गुरुवार, 17 जून 2010

सरकार के हाथ से फिसल गई मुद्रास्फीति


डॉ. महेश परिमल
महंगाई ने एक बार फिर सर उठाया है। मुद्रास्फीति की दर पिछले दो वर्षो की तुलना में सबसे अधिक है। हमारे प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह एक अर्थशास्त्री हैं। इसके बाद भी वे विकास की बातें करते हुए थकते नहीं हैं। पर जब भी महँगाई की बात सामने आती है, तब वे खामोश रह जाते हैं। ऐसे में उनके भीतर का अर्थशास्त्री न जाने कहाँ दुबक जाता है। केंद्र सरकार कई मोर्चो पर विफल रही है। इसमें महँगाई पर किसी तरह का लगाम न लगा पाना सरकार की सबसे बड़ी विफलता है। प्रधानमंत्री बार-बार कहते हैं कि महँगाई पर शीघ्र ही अंकुश लगा लिया जाएगा। कुछ ही समय बाद इसका असर भी दिखाई देने लगेगा। पर आज जो कुछ भी हो रहा है, उससे लगता है कि हमारे प्रधानमंत्री केवल प्रधानमंत्री ही बनकर रह गए हैं। एक अर्थशास्त्री के रूप में उन्होंने अपनी पहचान खो दी है। अभी तक किसी भी मामले में उन्होंने कोई कड़े कदम उठाए हैं, ऐसा नहीं दिखता। उनके सारे निर्णय आयातित होते हैं। जिस पर केवल उनकी मुहर ही होती है। देश की जो आर्थिक नीतियाँ हैं, उससे अमीर और अमीर और गरीब और गरीब बनता जा रहा है। तमाम सरकारी प्रयास महँगाई पर काबू नहीं पा सके।
अभी पिछले सप्ताह ही प्रधानमंत्री ने यह कहा था कि अगले वर्ष विकास दर 8.5 प्रतिशत होगी, तब मुद्रास्फीति का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा था कि इस दिशा में कड़े कदम उठाए जाएँगे। ऐसा ही उन्होंने कई बार कहा है। हर बार कहते हैं। मुद्रास्फीति दर बढ़ती ही जा रही है। हमारे देश की यह खासियत है कि महँगाई के कारण कई आवश्यक चीजों की दामों में बेतहाशा वृद्धि होती है। जब सरकार कड़े कदम उठाने की बात करती है, तब भी दाम कम नहीं होते। हाँ सरकार आँकड़ों में महँगाई अवश्य कम होने लगती है। कई बार सीजन में भी चीजों के दाम घटने के संकेत दिए जाते हैं, पर जमीनी हकीकत कुछ और ही होती है। देश में जब भी पेट्रोलियम पदार्थो की कीमतों में वृद्धि होती है, महँगाई बढ़ जाती है। इसे रोकने के सारे प्रयास विफल होते हैं। साल भर में दालों और शक्कर की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि हुई है, सरकार के प्रयास काम नहीं आए।
सरकार ने जब चार जून को पेट्रोल-डीजल और रसोई गैस की कीमतों में इज़ाफा किया था, तो यह सहज रूप से माना जा रहा था कि मुद्रास्फीति घटने की जगह और बढ़ेगी। लेकिन वह इस तेजी से बढ़ेगी और सारे कयासों को हैरत में डालती एकाएक दहाई का आँकड़ा पार कर जाएगी, यह किसी के अनुमान में नहीं था। थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति सात जून को समाप्त सप्ताह में 11.05 प्रतिशत पर पहुँच गई, जबकि इससे पिछले सप्ताह यह 8.75 प्रतिशत थी। यह आंकड़ा स्पष्ट करता है कि मौजूदा समय में महँगाई पिछले 13 वषों के रिकार्ड स्तर पर है। सर्वाधिक बढ़ोत्तरी ईंधन और ऊर्जा समूह में दर्ज की गई है, जिसका सूचकांक पहले के मुकाबले 7.8 प्रतिशत उछला है। इस इजाफे का प्रभाव शेयर बाजार पर भी तत्काल हुआ है, जब इसकी घोषणा के साथ ही बम्बई शेयर बाजार का सेंसेक्स 517 अंकों तथा नेशनल स्टाक एक्सचेंज का निफ्टी 157 अंक लुढ़ककर इस वर्ष के न्यूनतम स्तर पर बंद हुआ। महँगाई दर के इस इजाफे के बारे में उद्योग चेम्बरों का कहना है कि मुद्रास्फीति संभवत सरकार के हाथ से बाहर जा चुकी है। उनका यह भी मानना है कि इसकी वजह से आर्थिक विकास दर में भी गिरावट आएगी।
मुद्रास्फीति में बढ़ोत्तरी का यह Rम हालाँकि मार्च महीने में सरकार के बजट पेश करने के बाद से ही लगातार जारी है, लेकिन एकाएक यह 2.03 प्रतिशत की छलांग लगा लेगी, इसका अनुमान सरकार के अर्थशास्त्रियों को कत्तई नहीं था। अगर बढ़ोत्तरी का यह Rम यथावत बना रहा, तो वैश्विक स्तर पर छलांग लगाती देश की अर्थव्यवस्था को भारी क्षति पहुँचेगी तथा विकास की सारी संकल्पनाएँ बीच रास्ते दम तोड़ देंगी। प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री सहित सारे व्यवस्थापक शुरू से एक ही राग अलाप रहे हैं कि सरकार बढ़ती महँगाई को नियंत्रित करने का हर स्तर पर प्रयास कर रही है। इसके अलावा रिजर्व बैंक द्वारा किए गए मौद्रिक उपाय भी कारगर परिणाम देते दिखाई नहीं देते। मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने की दृष्टि से उसने अपनी अल्पकालिक ऋण-दर (रेपोरेट) बढ़ाकर 8 प्रतिशत कर दी है। माना यह जा रहा है वह इसमें फिर बढ़ोत्तरी करेगा और जुलाई में यह दर 8.25 प्रतिशत हो सकती है। उसके इस प्रयास से ब्याज दरों में इजाफा होगा और उद्योग जगत को गंभीर धक्का लगेगा जिसकी वजह से आर्थिक विकास दर घटेगी।

अब यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं है कि महँगाई के शिखर छूते कदमों ने देश को एक अघोषित आर्थिक आपातकाल के गर्त में झोंक दिया है। इसकी बढ़ोत्तरी ने अब तक के स्थापित अर्थशास्त्र के नियमों को भी खारिज कर दिया है। अर्थशास्त्र की मान्यता है कि वस्तुओं के मूल्य का निर्धारण मांग और आपूर्ति के सिद्धांतों पर आधारित होता है। यानी जब बाजार में मांग के अनुपात में वस्तु की उपलब्धता अधिक होती है, तो उसके मूल्य कम होते हैं। वहीं जब बाजार में उस वस्तु की आपूर्ति कम होती है, तो उसके मूल्य बढ़ जाते हैं। लेकिन इस महँगाई पर यह नियम लागू नहीं होता। इसे आश्चर्यजनक ही माना जाएगा कि बाजार में वस्तुओं की उपलब्धता प्रचुर मात्रा में है। कोई भी व्यक्ति जितनी मात्रा में चाहे, बहुत आसानी से उतनी मात्रा में खरीदी कर सकता है। फिर भी उनके दाम लगातार बढ़ रहे हैं। इससे यह निष्कर्ष तो निकलता ही है कि वस्तुओं की उपलब्धता कहीं से बाधित नहीं है। अतएव बढ़ती महँगाई की जिम्मेदार कुछ अन्य ताकतें हो सकती हैं, जिनकी ओर हमारे सरकारी व्यवस्थापकों का ध्यान नहीं जा रहा है। होने को तो यह भी हो सकता है कि उदारीकरण के वरदान से पैदा हुए इन भस्मासुरों की ताकत अब वर-दाताओं के मुकाबले बहुत अधिक हो चुकी हो और उस ताकत के आगे वे अपने को निरुपाय तथा असहाय महसूस कर रहे हों। सच तो यह है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सिंडिकेट के हाथों अब पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था है और वे अंधाधुंध मुनाफा कमाने की गरज से विभिन्न उत्पादों के दामों में इजाफा करते रहते हैं।
जो भी हो, लेकिन इतना तय है कि बढ़ती महँगाई ने गरीब तबके, निम्न मध्यवर्ग और निश्चित आय वर्ग के लोगों के सामने एक अभूतपूर्व संकट खड़ा कर दिया है। विडम्बना यह है कि इस संकट का आर्थिक समाधान तलाश करने की जगह इसको भी राजनीति के गलियारे में घसीटा जा रहा है। इससे कतिपय राजनीतिक लाभ तो अर्जित किया जा सकता है, लेकिन देश के आम आदमी को राहत तो कतई नहीं दी जा सकती। सरकार अगर यह कहती है कि महँगाई वैश्विक कारणों से बढ़ रही है तो वह गलत नहीं कह रही है। गलत केवल इतना है कि वैश्वीकरण के नशे में इस सरकार ने नहीं, अपितु इसके पहले की कई सरकारों ने हमारी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को मुनाफाखोर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों बेच दिया। वैश्वीकरण का विरोध नहीं किया जा सकता, लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि यह राष्ट्रीय अर्थशास्त्र के मूल्य पर नहीं होना चाहिए। फिलहाल बढ़ती महँगाई ने आम आदमी को अपने कूर पंजों में दबोच लिया है। उसे मुक्त कराने के लिए राजनीति नहीं एक विशुद्ध देसी अर्थशास्त्र की जरूरत है।
डॉ. महेश परिमल

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