शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2012

जयराम रमेश ने कतई गलत नहीं कहा.

डॉ. महेश परिमल
जिस तरह से घर में मंदिर आवश्यक है, ठीक उसी तरह से घर में शौचालय का होना भी अतिआवश्यक है। हम अपनी तमाम उपलब्धियों पर भले ही गर्व कर लें, सीना ठोंक लें, पर जब तक देश की आधी आबादी मुक्ताकाशी शौच के लिए विवश है, तब तक हमारी सारी उपलब्धियाँ किसी काम की नहीं। घर की महिलाएं शौच के लिए बाहर जाएं, इससे बड़ा कलंक तो हो ही नहीं सकता? जयराम रमेश ने कतई गलत नहीं कहा। शौचालय में हमारे ही शरीर की गंदगी जाती है, इसलिए वह किसी मंदिर से कम नहीं। आखिर मंदिर में भी हम अपनी बुराई दूर करने की कामना ही तो करते हैं। शौचालय तो हमारे शरीर की गंदगी ग्रहण करता है। फिर भला वह कैसे अपवित्र हुआ? हमारे देश की आबादी अभी 121 करोड़ है। इस आंकड़े के अनुसार देश की 49.8 प्रतिशत लोगों के पास शौचालय नहीं है। यानी कि 60 करोड़ से अधिक लोग आज भी मुक्ताकाशी शौच करते हैं। इसमें महिलाएं भी शामिल हैं। इसके अलावा बीमार पड़े बुजुर्ग भी इसी हालत में हैं। जनगणना रजिस्ट्रार जनरल सी. चंद्रमौली कहत हैं कि यह एक अनोखा विरोधाभास है कि हमारे देश में 63.2 प्रतिशत लोगों के पास टेलीफोन कनेक्शन हैं, इसमें 53 प्रतिशत के पास मोबाइल कनेक्शन हैं। आंकड़े के अनुसार झारखंड में सबसे अधिक 77 प्रतिशत लोगों को शौचालय नसीब नहीं है।
इसे देश की विडम्बना ही कहा जाए कि जब हम चीन के साथ अपनी हार की पचासवीं बर्षगांठ (5 अक्टूबर 1962) मना रहे हैं, तब भी हमारे देश की महिलाएं खुले में शौच के लिए विवश हैं। हम देश में बढ़ रही मोबाइल फोन की संख्या को गर्व से गले पर लटका देश के विकास की बात कर रहे हैं। ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश कतई गलत नहीं हैं। उन्होंने ऐसा क्या गलत कह दिया कि लोगों की धार्मिक भावनाएं बलवती हो उठीं? उनके बयान से मंदिरों का अपमान नहीं हुआ, बल्कि उनका हुआ है, जो इसी ताक पर बैठे रहते हैं कि किस तरह से लोगों की धार्मिक भावनाओं को भड़काकर अपना उल्लू सीधा करें। यदि किसी की जरा सी बात पर लोगों की धार्मिक भावनाएं आहत होती हैं, तो फिर निश्चित रूप से वह धर्म कच्च है। हिंदू धर्म के बारे में तो ऐसा नहीं कहा जा सकता। यह धर्म तो सदियों से चला आ रहा है। क्या आज वह इतना कमजारे हो गया है कि छोटी सी बात पर लोगों की धार्मिक भावनाएं आहत होने लगी हैं। इसका मतलब साफ है कि धर्म कमजोर नहीं हुआ है, बल्कि लोग कमजोर हो गए हैं। हमारे ही घर के आसपास देखते ही देखते एक बड़ा मंदिर बन जाता है, पर किसी झुग्गबी बस्ती में एक शोचालय नहीं बन पाता। इसे क्या कहें कि मंदिर बनने से धर्म मजबूत बन गया। महिलाएं खुले में शौच कर रही हैं, तो कहां चला जाता है धर्म? क्यों मांगें जयराम रामेश लोगों से माफी? मोबाइल और मंदिर से आवश्यक है शौचालय, इसे समझने में और कितने साल लगेंगे हमको? यदि कहीं शौचालय मिल भी जाए, तो उसकी हालत देखी है आपने? लोग शौच करना भूल जाते हैं, वहाँ जाकर। मंदिर की सफाई का ध्यान है, पर शौचालय की सफाई की ओर किसी का ध्यान नही है। देश में मंदिरों की कमी नहीं है, पर शौचालयों की अवश्य कमी है। भारतवासी के लिए स समय गर्व का क्षण होगा, जब देश की हर महिला को शौचालय नसीब होगा।
जयराम रमेश ने कुछ भी गलत नहीं कहा। अब वे कुछ करने की सोच रहे हैं। उन्होंने संकलप लिया है कि आगामी दस वर्षो में हमारे देश में सभी के पास शौचालय उपलब्ध होगा। इस दिशा में अभी तक सरकार के 45 हजार करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं। आगामी पाँच वर्षो में एक लाख करोड़ खर्च करने की योजना है। माइक्रोसाफ्ट कंपनी के संस्थापक बिल गेट्स अरबों रुपए सामाजिक कार्यो के लिए दान में देते हैं। उनका एक मिशन भारत में शौचालयों की व्यवस्था करना भी है। वे कहते हैं कि मेरा सपना ऐसे शौचालय बनाने का है, जिसमें पानी कम लगे और गंदगी भी न हो। दरुगध कम हो और सस्ता भी पड़े। सेंटर फॉर सिविल लिबर्टी का 2009 का सर्वे कहता है कि दिल्ली में पुरुषों के 1534 शौचालयों की तुलना में महिलाओं के लिए मात्र 132 शौचालय ही है। मुंबई में लघुशंका के लिए धनराशि देनी पड़ती है।
यह सच है कि शौचालयों का निर्माण कराना सरकार का काम है। पर क्या सब कुछ सरकार पर ही छोड़ दिया जाए? हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं है? आखिर हम भी तो एक सामाजिक प्राणी हैं। इस नाते हमें क्या करना है, हमें यह नहीं भूलना चाहिए। मंदिर बनाने के लिए हमारी जेब से धनराशि कितनी आसानी से निकल जाती है, तो क्या शोचालय के लिए नहीं निकलनी चाहिए। इसके पीछे शायद यही सोच है कि मंदिरों के लिए दिया गया दान वापस पुण्य के रूप में आएगा। हमें स्वर्ग मिलेगा। हमारा भविष्य सुधरेगा। महिलाओं को खुले में शौच करता देखकर क्या वास्तव में आपका और हमारा भविष्य सुधरेगा? हमें तो शर्म से मर जाना चाहिए।  क्योंकि बिखरी हुई गंदगी से होकर गुजरना किसी नर्क यात्रा से कम नहीं है। दान देकर हमें भले ही स्वर्ग की प्राप्ति होती हो, पर जीते जी यह नर्क यात्रा भी हमें ही झेलनी है। कितनी धार्मिक संस्थाएं ऐसी हैं, जो मंदिर तो नहीं, पर पेशाब घर और शौचालय बनाती हैं। हर वर्ष गणोश जी, दुर्गाजी आदि के लिए हमारे पास लोग चंदा लेने के लिए आते हैं, कभी कोई व्यक्ति ऐसा भी आया, जिसने मोहल्ले में शौचालय के लिए चंदे की मांग की हो? नहीं, संभव ही नहीं है। जब तक हम शौचालय को गंदगी मानते रहेंगे, हमारी मानसिकता बदलने वाली नहीं है। शौचालय की सफाई उतनी ही आवश्यक है, जितनी शरीर की। आखिर शरीर भी एक मंदिर ही है। कहा जाता है कि जिन घर का शौचायल साफ होगा, वह घर संस्कारवान होगा। गंदे शौचालय हमारी गंदी सोच का ही परिणाम हैं। जो हमारी बुराई को ग्रहण कर ले, वह हमारी दृष्टि में महान हो सकता है, पर जो हमारी गंदगी को स्वीकार कर ले, वह महान क्यों नहीं हो सकता?
शौचालय पर हमारी सोच को बदलना होगा। शौचालय के बिना जीवन संभव ही नहीं है। यदि हम ऐसा मानते हैं, तो हमें यह भी मानना होगा कि शौचालय जीवन के लिए अतिआवश्यक है। मंदिर की तरह। मंदिर में पूजा के लिए जाने के पहले स्वयं को शौचालय जाकर स्वच्छ करने का काम आप ही करते हैं। कोई भी शुभ कार्य आप स्नान से पहले नहीं करते, स्नान से पहले शौचालय जाकर स्वयं को स्वच्छ करते ही हैं। सोचो कितना महत्वपूर्ण है, शौचालय हमारे जीवन के लिए। बस हमें यही करना है कि यदि देश का एक आदमी या महिला मुक्ताकाशी शौच के लिए विवश है, तो हमें किसी बात पर गर्व नहीं करना चाहिए।
  डॉ. महेश परिमल

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