गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

पाकिस्तान में पुनरागमन के लिए तैयार हैं मुशर्रफ



डॉ. महेश परिमल
पाकिस्तान के पूर्व सेनाध्यक्ष और राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ अपनी नई पार्टी के साथ पाकिस्तान लौटना चाहते हैं। इस दौरान उन्होंने काफी अध्ययन किया। विशेषकर मोहम्मद अली जिन्ना के तमाम भाषणों को पढ़ा और समझा। यही नहीं पाकिस्तान की उन तमाम हस्तियों के बारे में गहराई से अध्ययन किया, जिन्होंने पाकिस्तान के लिए उल्लेखनीय काम किए। अपना पूरा ध्यान युवाओं पर देने वाले परवेज मुशर्रफ बहरहाल लंदन में रह रहे हैं, उनकी सुरक्षा स्कॉटलैंड यार्ड कर रहे हैं। वे बहुत ही कम लोगों से मिलते हैं। लेकिन कंप्यूटर के माध्यम से वे पाकिस्तान ही नहीं, विश्व के कई लोगों से सीधे जुड़े हुए हैं। फेस बुक, ट्विटर आदि माध्यमों से वे लोगों से जीवंत संपर्क बनाए हुए हैं।
एक अक्टूबर को उन्होंने अपनी नई पार्टी ऑल पाकिस्तान मुस्लिम लीग की घोषणा की। मुशर्रफ के करीबी लोगों का कहना है कि इस दौरान वे राजनीति में और भी अधिक परिपक्व हुए हैं। वे अंतमरुखी हो गए हैं। अब तक बेनजीर भुट्टो, नवाज शरीफ, फैज अनवर फैज इस्कंदर मिर्जा और तारीक अजी जैसी अनेक हस्तियों ने पाकिस्तान के लिए अपना अमूल्य योगदान दिया है। पर मुशर्रफ मियां का किस्सा इन सबसे अलग है। बेनजीर भुट्टो और नवाज शरीफ के शासन में सेनाध्यक्ष को देश निकाला दे दिया गया था, लेकिन मियां मुशर्रफ खुद ही पाकिस्तान से भाग गए थे। मुशर्रफके प्रशंसकों का कहना है कि उन्हें निश्चित रूप से पाकिस्तानी अवाम का सहयोग मिलेगा। इसके पीछे उनका तर्क है कि हकीकत में मुशर्रफ पिछले दो वर्षो में जहाँ भी गए, वहाँ के पाकिस्तानी शिक्षकों, विद्यार्थियों और कार्यकत्र्ताओं को साथ में लेने की कोशिश की है।
परवेज मुशर्रफ बहुत ही सयाने हैं। उन्होंने अपनी पार्टी के साथ पाकिस्तान वापस आने की योजना दो साल पहले ही बना ली थी। सबसे पहले तो उन्होंने अपने अंतरराष्ट्रीय संपर्को का उपयोग अपने फायदे के लिए करना शुरू कर दिया। अपनी इमेज बनाने के लिए उन्होंने लोगों के सामने मुद्दे रखने के लिए विश्वविद्यालयों में लेक्चर देना शुरू किया। 2009 में अमेरिका प्रवास के दौरान कुल 17 स्थानों पर लेक्चर दिए। उन्होंने अपने इस प्रवास का भरपूर फायदा उठाया। इसके बाद वे स्वीडन, दुबई, एशियाई देश, हांगकांग तथा सिंगापुर भी गए। यहाँ भी वे अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब रहे। उनके ये सारे प्रयास अब काम आ रहे हैं। पाकिस्तान में भी खुल आम यह माँग उठने लगी है कि उन्हें वापस बुलाया जाए। मुशर्रफ यह अच्छी तरह से जानते हैं कि पाकिस्तानी पीपुल्स पार्टी तथा मुस्लिम लीग जैसी बड़ी राजनैतिक पार्टियों उन्हें काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। इसी वर्ष फरवरी महीने से ही मुशर्रफ अपने मित्रों और परिचितों को ई-मेल और फेस बुक के माध्यम से सम्पर्क करना शुरू कर दिया था। फेस बुक में उनके करीब 3 लाख समर्थक हैं। मीडिया के माध्यम से भी उन्होंने अपने विचारों को पाकिस्तानी अवाम तक पहँुचाने की कोशिश की है। फेस बुक में अपने समर्थकों की बढ़ती संख्या को देखकर उन्हें लगता है कि पाकिस्तान में चुनाव लड़ने पर उन्हें यही युवा काम आएँगे। इसलिए वे अपने भाषणों में नई ताजगी ला रहे हैं। उनके विचारों से युवा उन्हें सुनने लगे हें। कुछ दिनों पहले ही उन्होंेने आतंकवाद पर भाषण किया। उनके भाषण से प्रभावित होकर बिलाल नामक युवक ने बताया कि मुझे परवेज मुशर्रफ अच्छे लगते हैं, क्योंकि वे प्रमाणिक हैं, उनकी एकमात्र चिंता युवाओं को एक बेहतर पाकिस्तान देने की है। पिछले दो सालों में उनमें काफी बदलाव आया है। उनके विचार अधिक इस्लामी हो गए हैं। उनकी सबसे बड़ी खासियत यही है कि एक समय उनके पास भरपूर सत्ता थी, फिर भी वे भ्रष्टाचार से दूर ही रहे।
मुशर्रफ की कुछ विशेषताएँ हैं, जो पाकिस्तानियों को लुभा रहीं हैं। एक तो वे बचपन में वॉलीबाल, बेडमिंटन और क्रिकेट खेल चुके हैं। इसलिए युवा उन्हें खेल प्रेमी मानते हैं। इसीलिए युवा उन्हें अपने करीब पाते हैं। इसके अलावा वे टर्कीश भाष धाराप्रवाह रूप से बोलते हैं और उन्हें अरबी भोजन पसंद है। उनकी इसी पसंद के कारण लंदन में उन्होंने वही स्थान रहने के लिए चुना, जहाँ अरबी लोग रहते हैं। ताकि वे वहाँ पर घर जैसा महसूस कर सकें। उनकी सुरक्षा की जवाबदारी स्कॉटलैंड यार्ड पर है, इसलिए वह उनकी हर गतिविधि पर नजर रखती है। जब भी वे कहीं बाहर जाते हैं, तब हमेशा काली रंग की आलीशान ओडी कार का इस्तेमाल करते हैं। सुबह जल्दी उठ जाते हैं और दिन भर या तो पढ़ते हैं या फिर लिखते रहते हैं। इसके अलावा में आने वाले मेहमानों से भी मिलते हैं।
परवेज मुशर्रफ अपने भाषणों में उर्दू, हिंदुस्तानी और अंग्रेजी के मिश्रण का उपयोग करते हैं। किसी एक भाषा में लगातार वे भाषण नहीं कर सकते। उनकी यही कमजोरी पाकिस्तानी युवाओं को भा रही है। न केवल पाकिस्तानी, बल्कि विदेशों मंे रहने वाले पाकिस्तानियों को भी उनकी यह भाषा लुभा रही है। अब तक उन्होंने अपना निर्वासित जीवन लंदन में रहकर शांतिपूर्ण रूप से गुजारा है। लेकिन बदले हुए हालात में अब उनकी जीवन संकटपूर्ण हो सकता है। इसलिए दूर की सोचते हुए उन्होंने अपना एक और ठिकाना दुबई में बना लिया है। यही नहीं, सऊदी अरब के शाही परिवार ने उन्हें पूर्ण सुरक्षा का आश्वासन दिया है। साथ ही यह भी कहा है कि शाही परिवार उनके राजनैतिक जीवन में कभी दखल नहीं देगा। अभी तो मियां मुशर्रफ अपनी पार्टी को मजबूत करने में लगे हुए हैं। पाकिस्तान की निष्फल सरकार को और अधिक डावाडोल करने के लिए वे देश को एक नई संरचना, पानी की समुचित व्यवस्था, कृषि और औद्योगिक विकास, नागरिकों का विकास और पॉवर सेक्टर की समस्याओं को दूर करने के लिए रणनीति बनाने में लगे हुए हैं। अभी यह नहीं कहा जा सकता कि आखिर उनके दिमाग में क्या चल रहा है?
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

खत्म हो जाने के बाद अब शुरू हुआ खेल



डॉ. महेश परिमल
कॉमनवेल्थ गेम तो खत्म हो गए। वास्तव में खेल तो अब शुरू हुआ है। इस खेल के लिए किए गए निर्माण कार्यो का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर आ गया है। खेल की रंगारग शुरुआत और अंतिम दिन सुरेश कलमाड़ी भाषण के लिए आए, तो जिस तरह से उनकी हूटिंग हुई, उसी से स्पष्ट है कि हमारा देश भ्रष्टाचारियों को किसी भी रूप में सहन नहीं कर सकता। एक भ्रष्टाचारी की सार्वजनिक हूटिंग इस बात का परिचायक है कि भ्रष्टाचार एक ऐसा कैंसर है, जो देश की रगों को सड़ा रहा है। अभी तो यह शुरुआत है। भ्रष्टाचार के प्रति लोगों का रवैया बदल रहा है। आज के नेताओं को अब सचेत होने की आवश्यकता है। सुरेश कलमाड़ी के बहाने जनता अब बहुत ही जल्द अपने वोट की ताकत दिखा ही देगी।
सुरेश कलमाड़ी भले ही इसका श्रेय ले लें कि कॉमनवेल्थ गेम बहुत ही शानदार तरीके से निपट गए। लेकिन इस खेल के पूर्व निर्माण कार्यो में हुए भ्रष्टाचार से इंकार नहीं कर सकते। उनका गुनाह माफ करने लायक नहीं है। इस दिशा में प्रधानमंत्री ने उच्चस्तरीय जाँच समिति गठित कर दी है। पूर्व नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने रिकॉर्ड खंगालने शुरू कर दिया है। आखिर क्या हुआ 76 हजार करोड़ रुपए का? तीन माह के भीतर इसकी रिपोर्ट आ जाएगी। फिर देखना कहाँ होते हैं सुरेश कलमाड़ी और उनकी भ्रष्टाचारी टीम। चारों ओर से कलमाड़ी की उपेक्षा शुरू हो गई है। खिलाड़ी जब प्रधानमंत्री से भेंट करने गए, तब उनके साथ सुरेश कलमाड़ी की टीम नहीं थी। पीएम कार्यालय ने इसकी पुष्टि भी की कि कलमाड़ी को खिलाड़ियों के साथ नहीं बुलाया गया था। अभी कलमाड़ी को कई ऐसे संकेते मिलेंगे, जिससे उन्हें लगेगा कि उनकी लगातार उपेक्षा की जा रही है। वे भले ही यह कहते रहें कि मैं बलि का बकरा नहीं बनूँगा, पर सच यही है कि वे सबकी निगाह में हैं। इसके अलावा दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी निशाने पर हैं। यदि उनका नाम भी कलमाड़ी के साथ शामिल हो जाता है, तो फिर कई और चेहरे बेनकाब होंगे, यह तय है।
वास्तव में हम भ्रष्टाचार के खिलाफ अभी तक पूरी तरह से सचेत नहीं हुए हैं। भ्रष्टाचार को अब हमने रोजमर्रा के खेल में शामिल कर लिया है। वैसे भी आज तक किसी भी भ्रष्टाचारी को सख्त सजा मिली हो, ऐसे उदाहरण बहुत ही कम देखने में आए हैं। जब देश के गद्दारों के खिलाफ सख्त कार्रवाई नहीं हो पा रही हो, तब भ्रष्टाचारियों को कौन पूछे? सबसे पहले तो यह जानने की कोशिश होगी कि जब यह तय हो गया था कि 2010 के राष्ट्रमंडल खेल भारत की राजधानी दिल्ली में होने हैं, तो फिर तीन वर्ष तक उस दिशा में एक भी काम आखिर क्यों नहीं हुआ? पूरे काम 2009 तक हो जाने थे, जो खेल शुरू होने के दिन तक चलते रहे। आखिर ऐसा क्या हो गया, जिसकी वजह से इतना विलंब हुआ। उसके बाद अधिकांश ठेके अपने ही संबंधियों एव ब्लेक लिस्टेड कंपनियों को दिए गए, इससे ही अंजादा लग जाता है कि भ्रष्टाचार कहाँ से शुरू हुआ?
वास्तव में देखा जाए, तो भ्रष्टाचार ने हमारे देश की जड़ों को खोखला कर दिया है। देश में ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार है। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट को भी कहना पड़ा कि क्यों न इसे अनिवार्य कर दिया जाए। हम देख रहे हैं कि कोई भी सरकारी काम बिना लेन-देन के समय पर होता ही नहीं। आम आदमी सरकारी कार्यालयों के चक्कर लगा-लगाकर त्रस्त हो जाता है। उसके बाद भी उसका काम नहीं हो पाता। वहीं जिसने रिश्वत दी, उसका काम बिना किसी व्यवधान के तुरंत हो जाता है। भ्रष्टाचार अब व्यवस्था में शामिल हो गया है। सरकार खजाने से गरीबों के लिए निकला धन उन तक पहुँच ही नहीं पाता। बिचौलिये पूरी तरह से रकम को डकार जाते हैं। इसे समझने की कोशिश की, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने। वे अच्छी तरह से जानते थे कि सरकार खजाने से निकला एक रुपए जरुरतमंद तक पहुँचते-पहुँचते 15 पैसे बन जाता है। उन्होंने इस अव्यवस्था को रोकने की काफी कोशिशें की, पर कामयाब नहीं हो पाए। तब तक यह भ्रष्टाचार अपने पैर पसार चुका था। आज तो हालत यह है कि यह घर के मुहाने तक आ पहुँचा है। चाहकर भी हम इसे अपने से दूर नहीं कर सकते।
सुरेश कलमाड़ी के बहाने अब भ्रष्टाचार के कई चेहरे हमारे सामने आने वाले हैं। इस बार चुनाव आयोग भी इस दिशा में सख्त हुआ है। आयोग की सक्रियता से भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सकता है, पर अपराधी प्रवृत्तियों वाले प्रत्याशियों को चुनाव लड़ने से रोकने पर कुछ कर पाना संभव नहीं दिखता। अपराधी राजनीति में आकर इसे और भी अधिक प्रदूषित कर रहे हैं। आम आदमी तो आज चुनाव लड़ने की सोच भी नहीं सकता। देश के ये हालात कहाँ ले जाएँगे, यह एक शोध का विषय हो सकता है। कलमाड़ी ही इस देश के अकेले भ्रष्टाचारी नहीं है, जिसने देश को करोड़ों का चूना लगाया है। बहुत से अधिकारी, कर्मचारी और नेता भी इस भीड़ में शमिल हैं। पहले भी कई भ्रष्टाचारी हुए हैं, पर उन्हें ऐसी सख्त सजा मिली ही नहीं, जिससे दूसरे भ्रष्टाचारी सबक ले सकें। सख्त कानून ही भ्रष्टाचारियों में भय जगा सकता है।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

हम कब सुन पाएँगे, न्यायमूर्ति हाजिर हो!



डॉ. महेश परिमल

भ्रष्टाचारियों को न्यायाधीश दंड देते हैं। पर जब न्यायाधीश ही भ्रष्टाचारी हों, तो फिर उन्हें कौन दंडित करेगा? भारतीय परिवेश में आज यह यक्ष प्रश्न चारों तरफ से सुनाई दे रहा है। भारतीय लोकतंत्र के जिस पाये को सबसे अधिक सशक्त होना था, आज वही अपने भ्रष्ट आचरण के कारण प्रजातंत्र को पंगु बना रहा है। कोलकाता के न्यायाधीश सौमित्र सेन और हरियाणा की महिला जज निर्मल यादव ने इस पूरी व्यवस्था पर एक प्रश्न चिह्न् ही लगा दिया है।
भारत के पूर्व कानून मंत्री शांतिभूषण ने रहस्योद्घाटन किया है कि देश की सुप्रीम कोर्ट के दस में से आठ मुख्य न्यायाधीश भ्रष्ट थे। उनकी यह बात नक्कारखाने की तूती साबित हुई।
न्याय की बात करें, तो पर्शिया के राजा केम्बिसेस को पता चला कि उनके राज्य में न्यायाधीश ने रिश्वत ली है, तो उन्होंने रिश्वतखोर न्यायाधीशं का कत्ल करवा दिया। यही नहीं उनके शरीर की चमड़ी न्यायाधीश की कुर्सी पर चिपका दी। उसके बाद राजा ने उसी के पुत्र को न्यायाधीश की कुर्सी पर बिठाया और कहा कि इस कुर्सी पर किसकी चमड़ी चिपकी है, इस हमेशा याद रखना। प्राचीन जमाने के राजा न्याय के प्रति इतने अधिक सचेत रहते थे कि पता चलते ही वे न्यायाधीश को कठोर दंड देते थे। आज जब कदम-कदम पर भ्रष्टाचारी नेता हमें दिखाई पड़ रहे हैं, तो उस स्थिति में यह सोचा भी नहीं जा सकता कि न्यायाधीश भी कभी कठघरे में होंगे। आज भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए कठोर कानून की आवश्यकता है। तभी तो सुप्रीम कोर्ट ने इस आजिज आकर यह कह दिया कि क्यों न रिश्वत को कानून का रूप दे दिया जाए।
देश का न्यायतंत्र भ्रष्टाचार से आकंठ डूबा है। एक के बाद एक न्यायाधीशों पर रिश्वत के आरोप लग रहे हैं। अभी जो सबसे अधिक चर्चित मामले हैं, उसमें कोलकाता हाईकोर्ट के सिटिंग जज सोमित्र सेन का मामला है। उन पर आरोप है कि जब वे हाईकोर्ट में प्रेक्टिस कर रहे थे, तब 1993 में उन्होंने स्टील अथारिटी ऑफ इंडिया और शिपिंग कापरेरेशन ऑफ इडिया के बीच हुए विवाद में मध्यस्थ की भूमिका निभाने को तैयार हो गए। हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की तरफ से सौमित्र सेन की नियुक्ति कोर्ट रिसीवर के रूप में की गई। सेन को कहा गया कि ‘सेल’ द्वारा जितने भी माल को रिजेक्ट किया गया है, उसकी सूची तैयार करें। इस माल को बेचकर उस रकम को एक अलग खाते में जमा किया। माल की बिक्री हो जाने के बाद श्री सेन से कहा गया कि इस रकम की 5 प्रतिशत राशि अपने मेहनताने के रूप में रख ले। शेष राशि को एक अलग एकाउंट में जमा कर दिया जाए। 2002 में जब सेल ने अपने माल की बिक्री से मिली रक और उसके ब्याज के बारे में सेन से पूछताछ की , तब वे उसका संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाए। तब सेल ने कोर्ट में आवेदन किया। कोर्ट ने सौमित्र सेन को आदेश दिया कि माल के बिक्री की राशि सेल के खाते में जमा कर दे। सौमित्र सेन ने इस आदेश को अनदेखा कर दिया। इस दौरान वे कोलकाता हाईकोर्ट के जज बन गए। बाद में पता चला कि फायरब्रिक्स की बिक्री से कुल 33 लाख 22 हजार रुपए प्राप्त हुए थे। इस राशि को अलग-अलग खाते में जमा किया गया था। हाईकोर्ट के सिंगल जज की बेंच ने फैसला दिया कि सौमित्र सेन का यह व्यवहार फौजदारी मामला बनता है। यह गबन का मामला है। फैसले में कहा गया कि सौमित्र सेन उस राशि को ब्याज समेत कुल 52 लाख 46 हजार 454 रुपए जमा करे। सौमित्र सेन के पास इस राशि को वापस देने के अलावा और कोई चारा न था। इस फैसले के बाद कोलकाता हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की तरफ से सौमित्र सेन को न्यायालयीन कार्य देने पर रोक लगा दी।
भारतीय न्यायतंत्र का एक और सनसनीखेज मामला भी है। जो इस प्रकार है:- के. प्रकाश राम नामक एक आदमी एक बेग में 15 लाख रुपए की कड़कड़ाती नोट लेकर हरियाणा हाईकोर्ट की जज श्रीमती निर्मलजीत कौर के घर पहुँचा। उसने बिंदास होकर जज के हाथ में 15 लाख रुपए का बेग दे दिया। ये शख्स एडीशनल एडवोकेट जनरल संजीव बंसल का कारकून है। इसकी जानकारी जज साहब को थी। 15 लाख रुपए अपने सामने देखकर जज बौखला गई। उसने तुरंत ही पुलिस को फोन किया। पुलिस ने प्रकाश राम की धकपकड़ की। उससे पूछताछ में पता चला कि वास्तव में यह राशि एक अन्य जज निर्मल यादव को देनी थी, नाम के गफलत में वह राशि दूसरी महिला जज के पास पहुंेच गई। प्रकाश राम ने पुलिस को बताया कि यह राशि एडवोकेट जनरल संजीव बंसल के कहने पर पहुँचाई थी। छोटी उम्र में ही एडवोकेट जनरल के पद सँभालने वाले संजीव बंसल की छबि हाईकोर्ट में हाई प्रोफाइल लायर के रूप में है। वकील के रूप में वे कोई छोटे मामले पर हाथ भी नहीं रखते थे। पंजाब के कांग्रेसी नेताओं के साथ संजीव बंसल के धनिष्ठ संबंध थे। वे कांग्रेसी नेताओं को चुनाव के दौरान अपना खजाना ही खोल देते थे। एक कांग्रेसी नेता ने तो उन्हें एक स्पोर्ट्स कार भी भेंट की थी। संजीव बंसल के पास अपनी तीन लक्जरी कार है। वे पंजाब के अनेक रसूखदारों का केस लड़ने के लिए विख्यात हैं।
सीबीआई का कहना है कि उक्त 15 लाख रुपए निर्मल यादव के बदले निर्मलजीत कौर के बंगले पहुँच गए। इसी कारण पूरा मामला सामने आ गया। मामला सामने आते ही निर्मल यादव अवकाश पर चली गईं। उन्होंने इस पूरे मामले में स्वयं को निर्दोष बताया। लेकिन सूत्र बताते हैं कि निर्मल यादव के संजीव बंसल से अच्छे संबंध थे। निर्मल यादव ने 24 अगसत को हिमाचल प्रदेश के सोलन में 15 बीघा जमीन खरीदी है, यह जानकारी बाहर आई। यह पता चलते ही पंजाब हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस न्यायमूर्ति ने निर्मल यादव को मिलने के लिए बुलाया। वहाँ पर निर्मल यादव ने कहा कि क्या कोई हाईकोर्ट जज कानूनी रूप से जमीन नहीं खरीद सकता?
अब संजीव बंसल के बारे में जान लें। अभी उनकी उम्र केवल 43 वर्ष है। एक जूनियर एडवोकेट के रूप में अपना कैरियर शुरू करने वाले संजीव ने 1992 में स्वतंत्र प्रेेक्टिस शुरू की। उसके पास राजनेताओं और उद्योगपतियों के प्रापर्टी के मामले अधिक आते। उसने शायद ही कोई फौजदारी मामला अपने हाथ में लिया हो। केवल दस वर्ष की प्रेक्टिस में उसने दिल्ली के पॉश इलाके में अपना बंगला बना लिया, जिसकी कीमत दस करोड़ रुपए है। इसने पंजाब सरकार के जितने भी मुकदमे लड़े, उसमें से अधिकांश में सरकार की हार ही हुई है। उसके बाद भी उसकी समृद्धि लगातार बढ़ती रही। इन मामलों की भी सीबीआई जाँच चल रही है।
इस तरह से भारत का न्यायतंत्र लगातार खोखला होता जा रहा है। इस प्रश्रय दे रहे हैं हमारे देश के कथित भ्रष्ट राजनेता। सुप्रीम कोर्ट की इस दिशा में बार-बार की जाने वाली टिप्पणी भी असरकारक सिद्ध नहीं हो पा रही है। लोगों का कानून पर सेविश्वास उठता जा रहा है। यदि इस दिशा में शीघ्र ही कठोर कार्रवाई नहीं की गई, तो देश में अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

माँ के चरित्र को नया आयाम दिया निरुपा राय ने



हिन्दी सिनेमा में निरुपा रॉय को ऐसी अभिनेत्नी के तौर पर याद किया जाता है, जिन्होंने अपने किरदारों से मां के चरित्न को नया आयाम दिया । निरुपा राय मूल नाम कोकिला बेन का जन्म 4 जनवरी 1931 को गुजरात के बलसाड में एक मध्यमवर्गीय गुजराती परिवार में हुआ। गौरवर्णी होने के कारण गाँँव मंे उन्हें ‘धोरी चकली’ कहकर पुकारते थे। उनके पिता रेलवे में काम किया करते थे। निरुपा राय ने चौथी तक शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद उनका विवाह मुंबई में कार्यरत राश¨नग विभाग के कर्मचारी कमल राय से हो गया । शादी के बाद निरुपा राय मुंबई आ गई । उन्हीं दिनो निर्माता -निर्देशक बी एम व्यास अपनी नई फिल्म रनकदेवी के लिए नए चेहरों की तलाश कर रहे थे। उन्होंने अपनी फिल्म में कलाकारों की आवश्यकता के लिए अखबार में विज्ञापन निकाला । निरुपा राय के पति फिल्मों के बेहद शौकीन थे और अभिनेता बनना चाहते थे । कमल राय अपनी पत्नी को लेकर बी एम व्यास से मिलने गए और अभिनेता बनने की पेशकश की, लेकिन बी एम व्यास ने साफ कह दिया कि उनका व्यक्तित्व अभिनेता के लायक नही है। लेकिन यदि वह चाहे तो उनकी पत्नी को फिल्म में अभिनेत्नी के रूप में काम मिल सकता है। फिल्म रनकदेवी में निरुपा राय 150 रुपए माह पर काम करने लगी, लेकिन बाद में उन्हें इस फिल्म से अलग कर दिया गया ।
निरुपा राय ने अपने सिने कैरियर की शुरुआत 1946 में प्रदíशत गुजराती फिल्म गणसुंदरी से की । वर्ष 1949 में प्रदíशत फिल्म हमारी मंजिल से उन्होंने ¨हदी फिल्म की ओर भी रुख कर लिया। ओ पी दत्ता के निर्देशन में बनी इस फिल्म में उनके नायक की भूमिका प्रेम अदीब ने निभाई। उसी वर्ष उन्हंे जयराज के साथ फिल्म गरीबी में काम करने का अवसर मिला । इन फिल्मों की सफलता के बाद वह अभिनेत्नी के रूप में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो गई। वर्ष 1951 में निरुपा राय की एक और महत्वपूर्ण फिल्म हर हर महादेव प्रदíशत हुई। इस फिल्म में उन्होंने देवी पार्वती की भूमिका निभाई। फिल्म की सफलता के बाद वह दर्शकों के बीच देवी के रूप में प्रसिद्ध हो गई । इसी दौरान उन्होंने फिल्म वीर भीमसेन में द्रौपदी का किरदार निभाकर दर्शकों का दिल जीत लिया । पचास और साठ के दशक में निरुपा राय ने जिन फिल्मों में काम किया उनमें अधिकतर फिल्मों की कहानी धाíमक और भक्तिभावना से परिपूर्ण थी । हालांकि वर्ष 1951 में प्रदíशत फिल्म ¨सदबाद द सेलर में निरुपा राय ने नकारात्मक चरित्न भी निभाया। वर्ष 1953 में प्रदíशत फिल्म दो बीघा जमीन निरुपा राय के सिने कैरियर के लिए मील का पत्थर साबित हुई । विमल राय के निर्देशन में बनी इस फिल्म में वह एक किसान की पत्नी की भूमिका में दिखाई दी। फिल्म में बलराज साहनी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। बेहतरीन अभिनय से सजी इस फिल्म में दमदार अभिनय के लिए उन्हें अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई
वर्ष 1955 में फिल्मिस्तान के बैनर तले बनी फिल्म मुनीम जी निरुपा राय की अहम फिल्म साबित हुई। इस फिल्म में उन्होंने देवानंद की मां की भूमिका निभाई। फिल्म में अपने सशक्त अभिनय के लिए वह सर्वŸोष्ठ सहायक अभिनेत्नी के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित की गई। लेकिन इसके बाद छह वर्ष तक उन्होंने मां की भूमिका स्वीकार नही की। वर्ष 1961 में प्रदíशत फिल्म छाया में उन्होंने एक बार फिर मां की भूमिका निभाई । इसमें वह आशा पारेख की मां बनी। फिल्म में भी उनके जबरदस्त अभिनय को देखते हुए उन्हें सर्वŸोष्ठ सहायक अभिनेत्नी के फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 1975 में प्रदíशत फिल्म दीवार निरुपा राय के कैरियर की महत्वपूर्ण फिल्मों में शुमार की जाती है । यश चोपड़ा के निर्देशन में बनी इस फिल्म में उन्होंने अच्छाई और बुराई का प्रतिनिधित्व करने वाले शशि कपूर और अमिताभ बच्चन के मां की भूमिका निभाई। फिल्म में उन्होंने अपने स्वाभाविक अभिनय से मां के चरित्न को जीवंत कर दिया । निरुपा राय के सिने कैरियर पर नजर डालने पर पता चलता है कि सुपरस्टार अमिताभ बच्चन की मां के रूप में उनकी भूमिका अत्यंत प्रभावशाली रही है। उन्होंने सर्वप्रथम फिल्म दीवार में अमिताभ बच्चन की मां की भूमिका निभाई। इसके बाद खून पसीना, मुकद्दर का सिकंदर, अमर अकबर एंथनी, सुहाग, इंकलाब, गिरफ्तार, मर्द और गंगा जमुना सरस्वती जैसी फिल्मों में भी वह अमिताभ बच्चन की मां की भूमिका में दिखाई दी । वर्ष 1999 में प्रदíशत फिल्म लाल बादशाह में वह अंतिम बार अमिताभ बच्चन की मां की भूमिका में दिखाई दी। निरुपा राय ने अपने पांच दशक लंबे सिने कैरियर में लगभग 300 फिल्मों में अभिनय किया। उनकी कैरियर की उल्लेखनीय फिल्मों में कुछ है सती सुकन्या, श्री विष्णु भगवान, इज्जत, भक्त पुराण, नौकरी, औलाद, गरम कोट, भाई-भाई, कंगन, बेजुबान, गुमराह, गृहस्थी, संतान, मुसाफिर, फूलों की सेज, मुझे जीने दो, ¨जदगी, शहनाई, शहीद, राम और श्याम, घर घर की कहानी, पूरब और पश्चिम, गोपी, अभिनेत्नी, कच्चे धागे, रोटी, मां, क्रांति, तेरी कसम, बेताब, मवाली, सोने पे सुहागा, औरत तेरी यही कहानी, प्यार का देवता आदि।

बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

हिंदी सिनेमा गत की पहली डांसिग क्वीन थी कुक्कू

भारतीय सिनेमा जगत में अपनी नृत्य शैली और दिलकश अदाओं से दर्शकों को दीवाना बनाने वाली न जाने कितनी अभिनेत्रियां हुई, लेकिन चालीस के दशक में एक ऐसी अभिनेत्री भी हुई जिसे डांसिग क्वीन कहा जाता था और आज के सिने प्रेमी शायद उससे अपरिचित होंगे। लेकिन उस समय शोहरत की बुलँदियां छूने वाली उस अभिनेत्नी का नाम कुक्कु था। कुक्कू मूल नाम कुक्के मोरे का जन्म वर्ष 1928 में हुआ था। चालीस के दशक में कुक्कू ने फिल्म .लैला मजनू. के जरिए फिल्म इंडस्ट्री में कदम रख दिया। इस फिल्म में उन्हें समूह नृत्य में नृत्य करने का मौका मिला। वर्ष 1945 में प्रदíशत फिल्म .मन की जीत. में उन्हें एक बार फिर से नृत्य करने का मौका मिला। इस फिल्म में उन पर फिल्माया यह गीत .मेरे जोवन का देखा उभार. श्रोताओं के बीच काफी लोकप्रिय हुआ। वर्ष 1946 में कुक्कू को बतौर अभिनेत्नी फिल्म .अरब का सौदागर. और वर्ष 198७ में फिल्म .सोना चांदी. में काम करने का अवसर मिला। लेकिन दुर्भाग्य से दोनोँ ही फिल्में टिकट खिड़की पर असफल साबित हुई, हालांकि कुक्कू पर फिल्माए गीत दर्शकों के बीच काफी पसंद किए गए। वर्ष 1948 में कुक्कू को महबूब खान की फिल्म अनोखी अदा में भी काम करने का अवसर मिला। फिल्म की सफलता के बाद कुक्कू बतौर डांसर फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने में कामयाबी हो गई।
वर्ष 1989 में कुक्कू को निर्माता निर्देशक राजकपूर के बैनर तले बनी फिल्म .बरसात. में काम करने का अवसर मिला। इस फिल्म में मुकेश की आवाज में उन पर फिल्माया यह गीत पतली कमर है तिरछी नजर है उन दिनों श्रोताओं के बीच क्रेज बन गया था और आज भी श्रोताओं के बीच शिद्दत के साथ याद किया जाता है। वर्ष 1951 में कुक्कू को एक बार फिर से राजकपूर की फिल्म .आवारा. में काम करने का अवसर मिला। यूं तो फिल्म आवारा के सभी गीत लोकप्रिय हुए लेकिन कुक्कू पर फिल्माया यह गीत .एक दो तीन आजा मौसम है रंगीन. आज भी श्रोताओं को झूमने को विवश कर देता है। वर्ष 1958 में किशोर शाहू की बहुचíचत फिल्म .मयूर पंख में गीत.संगीत के विविध प्रसंग इस्तेमाल किए गए थे, लेकिन इस फिल्म में कुक्कू के गीत को शामिल किया गया। इसी तरह फिल्म आन में भी कुक्कू पर एक नृत्य ऐसा फिल्माया गया जिसमें केवल संगीत का इस्तेमाल किया गया था बावजूद इसके कुक्कू ने अपनी नृत्य शैली से दर्शकों को रोमांचित कर दिया। वर्ष 1952 में महबूब खान निíमत इस फिल्म की खास बात यह थी कि यह ¨हदुस्तान में बनी पहली टेक्नीकलर फिल्म थी और इसे काफी खर्च के साथ वृहत पैमाने पर बनाया गया था। दिलीप कुमार प्रेमनाथ और नादिरा की मुख्य भूमिका वाली इस फिल्म से जुड़ा एक रोचक तथ्य यह भी है कि भारत में बनी यह पहली फिल्म थी जो पूरे विश्व में एक साथ प्रदíशत की गई।
पचास के दशक में कुक्कू की लोकप्रियता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि उन दिनों जब फिल्म बनने के बाद उसकी पहली झलक वितरक को दिखाई जाती तो वह कहते फिल्म में कुक्कू कहां है बाद में फिल्म में कुक्कू को शामिल किया जाता और उस पर एक या दो गीत अवश्य फिल्माए जाते। कुक्कू को नए डिजाइन की फैशेनबल चप्पल पहनने का शौक था। जब कभी वह फिल्म स्टूडियो में डिजानइनर चप्पलंे या जूते पहनकर आती तो देखने वाले उन्हें देखते रह जाते। माना जाता है कि कुक्कू के पास विभिन्न डिजाइन वाले लगभग 5000 जोड़ी चप्पलें थी। मशहूर नृत्यांगना हेलन को फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित करने के लिए कुक्कू ने अहम भूमिका निभाई। कुक्कू की सिफारिश की वजह से हेलन को शबिस्तान और फिर आवारा .1951. फिल्मों में नर्तकों के समूह में काम करने का करने का मौका मिला। वर्ष 1985 से वर्ष 1965 तक कुक्कू ने फिल्म इंडस्ट्री पर एकछत्न राज किया। उन्होंने आजीवन विवाह नही किया। नितांत अकेले रहने वाली कुक्कू को इस दौरान कैंसर जैसी जटिल बीमारी का शिकार हो गर्द अपने अपने गम को भुलाने के लिए शराब का सेवन करने लगी। फिल्म इंडस्ट्री में लगभग दो दशक तक अपनी नृत्य शैली से दर्शकों के बीच खास पहचान बनाने वाली कुक्कू 30 सितंबर 1981 को इस दुनिया को अलविदा कह गई। कुक्कू ने अपने दो दशक लंबे सिने करियर में कई फिल्मों में काम किया। उनके करियर की उल्लेखनीय फिल्मों में कुछ है .विद्या,शबनम, पतंगा, पारस, अंदाज, हमारी बेटी, खिलाड़ी, आरजू, बावरेनैन, शबिस्तान, हलचल, मिस्टर एंड मिसेज 55, यहूदी, फागुन, चलती का नाम गाड़ी, गैंबलर, मुझे जीने दो आदि।

मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010

गांधी का पर्याय खादी की देश में दुर्दशा



डॉ. महेश परिमल

अभी-अभी हमारी आँखों के सामने से गांधी जयंती गुजरी। कई संकल्प याद आए होंगे। कई संकल्पों को पूरा होते देखा भी होगा। नारेबाजी के बीच सत्य और अहिंसा का पाठ भी पढ़ाया गया होगा। मीडिया में तो इसे एक उत्सव के रूप में लिया गया। चारों ओर गांधी के सत्य और अहिंसा की ही चर्चा थी। दूसरीे ओर हमारे ही देश में गांधी का पर्याय बनी खादी इन चर्चाओं से दूर हो गई। खादी जो पहले एक मिशन था, आज कमीशन बनकर रह गई है। गांधी के ही देश में खादी की दुर्दशा के लिए वही लोग दोषी हैं, जो गांधी के वचनों को अपने जीवन में उतारने का संकल्प लेते हैं। आखिर वह कौन-सी शक्तियाँ हैं, जो खादी को खत्म कर रही हैं?
खादी पर सबसे पहला हमला तो तब हुआ, जब खादी की खरीदी में दिया जाने वाला डिस्काउंट बंद कर दिया गया। पूरे देश में आज भी 7 हजार खादी भंडारों से 10 हजार परिवारों का भरण-पोषण हो रहा है, वह भी इस यांत्रिक युग में। भारत में खादी और ग्रामोद्योग की वार्षिक बिक्री करीब 22 करोड़ रुपए की है। इसके बाद भी आज हमारे देश में सूती कपड़े पहनने का फैशन ही चल पड़ा है। लेकिन युवाओं को खादी की तरफ आकर्षित करने के तमाम सरकारी प्रयास निष्फल साबित हुए हैं। खादी को बढ़ावा देने के लिए सरकार द्वारा खादी एंड विलेज इंडस्ट्रीज बोर्ड की स्थापना की गई है। इन दिनों चल रहे कामनवेल्थ गेम के लिए बनाए गए खेल गाँव में खादी की एक दुकान लगाई गई है। जहाँ से विदेशी खादी खरीद रहे हैं। पर हमारे देश में खादी का प्रचार पूरी ईमानदारी के साथ नहीं किया गया। इसके लिए सबसे बड़ा दोषी यही खादी एंड विलेज इंडस्ट्रीज बोर्ड रहा है।
सभी जानते हैं कि स्वास्थ्य एवं पर्यावरण के लिए खादी से बेहतर कोई कपड़ा नहीं है। यही नहीं, खादी से आज भी कई घरों के चूल्हे जल रहे हैं। इससे गाँव के गरीब लोगों को रोजगार मिल रहा है। मिलों में कपड़े बनाने के लिए जिस यंत्र का इस्तेमाल किया जाता है, उससे ग्लोबल वार्मिग का खतरा उत्पन्न हो रहा है। खादी के लिए इस्तेमाल में लाया जाने वाला कपास भी हमारे ही देश में उत्पन्न होता है। इसके लिए अनाज उत्पादन के लिए जितनी जमीन की आवश्यकता होती है, उतनी जमीन भी नहीं लगती। इसके बाद भी खादी की मार्केटिंग नहीं होने के कारण खादी की बिक्री लगातार कम होती जा रही है।

जिस किसी ने भी अहमदाबाद में साबरमती आश्रम का दौरा किया है, वह गांधी के विचारों एवं खादी से विशेष रूप से प्रभावित हुआ है। गांधी जी कक्ष में रखे चरखे को देखकर सचमुच एक झुरझुरी सी होती है। यही है गांधीजी का अस्त्र, जिससे उन्होंेने अँगरेजों से लोहा लिया। एक स्पंदन होता है, जो आश्रम के बाहर आते ही समाप्त हो जाता है। करीब 150 वर्ष पूर्व जब हमारे देश में कपड़ों की मिलें नहीं थीं, तब यही खादी ही हमारा वस्त्र थी। इसके कारण लाखों लोगों को रोजगार मिल जाता था। जब यूरोप में यांत्रिक युग शुरू हुआ, तब हालात बदल गए। अँगरेजों ने अपने देश के कपड़ों को पहनना भारतीयों के लिए अनिवार्य कर दिया। इससे खादी का प्रचलन कम होने लगा। हमारे देश से ही कपास विदेश भेजा जाता और वहाँ से सूती कपड़े हम पर थोपे जाते। गांधीजी ने इस बात को समझा और खादी को एक आंदोलन का रूप दिया। उन्होंने यह नारा दिया कि यदि भारतीय विदेशी कपड़ों का बहिष्कार करें, तो अंगरेजों को हमारे देश से भगाना आसान हो जाएगा। लेकिन उस समय भारतीय मिल मालिकों ने भारतीय कपड़ों की कालाबाजारी कर मुनाफा कमाना शुरू कर दिया। गांधीजी ने इस बात को समझा और 1920 में अपने अभियान के दौरान गुजरात के विजापुर में देशी चरखा ढ़ॅँूढ़ निकाला। इसके बाद तो उन्होंने स्वयं ही खादी पहनना शुरू कर दिया। इस तरह से खादी को लेकर एक अभियान ही शुरू हो गया। इस के बाद 1947 में जवाहर लाल नेहरू के प्रयासों से खादी एंड विलेज इंडस्ट्रीज कमिशन की स्थापना की गई।
इसकी स्थापना तो खादी के विकास के लिए की गई थी, पर उसी समय एक भूल के कारण खादी एक अभियान न बन पाई। इस कमिशन की यह विशेषता थी कि इसके अध्यक्ष कोई उद्योगपति या कोई राजनेता ही होता। इनका स्वार्थ मिल-मालिकों से बँधा होता, इसलिए वे खादी के बजाए देश में बने सूती कपड़ों का प्रचार करते। वे खादी को मिलों के कपड़ों की अपेक्षा महँगा बेचने की सिफारिश करते। यही परंपरा आज भी कायम है। फलस्वरूप खादी गरीबों से दूर होती गई। गुजरात के मूर्धन्य कवि उमाशंकर जोशी की पुत्री नंदिनी जोशी जब अमेरिका में अर्थशास्त्र की प्राध्यापक बनी, तब उन्होंने खादी के प्रचार के लिए विशेष रूप से अभियान चलाया। उन्होंने यह माँग रखी कि खादी अन्य कपड़ों के एवज में सस्ती होनी चाहिए। विनोबा भावे को अपने अंतिम समय में खादी के प्रति सरकार की नकारात्मक भूमिका की जानकारी हो गई थी। इसके मद्देनजर उन्होंने नारा दिया ‘खादी को कमिशन नहीं, मिशन बनाया जाए।’ स्व. विनोबा भावे के इस नारे के बाद सरकार ने देश के अनेक हिस्सों में खादी भंडारों की स्थापना की।
खादी भंडारों को विशेष रूप से कर्ज देने एवं कई तरह की रियायतें दी जाने लगीं। पर यह अधिक समय तक नहीं चल पाया। आज खादी भंडारों की हालत बहुत ही खराब है। खादी भंडार के संचालकों को आज भी सरकारी सहायता प्राप्त करने के लिए रिश्वत देने पड़ती है। इसलिए गांधी जी के इन अनुयायियों को यह समझ में आ गया कि यह तो गांधीजी के उसूलों के खिलाफ है। इसलिए उन्होंने रिश्वत देकर सहायता प्राप्त करना बंद कर दिया। उनकी इस सदाशता का लाभ अब वे संस्थाएँ उठा रहीं हैं, जो रिश्वत देकर खादी को और भी अधिक महँगा कर रही हैं। खादी के नाम पर उनका उद्देश्य गरीबों की सेवा न होकर सरकार सहायता प्राप्त करना हो गया है। ये संस्थाएँ अब खादी में कई कपड़ों की मिलावट करने लगी हैं। खादी अपना मूल स्वरूप खोती जा रही है।
ऐसा नहीं है कि खादी के नाम पर और कुछ अच्छा नहीं हुआ। खादी ने आधुनिक ड्रेस डिजाइनरों को भी आकर्षित किया है। 1989 में खादी एंड विलेज इंडस्ट्रीज कमिशन ने पहली बार मुंबई में एक फैशन शो का आयोजन किया। इस शो के लिए विख्यात ड्रेस डिजाइनर देविका भोजवानी ने खादी के 84 कॉस्टच्यूम तैयार किए। 1990 में अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त ड्रेस डिजाइनर रितु कुमार ने भारत की खादी पर ‘ट्री ऑफ लाइफ’ नामक विडियो विजुअल शो का आयोजन किया। इसे दुनियाभर में प्रशंसा मिली। 1997 में इस शो का आयोजन लंदन में किया गया। इससे विदेशियों का रुझान खादी के प्रति बढ़ा। लेकिन अब हालात बदल गए हैं। सरकार ही इस दिशा में ध्यान नहीं दे पा रही है। सरकार की नीयत तो साफ है, पर तंत्र में फैले भ्रष्टाचार के कारण खादी एक अभियान के रूप में नहीं चल पाई। सरकार यदि ईमानदारी से इस दिशा में कड़े कदम उठाए, तो कोई दो मत नहीं कि एक बार फिर खादी अपना रँग जमा सकती है। खादी यदि सस्ती हो जाए, तो यह गरीबों का ही नहीं, बल्कि मध्यम वर्ग का वस्त्र बन सकती है। आवश्यकता है एक ईमानदारान कोशिश की।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

छँटा भ्रम का कुहासा, फैला खुशियों का उजास



डॉ. महेश परिमल
आखिर छँट गया भ्रम का कुहासा। देश के सबसे बड़े, लम्बे और महत्वपूर्ण फैसले केबाद आम आदमी ने राहत की साँस ली है। ऐसा पहली बार हुआ कि शहरों में अघोषित कफ्यरू लागू हो। लोगों को इस बात की आशंका सबसे अधिक थी कि कहीं बात बिगड़ न जाए। आशंकाओं से सहमी आँखों ने ऐतिहासिक फैसला सुनते ही राहत की साँस ली। लोगों ने इसे संतुलित, धर्मनिरपेक्ष एवं चुनौतीपूर्ण निर्णय निरुपित किया है। एकता की इस आबोहवा का अभिवादन किया जाना चाहिए। अभी लंबी कानूनी लड़ाई बाकी है। इस निर्णय से न तो किसी की जीत हुई है और न ही किसी की हार। मुस्लिमों को तो किसी भी तरह से निराश नहीं होना चाहिए। उन्हें भी विवादित भूमि का एक हिस्सा मिला ही है।
अदालत का फैसला आने से पहले विवाद से जुडे सभी पक्ष यह स्पष्ट कर चुके थे कि मामले का हल आपसी बातचीत के जरिए संभव नहीं है इसलिए न्यायपालिका ही मसले का समाधान करे. अब फैसला आ चुका है. असंतुष्टों के लिए कानून के रास्ते खुले हुए हैं और वे सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकते हैं. सुन्नी वक्फ बोर्ड और हिंदू महासभा ने इसका ऐलान भी कर दिया है. फैसले से दोनों की असंतुष्टि के अपने अलग-अलग आधार हैं और इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. क्योंकि एतराज का दायरा कानून और संविधान के भीतर है. लेकिन जरूरी यह है कि इस फैसले के साथ ही एक नई शुरुआत हो. मसले को एक कानूनी मसला मानकर ही आगे बढा जाना चाहिए. इसे भावनात्मक या राजनीतिक आवेश में लाने या रँगने की कोशिश कतई नहीं हो. आम लोगों में जितनी चिंता फैसले को लेकर थी, उससे कहीं ज्यादा आशंका इस बात की थी कि फैसले के बाद क्या होगा? क्या देश एक बार फिर अपने सामाजिक तानेबाने को छिन्न-भिन्न होता देखेगा या फिर इसे निपटा हुआ मानकर विकास और देश निर्माण की राह में बढ चला जाएगा. फैसले से पहले सभी राजनीतिक दल शांति और भाईचारे की बात कर रहे थे. उन्हें इसी सोच को आगे विस्तार देना होगा. वैसे भी इस बदलते भारत में भावनात्मक मुद्दों पर राजनीति की जमीन खत्म होती जा रही है. बीते दो दशकों में एक पूरी नयी पीढी जवान हुई है. वह नए दौर की व्यवस्था के बीच नये भारत को गढ रही है. शक्ल लेता यह नया भारत अतीत के प्रेतों को ढोना नहीं चाहता. यही सोच वह भरोसा जगा रहा है जहां उम्मीदें ज्यादा हैं और आशंकाएं कम. अतीत के प्रेतों से मुक्ति जरूरी है।
इस ऐतिहासिक फैसले के बाद ही सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के जफरियाज जिलानी ने सुप्रीम कोर्ट पर जाने की घोषणा की। इससे समझा जा सकता है कि यह कानूनी लड़ाई लंबी चलेगी। पहले तो सुप्रीमकोर्ट की विभागीय बेंच, उसके बाद फुल बेंच और उसके बाद कानूनी बेंच पर यह मुकदमा लड़ा जा सकता है। यही नहीं, इसके बाद तो संसद के पास निर्णय रद्द करने का भी अधिकार है। कल तक यही गिलानी इस विवाद के समाधान की कोशिशों को हवा में उड़ा देते थे, आज वही इस मामले को आपसी विचार-विमर्श से सुलझाने की बात कह रहे हैं। यदि वे सचमुच ही इस विवादास्पद मामले को आपसी विचार-विमर्श से सुलझाना चाहते हैं, तो इसका समाधान जल्द आ सकता है। इस पूरे मामले पर लखनऊ खंडपीठ की प्रशंसा करनी ही होगी। इसके अलावा देश की जनता का काम भी सराहनीय रहा। विशेषकर मीडिया, जो छोटी-सी बात को बतंगड़ बना देता है, इस मामले में सकारात्मक रहा। एक बोल्ड निर्णय को देशवासियों ने आसानी से पचा लिया। इसमें न तो किसी की हार हुई है और न ही किसी की जीत। सभी को समान रूप से प्रभावित करने वाला निर्णय रहा। अभी भी समझौते के पूरे रास्ते खुले हुए हैं। अभी हालात अनुकूल हैं, इसी परिस्थिति को सँभाले रखने की आवश्यकता है। इसके लिए राजनैतिक दल अपने स्वार्थ की रोटियाँ न सेंक पाएँ, यही कोशिश होनी चाहिए। इसी ईमानदार प्रयास से हो सकता है, एक नया युग। जिसमें सभी सौहार्दपूर्ण वातावरण में साँस ले सकें।
डॉ. महेश परिमल

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