सोमवार, 7 मार्च 2011

अब हममें कहाँ बचा मातृभाषा का गौरव ?

डॉ. महेश परिमल
हाल ही में हमारे बड़े करीब से मातृभाषा दिवस गुजरा। किसी को याद है? शायद नहीं, क्यों? हम स्वयं ही भूल चुके हैं कि हमारी मातृभाषा क्या है। भाषा के बारे में अक्सर कहा जा सकता है कि एक भाषा खत्म होती है, तब एक संस्कृति नष्ट होती है। अँगरेजी भाषा समझने और अँगरेजी भाषा पढऩे में काफी अंतर है। अँगरेजी सीखो, समझो, पर हिंदी छोड़कर नहीं।
जब हमें यह नहीं मालूम कि मातृभाषा दिवस कब आता है, तो इस बारे में हमें खास इस बात पर ध्यान देना है कि मातृभाषा को लेकर हमारे अलावा अन्य देश कितने चिंतित हैं? संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था यूनेस्को ने सन् 1952 में यह प्रस्ताव रखा था कि विश्व के सभी देश बच्चों की प्राथमिक शिक्षा उनकी मातृभाषा में ही दें। प्रोफेसर यशपाल समिति ने राष्ट्रीय पाठ्यक्रम को ध्यान मे रखते हुए 2005 में इसकी रूपरेखा बनाते हुए दृढ़ता पूर्वक कहा कि बच्चों को प्राथमिक शिक्षा उनकी मातृभाषा में ही देनी चाहिए। विश्व के जिन देशों की मातृभाषा अँगरेजी है, उनमें इंग्लैंड, अमेरिका, केनेडा, ऑस्ट्रेलिया आदि को छोड़ दिया जाए, तो यूरोप में एक भी देश ऐसा नहीं है, जहाँ प्राथमिक शिक्षा अँगरेजी में दी जाती हो। ग्रीस में ग्रीक, स्पेन में स्पेनिश, नार्वे में नार्वेशियन, स्वीडन में स्वीडिश, स्वीट्जरलैंड में स्वीश भाषा में ही बच्चों को प्राथमिक शिक्षा दी जाती है। यूरोप के अलावा रुस, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, थाईलैंड आदि देशों में भी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा उनकी मातृभाषा में ही दी जाती है। इन देशों में सारे काम वहाँ की भाषा में ही होते हैं। इसके बाद आते हैं हम हमारे देश में। हम सभी देख रहे हैं कि हमारे यहाँ भाषा के नाम पर क्या स्थिति है?
भारतीय विचारक डॉ. जयंत नार्लीकर कहते हैं श्श्विज्ञान के क्ैिलष्ट सिद्धांत बच्चा अपनी मातृभाषा में झट से समझ सकता है, शुरू के वर्षों में अन्य भाषा में विज्ञान और गणित जैसे विषय सीखने में बच्चों की ग्रहण शक्ति कुंठित हो जाती है।्य्य इसी तरह गणितशास्त्री पी.सी.वेद्य कहते हैं कि मातृभाषा द्वारा शिक्षा प्राप्त करने से बच्चों में विचार करने की शक्ति का संपूर्ण विकास होता है। गांधीजी भी कहते थे श्श्जिस तरह से बच्चे के शरीर के लिए माँ का दूध अनिवार्य है, उसी तरह उसके मस्तिष्क के विकास के लिए मातृभाषा आवश्यक है। बच्चे की पहली पाठशाला उसकी माँ ही होती है, इसलिए बच्चे के मानसिक विकास के लिए उसकी मातृभाषा के अलावा दूसरी भाषा लादना, यह मातृभूमि के खिलाफ अपराध है।्य्य विनोबा भावे इसे ही कुछ दूसरे अंदाज में कहते हैं कि मानव हृदय ग्रहण कर सके, ऐसी भाषा मातृभाषा ही हो सकती है। प्राथमिक शिक्षा तो उसी से दी जानी चाहिए। मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि यदि बच्चों को प्राथमिक शिक्षा उसकी मातृभाषा में न देकर किसी अन्य भाषा में दी जाती है, तो बच्चा निर्बाेध बन जाएगा, उसकी ग्रहणशक्ति बुरी तरह से प्रभावित हो सकती है।
आज विश्व में चारों तरफ अँगरेजी का ही बोलबाला है। कंप्यूटर, इंटरनेट और ई-कामर्स की भाषा अँगरेजी ही है। इसके बाद केंद्र सरकार का अधिकांश काम अँगरेजी में ही होता है। हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट के फैसले अँगरेजी में ही लिखे जाते हैं। बाद में उसका अनुवाद होता है। चारों तरफ अँगरेजियत के कारण ही आज बच्चों को शुरू से ही अँगरेेजी माध्यम से शिक्षा दी जा रही है। आज पालक भी यही सोचते-समझते हैं कि उनका बच्चा यदि अंगरेजी में धाराप्रवाह बोल लेता है, तो समझो उसकी शिक्षा पूरी हो गई, साथ ही उसका भविष्य सुरक्षित हो गया। उसके लिए विकास के सारे द्वार खुल गए। हमें अँगरेजी भाषा को जानना चाहिए, पर अपनी मातृभाषा को भूलकर नहीं। पहले हमें अपनी मातृभाषा को याद रखना होगा, फिर अन्य भाषा की तरफ ध्यान देना होगा। सरकार की ढिलाई के कारण आज अँगरेजी का वर्चस्व लगातार बढ़ रहा है। पालकों के मन में यह बिठा दिया गया है कि आपका बच्चा अँगरेजी नहीं जानता, तो कुछ भी नहीं जानता। वह भविष्य में कुछ नहीं कर सकता। इसलिए आज पालक भी यही सोच रहे हैं, जो सरकार सोच रही है।
फादर वालेस कहते हैं कि श्श्दूसरे को अपनाओ, पर अपनों को क्यों छोड़ रहे हो? अँगरेजी सीखो, पर हिंदी छोड़कर नहीं।्य्य वंदे मातरम् के रचयिता बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने मातृभाषा पर गर्व करते हुए कहा है कि श्श्मुझे न तो अँगरेजी से घृणा है और न ही अँगरेजों से। हमसे जितना संभव हो, उतनी अँगरेजी सीखनी चाहिए। उसके साहित्य का अध्ययन करना चाहिए। पर जो अपना है, वह हमेशा अपना ही रहेगा। हम अपनी भावनाओं को जब तक अपनी मातृभाषा में व्यक्त नहीं करेंगे, तब तक हमारी उन्नति नहीं हो सकती।्य्य महात्मा गांधी भी कहा करते थे कि अँगरेजी आज दुनिया की भाषा बन गई है। इसका आशय यह कतई नहीं कि उस भाषा का अध्ययन शालाओं में कराया जाए। अँगरेजी भाषा का अध्ययन कॉलेजों में कराया जाना चाहिए। विद्वानों ने कहा है कि यह ध्यान रखा जाए कि अँगरेजी भाषा पढ़ाई जाए, अँगरेजी भाषा में न पढ़ाया जाए।
आज हिंदी भाषी राज्यों की हिंदी माध्यम शालाओं में ताले लटकने के दिन आ गए हैं। लोग अँगरेजी माध्यम की स्कूलों में बच्चों के प्रवेश के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाने लगे हैं। मोटी फीस ही नहीं, बल्कि चंदे के नाम पर भी भारी-भरकम राशि देने को तैयार है। ये लोग यह भूल जाते हैं कि मातृभाषा की मृत्यु नागरिकों की अस्मिता की मृत्यु है। हिंदी भाषा मात्र जीवित रहे, यही पर्याप्त नहीं, पर ये और अधिक समृद्ध बने, अधिक से अधिक प्राणवान बने, यह अत्यंत आवश्यक है। क्योंकि किसी भी भाषा के साथ अन्य प्रदेशों के नागरिकों और उनकी संस्कृति से ओतप्रोत होती है। इमर्सन कहते हैं कि जब कोई भाषा खत्म होती है, तब एक संस्कृति नष्ट होती है। ऐसी परिस्थिति में प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देना ही उचित है। मातृभाषा से बच्चों में संस्कार का सिंचन होता है।
अँगरेजी माध्यम की स्कूल में ही पढ़ाई करेगा, पालकों की इस इच्छा को कम करने के लिए यदि सरकार कुछ ऐसे जतन करे कि प्रारंभिक शिक्षा तो मातृभाषा में दी जाए, उच्च कक्षाओं में अँगरेजी विषय को अच्छी तरह से सिखाया जाए। ऐसा पहले होता था, पर अब नहीं होता। यदि सरकार मातृभाषा का संरक्षण करे, तो सभी अपनी मातृभाषा पर गर्व करेंगे। अभी हालत यह है कि एक हिदीभाषी यदि किसी बड़े समारोह में जाता है, तो उसे हिकारत की नजरों से देखा जाता है। मानो हिंदी भाषा सीखकर उसने कोई गुनाह किया हो। यह स्थिति बदलनी चाहिए। हमें अपने ही देश में हिंदी के प्रति गर्व करना का अवसर मिलना ही चाहिए। आज यदि कोई छात्र यह घोषणा कर दे कि मैं इस देश की राष्ट्रभाषा में चिकित्सकीय पढ़ाई करना चाहता हूँ, तो सरकार विवश हो जाएगी। चाहकर भी उसकी इच्छा को पूर्ण नहीं किया जा सकता। सरकार की यह विवशता भाषा के मामले में दृढ़ न रहने के कारण सामने आ रही है। कई एशियाई देश हैं, जहाँ अन्य भाषा की कोई भी किताब आती है, तो वह पहले उस देश की राष्ट्रभाषा में अनूदित होती है, फिर लोग उसे पढ़ पाते हैं। क्या ऐसी स्थिति हम हमारे देश में नहीं ला सकते? आवश्यकता है दृढ़ इच्छाशक्ति की। तभी कुछ हो पाएगा और हम अपनी भाषा की गरिमा को अक्षुण्ण रख पाएँगे।
डॉ. महेश परिमल

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