शनिवार, 30 जुलाई 2011

‘न्यूज़ ऑफ द वर्ल्‍ड की मौत से क्या सबक लिया हमने?



डॉ. महेश परिमल
कम नहीं होती 168 वर्ष की जिंदगी। एक अखबार के लिए तो यह बहुत बड़ी जिंदगी है। उसकी लंबी उम्र हमें खुशी अवश्य दे सकती है, पर उसकी अकाल मौत हमें भीतर से दहला देती है। एक अखबार ऐसी मौत मर सकता है भला? उसकी मौत ने यह संदेश अवश्य दे दिया कि शालीनता की सीमाओं को तोड़ने का हश्र यही होता है। यह सच है कि लोग चटखारे वाली खबरें पढ़ना पसंद करते हैं, पर इसका अर्थ यह नहीं होता कि इन खबरों को इकट्ठा करने के लिए आप किसी भी सीमा तक पहुँच जाएँ। लोगों को दूसरों के निजी जीवन के बारे में जानना हमेशा अच्छा लगता है। बस इस रुचि को ‘न्यूज़ ऑफ द वल्र्ड’ ने अपना आदर्श मान लिया। यहीं से उसका पतन शुरू हो गया। यह उसका पतन था, इसकी जानकारी उस समय तो नहीं मिली। क्योंकि हर परिवर्तन तनाव लाता है। इस अखबार ने जब लोगों के निजी जीवन के बारे में छापना शुरू किया, तब अखबार की बिक्री बढ़ गई। अखबार मालिक के लिए यह अप्रत्याशित था। उसने दोगुने जोश के साथ प्रभावशाली लोगों के निजी जीवन में झाँकना शुरू कर दिया। वास्तव में यहीं से उसका पतन प्रारंभ हो गया। इसकी जानकारी अखबार मालिक को काफी समय बाद पता चला।
इस अखबार की अकाल मौत ने यह साबित कर दिया कि सनसनी से अखबार बिक तो सकते हैं, पर लंबे समय तक चल नहीं सकते। जनता उसकी खबरें चटखारे लेकर पढ़ तो सकती है, पर उसे अपने ड्राइंग रुम में रख नहीं सकती। समाज कितना भी आगे बढ़ जाए, पर वह अपने जीवन मूल्यों को जीवित रखने की हमेशा कोशिश करता है। मूल्यहीनता उसे कभी स्वीकार नहीं होती। अश्लील साहित्य पढ़ने वाला पिता बेटे को कभी वैसा साहित्य पढ़ने की इजाजत नहीं देगा। इसलिए ऐसे अखबारों की खबरें वह सबके बीच चटखारे लेकर पढ़ सकता है, पर उस अखबार को घर पर लाकर नहीं पढ़ सकता। दूसरों के निजी जीवन के बारे में जानना अच्छा लगता होगा, पर जब उसी अखबार में स्वयं के निजी जीवन के बारे में कुछ छप जाए, तो वह विचलित हो जाता है। अखबार ने निजी जीवन की जानकारी निकालने के लिए काफी धन खर्च किया। विशेषकर पुलिस विभाग को मानो धन से तौल ही दिया। सामजिक नीतियों से हटकर अखबार ने असामाजिक होने का काम किया। जनता को जाग्रत करने के बजाए अखबर ने ऐसी बातें प्रचारित करनी शुरू कर दी, जिससे लोग सच से दूर हो गए। अखबार का काम पाठकों को सच के करीब ले जाना होता है, सच से दूर नहीं। ‘न्यूज़ ऑफ द वल्र्ड’ ने ऐसा किया और आज अतीत का हिस्सा बनकर रह गया।
मात्र एक छोटी सी घटना ने पत्रकारिता के इस किले पर सेंध लगा दी। एक मृत लड़की के फोन से वाइस मेल हैक करने से हुए खुलासे के बाद कई रहस्योद्घाटन हुए। सिलसिला शुरू हो गया। सिलसिला आज भी जारी है। भले ही अखबार बंद हो गया हो। अखबार ने जो कुछ किया, वह लोकप्रियता पाने के लिए किया। इससे वह लोकप्रिय तो हो गया, पर यही लोकप्रियता ही उसे ले डूबी। एक प्रतिभावान विद्यार्थी अपनी प्रतिभा को टिकाए रखने के लिए यदि नकल का सहारा लेता है, तो उसकी प्रतिभा कुछ समय बाद सामने आ ही जाती है। पर इस दौरान उसने कई प्रतिभाओं को आगे बढ़ने नहीं दिया, उसका क्या? सच कहा है कि महत्वपूर्ण होना महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि महत्वपूर्ण बने रहना महत्वपूर्ण है। ‘न्यूज़ ऑफ द वल्र्ड’ महत्वपूर्ण तो हो गया, पर महत्वपूर्ण बने रहने के लिए उसने जो कुछ किया, वह गलत था।
‘न्यूज़ ऑफ द वल्र्ड’ को खरीदने के बाद ही रुपर्ट मडरेक को मीडिया मुगल कहा जाने लगा। इस अखबार ने उन्हें काफी ऊँचाई दी। उन्हें इस ऊँचाई तक पहुँचाने वाला अखबार था। अखबार के कर्मचारी नहीं। अखबार के असंवैधानिक कार्यो के लिए कर्मचारी कतई दोषी नहीं हैं, पर आज वे सड़क पर आ गए हैं। उनके सामने जीवन की समस्याएँ मुँह बाए खड़ी हो गई है। अपने शुरुआती दौर में ‘न्यूज़ ऑफ द वल्र्ड’ ने श्रमिक वर्ग में नवचेतना का संचार करने का बीड़ा उठाया था। वह कम पढ़े-लिखे लोगों का प्रतिनिधित्व करता था। सनसनी फैलाने से वह कोसों दूर था। लोग उसे आदर की दृष्टि से देखते और पढ़ते थे। समकालीन अखबार ‘न्यूज़ ऑफ द वल्र्ड’ की नकल करते थे। बीसवीं सदी के छठे दशक में इस अखबार की 90 लाख प्रतियाँ प्रकाशित होती थीं। जो एक रिकॉर्ड था। इस अखबार में रुपर्ट मडरेक का आगमन 70 के दशक के अंतिम वर्षो में हुआ। तब अखबार ने अपना रंग-रूप बदलना शुरू किया। फिर सेक्स, अपराध अखबार के केंद्र बिंदु में आ गए। बस अखबार का पतन यही से शुरू हो गया। हम सभी यह मानते हैं कि छपे हुए शब्दों की विश्वसनीयता आज भी जिंदा है। इन शब्दों की अपनी जवाबदेही भी है। इन शब्दों की अपनी लक्ष्मण रेखा भी है। जिसने भी इसे पार किया, वह गया काम से। आज के अखबार अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए कई तरह के हथकंडे अपना रहे हैं। उन्हें यह सोचना चाहिए कि कहीं यह गलत तो नहीं हो रहा है। गिफ्ट कूपन छापकर अखबार बुजुर्गो को तो दूर तक दौड़ा सकते हैं, पर उनकी पीड़ा को समझ नहीं सकते। कूपन के कारण उन्हें कई बार अपने साथियों से भीख भी माँगनी पड़ती है। इससे अखबार लोकप्रिय भले हो जाए, पर एक बुजुर्ग को नाराज अवश्य कर देता है। अखबार मालिक को अपने अखबार की आत्मा को जिंदा रखने की पूरी कोशिश करनी चाहिए। जब तक अखबार घर के सभी सदस्यों द्वारा पढ़ा जा रहा है, तब तक वह वास्तव में जिंदा है भी। जिस दिन घर के बुजुर्ग सुबह जल्दी उठकर अखबार को छिपाना शुरू कर दें, समझो अखबार की मौत करीब है। अखबार मालिकों का अखबार अपना रहे, समाज का रहे, तो ही अच्छा, यदि वह ‘न्यूज़ ऑफ द वल्र्ड’ बनने की कोशिश करेगा, तो उसका हश्र क्या होगा, यह किसी को बताने की आवश्यकता नहीं है।
डॉ. महेश परिमल

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