शनिवार, 25 जून 2011

अपराधियों के हौसले बुलंद करने वाला फैसला

डॉ. महेश परिमल
हाल ही में सुप्रीमकोर्ट ने एक फैसले में एनकाउंटर को बहुत बड़ा अपराध माना है। फैसले में यह कहा गया है कि यदि कोई पुलिस अधिकारी इसका दोषी पाया जाता है, तो उसे फाँसी की सजा होनी चाहिए। सुप्रीमकोर्ट के इस फैसले से पुलिस विभाग में हड़कम्प है। पुलिस की स्थिति इधर कुआँ उधर खाई जैसी हो गई है। यदि सुप्रीमकोर्ट की ही मानें, तो अब कभी कोई पुलिस वाला शातिर अपराधी या आतंकवादी को मारेगा नहीं, बल्कि उसे जाने देगा, या फिर खुद ही भाग जाएगा। क्योंकि यदि कहीं से भी यह बात सामने आ जाए कि यह एनकाउंटर था, तो पुलिस वाला कभी बच नही ंपाएगा। दूसरी ओर यदि अपराधी या आतंकवादी पुलिस वाले को मार डालता है, तब तो किसी प्रकार की बात सामने नहीं आएगी। ऐसे में पुलिसवाला अपना बचाव का ही रास्ता अपनाएगा।
सुप्रीमकोर्ट के इस फैसले की तीखी प्रतिक्रिया हुई है। इस संबंध में उत्तर प्रदेश के भूतपूर्व डायरेक्टर जनरल प्रकाश सिंह कहते हैं कि इस प्रकार के फैसले का असर पुलिस के नैतिक बल पर पड़ेगा। पुलिस कानून से इतना अधिक डर जाएगी कि अब अपने हथियार चलाने के पहले सौ बार सोचेगी। उसे यह डर रहेगा कि यदि वह हथियार चलाते हैं, तो एनकाउंटर की बात सामने आएगी, यदि नहीं चलाते, तो अपनी जान मुश्किल में आ जाएगी। इसलिए वे एनकाउंटर करने के बजाए अपराधी को भाग जाने देंगे। कोर्ट ने साफ-साफ कहा है कि पुलिस वाले किसी भी रूप में राजनीति या पुलिस अधिकारियों के दबाव में न आएँ। व्यावहारिक दृष्टि से यह असंभव है। सामान्य रूप से पुलिस एनकाउंटर सरकार के दबाव में ही किए जाते हैं। यदि पुलिस ने बड़े अधिकारियों की बात न मानी, तो उसके परिणाम कितने भयानक होंगे, यह पुलिसवाला ही अच्छी तरह से जानता है। आंध्रप्रदेश पुलिस आफिसर्स एसोसिएशन के प्रेसीडेंट के.वी. चलपति राव का मानना है कि पुलिस पर चारों तरफ से अन्याय हो रहा है। वे कहते हैं कि जब किसी गेंगस्टर से मुठभेड़ हो रही हो, इस दौरान कोई पुलिसवाला मारा जाता है, तो कोई खोज-खबर लेने नहीं आएगा, पर यदि पुलिस के हाथों कोई मारा जाता है, तो उसे नकली एनकांउटर माना जाता है। हल्ला मच जाता है। उस पर जांच बिटा दी जाती है।
सामान्य रूप से सुप्रीमकोर्ट इस तरह का कोई फैसला देती है, तो मानव अधिकार के लिए लड़ने वाले सामने आ जाते हैं। पर आश्चर्य की बात यह है कि इस फैसले के आने के बाद कहीं कोई हलचल दिखाई नहीं दे रही है। मानव अधिकार के लिए लड़ने वाले एक आंदोलनकारी ने कहा कि वे इससे कतई खुश नहीं हैं। इस फैसले से सुप्रीमकोर्ट को भले ही लोकप्रियता मिल जाए, पर सच तो यह है कि कानूनी रूप से यह बिलकुल भी व्यावहारिक नहीं है। नकली एनकाउंटर के दोषी पुलिस अधिकारी को फाँसी पर चढ़ा दिया जाए, यह कोई समस्या का समाधान नहीं है। यदि नकली एनकाउंटर की समस्या से हमेशा के लिए निजात पाना है, तो इसके लिए दूसरे समाधान की तलाश की जाए। पुलिस अधिकारी को फाँसी पर चढ़ा देने से होगा ये कि भविष्य में कभी कोई एनकाउंटर नहीं होगा। सभी अपराधी या आतंकवादी भागने के पहले पुलिस अधिकारियों को मार डालेंगे या फिर पुलिस अधिकारी स्वयं ही अपनी जान बचाने के लिए भाग खड़ा होगा। पुलिस का मनोबल तो टूटेगा ही, साथ ही फाँसी का डर सुरक्षा व्यवस्था को और अधिक कमजोर बना देगा। यह एक सच्चई है।
नकली एनकाउंटर के मुद्दे पर सुप्रीमकोर्ट का बार-बार बदलते विरोधाभासी निर्णय भी एक चिंता का विषय है। इसे कभी पुलिस वालो की विवशता के रूप में भी देखा जाए। पुलिस की नीयत पर संदेह करने के पहले यदि नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन (एनएचआरसी)की रिपोर्ट देख ली जाए, तो बेहतर होगा। पुलिस एनकाउंटर के जो आँकड़े उपलब्ध हैं, उसकी जाँच में यह पाया गया है कि 1993 से अब तक 2956 मामले सामने आए हैं। इसमें से 1366 मामले नकली एनकाउंटर के हैं। जब इन मामलों की गहराई से जाँच की गई, तब यह तथ्य सामने आया कि इनमें से केवल 27 मामले ही नकली एनकाउंटर के हैं। समाजसेवी मानते हैं कि नकली एनकांउटर के मामले में धारा 21 का स्पष्ट रूप से उल्लंघन होता है। इस धारा में कहा गया है कि कानूनी प्रक्रिया में मार्गदर्शन के अलावा किसी भी व्यक्ति का जीवन या उसकी आजादी ले लेना अपराध की श्रेणी में आता है। नकली एनकाउंटर के बढ़ते मामले को देखते हुए एनएचआरसी नवम्बर 1996 में एक मार्गदेर्शिका का प्रकाशन किया और 2003 में यह जोड़ा कि यह मार्गदर्शिका नकली एनकाउंटर के मामले में एफआईआर और पुलिस की प्रतिक्रिया के कारण होने वाली मौत की तमाम घटनाओं की जिला मजिस्ट्रेट द्वारा जाँच जैसे नियमों का समावेश किया गया है। इस मार्गदर्शिका का कोई मतलब ही नहीं है, क्योंकि संस्था के पास इतने अधिकार नहीं हैं कि वे कोई कार्रवाई कर सके। इससे पुलिस की कार्यशैली और नकली एनकाउंटर की प्रक्रिया पर किसी तरह का कोई असर नहीं होगा। न मार्गदर्शिका से न तो सरकार डरती है और न ही पुलिस।
अब समय आ गया है कि इस दिशा में हवाई किले बनाने से अच्छा है कि कुछ ऐसा किया जाए कि पुलिस का मनोबल न टूटे और दोषी पुलिस अधिकारियों को सजा भी हो। समाधान तो तलाशना ही होगा। देश की सुरक्षा को लेकर आज जितने भी मामले सामने आ रहे हैं उसमें पुलिस की भूमिका को हमेशा संदिध माना जाता है। पर पुलिस कितने दबाव में काम करती है, इसे भी जानने की आवश्यकता है। यदि दोषी पुलिस अधिकारियों को फाँसी की सजा दी जाने लगी, तो आतंकवादियों और शातिर अपराधियों के हौसले बुलंद हो जाएँगे। वे खुलकर अपना खेल खेलेंगे। उन्हें मालूम है कि हमें मारने वाला पुलिस अधिकारी भी बच नहीं पाएगा। संभव है वे ही उस पुलिस अधिकारी को ठिकाने लगा दें। दोनों ही मामलों में कानून की लंबी प्रक्रिया चलती है, इस दौरान अन्य पुलिसकर्मियों में यह भावना धर कर जाती है कि यदि वे मुस्तैदी से अपना काम करती है, तो उस पर आरोपों की बौछार शुरू हो जाती है। पुलिस वाला आतंकवादियों के हाथों मारा जाता है, तो कहीं कोई आंदोलन नहीं होता, पर यदि पुलिस वाले के हाथों कोई मारा जाता है, तो उसे नकली एनकाउंटर का मामला बना दिया जाता है। ऐसे में कोई क्यों हथियार उठाए? आतंकवादी को भाग देने या घटनास्थल से भाग जाने में ही पुलिस वाले की भलाई है, तो फिर क्यों हथियार उठाकर खतरा मोल लिया जाए?
डॉ. महेश परिमल

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