मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012

कितना जानते हैं हम बापू को

डॉ. महेश परिमल
आज गांधी जयंती पर लोग उन्हें बहुत याद करेंगे। उनके नाम पर देश भर में वैसे भी अवकाश घोषित कर दिया गया है। दूसरी ओर उन पर केंद्रित अनेक कार्यक्रम होंगे, जिसमें उनकी वाणी, उनके उपदेश आदि को जीवन में उतारने का संकल्प लिया जाएगा। पर गांधी के सिद्धांतों पर चर्चा कर उसकी गहराई को समझने का प्रयास शायद ही कोई कर पाएंगे। गांधी केवल एक नाम ही नहीं, बल्कि एक विचार है। जो साधारण से विचार से शुरू होकर एक क्रांति पर जाकर खत्म होती है। गांधी नेताओं के भाषण में बार-बार आते हैं,पर उनके जीवन में वे कहीं भी नजर नहीं आते। अपनी सादगी से विश्व को हतप्रभ कर देने वाले महात्मा गांधी आज सिद्धांतों के मामले पर हमारे बीच प्रासंगिक नहीं हैं।
गांधीजी के सिद्धांत हमारे बीच अप्रासंगिक कैसे हो गए? यह जानना आवश्यक है। पर उससे पहले यह भी जानना आवश्यक है कि आखिर हम कितना जानते हैं इस गांधी को? जिन्होंने देश सेवा के लिए अपने प्राण त्याग दिए। आज पाठ्यक्रम में गांधी जी हैं, पर उनके विचार को जानने और समझने के लिए कोई तैयार नहीं है। आज भी कई लोग ऐसे हैं, जो उनके पूरी तरह से असहमत हैं। इसके लिए उनके पास तर्क हैं। अपने तर्को से वे यह सिद्ध कर सकते हैं कि उन्होंने जो कुछ भी किया देश हित के लिए नहीं किया। दक्षिण भारत के अछूत आज भी उनके विचारों से सहमत नहीं हैं। हाल ही में उन पर बनी फिल्म पर रोक लगा दिया गया है। क्योंकि फिल्म में गांधी के पुतले का अपमान किया गया है और पुतले को जलाया भी गया है। इस तरह से गांधी पर अपना आक्रोश व्यक्त करने वाले आज भी यदा-कदा अपने आचरण का प्रदर्शन करते रहते हैं। आए दिनों उनकी प्रतिमाओं के साथ खिलवाड़ सुर्खिया बनती ही रहती हैं। इनके पास गांधी को बुरा कहने और मानने के लिए अपने तर्क हैं। पर जो गांधी के नाम पर अपनी राजनीति करते आ रहे हैं, गांधी के बिना उनका काम ही न चलता हो,पर उनके जीवन में गांधी कभी नहीं होते। आखिर उनके लिए क्यों अप्रासंगिक हैं गांधीजी? इसका यही उत्तर है कि गांधी उनके भाषण में हो सकते हैं, क्योंकि इससे लोगों को प्रभावित किया जा सकता है। लेकिन गांधी को वे अपने जीवन में नहीं उतार सकते, क्योंकि जीवन में उतारना यानी सादगी से रहना। जो कतई संभव नहीं है। गांधी के लिए दोहरे मापदंड बनाना आसान है। गांधी को भुला देना उससे भी अघिक आसान है। इनके पास ऐसा कोई भी बहाना नहीं है, जिससे वे गांधी जी के विचारों को अपने जीवन में उतार सकें।
महात्मा गांधी, हिंदी और हॉकी में एक समानता है, वो ये कि तीनों को ही राष्ट्रीयता से जोड़ा गया है, जैसे महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता का दर्जा दिया गया है, हिंदी को राष्ट्र्भाषा और हॉकी को राष्ट्रीय खेल का। पर गौर करने वाली बात ये है कि बावजूद इसके तीनों को ही वो सम्मान अब तक नहीं मिल पाया है, जिसके वो हकदार हैं। महात्मा गांधी ने मुल्क को आजादी दिलाने के लिए क्या कुछ नहीं किया, उसे दोहराने की शायद जरूरत नहीं। उन्हें एक ऐसे योद्धा के रूप में जाना जाता है जिसने शस्त्र उठाए बिना ही दुश्मन को मैदान छोड़ने पर मजबूर कर दिया। उनके अहिंसक प्रयासों को भारत ही नहीं वरन पूरे विश्व में सराहा जाता है। हालांकि ये बात सही है कि उनके विचारों और सिद्धातों से कुछ लोग हमेशा असहमत रहे मगर बापू के समर्थन में खड़े होने वाली हजारों की भीड़ ने कभी उन्हें तवज्जो नहीं दी। पर आज उनके लिए मन में श्रद्धा का भाव रखने वालों को उंगलियों पर गिना जा सकता है। सरकार को भी उनकी याद महज दो अक्टूबर को ही आती है। इसी दिन पाकोर्ं, चौराहों पर धूल फांक रहीं बापू की प्रतिमाओं को नहलाया-धुलाया जाता है, माल्यार्पण किया जाता है और फिर साल भर के लिए ऐसे ही छोड़ दिया जाता है। देश के राजनीतिज्ञ महात्मा गांधी को नाटकबाज कहकर संबोधित करते हैं। क्या यह आचरण किसी महापुरुष को दिए गये सम्मान का परिचायक है। यदि महात्मा गांधी के नाम के आगे राष्ट्र्रपिता नहीं जुड़ा होता तो ऐसे वक्तव्य और उदासीनता फिर भी एकबारगी ना चाहते हुए भी हजम की जा सकती थी। क्योंकि हमारे देश में महापुरुषों के साथ ऐसा ही सलूक किया जाता है। मगर जहां राष्ट्र्रीयता की बात आती है वहां वाजिब सम्मान तो दिया ही जाना चाहिए।
फिल्म गांधी में गांधी की भूमिका निभाने वाले वेन किंग्‍सले पूरी तरह से शाकाहारी हो गए। गांधी के सिद्धांतों को लेकर विदेश से लोग भारत आते हैं। उन्हें इस बात का दु:ख होता है कि गांधी के ही देश में आज गांधी को ही नहीं जानते लोग। उन्हें लोग अपशब्द कहने से भी नहीं चूकते। यदि गांधी उनके देश में हुए होते, तो उनका देश आज विश्व में सबसे अग्रणी देश होता। आज भी कई विद्वान गांधी को अपने जीवन की धुरी मानते हैं। गांधी जी से प्रभावित होने वाले करोड़ों लोग हैं। भारत की स्वतंत्रता का इतिहास कभी गांधीजी के बिना पूरा हो ही नहीं सकता। इतना तो कहा ही जा सकता है कि हमारे ही देश में गांधी के नाम पर लोगों को जिस तरह से लूटा गया है, वैसा और कहीं नहंी हुआ। आज गांधी भले ही हमारे लिए अप्रासंगिक हो, पर सच तो यही है कि उनके बिना अ¨हसा की बात करना ही बेमानी है। गांधी हमारी जेब में करंसी के रूप में हैं, हमारे लेन-देन में हैं, हमारी पाढ्यपुस्तकों में हैं, हमारी फिल्मों में हैं, उनकी तस्वीर देश के सभी शासकीय कार्यालयों में हैं, पर वे अपने सिद्धांतों के साथ कहीं नहीं हैं। न हमारे दिलों में और न हीं हमारे कार्यो में। अब गांधी को सच्चे अर्थो में जानने के लिए हमें विदेश जाना होगा, जहां गांधावादी लोग हमें बताएंगे कि कौन थे गांधी और क्या थे उनके सिद्धांत?
डॉ. महेश परिमल

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