शनिवार, 30 अप्रैल 2011

कीटनाशक लॉबी के दबाव में सरकार




यह आलेख राष्‍ट्रीय जागरण के पेज 9 पर आज प्रकाशित हुआ

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शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

सीबीआई के मिल गया बलि का बकरा!




डॉ. महेश परिमल

मनमोहन सिंह सरकार के साथ यह मुश्किल है कि जिस बात को देश का बच्च जानता है, उसे प्रधानमंत्री नहीं जानते। सभी जानते हैं कि कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारियों में सुरेश कलमाड़ी शुरू से संदिग्ध थे। कभी पूणो के काफी हाउस के कैश काउंटर पर बैठने वाले सुरेश कलमाड़ी पर 80 हजार करोड़ रुपए के घोटाले का आरोप है। यह आम आदमी की समझ से परे है कि सुरेश कलमाड़ी को आखिर इतने लम्बे समय बाद क्यों गिरफ्तार किया गया। इस विलम्ब पर अभी भी रहस्य का परदा है। वैसे कलमाड़ी पहले भी कह चुके हैं कि इस घोटाले में मैं अकेला नहीं हूँ। अगर मैंने मुँह खोला, तो कई सफेदपोश सामने आ सकते हैं। अक्टूबर के बाद सीबीआई ने कलमाड़ी से तीन बार पूछताछ की है। इस पूछताछ से ऐसा कुछ भी नहीं मिला, जिससे उनकी गिरफ्तारी हो सके। आखिर जब उनकी गिरफ्तारी की गई, तब भी सीबीआई उसका खुलासा करने के लिए तैयार नहीं थी। गिरफ्तारी के करीब तीन घंटे बाद अधिकृत रूप से घोषणा की गई। आखिर इसके पीछे क्या राज है?
संभवत: सीबीआई को यह डर है कि कलमाड़ी के पास ऐसे सुबूत हैं, जिससे कई लोगों के चेहरे बेनकाब हो सकते हैं। वैसे शुंगलू कमेटी ने सुरेश कलमाड़ी के बाद यदि किसी को दोषी माना है, तो वह है दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित, खेल मंत्री के.पी.एस. गिल, शहरी विकास मंत्री जयपाल रेड्डी। कलमाड़ी की इस गिरफ्तारी के बाद विपक्ष उक्त तीनों की गिरफ्तारी की माँग कर रहा है। वैसे सीबीआई सुरेश कलमाड़ी को केंद्र में रखकर जाँच कर रही है। अभी तक उन लोगों को तो छुआ तक नहीं गया है, जो कलमाड़ी के पीछे हैं। इस घोटाले की नैतिक जिम्मेदारी आखिर प्रधानमंत्री पर ही आने वाली है। इसलिए सीबीआई ने कलमाड़ी को बलि का बकरा बनाकर गिरफ्तार तो कर लिया है, पर यही कलमाड़ी जब अपना मुँह खोलेंगे, तब जो नाम उजागर होंगे, उससे केंद्र सरकार कैसे बच पाएगी?
पिछले साल अक्टूबर में जब राष्ट्रमंडल खेल शुरू हुए थे, तभी सबको पता चल गया था कि इस खेल के लिए की गई तैयारियों के लिए जो ठेके दिए गए हैं, उसमें अरबों रुपए का गोलमाल किया गया है। इस घोटाले के लिए उसी समय राष्ट्रमंडल खेल की आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी को जवाबदार माना गया था। उसके बाद भी उन्हें आयोजन समिति से हटाया नहीं गया। यही नहीं, उनकी गिरफ्तारी न करते हुए उन्हें उक्त पद पर बरकरार रखा गया। राष्ट्रमंडल खेलों की समाप्ति के बाद जब तमाम घोटालों की जाँच के लिए कमेटी तैयार की गई, तब भी कलमाड़ी आयोजन समिति के अध्यक्ष पद पर विराजमान थे। इस पर जब सरकार पर दबाव बढ़ा, तब आयोजन समिति से उन्हें हटाया गया। इके बाद भी आज तक सुरेश कलमाड़ी इंडियन ओलंपिक्स ऐसोसिएशन के अध्यक्ष के रूप में विराजमान हैं। कलमाड़ी के दो साथियों ललित भणोत और वी. के. वर्मा ने उनके खिलाफ कई बयान दिए, उसके बाद भी कलमाड़ी को गिरफ्तार नहीं किया गया। फिर सीबीआई ने कलमाड़ी से तीन बार पूछताछ की, उसके बाद भी उनकी धरपकड़ के बजाए सबूत खत्म करने की पूरी छूट दी गई। अचानक राजनीति में ऐसा क्या उलटफेर हो गया, जिससे कलमाड़ी को गिरफ्तारी की गई।
अभी सीबीआई ने सुरेश कलमाड़ी को जिस आधार पर गिरफ्तार किया है, उसके पीछे वह रिकॉर्डिग है, जिसमें दिल्ली में आयोजित आयोजन समिति की बैठक में उन्हें स्कोर बोर्ड आदि के यंत्रों के ठेके स्विस टाइमिंग कंपनी को देने की घोषणा करते हुए बताया गया है। सीबीआई को यह शक है कि स्विस टाइमिंग कंपनी के भारतीय प्रतिनिधि ने इस सौदे में सुरेश कलमाड़ी को रिश्वत देने में बिचौलिए की भूमिका निभाई। इस प्रतिनिधि को जब कलमाड़ी के सामने उपस्थित किया गया, तब उनके पास रिश्वत लेना स्वीकारने के अलावा कोई चारा नहीं था। वैसे कलमाड़ी पर यह भी आरोप है कि उन्होंने सितम्बर 2010 में लंदन मंे आयोजित क्विंस बेटेन रिले के भव्य आयोजन के प्रचार-प्रसार के लिए जिस ए.एम. फिल्म्स को ठेका दिया था, इसके साथ बिना किसी लिखित समझौते के करोड़ों रुपए की अदायगी की गई। इस कंपनी का मालिक आशीष पटेल गुजराती है। इस कंपनी का रिकार्ड खराब था। कंपनी ने अपनी सेवाओं के बदले में काफी मोटी राशि वसूली थी। सीबीआई को वे ई-मेल भी हाथ लग गए हैं, जिसमें कलमाड़ी के साथियों ने आशीष पटेल को कब कितनी राशि देने की जानकारी है।
कलमाड़ी के साथियों द्वारा पहले यह कहा गया था कि ए.एम. फिल्म्स कंपनी को ठेका देने के लिए लंदन स्थित भारत के हाई कमिश्नर की तरफ से सिफारिश की गई थी। इसका सुबूत भी ई-मेल से मिल गया है। इसके बाद आयोजन समिति की तरफ से क्विंस बेटेन रैली के ठेके के लिए ब्रिटेन की तीन अन्य कंपनियों के टेंडर जारी किए गए। ये तीनों टेंडर बनावटी थे। इन बनावटी टेंडरों से यह साबित करने की कोशिश की गई कि ए.एम. फिल्म्स को ठेका देने के पहले पूरी तरह से सावधानी बरती गई। सीबीआई के अधिकारियों ने लंदन जाकर आशीष पटेल से भेंट की, वहाँ उन्होंने आशीष पटेल को इस बात के लिए मना लिया कि वे कलमाड़ी के खिलाफ सुबूत देंगे। वैसे सीबीआई को आशीष पटेल के पास कलमाड़ी के खिलाफ कुछ सुबूत भी मिले हैं। राष्ट्रमंडल खेलों के लिए स्कोर, टाइमिंग और परिणाम के संसाधनों की आपूर्ति के लिए 107 करोड़ रुपए का ठेका स्विस कंपनी को गलत तरीके से दिया गया था। इसी काम के लिए स्पेन की कंपनी 48 करोड़ रुपए में करने के लिए तैयार थी। इसके बाद भी स्पेन की कंपनी का टेंडर रिजेक्ट कर दिया गया। इस मामले में कलमाड़ी के साथी ललित भनोट और वी.के.वर्मा से जब सीबीआई ने पूछताछ की, तब इन्होंने बताया था कि कलमाड़ी के कहने पर ही स्पेन की कंपनी का टेंडर रिजेक्ट कर स्विस कंपनी को ठेका दिया गया था। इस चौंकाने वाले बयान के बाद भी सीबीआई ने कलमाड़ी की गिरफ्तारी में इतनी देर क्यों की, यह एक रहस्य है।
स्विस कंपनी को 107 करोड़ रुपए का ठेका देने के लिए कलमाड़ी के दोनों साथियों ने चालाकी से काम लिया। टेंडर की घोषणा 1 अक्टूबर 2009 में की गई थी, इसकी शर्ते ऐसी थी कि स्विस कंपनी के अलावा दूसरी कोई कंपनी उसे पूरा नहीं कर पाती। इसके बाद 4 अक्टूबर को टेंडर में संशोधन कर ऐसा माहौल तैयार किया गया, जिसमें कोई दूसरी कंपनी टेंडर भरने के लिए तैयार ही न हो। इसके बाद भी स्पेन की कंपनी ने टेंडर भर दिया। उक्त काम 48 करोड़ रुपए में करने के लिए तैयार थी। राष्ट्रमंडल खेल में देश की तिजोरी में से 80 हजार करोड़ रुपए उड़ाए गए। ये राशि निर्थक खर्च की गई। इस घोटाले में सुरेश कलमाड़ी अकेले नहीं थे। इस घोटाले की जानकारी केंद्र सरकार के पास थी। इसके बाद भी सारी सूचनाओं की उपेक्षा की गई। खेल खत्म हो जाने के बाद जब पूरी राशि हजम हो गई, तब उसकी जाँच शुरू हुई। इसी जाँच में पहला बलिदान सुरेश कलमाड़ी के रूप में सामने आया है। अब कितने सफेदपोश सामने आते हैं, यही जानना बाकी है।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

दूसरा नंदीग्राम बनता जैतापुर



डॉ. महेश परिमल

पिछले बीस वर्षो में जैतापुर ने भूकम्प के 92 झटके झेले हैं। देश को इस एटामिक पॉवर प्लांट के कारण करीब दो लाख करोड़ रुपए का नुकसान हो सकता है। महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में बनाए जा रहे 9,900 मेगावाट की उत्पादन क्षमता वाले इस प्रस्तावित प्लांट को लेकर महाराष्ट्र के रत्नागिरी में तनाव की स्थिति है। पुलिस फायरिंग में अभी तक एक युवक की मौत हो चुकी है। बंद के दौरान प्रदर्शनकारियों ने एक बस में आग लगा दी और अस्पताल में तोड़फोड़ की। महाराष्ट्र विधानसभा में भी यह मामला गूंजा। सरकार यदि इसी तरह अपना दमन चक्र चलाती रही, तो जैतापुर को दूसरा नंदीग्राम बनते देर नहीं लगेगी।
जापान में सुनामी और भूकंप के बाद पॉवर प्लांट फुकुशिमा की जो हालत हुई और उससे जो बरबादी हुई, उससे भारतीयों ने सबक लिया है। अब जैतापुर में प्रस्तावित पॉवर प्लांट का विरोध हो रहा है। लोग आंदोलन कर रहे हैं। सरकार है कि झुकना नहीं चाहती, आंदोलनकारी अड़े रहना चाहते हैं। इस पाँवर प्लांट का विरोध करने वाले पर्यावरणविद कहते हैं कि यह प्लांट जिस स्थान पर बनाया जाना है, वह स्थल तीन नम्बर भूकम्पग्रस्त क्षेत्र में आता है। जियोलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा इकट्ठे किए गए आँकड़ों के अनुसार इस स्थल पर 1985 से 2005 तक भूकम्प के 92 झटके आ चुके हैं। इसमें से अधिकांश झटके तो 1993 में लगे थे। इसकी तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 6.2 थी। जापान से सबक लेते हुए सरकार ने जैतापुर के पॉवर प्लांट की डिजाइन में बदलाव करते हुए ऊँचा प्लेटफार्म बनाने का निर्णय लिया है। इस पर पर्यावरणविद कहते हैं कि जैतापुर परमाणु संयंत्र को भूकम्प से कोई नुकसान नहीं होगा, यह समझना मूर्खता होगी। यदि जैतापुर में भूकम्प का झटका लगेगा, तो संभव है, यह पूरा इलाका ही मैदान बन जाए। यही नहीं, इसका असर मायानगरी मुम्बई तक हो सकता है।
जैतापुर में जो परमाणु संयंत्र बनाया जा रहा है, वह भारत का ही नहीं, बल्कि विश्व का सबसे बड़ा एटामिक पॉवर स्टेशन होगा। इसकी कुल क्षमता 9900 मेगावॉट बिजली पैदा करने की होगी। मुख्यमंत्री पद सँभालते ही अशोक चौहान ने यह तय कर लिया कि इस पॉवर प्लांट के विरोध को हमेशा-हमेशा के लिए कुचल दिया जाए। सरकार ने हरसंभव कोशिश की, पर विरोध बढ़ता ही रहा। पॉवर प्लांट के लिए किसानों की जमीन हस्तगत की जाने लगी। परिणामस्वरूप आंदोलनकारी किसानों पर पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी। इसके खिलाफ किसानों ने भी थाना जला दिया। इस घटना ने 90 साल पहले की चौरा-चोरी की याद दिला दी। इसके बाद भी किसानों की जमीन को जबर्दस्ती हथियाने की प्रवृत्ति में कोई तब्दीली नहीं आई।
जब जापान में फुकुशिमा पॉवर प्लांट की हालत खराब हुई, तब हमारे केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा था कि अब समय आ गया है कि हम भी जैतापुर पॉवर प्लांट के बारे में पुनर्विचार करें। इसके बाद उन पर केंद्र से दबाव आ गया। इसलिए उन्हें अपने बयान में तब्दीली करनी पड़ी। एक सप्ताह बाद ही पर्यावरण मंत्री के सुर बदल गए। अब वे कहने लगे कि उक्त प्लांट की चिंता पर्यावरण मंत्रालय की नहीं, बल्कि न्यूक्लियर पॉवर कापरेरेशन की है। न्यूक्लियर पॉवर कापरेरेशन के अध्यक्ष श्रेयांस कुमार जैन ने पत्रकारों के सामने यह कह दिया कि यह पॉवर प्लांट सुनाम और भूकम्प के झटके आसानी से सह लेगा। लेकिन जब उनसे यह पूछा गया कि क्या यह संयंत्र 9 की तीव्रता वाले भूकम्प को सह सकता है, तब उन्होंने इस गंभीर प्रoA का मखोल् उड़ाते हुए कहा कि भारत में 9 की तीव्रता की भूकम्प आ ही नहीं सकता।
पूरे विश्व में अभी तक तीन प्रकार के परमाणु ऊज्र संयंत्र तैयार हो रहे हैं। जापान का फुकुशिमा रियेक्टर लाइट वॉटर टेक्नालॉजी पर आधारित है। उसमें परमाणु ईंधन को ठंडा करने के लिए सामान्य पानी का उपयोग किया जाता है। हमारे देश में काकरापार, तारापुर आदि स्थानों पर जो एटामिक रियेक्टर तैयार किए गए हैं, वे हेवी वॉटर की टेक्नालॉजी पर आधारित है। इसमें जिस पानी का इस्तेमाल किया जाता है, उसमें शामिल ऑक्सीजन का परमाणु सामान्य परमाणु की अपेक्षा अधिक भारी होता है। जैतापुर में जो परमाणु संयंत्र स्थापित किया जा रहा है वह प्रेशराइज्ड वॉटर की टेक्नालॉजी पर आधारित है। यह टेक्नालॉजी एकदम आधुनिक है। अभी इसे सुरक्षा की कसौटी में कसना बाकी है। पूरी दुनिया में इस प्रकार की तकनीक का इस्तेमाल करने वाला यह पहला संयंत्र है। इस तरह का परमाणु रियेक्टर अभी तक किसी भी देश में काम नहीं कर रहा है। फ्रांस की कंपनी ‘अरेवा’ भारत में इस तकनीक का इस्तेमाल कर एक प्रयोग करना चाहती है। जैतापुर में जिस एटामिक रियेक्टर का का निर्माण किया जा रहा है, उसके खर्च के बारे में सरकार ने अभी तक अधिकृत जानकारी नहीं दी है। फिनलैंड में जो 1650 मेगावॉट क्षमता का रियेक्टर बनने को है, उस पर 5.7 अरब यूरो के खर्च की संभावना है। चीन जो रियेक्टर खरीदने वाला है, वह 5 अरब यूरो का है। हम यदि इन दोनों की तुलना करें, तो 1650 मेगावॉट के एक रियेक्टर का खर्च 5.3 अरब यूरो होता है। जैतापुर में ऐसे 6 रियेक्टर तैयार किए जा रहे हैं, जिसकी लागत 193 लाख करोड़ रुपए हो सकती है।
फ्रांस के सहयोग से जैतापुर में बनाए जाने वाले परमाणु बिजली संयंत्र के पक्ष में जो सबसे मजबूत दलील दी जा रही है वह यह है कि इस प्रोजेक्ट के अस्तित्व में आ जाने से 10 हजार मेगावाट बिजली पैदा की जा सकेगी। महाराष्ट्र में इस वक्त 16 हजार मेगावाट बिजली की खपत है जिसमें 13,500 मेगावाट बिजली अन्य स्रोतों से हासिल की जाती है। इसमें राज्य सरकार की इकाई महाजेनको का योगदान रहता है और करीब 1500 मेगावाट बिजली बाहर से खरीदी जाती है। इसका नतीजा होता है कि महाराष्ट्र के अधिकतर इलाकों में रोज छह से आठ घंटे तक बिजली की कटौती की जाती है। कुछ वषों पहले तो स्थिति और भी खराब थी जब राज्य में हर दिन 18 घंटे बिजली की कटौती होती थी। जैतापुर परमाणु बिजली संयंत्र यदि काम करना शुरू कर दे तो बिजली की कमी झेल रहे राज्य को बड़ी राहत मिलेगी।पर जापान में आए भूकंप और सुनामी के बाद फुकुशिमा न्यूक्लियर प्लांट से रेडिएशन लीक के बढ़ते खतरे के बीच जैतापुर परमाणु बिजली संयंत्र को लेकर जो डर बढ़ रहा है, उसे दूर करने की पुख्ता व्यवस्था कहीं दिखाई नहीं दे रही है।
भारत के न्यूक्लियर प्लांट तीसरी पीढ़ी के रिएक्टरों और तकनीकी से लैस हैं जो सुनामी और भूकंप जैसे प्राकृतिक हादसों की स्थिति से निपटने में कारगर हैं। तमिलनाडु में कलपक्कम प्लांट सुनामी प्रभावित क्षेत्र में आता है। यहां 260 टन और 625 टन पानी की क्षमता वाले मजबूत कूलिंग सिस्टम हैं। यदि कोई अनहोनी होती है तो इससे निपटने के लिए पूरा वक्त (48 घंटे) मिलता है। जापान में न्यूक्लियर पावर प्लांट्स की सुरक्षा के लिए कई उपाय किए गए हैं। ये प्लांट इस तरह सुरक्षित बनाए जाते हैं कि किसी दुर्घटना की स्थिति में आसपास रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य पर खराब असर नहीं पड़े। यहां के परमाणु रिएक्टर इस तरीके से बनाए जाते हैं कि भूकंप आने की स्थिति में ये खुद बंद हो जाते हैं जिससे किसी तरह की दुर्घटना की कोई संभावना ही न रहे।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

आज की युवा पीढ़ी और करिश्‍माई व्‍यक्तित्‍व की विदाई




यह आलेख राष्‍ट्रीय जागरण में 24 अप्रैल 11 को संपादकीय पेज पर प्रकाशित हुआ

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यह आलेख राष्‍ट्रीय जागरण में 25 अप्रैल 11 को संपादकीय पेज पर प्रकाशित हुआ
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शनिवार, 23 अप्रैल 2011

आज विश्व पुस्तक एवं कॉपरीराइट दिवस


विश्व पुस्तक एवं कॉपरीराइट दिवस : कब, क्यों और कैसे

प्रत्येक वर्ष 23 अप्रैल को विश्व पुस्तक एवं कॉपीराइट दिवस मनाया जाता है। इसे अंतरराष्ट्रीय पुस्तक दिवस या केवल पुस्तक दिवस भी कहते हैं। संयुक्त राष्ट्र के शैक्षिक संगठन, यूनेस्को द्वारा पठन एवं प्रकाशन के प्रोन्नयन एवं बौद्धिक संपदा को कॉपीराइट (प्रतिलिप्यधिकार) के द्वारा संरक्षण प्रदान करने के उद्देश्य से यह दिवस मनाया जाता है। यह दिवस यूनेस्को के निर्णय के आलोक में पहली बार 1995 में मनाया गया।
आखिर 23 अप्रैल को ही पुस्तक दिवस के रूप में क्यों मनाया जाता है? इसके पीछे कुछ साहित्यिक कारण हैं। 23 अप्रैल का पुस्तक के साथ पहला संपर्क स्पेन में 1923 में देखने को मिला, जब वहां के पुस्तक विक्रेताओं ने प्रख्यात स्पेनिश लेखक मिगुएल डी सरवॉअेज, डॉन क्विक्जोट उपन्यास के रचनाकार को सम्मान देने के लिए इस दिवस को चुना। सरवॉटेज का इसी दिन 1616 को निधन हो गया था। वैसे, यह सेंट जॉर्ज दिवस (यह भी 23 अप्रैल को) समारोह का भी एक अवसर है। मध्यकालीन समय में कैटालोनिया में यह परंपरा थी कि 23 अप्रैल को पुरुष अपनी प्रेमिकाओं को गुलाब उपहार में देते थे और बदले में प्रेमिकाएं उन्हें पुस्तकें देती थीं।
23 अप्रैल विश्व साहित्य की दुनिया में कई अन्य ख्यात-प्रख्यात लेखकों के जन्म व निधन की तिथि के रूप में भी चर्चित है। यह प्रख्यात लेखक विलियम शेक्सपियर के जन्म व मृत्यु की भी तिथि है, साथ ही इन्का गार्सिलासो डी ला वेगा एवं जोसेप प्ला का निधन भी इसी दिन हुआ। मॉरीस द्रुओं, व्लादिमीर नाबोकोव, मैनुएल मेजिआ वलेजो एवं हॉलदॉर लैक्सनेस जैसे कई अन्य लेखकों का जन्म दिवस भी यह तिथि।
वैसे, 23 अप्रैल को शेक्सपियर एवं सरवांटेज के निधन की तिथि को लेकर कुछ मतभेद भी हैं। सरवांटेज की अप्रैल को मृत्यु ग्रिगोरियन कैलेंडर के अनुसार मानी जाती है, जबकि उस समय इंग्लैंड मंे जुलियन कैलेंडर का प्रचलन था। शेक्सपियर का निधन 23 अप्रैल को जुलियन कैलेंडर के अनुसार हुआ माना जाता है। इस तरह, शेक्सपियर की मृत्यु सरवांटेज की मृत्यु से 10 दिन बाद हुई। इन गफलतों के बावजूद यूनस्को ने कई कारणों से 23 अप्रैल को ही विश्व पुस्तक दिवस के रूप में मान्य किया। यूृनेस्को की आम सभा द्वारा पुस्तक एवं लेखकों को इस दिवस पर याद करने तथा आम लोगों, विशेषकर युवाओं में पुस्तक पठन को आनंद के रूप मंे लेने को प्रोत्साहित करने का उद्देश्य भी इस दिवस को पुस्तक दिवस के रूप मंे मनाने का कारण बना। इस दिवस के आयोजन का विचार, जैसा कि पहले भी उल्लेख किया गया है, कैटालोनिया में उभरा, जहां 23 अप्रैल, सेंट जॉर्ज दिवस, पर परंपरानुसार गुलाब का एक फूल उपहार के रूप में दिया जाता था, एक पुस्तक के विक्रय होने पर। आज विश्व पुस्तक दिवस पूरी दुनिया में लेखक, प्रकाशक, पुस्तक विक्रेता एवं पुस्तक प्रेमियों के बीच एक पुस्तक पर्व के रूप मंे समादूत हो चला है। विश्व पुस्तक दिवस पुस्तक गठन एवं पुस्तक प्रोन्नयन के लिए भी अब जाना-पहचाना दिवस बन गया है। 100 से अधिक देशों में यह दिवस मनाया जाता है और इस अवसर पर पुस्तक से संबंधित अनेकानेक गतिविधियां होती हैं। विश्व पुस्तक दिवस प्रकाशकों, पुस्तक विक्रेताओं और उन इच्छित पक्षों के बीच एक परस्पर भागीदारी और संपर्क सेतु भी है, जिन सबका मूल लक्ष्य पुस्तकोन्नयन एवं पुस्तक गठन रुचि में विस्तार के साथ ही पूरे विश्व में पुस्तक संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार करना भी है।
युनाइटेड किंग्डम (यू.के.) और आयरलंैड में विश्व पुस्तक दिवस का मुख्य उद्देश्य बच्चों को किताबों एवं पठन के आनंद की खोज एवं उनके पास अपना एक पुस्तक हो यह अवसर उपलब्ध कराके उन्हें प्रोत्साहित करना है। यू.के. में विश्व पुस्तक दिवस की शुरुआत 1998 में हुई। तत्कालीन प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने इसका उद्घाटन किया था। यू.के. (ग्रेट ब्रिटेन) में इस अवसर पर लाखों स्कूली बच्चों को एक पौंड विशेष विश्व पुस्तक दिवस टोकन के रूप में दिए जाते हैं जिसे यू.के. के किसी भी पुस्तक विक्रेता को देकर उस मूल्य की पुस्तक ली जा सकती है। यह टोकन राशि प्राप्त करने वाले बच्चों की संख्या प्रतिवर्ष बढ़ती जाती है। आयरलैंड में भी कुछ इसी तरह का प्रावधान है। इस वर्ष यू.के. एवं आयरलैंड में विश्व पुस्तक दिवस 3 मार्च को ही मना लिया गया। यहां पुस्तक दिवस पर

अभिभावक अपने बच्चों के लिए विशेष रूप से निर्मित पुस्तक दिवस परिधान खरीदते हैं या बनवाते हैं। यह परिधान किसी ऐतिहासिक चरित्र का हो सकता है या आधुनिक समय के किसी चर्चित साहित्यिक चरित्र, जैसे हैरी पॉटर आदि का। सच पूछा जाए तो यू.के. एवं आयरलैंड में पुस्तक दिवस का कुछ विशेष ही महत्व और आकर्षण होता है जो यहां इसे एक त्यौहार का रूप दे देता है।
यूनेस्को प्रतिवर्ष विश्व के किसी एक देश के एक शहर को यूनेस्को विश्व पुस्तक राजधानी का दर्जा प्रदान करता है। वह शहर उस विशेष वर्ग, जो 23 अप्रैल से अगले साल 22 अप्रैल तक होता है, में पुस्तक एवं पुस्तक से जुड़ी अनेकानेक गतिविधियां आयोजित करता है। इससे उस शहर विशेष के बहाने पूरे देश में पुस्तक संस्कृति का विकास होता है। वर्तमान विश्व पुस्तक राजधानी स्लोवानिया का शहर लुबजाना है। अगला विश्व पुस्तक राजधानी ब्यूनस आयर्स (अर्जेटीना) होगा। दिल्ली शहर को 2003 में विश्व पुस्तक राजधानी बनने का गौरव मिला था।

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

जैतापुर में हंगामा है क्‍यों बरपा ?



उक्‍त आलेख का लिंक इस प्रकार है-

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यह आलेख आज राष्‍ट्रीय जागरण के पेज 9 पर प्रकाशित हुआ है।

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

हिज हाइनेस, हिज एक्‍सीलेंसी से मुक्ति कब ?




आज नवभारत रायपुर एवं बिलासपुर संस्‍करण के संपादकीय पेज पर प्रकाशित

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

उपहारों ने बिगाड़ दी डॉक्‍टरों की सेहत




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नई दुनिया के रायपुर और बिलासपुर संस्‍करण के संपादकीय पेज पर आज प्रकाशित

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

बस्‍ते से अधिक अपेक्षाओं का बोझ



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नवभारत रायपुर एवं बिलासपुर में संपादकीय पेज पर आज एक साथ प्रकाशित

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

विश्वकप जीतने से देश से भ्रष्टाचार खत्म हो गया?


डॉ. महेश परिमल
जब से विश्वकप जीतने का जादू देश में चला है, तब से हमारे नेताओं ने राहत की साँस ली है। उन्हें यह अच्छी तरह से पता है कि क्रिकेट का जुनून लोगों में इस कदर है कि देश में हुए तमाम घोटालों पर देशवासियों का ध्यान हट गया है। अब न तो राजा के चर्चे हैं, न कामनवेल्थ गेम के और न ही हसन अली की करतूतों पर ही कोई बात करने को तैयार है। सब कुछ इतनी आसानी से हो गया कि नेताओं को लगा कि भारतीय मतदाताओं को मुगालते में रखने का इससे बड़ा और कोई संसाधन हो ही नहीं सकता। हमारे नेता यह भूल रहे हैं कि वर्ल्डकप जीतने पर लोगों ने जिस तरह के जुनून का प्रदर्शन किया है, वह कभी उनके खिलाफ भी जा सकता है। आजादी के बाद पहली बार इतना अधिक जोश और उत्साह लोगों में देखा गया। इससे यह आशा की जा सकती है कि हमारे देश के नागरिकों में अभी भी पहले जैसा उत्साह बना हुआ है। प्रजा की विराट ताकत का जलवा हमने देखा, अब यदि प्रजा यह समझ जाए कि वोट हमारी ताकत है और इसका हम सही दिशा में इस्तेमाल करेंगे, तो भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मुहिम शुरू हो सकती है। उधर 72 वर्षीय अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार को एक बार फिर सुर्खियों में लाकर इसके खिलाफ आंदोलन ही छेड़ दिया है। हजारों लोगों के साथ जनलोकपाल विधेयक लाने के लिए दिल्ली में जम गए है। भ्रष्टाचार को देश से उखाड़ फेंकने के लिए यह एक छोटी सी शुरुआत है। जैसे-जैसे यह आंदोलन तेज होगा, वैसे-वैसे लोग इससे जुड़ते जाएँगे। संभव है क्रिकेट जैसा जुनून अब भ्रष्टाचार के खिलाफ भी दिखाई देने लगे। अन्ना हजारे के बहाने भ्रष्टाचार का जिन्न एक बार फिर सबके सामने है।
अनशन स्थल पर उमड़े जनजवार को संबोधित करते हुए श्री हजारे ने कहा कि हम सरकार से बस यही मांग रहे हैं कि एक कमेटी बनाओ जिसमें आधे लोग आपके और आधे लोग पब्लिक के हों और यह जनलोकपाल बिल का ड्राफ्ट बनाने का काम शुरू करे। उन्होंने कहा कि सरकार अकेले ही बिल का मसौदा तैयार करती है तो यह निरंकुश है, यह लोकशाही नहीं है। अन्ना ने ऐलान किया कि जब तक बिल की मांग पूरी नहीं होती वह महाराष्ट्र नहीं जाएंगे। उन्होंने बताया कि देश भर में 500 शहरों में और महाराष्ट्र में 250 ब्लॉक में लोग आंदोलन के समर्थन पर अनशन पर बैठे हैं। उन्होंने यह भी कहा कि यह भ्रष्ट सरकार उन्हें किसी भी तरह से रोकने में कामयाब नहीं रहेगी। ये बिल उनकी मांग के अनुसार ही परिवर्तित होकर पास होगा और वे इसके लिए पूरे प्रयास करेंगे। उन्होंने कहा कि उन्होंने अपना पूरा जीवन देश के लिए समर्पित कर दिया है लेकिन वर्तमान व्यवस्था को देखकर वे काफी दु:खी हैं। करोड़ों का धन भ्रष्ट व्यवस्था के कारण देश के बाहर जा रहा है, और सरकार भी ऐसे तत्वों की मदद कर रही है। देश भर के कार्यकर्ता इसे आजादी की दूसरी लड़ाई की संज्ञा दे रहे हैं और इस काम में उनका साथ मेधा पाटकर, किरण बेदी, बाबा रामदेव, श्री श्री रविशंकर, अरविंद केजरीवाल, एडवोकेट प्रशांत भूषण, संतोष हेगड़े, स्वामी अग्निवेश जैसे समाजसेवी भी शामिल हैं।
भारत ने जब विश्वकप जीता, तब प्रजा की ऊर्जा बाहर आई। शायद ही किसी ने ध्यान दिया होगा कि चुनाव के दौरान जिस तरह की भीड़ जुटाने के लिए नेताओं को करोड़ो ंरुपए खर्च करने पड़ते हैं, उस तरह की भीड़ तो आसानी से देश भर की सड़कों और गलियों में दिखाई देने लगी। इस भीड़ को इकट्ठा करने के लिए एक रुपया भी खर्च नहीं हुआ। इस भीड़ में अधिकांश टीन एजर और युवा ही थे। हाथ में तिरंगा झंडह्वा लिए हुए ये टोलियाँ रात भर ‘भारत माता की जय’ का उद्घोष करती रही। इससे हमें यह नहीं समझना चाहिए कि वर्ल्डकप जीतने से देश की सारी समस्याओं का अंत हो गया। देश से भ्रष्टाचार हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो गया। भारत के जीत की खुशी में निकले इन युवाओं में एक बात ध्यान देने लायक थी, वह यह कि आज के क्रिकेट प्रेमियों के सामने धोनी एक सफल कप्तान के रूप में सामने आए। धोनी लोगों के लिए एक सक्षम कप्तान के रूप में सामने आए। ठीक ऐसे ही सक्षम कप्तान की आवश्यकता आज देश की राजनीति को है। ताकि वह युवाओं की ऊर्जा को सही दिशा दे सके।
कई महीनों से देश में एक के बाद एक कई भ्रष्टाचार के मामले सामने आए। युवा इन सबसे पक गया था। वह कुछ नया करना चाहता था। अपने जोश और उत्साह को वह दबा नहीं पा रहा था। वर्ल्डकप जीतने के बाद मानो उसे अपनी ऊर्जा को बताने का अवसर मिल गया। इस वर्ग ने यह बता दिया कि हमारी ऊर्जा को यदि सही दिशा मिल जाए, तो हममें बहुत कुछ करने का माद्दा है। समीक्षक भले ही यह कहते रहें कि भारत ने जितनी आसानी से वर्ल्डकप जीता है, उतनी आसानी से देश की समस्याओं का हल होने से रहा। वर्ल्डकप जीतने के लिए टीम इंडिया ने जिस तरह की व्यूह रचना की थी, वैसी ही व्यूह रचना भारत की प्रजा भी अपनाए, तो भारत आर्थिक और राजनीति के मोर्चे पर वर्ल्ड कप जीत सकता है। टीम इंडिया ने जीतने के लिए एक योग्य कोच को तलाशा था, ठीक उसी तरह देश के युवाओं की शक्ति का समन्वय करते हुए और उनके भीतर की सुषुप्त शक्ति को जाग्रत करे, ऐसे कोच की आवश्यकता है। इसके लिए कोई हिंसक क्रांति की आवश्यकता कतई नहीं है। जिस तरह से कस्र्टन ने कैप्टन धोनी के साथ टीम के कुछ खिलाड़ियों को हटा दिया था, ठीक उसी तरह देश के भ्रष्ट नेताओं को भी राजनीति से उखाड़ फेंकने का काम हमें करना है। आगामी लोकसभा चुनाव में ऐसे लोगोंे को वोट दिया जाए, जो भ्रष्टाचार से विलग हो, जो समाज सेवा को अपना नैतिक धर्म मानते हों। अन्ना हजारे को आज के युवा एक ऐसे ही कोच के रूप में देख रहे हैँ।
भ्रष्टाचार का महारोग देश की सेहत को नुकसान पहुंचा रहा है। राजधानी से गांव तक और संसद से पंचायत तक सभी क्षेत्रों में भ्रष्टाचार ने अपनी जड़ें मजबूत कर ली है। आम आदमी परेशान है। हमारे समक्ष नैतिक बल से संपन्न ऐसे आदर्श की कमी है जो भ्रष्टाचार के विरुद्ध जन-जागरण कर सकें, ऐसे में 78 साल के वयोवृद्ध समाजसेवी अन्ना हजारे ने इस मुद्दे पर सरकार को ललकारा है। लोकपाल बिल 2010 अभी संसद के पास विचाराधीन है। इस बिल में प्रधानमंत्री और दूसरे मंत्रियों के खिलाफ शिकायत करने का प्रावधान है। श्री हजारे के अनुसार बिल का वर्तमान ड्राफ्ट प्रभावहीन है और उन्होंने एक वैकल्पिक ड्राफ्ट सुझाया है। आइए, हम भी आर्थिक शुचिता के पक्षधर बनें, इस मसले पर जनजागरण करें और भ्रष्टाचारमुक्त समाज व शासन सुनिश्चित करने का संकल्प लें।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 9 अप्रैल 2011

झुकती है सरकार झुकाने वाला चाहिए



डॉ. महेश परिमल
आखिर सरकार झुक गई, जनतंत्र की विजय हुई। समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर सरकार इतनी जल्दी कैसे हार मान गई? अब तो यह तय हो गया कि सरकार से अपनी बात मनवाना हो, तो आमरण अनशन का सहारा लिया जा सकता है। हकीकत यह है कि सामने अभी चुनाव हैं, सरकार ऐसा कोई भी जोखिम नहीं लेना चाहती, जिससे उसकी छबि धूमिल हो। सरकार ने इस अवसर का पूरा लाभ उठाते हुए एक तरह से भ्रष्टाचार के खिलाफ चलाए जा रहे आंदोलन को अपना समर्थन ही दे दिया। अब सरकार चुनावी सभाओं में यही कहेगी कि हम स्वयं भी भ्रष्टाचार को देश से उखाड़ फेंकने के लिए दृढ़ संकल्प हैं। अण्णा साहब की बातें कमानकर हमने इस दिशा में पहला कदम उठा भी दिया है। यह सरकार की विवशताभरी चालाकी है। लोगों को इसका लब्बो-लुबाब समझना होगा। हम सतर्क रहने की आवश्यकता है। सच ही कहा गया है कि सत्ताधीशों के न्याय और अत्याचार में कोई खास फर्क नहीं होता। हमें तो यह अभी न्याय ही दिखाई दे रहा है, पर यह जुल्म की ओर बढ़ाया जाने वाला पहला कदम भी साबित हो सकता है।
देश में फैले भ्रष्टाचार को लेकर हवा का तेज झोंका अभी-अभी आया है। इसे आँधी कहना उचित नहीं होगा। यह सच है कि किशन बाबूराव हजारे यानी अण्णा हजारे का के आंदोलन को देश भर के सभी वर्गो का समर्थन मिला है। उनकी माँगे मान ली गई हैं। लेकिन अभी भी कई अवरोध हैं, जो समय रहते सामने आएँगे। आज देश में भ्रष्टाचार से हर कोई आहत है। नागरिक अपने धर्म का पालन करते हुए सरकार द्वारा तय किए गए प्रत्यक्ष और परोक्ष कर की अदायगी कर रहे हैं, मेहनत और पसीने की यह कमाई देश में ही भ्रष्ट नेता खा रहे हैं। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि आखिर एक आम नागरिक सरकार को तमाम टैक्स ही क्यों दे? अण्णा हजारे ने देश की नब्ज पर हाथ रखकर एक ऐसी समस्या को लेकर आगे बढ़ने का संकल्प लिया है, जो आज की जरूरत है। भ्रष्टाचार ने आज देश को खोखला करके रख दिया है। सरकारी अव्यवस्था का यह हाल है कि आज तक किसी भ्रष्टाचारी को ऐसी सजा नहीं हुई, जिसे अधिक समय तक याद रखा जा सके।
भारत में यदि कोई राज्य लोकपाल विधेयक को सही रूप में अमल में ला रहा है, तो वह राज्य है कर्नाटक। जी हाँ, कर्नाटक। इस राज्य के लोकपाल संतोष हेगड़े ने मुख्यमंत्री येदियुरप्पा के खिलाफ भ्रष्टाचार का आरोप लगाया। इसके बाद कर्नाटक की राजनीति में भूचाल आ गया। केंद्र में लोकपाल की माँग कोई आज की नहीं है, बल्कि यह हलचल पिछले 42 वर्षो से चल रही है। अण्णा साहब की हरकत ने नेताओं को भी हरकत में ला दिया है। अब वे इसे अधिक समय तक टाल नहीं सकते। चेयरमेन पद का अनिच्छुक होने का बयान देकर इस दिशा उन्होंने ईमानदारी का भी सुबूत दे दिया है। अभी हालत यह है कि आज हम यदि किसी मंत्री, मुख्य मंत्री या प्रधानमंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार का आरोप लगाना चाहते हैं, तो सबसे पहले हमें पुलिस विभाग या सीबीआई में जाकर एफआईआर लिखानी होगी। ये दोनों ही विभाग सरकार के अधीन होने के कारण यहाँ आपकी रिपोर्ट लिखी जाएगी, इस पर विश्वास ही नहीं किया जा सकता। संभव है इस मामले में आपको ही गुनाहगार साबित कर दिया जाए। यदि अदालत में शिकायत की जाए, तो वहाँ समय और धन की बरबादी ही होती है। जो सामान्य आदमी के बस की बात नहीं है। दूसरी ओर अदालत का फैसला आते-आते इतना वक्त गुजर जाता है कि उस फैसले का कोई महत्व ही नहीं रहता। लोकपाल समिति ऐसी होनी चाहिए, जिसमें प्रधानमंत्री से लेकर सरकार के किसी भी कर्मचारी के खिलाफ शिकायत की जा सके। शिकायत पर यह संस्था किसी भी रूप में सरकार की मोहताज न रहे। इस स्थिति में सबसे अधिक परेशानी हमारे नेताओं को ही होगी, क्योंकि वे ही सबसे भ्रष्ट हैं।
सन् 2004 के सितम्बर माह में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने घोषणा की थी कि वे लोकपाल विधेयक को प्रस्तुत करने के लिए जरा भी समय बेकार नहीं करेंगे। इस घोषणा को साढ़े 6 वर्ष हो चुके हैं, पर आज तक संसद में लोकपाल विधेयक प्रस्तुत ही नहीं किया गया। केंद्र सरकार ने लोकपाल विधेयक की समीक्षा करने के लिए मंत्रियों का एक पैनल तैयार किया था, जिसका अध्यक्ष शरद पवार को बनाया गया था। इस संबंध में अण्णा हजारे कहते हैं कि शरद पवार स्वयं एक भ्रष्ट नेता हैं, वे भ्रष्टाचार पर अंकुश किस तरह से लगा सकते हैं? अण्णा साहब तो यहाँ तक कहते हैं कि यदि शरद पवार सच्चे हैं, तो अदालत में मेरे खिलाफ मान-हानि का दावा करें। वैसे अण्णा साहब ने जब-जब भूख हड़ताल का सहारा लिया है, तो एक बड़े मुद्दे को लेकर ही सामने आए हैं। उन्होंने 15 साल तक सेना में अपनी सेवाएँ दी हैं। भारत-पाकिस्तान युद्ध में उन्होंने अपनी वीरता का प्रदर्शन भी किया। सेना में रहते हुए एक बार हताशा में उन्होंने आत्महत्या की भी कोशिश की थी। 1977 में उन्होंने सेना से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली। इसके बाद वे अपने गाँव रालेगाँव सिंधी आ गए। यहाँ आकर उन्होंने अपने गाँव की तस्वीर ही बदल दी। सिंचाई की छोटी-छोटी योजनाएँ तैयार करके उन्होंने गाँव को स्वर्ग बना दिया।
अब तक अण्णा साहब ने 8 बार आमरण अनशन किया है। 19991 में उन्होंने अपने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का सूत्रपात किया। उसके बाद वे आठों बार अपनी लड़ाई जीत चुके हैं। 1991 में उन्होंने वन विभाग के 42 भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ आंदोलन चलाया। ये अधिकारी गरीबों को लूटते थे। आंदोलन के कारण सरकार को इन 42 अधिकारियों का तबादला कर दिया। इसके बाद 95-96 में जब महाराष्ट्र में शिवसेना-भाजपा की युति सरकार थी, तब सरकार के दो भ्रष्ट मंत्रियों के खिलाफ उपवास आंदोलन शुरू किया। फलस्वरूप मुख्यमंत्री मनोहर जोशी ने उक्त दोनों भ्रष्ट मंत्रियों के विभाग बदल दिए। इसके बाद जब महाराष्ट्र में कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस की युति सरकार सत्तारुढ़ हुई, तब अण्णा साहब ने चार भ्रष्ट मंत्रियों के खिलाफ अपना आंदोलन चलाया। ये चार मंत्री थे, पद्म सिंह पाटिल, सुरेश दादा जैन, नवाब मलिक और विजय कुमार गावित। इनके खिलाफ अण्णा साहब का आंदोलन पूरे दस दिनों तक चला। तब सरकार ने इन मंत्रियों के खिलाफ जाँच शुरू करवाई। इसके लिए जस्टिस पी.बी. सावंत की अध्यक्षता में एक आयोग बनाया गया। अंतत: इन मंत्रियों को अपना पद खोना पड़ा।
समय आ गया है अब नेताओं को अपना भ्रष्ट आचरण छोड़ना होगा। भ्रष्टाचार के खिलाफ इसे हवा का झोंका कहा जाएगा, सरकार की सुस्ती इस हवा को आँधी बना सकती है। सरकार इस दिशा में कुछ तेजी दिखा रही है। सरकार की पूरी कोशिश है कि लोकपाल विधेयक पूरी तरह से उनके हाथ में ही रहे। अन्यथा सभी दल के नेताओं के लिए यह मुश्किलें पैदा करेगा। भ्रष्टाचार के खिलाफ अण्णा साहब का यह पहला आंदोलन है। इसे काफी जनसमर्थन मिल रहा है। अभी तक उन्होंने जितने भी आंदोलन किए, सब में सफलता प्राप्त की है। कई हस्तियाँ उनके आंदोलन में शामिल हो चुकी हैं। उनके सामने मगरमच्छी आँसू बहाने पहुँचे नेताओं को नागरिकों ने ही खदेड़ दिया। इससे ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि आम जनता देश में फैले भ्रष्टाचार को लेकर कितनी आहत है? अण्णा साहब का यह प्रयास उन गांधीवादियों के लिए एक चुनौती है, जो अब तब ईमानदारी का लबादा ओढ़कर भ्रष्ट आचरण करते रहे हैं, या फिर पूरी तरह से गांधीवादी बनकर सरकार से टकराने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। अब वे खुलकर सामने आ सकते हैं। उन बूढ़ी हड्डियों की ताकत कुछ तो काम आएगी ही।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

ऊर्जा का अपव्‍यय रोकना जरुरी




जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में 7 अप्रैल 2011 को पेज 9 पर प्रकाशित। पूरा पढ़ने के लिए इस लिंक का इस्‍तेमाल करें।


http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=49&edition=2011-04-07&pageno=9


http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=49&edition=2011-04-07&pageno=9

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

एक वर्ष में डेढ़ लाख मौतें सड़कों पर



डॉ. महेश परिमल
हमारे देश की सड़कों पर वाहनों के रूप हत्यारे दौड़ते हैं। ये हत्यारे हर घंटे 14 लोगों को मार डालते हैं। आँकड़ों के आधार पर आगे बढें़, तो स्पष्ट होगा कि एक वर्ष में डेढ़ लाख लोग सड़कों पर दुर्घटनाओं के दौरान मारे जाते हैं। इतनी अधिक मौतें तो जापान जैसे आपदा वाले देश में भी नहीं होती। हाल ही जापान में आए सूनामी के दौरान भी इतनी मौतें नहीं हुई, जितनी हमारे यहाँ सड़कों पर हो जाती है। यदि हमारे देश के नागरिकों में यातायात के नियमों का सख्ती से पालन करने की प्रवृत्ति जागे, तो इसमें कमी आ सकती है।
आँकड़ों पर ध्यान दें, तो यह बात सामने आई कि 2009 में सड़क दुर्घटनाओं में एक लाख 35 हजार लोगों ने अपनी जान गवाँ दी। इनमें से अधिकांश की उम्र 5 वर्ष से 29 वर्ष के बीच है। सड़कों पर दौड़ने वाले हत्यारों ने पिछले वर्ष हमारे देश में एक लाख 18 हजार लोगों के प्राण लिए थे। इस बार इसमें 40 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। दिनों-दिन इसमें वृद्धि होते ही जा रही है। ऐसा क्यों होता है? क्या वाहन चालक अधीर बन गए हैं, या उनमें अनुशासन की भावना ही खत्म हो गई है? क्या वह यातायात नियमों की धज्जियाँ उड़ाने में अपनी शान समझते हैं? क्या शराब पीकर वाहन चलाने वालों की संख्या बढ़ रही है? क्या पैदल चलने वालों की अपेक्षा वाहन चालकों की संख्या बढ़ गई है? क्या यातायात पुलिस अपने कर्तव्य वहन में पीछे रह गई है? ऐसे बहुत से सवाल हैं, जो जवाब के इंतजार में हैं, पर जवाब कौन दे?
विश्व में सड़क दुर्घटनाओं में सबसे अधिक मौतें हमारे ही देश में होती हैं। यह आघातजनक है। किसी भी देश के विकास में सड़कों का महत्वपूर्ण योगदान है। सड़कों की हालत को बेहतर से बेहतर बनाए रखने के लिए विश्व के सभी देश एक मोटी राशि खर्च करते हैं। इसके अलावा सड़कों की सुरक्षा पर भी काफी खर्च करते हैं। हमारे देश में भी ऐसा ही हो रहा है। सड़कों पर काफी खर्च होने के बाद भी सड़क दुर्घटनाएँ बढ़ रहीं हैं, तो इसका मतलब यही हुआ कि कहीं कुछ गड़बड़ है। हाल ही में यूनो का एक सर्वेक्षण सामने आया है। जिसमें यह कहा गया है कि 2021 में सबसे अधिक मौतें सड़क दुर्घटनाओं से ही होगी। वैसे इसके बहुत से कारण हैं। इसे हम सभी बहुत ही अच्छी तरह से समझते हैं, फिर भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं। सबसे बड़ी बात है कि आज शहरों के फुटपाथों पर ठेले खड़े होने लगे हैं। दुर्घटनाओं का यह सबसे महत्वपूर्ण कारण है। इसके पीछे कारण यही है कि सरकार की नीयत साफ नहीं है। सरकार कुछ करना ही नहीं चाहती। यदि चाहती भी है, तो छुटभैये नेता उसे ऐसा नहीं करने देते। आखिर यह वोट का मामला जो है।

दूसरी ओर शराब पीकर वाहन चलाने की प्रवृत्ति लगातार बढ़ रही है। इसमें हम ही सुधार की कोई गुंजाइश नहीं रखना चाहते। कहा जाता है कि जो सोया है, उसे तो उठाया जा सकता है, लेकिन जो जागा हुआ है, उसे कैसे जगाया जाए? कानून तोड़ना हमारे लिए आज एक मजाक बनकर रह गया है। पालक बनकर हमें अपने बच्चों के नन्हें हाथों पर वाहन देकर गर्व का अनुभव करते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि ऐसा करके हमने कानून को अपने हाथ में लिया है। एक गलत हाथों पर वाहन का होना यह दर्शाता है कि वह कई मौतों का वायज बन सकता है।

यहाँ यह बात ध्यान देने लायक है कि यूरोपीय देशों की तुलना में हमारे देश के शहरों में वाहनों संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। शहरों में एक परिवार में तीन वाहनों का होना अब आम बात है। जितने सदस्य उतने वाहन। दिल्ली में 50 लाख वाहन हैं। इसमें रोज डेढ़ सौ वाहनों की वृद्धि रही है। इतने अधिक वाहनों को अपने भीतर समाने की क्षमता दिल्ली शहर में नहीं है। यही हाल मुंबई ही नहीं,बल्कि अन्य शहरों का है। इसके अलावा आज लोगों में इतना अधिक उतावलापन आ गया है कि एक सेकेंड की देर भी उन्हें बर्दाश्त नहंीं। इसलिए वे अपने वाहन को तेज और तेज करना चाहते हैं। तेज वाहन चलाने वाले यह भूल जाते हैं कि अगले ही मोड़ पर मौत उनका इंतजार कर रही होती है। दूसरी ओर आजकल लोग मोबाइल पर बातें करते हुए वाहन चलाने लगे हैं। यह भी मौत का एक कारण है। मोबाइल पर बात करते हुए वाहन चलाने वाला अपनी जान तो गँवाता ही है, बल्कि दूसरों की मौत का भी कारण अनजाने में बन जाता है।
सड़क दुर्घटनाओं में ऐसे कई लोग हैं, जो निर्दोष होते हुए भी कई बार घायल हो जाते हैं। ऐसे लोगों की संख्या काफी अधिक है, जो विकलांग होकर अपना जीवन ढोने को विवश हैं। हम मौतों पर अधिक ध्यान देते हैं, पर दुर्घटनाओं में घायल होने वालों को छोड़ देते हैं, जिनकी हालत जिंदा लाश की तरह होती है। सरकारी मशीनरी मुस्तैदी से अपना काम करे, उन पर कोई राजनीतिक दबाव न हो, यातायात पुलिस भी ईमानदारी दिखाए, और हम कानून की धज्जियाँ उड़ाने में अपनी शान न समझें, तो संभव है कि हम सड़क पर दौड़ने वाले इन हत्यारों पर लगाम कस सकते हैं। कहीं न कहीं से शुरुआत तो करनी ही होगी।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 4 अप्रैल 2011

आलोचना के आईने में दिखाई देता चेहरा




दैनिक भास्‍कर के सभी संस्‍करणों में आज संपादकीय पेज पर प्रकाशित

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