्योंकि कानून के लचीलेपन से अपराधियों में डर नहीं है. लेकिन कानून कडे. कर देने से ही बात नहीं बनने वाली. हाइकोर्ट के वकीलों के अनुसार, बलात्कार पीड.िता के बयान की पुष्टि, मेडिकल जांच और घटनास्थल के सबूतों के आधार पर होती है. यदि सबूत के तौर पर मिले प्रमाणों को प्रस्तुत किया जाये, तो युवती का केस मजबूत हो जाता है. पर विडंबना है कि अधिकांश मामलों में ये प्रमाण रफा-दफा कर दिये जाते हैं. इससे जांच की दिशा बदल जाती है. महत्वपूर्ण सबूत नष्ट हो जाने पर केस मजबूत नहीं रह पाता. भारतीय दंड संहिता की धारा 376 के अनुसार युवती की इच्छा के विरु द्ध उसके साथ शारीरिक संबंध स्थापित किया जाना ही बलात्कार है. इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात है- ‘युवती की सहमति’. इस शब्द के फेर में कई बार युवती के सारे आरोप झुठला दिये जाते हैं और अपराधी निर्दोष बरी हो जाता है. शारीरिक संबंध दोनों की मंजूरी से स्थापित किया गया, इसके सबूत के लिए अदालत में युवक-युवती के बीच एसएमएस का लेन-देन या फिर मोबाइल पर की गयी बातचीत को उनके बीच गाढ.ी मित्रता के तौर पर दिखाया जाता है. ऐसे सबूतों पर वकील यह दलील देते हैं कि गाढ.ी मित्रता का होना इस बात का प्रतीक नहीं है कि संबंधित युवक को युवती से जबरदस्ती करने की छूट मिल जाती है.

हमारे देश में बलात्कार को लेकर कानून में बहुत से सुधार किये गये हैं. पहले चरण में कानून पीड.िता के साथ होता है. आइपीसी की धारा 376 में 1983 में संशोधन किया गया. इसमें यह आग्रह रखा गया कि बलात्कारी को कम से कम सात वर्ष की कैद की सजा होनी चाहिए. धारा 114-ए में भी यह बताया गया है कि यदि बलात्कार की पीड.िता यह कह दे कि उसके साथ शारीरिक संबंध उसकी सहमति के बिना स्थापित किया गया है, तो कोर्ट को उसकी बात मान लेनी चाहिए. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार समाज एवं लोक लाज के भय से कई मामलों की एफआइआर दर्ज नहीं होती. यही वजह है कि 70 प्रतिशत मामले दर्ज ही नहीं हो पाते.

महिलाओं के लिए काम करने वाली संस्था की स्वयंसेविकाओं का कहना है कि अधिकांश मामलों में पुलिस मुस्तैदी से जांच नहीं करती. यदि पीड.िता आदिवासी या पिछडे. समाज की है, तो इसके प्रति पुलिस का रवैया पूर्वाग्रह ग्रस्त होता है. दूसरी ओर चिकित्सकों के अनुसार किसी युवती का बलात्कार किया गया है, इसे सिद्ध करने के लिए घटना के 48 घंटे के अंदर पीड.िता की मेडिकल जांच हो जानी चाहिए. ऐसा न होने पर फोरेंसिक लेबोरेटरी सही रिपोर्ट नहीं दे सकती. डॉक्टर कहते हैं कि यदि ताकत के बल पर बलात्कार का शिकार बननेवाली युवती वास्तव में कुंवारी है और उसके अंगों में चोट के निशान मिलते हैं, तो उस पर बलात्कार होना सिद्ध होता है. परंतु यदि युवती विवाहिता है, तो उसके साथ बलात्कार को सिद्ध करना संभव नहीं है.

एक बार कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर बिल 2008 का सुधरा हुआ रूप अमल में आ जाये, तो बलात्कार का शिकार बनी महिलाओं को राहत मिलेगी. इस विधेयक में यह है कि बलात्कार के मामले की सुनवाई दो महीने के भीतर की जाये. इसके लिए केवल महिला जज की ही नियुक्ति की जाये. साथ ही पीड.ित युवती का बयान उसके माता-पिता या समाज सेवक के सामने ही लिया जाये. महिला संगठनों का कहना है कि बचाव पक्ष के वकील पीड.िता से उसके निजी जीवन पर कई ऐसे प्रश्न पूछते हैं, जिसका जवाब अदालत में देना संभव नहीं है. यदि इस तरह के मामलों की सुनवाई वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से हो, तो पीड.िता को बार-बार अदालत के चक्कर नहीं काटने पडे.ंगे. यदि युवती से पूछे जाने वाले प्रश्नों की सूची वकील पहले ही जज को दे दे, ताकि जज ही तय कर ले कि कौन-कौन से सवाल इसमें है, तो युवती को उसका जवाब देने में आसानी होगी. उल्लेखनीय है कि निचली अदालतों में बलात्कार मामले में बलात्कार का विरोध किये जाने पर शरीर पर के निशान को सबूत माना जाता है. जबकि उच्च अदालत में ऐसी निशानी को सबूत नहीं माना जाता. कई मामलों में बलात्कार की शिकार युवती की शादी हो जाती है और उसका परिवार बस जाता है. इसके बाद यदि उस पर हुए अत्याचार का मामला सुलझता है, तो उसके लिए बच्चों को जवाब देना मुश्किल हो जाता है. ऐसे में यदि फैसला उसके खिलाफ हो जाये, तो उसका बसा-बसाया परिवार ही उजड. जायेगा. इस संवेदनशील पहलू की तरफ भी सोचा जाना चाहिए, ताकि पीड.िता को न्याय मिल सके. देर से मिला न्याय किसी अन्याय से कम नहीं.

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