सोमवार, 21 जून 2010

एंडरसन को लिजलिजी व्यवस्था ने भगाया


डॉ. महेश परिमल
एंडरसन तो भोपाल में 15 हजार हत्याएँ करके 25 वर्ष पहले ही भाग गया। लोग बेवजह ही आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं। हर कोई अपने को बचाना चाहता है। हर कोई दूसरे को दागदार बनाना चाहता है। बचाने और बनाने के इस खेल में कोई यह सोचने को तैयार ही नहीं है कि आखिर एंडरसन को किसने भगाया? साफ जवाब है कि एंडरसन को देश की लिजलिजी व्यवस्था ने भगाया। उस व्यवस्था में सरकार किसी की भी होती, वही होता, जो व्यवस्था में है। कांग्रेस सरकार के समय एंडरसन भागा, तो भाजपा शासन में भी कट्टर आतंकवादी अजहर मसूद को छोड़ा गया। सभी यही कहेंगे कि नियम कायदे हालात तय करते हैं। उस समय जो हालात थे, उसके तहत एंडरसन को भगाना जरुरी था। उधर कांधार कांड के समय के हालात ऐसे थे कि अजहर मसूद को छोड़ना पड़ा। दोनोंे पार्टियों के अपने-अपने तर्क हैं। अपने-अपने आसमां हैं।
मामला एंडरसन का हो या फिर अजहर मसूद का। ऐसे वक्त पर सरकारें हमेशा निरीह ही हो जाती हैं। निरीह होना लाजिमी भी है, क्योंकि सभी सरकारों के स्वार्थ उससे जुड़े होते हैं। स्वार्थ लिप्सा में क्या-क्या नहीं हो जाता। एक भारतीय राजनयिक अपना धर्म बदलकर दूसरे देश के लिए काम करना शुरू कर देती है। सरकार को इसका पता बहुत बाद में चलता है। यह सब एक व्यवस्था के तहत होता है। इसी व्यवस्था में ही छिपा है अव्यवस्था का रहस्य। वास्तव में देखा जाए, तो अव्यवस्था इतनी अधिक व्यवस्थित है कि वह व्यवस्था को भी सरे आम सवालों के घेरे में खड़ा कर सकती है। एक व्यवस्था के तहत सरकार तैयार करती है, उसके लिए धन की व्यवस्था करती है, फिर वह एक अव्यवस्था के तहत वह धन उन सारे हाथों तक पहुँच जाता है, जो इस अव्यवस्था को चलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मुम्बई में टिफिन सही व्यक्ति तक पहुँचाना एक व्यवस्था है और सरकार का तमाम योजनाओं पर खर्च करने के बाद भी योजनाओं का पूरा न होना एक अव्यवस्था है। इसे कोई नहीं बदल सकता। क्योंकि सरकार पूरी तरह से निर्भर है, उन लोगों पर, जो अव्यवस्था की धुरी पर हैं।
अब सरकार ने एक बार फिर भोपाल गैस त्रासदी से जुड़े लोगों के लिए राहत का पैकेज जारी कर दिया है। जो भोपाल में रहते हैं, वे इसे अच्छी तरह से समझते हैं कि भोपाल गैसर राहत के धन ने कितने परिवारों को बरबाद कर दिया। देखते ही देखते भोपाल महँगे शहरों में शुमार हो गया। 25 बरस बाद भी आज तक कई गैस पीड़ित ऐसे हैं, जिन्हें मुआवजे के नाम पर कुछ भी नहीं मिला। इसके अलावा हजारों लोग ऐसे भी हैं, जो उस दिन शहर में थे ही नहीं, लेकिन उन्होंने मुआवजा प्राप्त किया। उनके बच्चों के नाम से मुआवजा प्राप्त किया। गैस कांड के बाद शहर में अपराध बढ़े, शराबखोरी बढ़ी, अनाप-शनाप खर्च करने वालों में वृद्धि हुई। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि मुआवजे की 80 प्रतिशत राशि बेकार गई। लोग उसका सदुपयोग नहीं कर पाए। यह सब एक अव्यवस्था के तहत ही हुआ।
सोमवार यानी 21 जून को मंत्रियों का दल किसे दोषी ठहराता है, किसे राजी करता है, यह देखना है। पर सबसे बड़ी बात यही है कि ये दल राजीव गांधीन को बचाने के लिए पूरी कोशिश करेगा। उन्हें दागदार नहीं बनने देगा। बाकी ठीकरा किसी पर भी फूटे। इस मामले में अजरुन सिंह की खामोशी पर सबकी निगाहें हैं। वे कुछ नहीं बोलेंगे। क्योंकि वे एक व्यवस्था से बँधे हैं। उनकी चुप्पी ही उनके लिए जीवनदान की तरह है। ये दल प्रधानमंत्री को अपनी रिपोर्ट देगा। इस रिपोर्ट में क्या-क्या होगा और क्या-क्या नहीं होगा, इसे सब जानते हैं। यह रिपोर्ट एक लीपापोती से अधिक कुछ नहीं होगी। रिपोर्ट में इसका जिक्र अवश्य होगा कि एंडरसन को किस तरह से भारत वापस लाया जाए। लेकिन यह भी तय है कि उसे वापस लाया जाना संभव नहीं है। उसकी जान एक बार बच गई है, अब वह मुआवजा राशि देकर बचना चाहेगा।
इस रिपोर्ट में यदि मंत्री प्रजा की परेशानियों को समझने की कोशिश करते दिखाई देंगे, तो इससे लाखों गैस पीड़ितों की आत्मा उन्हें धन्यवाद करेगी। लेकिन ऐसा होना संभव नहीं है, क्योंकि आम आदमी की तकलीफों को समझना वह भी बिना चुनाव के पहले, यह तो हमारे देश के नेताओं की फितरत में ही शामिल नहीं है। पिछले 60 साल में नहीं समझा, अब क्या खाक समझेंगे? मूर्खतापूर्ण बयान इन दिनों सामने आए हैं। एंडरसन को यदि नहीं भगाया जाता, तो भीड़ उन्हें मार डालती। भीड़ को उस वक्त अपनी जान बचानी थी। वह क्या किसी की जान लेती। फिर उसके सामने इतने सारे नेता थे, पुलिस थी, भीड़ ने तो किसी को नहीं मारा। जिसे अपनी जान की फिक्र होती है, वह वार नहीं करता, अपने आप को बचाता है। सरकार विमान में बैठने के बाद एंडरसन ने ऐसे ही नहीं कहा था कि ‘वेरी गुड गवर्नमेंट’। एक अव्यवस्था के तहत वह भागा, एक अव्यवस्था के तहत वह आज भी बचा हुआ है। सब कुछ व्यवस्था के तहत हो रहा है। इस व्यवस्था को ही बदलना चाहिए। हमारे नेता इसे कभी बदल नहीं सकते, क्योंकि वे भी उसी अव्यवस्था के एक अंग हैं। जब तक हमारे देश में आम आदमी का प्रतिनिधि वीआईपी होता रहेगा, तब तक इस व्यवस्था में सुधार संभव नहीं है। यह तय है।
डॉ. महेश परिमल

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