शनिवार, 25 अगस्त 2012

मेरी 1000 वी पोस्‍ट

कोयले के शोर में डूब गया असम का मुद्दा
डॉ. महेश परिमल
कोयला घोटाले के शोर में असम में हुई हिंसा और बंगलादेशी घुसपैठियों का मुद्दा भुला दिया गया। हमेशा से यही होता आ रहा है। जब भी संसद में कोई गंभीर मुद्दा सामने आता है, तब सरकार उससे बचने के लिए किसी दूसरे मुद्दे को तूल दे देती है। जिससे हमारे सांसदों का ध्यान दूसरी ओर चला जाता है। इस बार सरकार केवल इस बात के लिए खुश है कि विपक्ष बिखर गया है। कोयला घोटाले के मामले में भाजपा को चाहिए केवल प्रधानमंत्री का इस्तीफा। अन्य दल भाजपा की इस माँग से इत्तेफाक नहीं रखते। इधर भाजपा भी अड़ी हुई है। उधर अन्य दल अपने स्वार्थ की रोटियाँ सेंकने में लगे हुए हैं। सरकार की ईद बिगड़ गई, अब वह नहीं चाहती कि किसी भी तरह से विपक्ष अपनी मनमानी कर ले। काफी समय बाद विपक्ष को मौका मिला है, वह भी इसे खोना नहीं चाहती।
सरकार से यह अपेक्षा बेकार ही है कि कोयला घोटाले पर वह कुछ कर पाएगी। संसद के कई सत्र हंगामें की भेंट चढ़ते रहे हैं। इस बार भी वैसे ही आसार हैं। पिछली 2 जी घोटाले पर बार जेपीसी की मांग को लेकर संसद एक तरह से ठप्प ही पड़ गई थी। जब सरकार को लगा कि इसके अलावा अब और कोई चारा नहीं, तो उसने विपक्ष की बात मान ली। इस बार सरकार संयुक्त संसदीय समिति की रचना करना चाहती है। सभी जानते हैं कि संयुक्त संसदीय समिति की रचना करना एक छलावा ही है। इसके पहले जब भी इसकी रचना की गई है, उसके फैसले स्वार्थ से ही लिपटकर सामने आए हैं। अभी सरकार के सामने समस्या यह है कि उसके पास ‘कैग’ की रिपोर्ट का कोई जवाब नहीं है। प्रधानमंत्री कभी इस्तीफा देंगे, यह सोचना भी भारी भूल होगी। यह सच है कि विपक्ष को अब काफी ईंधन मिल गया है। उच्च स्तर पर चल रहे भ्रष्टाचार लगातार सामने आ रहे हैं। हर बार सरकार की नाकामी सामने आ रही है।
इसमें कोई दो मत नहीं कि कोयला घोटाले ने सरकार  के साथ-साथ प्रधानमंत्री की छबि को धूमिल किया है। कोयला घोटाले में खानों की नीलामी नहीं हुई, यह सच है, पर पहले आओ-पहले पाओ की नीति को भी नहीं अपनाया गया। अपनों अपनों को ही खानों को एक तरह से समर्पित कर दिया गया। इस घोटाले में सारे नियम-कायदों को ताक पर रखा गया है। सामान्य रूप से खानों के आवंटन प्रणाली में सबसे पहले उसका नक्शा तैयार किया जाता है। उसके बाद जमीन का विभाजन किया जाता है। उसके बाद टेंडर निकाला जाता है, इसमें जो सबसे ऊंची बोली लगाता है, खान का एक भाग उसे दिया जाता है। यही नहीं इस खान से कितना माल निकालना है, यह भी तय किया जाता है। खानों के आवंटन में इन नियमों को ध्यान में ही नहीं रखा गया। जिसे भी खान मिली, उसने तय सीमा से अधिक माल निकाला। इन्होंने सरकार को इसमें से उसका हिस्सा भी नहीं दिया गया। खूब मनमानी चली। ये देश का दुर्भाग्य है कि ये सब उस समय हुआ, जब यह मंत्रालय हमारे प्रधानमंत्री के पास था। कोयला घोटाले में कुछ राज्य सरकारें भी दोषी हैं। इन सरकारों ने केंद्र सरकार को यह  ताकीद की थी कि नीलामी के बिना ही खानों का आवंटन कर दिया जाए। अब जब इस मामले में केंद्र सरकार ही कठघरे में आ गई है, तो यही राज्य सरकारें अब बचाव की मुद्रा में आ गई हैं। इस घोटाले की दलाली राज्य सरकारों ने खा ली है। इन राज्यों में भाजपाशासित राज्य भी शामिल हैं। इसलिए भाजपा इस मामले में अपना चेहरा छिपाने की कोशिश कर रही है।
उधर महाराष्ट्र में राज ठाकरे कांग्रेस पर भारी पड़ रहे हैं। बिना अनुमति के पिछले दिनों उन्होंने रैेली निकालकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया। रैली में डेढ़ किलोमीटर तक पैदल चले। इस तरह से उन्होंने यह जता दिया कि मुम्बई में 11 अगस्त को जो हिंसा हुई, उसकी नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए महाराष्ट्र के गृहमंत्री और पुलिस कमिश्नर को इस्तीफा दे देना चाहिए। राज ठाकरे के इस शक्ति प्रदर्शन से महाराष्ट्र कांग्रेस और एनसीपी को मानो सांप सूंघ गया। राज ठाकरे को जब महाराष्ट्र के मोदी के रूप में प्रस्तुत किया गया, तो कांग्रेस को झटका लगा। शक्ति प्रदर्शन कर राज ठाकरे ने अपनी अहमियत बता दी। पुलिस कमिश्नर का बदला जाना इसी बात की ओर संकेत करता है। यूपीए सरकार को इस बार ईद फल नहीं पाई। संसद के बाहर और संसद के अंदर भी कांग्रेस के सामने संकट ही संकट है। एक तरफ राज ठाकरे का शक्ति प्रदर्शन, दूसरी तरफ भाजपा की सख्ती, तीसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट द्वारा पदोन्नति में आरक्षण की अर्जी को ठुकरा दिया जाना, इन सब झंझावातों में कांग्रेस बुरी तरह से उलझ गई है। इन तीनों घटनाओं ने कांग्रेस को अच्छा-खासा झटका दिया है। फिर भी कांग्रेस खुश है कि विपक्ष बिखर गया है। संसद भले न चले, इसमें भी कांग्रेस अपना ही भला देख रही है। न संसद चलेगी और न ही चर्चा होगी। लेकिन उन 112 बिलों का क्या होगा, जो अटके पड़े हैं? दूसरी ओर जिस तरह से कोयला घोटाले ने असम का मुद्दा पीछे धकेल दिया है, उसी तरह कुछ ऐसा होगा, जिससे यह मुद्दा भी भुला दिया जाए। जनता को दिग्भ्रमित करने वाले नेता अब स्वयं ही दिग्भ्रमित हो रहे हैं, या किए जा रहे हैं। अभी तीन महीने पहले ही संसद की 60 वीं वर्षगांठ पर 13 महई को सेंट्रल हाल में संकल्प लिया गया था कि व्यवधानों का हल बातचीत से निकालेंगे, हर साल सौ बैठकें करवाएंगे, सांसदों की जवाबदेही बढ़ाएंगे। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उधर प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा था कि  संसद में हंगामों से लोगों में निराशा है। हमें आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। उस समय प्रणव मुखर्जी ने भी कहा था कि ऐसी व्यवस्था बनाएंगे कि संसद की कार्यवाही कभी भी बाधित न हो। लालकृष्ण क्षडवाणी ने भी कहा था कि चर्चा कर सभी मुद्दे हल करेंगे और संसद को जनता के प्रति जवाबदेह बनाएंगे।
आज हालत यह है कि दोनों ही परस्पर आरोप-प्रत्यारोप के दौर से गुजर रहे हैं। आज सरकार की दलील है कि ञ्चविपक्ष बहस से बच रहा क्योंकि उसे फंसने का डर है, संसद की गरिमा को ठेस पहुंचाने के लिए विपक्ष दोषी है, कांग्रेस जब विपक्ष में थी तो कभी भी ऐसा नहीं किया। दूसरी ओर विपक्ष के तर्क हैं कि प्रधानमंत्री पहले इस्तीफा दें तो हम बहस को राजी होंगे, संसद चलाना सरकार की जिम्मेदारी है, विपक्ष की नहीं, तहलका पर कांग्रेस ने 20 दिनों तक संसद ठप की थी।  अब तक तो यही कहा जाता था कि नेता हमेशा जनता से किए अपने वादे भूल जाते हैं। पर अब ऐसा लगता है कि नेता संसद में जो वादे करते हैं, उसे भी भूल जाते हैं। संसद की गरिमा को बचाए रखने के सारे वादे अब न जाने कहां गुम हो गए हैं। संसद ठप है, सरकार खुश है और बेचारी जनता का हालचाल पूछने वाला कोई नहीं है।
   डॉ. महेश परिमल

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