मंगलवार, 27 जुलाई 2010

कंदराओं से निकले नायाब 'हीरे'

निरंतर बंदूकों से बरसती गोलियों और धमाकों के बीच लाशों को अपनी आँखों से देखने वाले इन जंगली "हीरों" ने अपनी मशक्कत के बूते लक्ष्य पाकर एक उत्तम आदर्श स्थापित किया है।

शाश्वत शुक्ला
नक्सली इलाकों में हिंसक माहौल और बारूदी धमाकों के बीच जीवन-मृत्यु के नृशंस खूनी खेलों के साक्ष्य बने इन आदिवासी छात्रों ने दसवीं बोर्ड में ७० से ९५ फीसदी अंक हासिल कर नायाब मिसाल पेश की है। इन होनहार छात्रों ने विपरीत माहौल में अपने जज्बे को कायम रखते हुए, संसाधनहीन शैक्षणिक दायरे में भी अपनी लगन के बूते बुलंदियों के मुकाम पर पहुँचने में कामयाबी पाई है। निरंतर बंदूकों से बरसती गोलियों और धमाकों के बीच लाशों को अपनी आँखों से देखने वाले इन जंगली "हीरों" ने अपनी मशक्कत के बूते लक्ष्य पाकर एक उत्तम आदर्श स्थापित किया है। जंगल के हिंसक वातावरण में भी अपने मंसूबों को पा लेने वाले लगभग सवा तीन सौ बच्चों को आदिम जाति कल्याण विभाग ने एक विशेष अभियान के तहत खोज निकाला है। तत्संबंध में, सबसे अहम बात यह रही है कि इनमें से अधिकांश बच्चों ने ऐसे स्कूलों में शिक्षा हासिल की है, जिनमें विषयों के शिक्षक तक नहीं थे। नक्सली हिंसा में अपने माता-पिता को खोने वाले इन अनाथ बच्चों के साहस की जितनी सराहना की जाए, उतनी कम है। बस्तर के अंदरूनी इलाकों में इस क्षेत्र-विशेष के नक्सलियों ने इन बच्चों के कंधों से बस्ता उतारकर, बंदूकें टाँगना अपना मकसद माना, ऐसी बेजा पहल से भी स्वयं को बचाते हुए, इन होनहार बच्चों ने अपना मुकाम पा ही लिया। जबकि, क्षेत्र-विशेष के नक्सली उन्हें नक्सल-साहित्य का वाचन कराना ही अपना लक्ष्य मानते रहे हैं।
ऐसे हालात में भी छत्तीसगढ़ सरकार की ओर से मुख्यमंत्री ने "प्रयास" नामक बाल शिक्षा योजना बनाकर जंगल की इन बेमिसाल प्रतिभाओं को राजधानी के एक ऐसे आशियाने के हवाले किया, जहाँ इनके रहने, पढ़ने, खाने एवं चिकित्सा जैसी सुविधाएँ देकर इन्हें तराशने की भरपूर कोशिशों को अंजाम दिया जाएगा। आदिम जाति कल्याण विभाग के सचिव ने इन होनहार "हीरों" के व्यक्तित्व, खेलकूद, मानसिक एवं शारीरिक विकास तथा योग संबंधी शिक्षा के जरिए इन्हें संवारने की पहल का खुलासा किया है। इतना ही नहीं, अपितु इंजीनियरिंग तथा मेडिकल जैसे लक्ष्य से जोड़ने की खातिर कोचिंग क्लासेस की प्रभावी शिक्षा देने का प्रयास भी किया है। राज्य सरकार ने देश की नामी-गिरामी कोचिंग एवं शिक्षण संस्थाओं के महत्व को आँकते हुए पटना की "यूरेका इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस" का चयन किया है, ताकि इन होनहार बच्चों का उम्दा एवं प्रभावशाली विकास किया जा सके । इस बात में कोई आशंका नजर नहीं आती कि बस्तर के नक्सली हिंसा जैसे विपरीत माहौल में, अपना मुकाम तय करने वाले ये बच्चे अपने भविष्य को सुखद बनाने में निश्चित तौर पर कामयाब होंगे। इस बात में भी दो मत नहीं कि आदिवासी क्षेत्र के ये बच्चे दो-तीन सालों के दरम्यान मेडिकल, इंजीनियरिंग एवं एआईईईई जैसे परीक्षाओं में राष्ट्रीय शिनाख्त हासिल करने में कामयाब हो सकेंगे। जंगल के इन "हीरों" को तराशकर एक राष्ट्रीय पहचान देना राज्य सरकार की एक शालीन योजना है।
इस पर ऐसे बच्चों को बंदूक थमाने वाले नक्सलियों को भी नसीहत लेनी चाहिए। चूँकि, व्यापक परिप्रेक्ष्य को नजरअंदाज कर इन बच्चों को हिंसक और अपराधी बनाना भला कैसे उचित कदम निरूपित किया जा सकता है? इस मुद्दे पर नक्सलियों को गंभीरतापूर्वक सोचना चाहिए। चूँकि, एक तरफ तो ये लोग आदिवासियों का शोषणरहित विकास चाहते हैं तथा दूसरी तरफ वे उनके ही नौनिहालों को शिक्षा-दीक्षा से महरूम रखते हुए, उनके भविष्य को हिंसा एवं बारूदी धमाकों का कायल बनाना चाहते हैं। इस तरह की दोहरी नीति भला कैसे कामयाब मानी जाएगी?
शाश्वत शुक्ला

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