बुधवार, 5 सितंबर 2012

देश में बंगलादेशी आ सकते हैं, तो बिहारी क्यों नहीं?

डॉ. महेश परिमल
इस देश में लाखों की संख्या में सीमा पार से बंगलादेशी आ सकते हैं। गलत तरीके से पाकिस्तानी भी आ सकते हैं। यहाँ रह सकते हैं। तो फिर इसी देश के बिहारी दूसरे राज्य में क्यों नहीं जा सकते? यह प्रश्न आज सभ को मथ रहा है। राज ठाकरे बोल रहे हैं, पर उसकी चुभन को हमारे नेता महसूस कर रहे हैं। राज ठाकरे की आक्रामकता इतनी खतरनाक है कि राज्य सरकार भी कुछ न करने की स्थिति में है। वे बिना अनुमति के रैली निकालकर व्यवस्था को लताड़ सकते हैं, पर उनका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। यदि राज ठाकरे बंगलादेशी घुसपैठियों को इसी तरह ललकारते, तो उन्हें देश की जनता का भारी सहयोग मिलता। पर उन्होंने देश के ही एक अन्य राज्य के लोगों पर कड़ी टिप्पणी की। उनका टारगेट बिहारी हैं। यह सच है, पर वे भी इसी देश के नागरिक हैं। दूसरी ओर राज ठाकरे के बयान पर टिप्पणी करने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार को यह नहीं भूलना चाहिए कि उनके राज्य ने अपने राज्य में नौकरियों की सुविधाएँ नहीं दी, इसलिए लोगों को दूसरे राज्यों में जाना पड़ा, यदि उन्हें अपने ही राज्य में नौकरी मिल जाती, तो उन्हें दूसरे राज्यों की ओर मुंह नहीं ताकना पड़ता। अपनी गलतियों को ढांककर वे दूसरों पर आरोप लगा रहे हैं। आखिर वह देश का सबसे बड़ा राज्य है। और वे उस राज्य के मुखिया हैं।
एक तरफ राज ठाकरे हिंदी चैनलों पर अपना गुस्सा उतार रहे हैं, दूसरी तरफ वे अपनों से सहानुभूति भ प्राप्त करना चाहते हैं। उनकी पहचान एक आक्रामक नेता की है। एक समय था, जब यही स्थिति शिवसेना के सुप्रीमो बाल ठाकरे की थी। उनकी सिंह गर्जना आज राज ठाकरे के माध्यम से गूंज रही है। मुम्बई में ऐसे बहुत से लोग हैं, जो उन्हें हाथो-हाथ लेना चाहते हैं। पिछले दिनों उन्होंने जिस तरह से कानून की धज्जियां उड़ाते हुए जिस तरह से रैली निकाली, तो ऐसा लगा जैसे उन्होंने सविनय अवज्ञा कानून को भंग किया है। इस रैली से महाराष्ट्र सरकार की नींद ही उड़ गई। देश इस समय जिन हालात से होकर गुजर रहा है, उसे देखते हुए युवाओं का एक वर्ग ऐसा भी है, जो यह सोच रहा है कि यदि देश में 5 राज ठाकरे हो जाएं, तो पाकिस्तान कभी हमारी तरफ आंख उठाकर नहीं देख पाएगा। जब चारों तरफ अराजकता ओर भ्रष्टाचार का माहौल है, तब राज ठाकरे प्रासंगिक हो जाते हैं। एक बात यही कचोटती है कि राज ठाकरे के सलाहकार उन्हें दूरदर्शिता सिखाएं। ताकि कब, कहाँ, क्या बोलना है, ये वे जान सकें। राज ठाकरे यदि समय को पहचान कर बोलते, तो सार्थक होता। यदि बिहारियों ने मुम्बई में डेरा जमाया है, तो कहीं न कहीं इसे मुम्बईवासियों की काहिली ही कहा जाएगा। न जाने कितने काम ऐसे हैं, जो मुम्बई के लोग नहीं करना चाहते, उसे बिहारी कर दिखाते हैं। इस तरह से वे बिहारी उनके सहायक ही हुए। यदि आज बिहारी जो काम कर रहे हैं, उसे मुम्बईवासी करने को तैयार हो जाएं, तो फिर बिहारियों की आवश्यकता ही क्या? ऐसा नहीं हो पाया, इसलिए बिहारियों की मांग बढ़ती गई, लोग आते गए, कारवां बनता गया। आज वे भले ही आंख की किरकिरी बन गए हों, पर जब तक वे आपका काम करते रहे, तब तो अच्छे लगे। क्या यह दोहरी मानसिकता नहीं है?
आज भारतीय राजनीति की गंगा काफी मैली हो गई है। यहां आक्रामक लोगों की बेहद कमी है। कहा जाए कि मूर्ख लोग राज कर रहे हैं। आक्रामक लोग जो कहते हैं, वे कर दिखाते हैं। पर मूर्ख नेता जो बोलते हैं, वैसा करते नहीं। इस तरह से वे देश को दोनों हाथों से लूटने में लगे हैं। ऐसे स्वार्थी नेता केवल अपना घर ही भरते रहते हैं। उनके लिए तो सत्ता प्राप्त करना ही मुख्य उद्देश्य होता है। सत्ता के साथ शक्ति तो स्वमेव आ जाती है। इनकी कथनी और करनी में काफी अंतर है। दूसरी ओर राज ठाकरे जैसे लोग यदि कुछ कहते हैं, तो उनके सामने महाराष्ट्र ही होता है। वे फार द महाराष्ट्र, बाय द महाराष्ट्र को मानते हैं। राज ठाकरे की आक्रामक छवि का फायदा उठाने के लिए कुछ नेता तैयार बैठे हैं। कुछ ने तो ऐसी भी तैयारी कर रखी है कि कांधा राज ठाकरे और और बंदूक होगी उनकी। क्योंकि आज पूरे महाराष्ट्र में राज ठाकरे का सिक्का चलता है। सत्तारुढ़ दल में इतनी ताकत नहीं है कि वह आगामी विधानसभा चुनाव में अपने दम पर सरकार बना सके। अपने तेवरों को यदि राज ठाकरे कांग्रेस को चुनौती देते, तो शायद महाराष्ट्र ही नहीं, बल्कि इस देश का भी भविष्य बदल जाता। आज वे अपनी आक्रामकता का दुरुपयोग कर अपनी ही शक्ति को कम कर रहे हैं।
उधर यदि नीतिश कुमार यह कहते हैं कि महाराष्ट्र सरकार राज ठाकरे के खिलाफ आखिर कड़े कदम क्योंन हीं उठाती? अब यह नीतिश जी को कौन समझाए कि यदि राज ठाकरे के खिलाफ थोड़ी भी सख्ती बरती गई, तो तय है कि वे महाराष्ट्र में हीरो बन जाएंगे। एक राजनैतिक समीकरण यह भी है कि भविष्श् में कंग्रेस को ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के समर्थन की जरुरत पड़ सकती है। इससे संबंध सुधारें रहें, इससे अच्छा यही है कि संबंध बिगाड़े ही न जाएं। रही बिहार की बात, तो वहाँ सभी दल अलग-थलग पड़े रहते हैं, जब कभी किसी बिहारी की बात आती है, तो सब एक हो जाते हैं। मानों जनता की सबसे अधिक चिंता उन्हें ही है। ऐसा किसी अन्य राज्य में नहीं देखा गया। वहां के नेता अपना बिहार प्रेम दर्शाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। पर बिहारियों को ही रोजगार देने के नाम पर सबसे पीछे रह जाते हैं। इसीलिए आज बिहारी हर राज्य में मौजूद हैं। भले ही वे रिक्शा चलाएं, पर यह काम वे अपने बिहार में नहीं करेंगे।
महाराष्ट्र की राजनीति को समझने वाले कहते हैं कि वामपंथियों के बढ़ते प्रभुत्व को देखते हुए ही इंदिरा गांधी ने शिवसेना को समर्थन दिया था। बाद में शिवसेना इतनी मजबूत बन गई कि वह कांग्रेस को ही खटकने लगी। अब तो यह आरोप लगने लगे हैं कि राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को कांग्रेस ही समर्थन दे रही है, इसलिए उस पर सख्त कार्रवाई करने से डरती है। राजनीति में इस तरह के आक्षेप कोई नई बात नहीं है। राज ठाकरे की जो विशेषता है, वह है उनकी आक्रामकता। भाषण करने की कला, तीखे कटाक्ष और आक्षेप, यह विशेषता तो महाराष्ट्र के अन्य किसी भी नेता में नहीं है। उनको सुनकर बाल ठाकरे की याद आ जाती है। एक बात तो तय है कि जब राज ठाकरे बोलते हैं, तो महाराष्ट्र सुनता है और उन्हें हाथो-हाथ लेता है। दूसरी ओर अन्य नेता बुरी तरह से बौखला जाते हैं। वे सोचने लगते हैं कि उनमें राज ठाकरे जैसे बोलने की कला क्यों नहीं आई? राज ठाकरे को अभी बहुत लम्बी लड़ाई लड़नी है, इसलिए यदि वे मीडिया को साधकर रखें, तो यही मीडिया उन्हें काम भी आ सकता है। अन्यथा संभव है, यही मीडिया अपनी नकारात्मकता के कारण उन्हें धूल चाटने के लिए विवश कर दे।
डॉ. महेश परिमल

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