बुधवार, 20 जुलाई 2011

एक था चूजा


भारती परिमल
एक था चूजा और एक थी चूजी। चूजा था बड़ा और चूजी थी छोटी। चूजा था दुबला और चूजी थी मोटी। चूजा था खरा और चूजी थी खोटी। दोनों मिलकर रहते थे। खाते थे, खेलते थे। नाचते थे, कूदते थे। हँसते थे, हँसाते थे। रोते थे, रुलाते थे। आपस में प्यार भी था और तकरार भी।
मुर्गी माँ जब घर से बाहर जाती, दोनों को समझाकर जाती -
आपस में दोनों हिलमिल कर रहना।
छोटी-छोटी बातों पर झगड़ा न करना।।
माँ के सामने दोनों सिर हिलाते। एक-दूजे को देख मुस्कराते। पर माँ के जाते ही खेल शुरू हो जाता। एक-दूसरे को सताने में उन्हें खूब मजा आ जाता। कुट-कुट, कुट-कुट कुछ-कुछ खाते जाते और आपस में खट-पट, खट-पट कुछ-कुछ करते जाते। दिन पूरा धमा-चौकड़ी में ही बीत जाता। माँ के आते ही फिर प्यार का रिश्ता बन जाता। माँ सोचती- बच्चे मेरे कितने प्यारे, सारे जग से ये तो न्यारे। आपस में करते हैं कितना प्यार। इनसे है मेरा सुंदर घर-संसार।
एक बार की बात है। माँ के जाते ही घर में खूब शोर हुआ। कोई यहाँ गिरा, कोई वहाँ गिरा। चूजे के पैर में लगा। चूजी के पेट में लगा। एक-दूजे से मुँह फुलाकर चूजा एक कोने में बैठा। चूजी दूसरे कोने में बैठी। बैठे-बैठे चूजी की आँख लगी। पर चूजे को तो जोरों की भूख लगी। इधर-उधर ताका-झाँका, पर पछताया क्योंकि दोनों ने ही अन्न का कोई मोल न आँका। कुछ देर पहले ही था दोनों ने अनाज बिखराया। अब चूजे को भूख के मारे रोना आया। चूजी की बंद आँखों को देख वह पल भर को मुस्काया और धीरे से घर से बाहर निकल आया।
धीरे-धीरे चलता-चलता हो गया वो घर से दूर। आशा थी उसको भोजन मिलेगा भरपूर। मालूम नहीं था उसको किधर है जाना। बस पाना था उसको तो अनाज का दाना। खोजते-खोजते दाना-पानी, उसको दिख गया ढेर सा पानी। तालाब के पास था वह पहुँचा। उसके किनारे ही एक पेड़ था ऊँचा। पहले तो पेड़ के आसपास खूब चक्कर लगाए। अमरूद के दाने फिर उसकी पहचान में आए। स्वाद लिया जब दाने का, नाम लिया न कुछ और खाने का। कुटुर-कुटुर कुतरता जाता। दाने-दाने से पेट भरता जाता। चुगते-चुगते पहुँचा तालाब के बिलकुल पास। पानी देख लग आई प्यास। रहा न फिर किसी और में ध्यान, तेÊा कर दी अपनी चाल। पैर भीगे, पंख भीगे, हाल हुआ बेहाल। अब उसे फिर से रोना आया। क्यों मैं घर से अकेला आया? पानी में डूबते-उतराते उसकी जान पर बन आई। उफ़! ये कैसी सजा अकेले निकलने की मैंने पाई! अब तो बचना मुश्किल है। उसे चूजी और माँ की याद सताई।
ऊपर डाल पर बैठा बंदर देख रहा था खेल सारा। सोचा उसने मैं चाहूँ तो बदल दूँ ये नजारा सारा। ‘काम दया का करना है। दुख चूजे का हरना है।’ ऐसा ठान लिया जब बंदर ने। तब राह भी जल्द निकल आई। सूखी डाली पेड़ की उसे पास ही नजर आई। थाम के डाली को पहुँचा चूजे के पास। बंदर को आता देख चूजे की भी बंधी आस। पकड़ी डाली उसने झटपट, थाम लिया बंदर ने उसे पटपट। साथ अपने चूजे को सरपट लाया। तब बेचैन चूजे को चैन आया। लिपटा वो तो बंदर से। खुशी मिली उसे अंदर से।
इधर माँ जब घर को आई। चूजे को घर में न पाकर घबराई। चूजी की भी फूट निकली रूलाई। उसने माँ से कोई बात न छुपाई। माँ-बेटी दोनों घर से निकले चूजे की खोज में। फर्क आ गया था अब तो चूजी की भी सोच में। मन ही मन वो करती स्वीकार। मैंने ही की भाई से हमेशा झूठी तकरार। अब न कभी ऐसा करूँ गी। सदा भाई को प्यार करूँगी।
आधा रास्ता ही किया था पार कि खुशी मिली उन्हें अपार। सामने से आ रहा था चूजा और साथ में था बंदर दूजा। उछलते-कूदते, झूमते-गाते दोनों पहुँचे पास। देख चूजे को चूजी की सूरत खिली। माँ को भी खुशी मिली। चूजे के पंखों को सहलाते माँ ने किया खूब प्यार। बंदर ने भी समझाया अब न करना ऐसा वार। मिलजुल कर रहना, मानना माँ का कहना। चूजा-चूजी ने फिर पकड़े कान। अब न करेंगे ऐसा काम। आपस में हम मिलकर रहेंगे। माँ के प्यारे पूत बनेंगे।
झूमते-नाचते वे तीनों बोले- हरे कृष्णा हरे रामा।
साथ उनके झूम रहे थे प्यारे-प्यारे बंदर मामा।
भारती परिमल

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