बुधवार, 7 जुलाई 2010

संवेदना का गिरता ग्राफ


हमारी संवेदना का ग्राफ तेजी से गिरता जा रहा है। महँगाई ने हमारे दिलो दिमाग पर वह असर डाला है, जो संवेदना के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ता है। घटती संवेदना अत्यंत चिंता का विषय है।
परितोष चक्रवर्ती
डिटर्जेंट पावडर के एक विज्ञापन पर शायद आपका ध्यान न गया हो। विज्ञापन में एक बच्चा शादी वाले घर में हमउम्र बच्चों के साथ दौड़-भाग करता रहता है। इसी बीच वह रंगोली के ऊपर मुँह के बल गिरता है। रोनी सूरत बनाकर अपनी माँ के पास जाकर जब बताता है-"मैं गिर गया।" झट से उसकी माँ कहती है-"कोई बात नहीं पुत्तर, सिर्फ एक्सल का भाव गिर गया है।"

यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि बेटा गिर गया है, उसे कहाँ चोट आई है या नहीं आई है, इस बात का ख्याल उसकी माँ को नहीं रहता, मगर सर्फ एक्सल के भाव गिरने का ख्याल उसे आता है। अर्थात उसके गंदे कपड़ों की सफाई को लेकर मॉं चिंतित है, चोट को लेकर नहीं। यह विज्ञापन जाने-अनजाने दो बातों की ओर इंगित करता है- पहला- हमारी संवेदना का ग्राफ कितनी तेजी से घट रहा है। दूसरा-महँगाई ने हमारे दिलो-दिमाग में वह असर डाला है, जो संवेदना के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ता है।
घटती संवेदना को लेकर जब हम सवाल उठाते हैं तो इन दिनों नक्सल प्रभावित राज्यों में तथाकथित माओवादी और नक्सलियों द्वारा मारे गए निरीह लोग और सुरक्षाकर्मियों की संख्या पर बात अटक जाती है। मीडिया को यह चिंता ठीक उस पर विज्ञापन की तरह सताती है-कितने मरे...। यानी कि मौत की संख्या से हम ज्यादा प्रभावित हैं, लेकिन एक व्यक्ति की मौत से जुड़ी संवेदना से हमारा नाता टूट जाता है। हर राज्य में विपक्ष समस्या में भागीदार होने की जगह यह कहता फिरता है कि सत्तारूढ़ सरकार को इस्तीफा दे देना चाहिए। ऐसा लगता है, जैसे सत्तारूढ़ सरकार के बाद विपक्ष आते ही इस समस्या का हल चुटकियों में कर देगा।

महँगाई को लेकर आम नागरिकों के लिए राजनीतिक वलय में जो चिंता है, उसका जायजा लिया जाना चाहिए। किसी भी बात के विरोध में राजनैतिक बंद संभवतः अब एक भोथरा हथियार है। गाँधी जी की नाफरमानी वाली बात को बंद का स्वरूप दे देना कितना गलत है, यह उन लोगों से पूछा जाए जो रोज मजूर है। एक दिन का बंद उनके पेट में एक अर्द्घचन्द्राकार खाली वृत्त बनाता है, जिसे भरने की चिंता कौन करेगा? अब आंदोलनों का स्वरूप बदलना चाहिए। जिस देश में अर्थनीति पूरे जीवन को ढाँपे हुए है, वहाँ रोज की रोजी-रोटी की कीमत पर कोई आंदोलन कहाँ तक उचित है? आंदोलन के स्वरूप को बदलते हुए अब जनचेतना के लिए महिलाएँ और पुरुष समान रूप से सड़कों पर उतरें, संयमित जुलूस निकालें, पूरे देश में ऐसे ही नाराजगी को लेकर एक पखवाड़ा चुना जाए। हमारी बात लगातार केंद्र सरकार के कानों में गूँजती रहे, ऐसा कोई तरीका ढूँढ़ लेना चाहिए। पोस्टकार्ड युद्घ शुरू करना चाहिए। यह सबसे सस्ता विरोध का उपाय है।
इसी बीच जाति के आधार पर जनगणना का मुद्दा बस्तर के हिमायतियों के जबड़ों में सुपारी की तरह फँसे हुए हैं। वे चबा रहे हैं और रस ले रहे हैं। जिस बात को लेकर साधारण जनता का मत लेना चाहिए, उस बात पर ये नेता अपने-अपने खेमे में पिंग-पांग खेल रहे हैं। बंद करो यह खेल और सार्थकता की ओर मुड़ो, अन्यथा जब जनता जागती है तो रोके नहीं सकती।
परितोष चक्रवर्ती

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