शनिवार, 15 मई 2010

जीभ फिसलने का मौसम आया


डॉ. महेश परिमल
इंसान जब गुस्से में होता है, तब जीभ उसका साथ छोड़ देती है। कई बार यही जीभ फिसल जाती है। इसका फिसलना कई बार विवादों को जन्म देता है। विवाद यदि राजनीतिक हों, तो उसे खूब पकाया जाता है। इन दिनों भारतीय राजनीतिज्ञों की जीभ अधिक फिसल रही है। भाजपाध्यक्ष नीतिन गडकरी की जीभ क्या फिसली, हाशिए पर चले गए लालू और मुलायम यादव को मानो एक मुद्दा ही मिल गया। अब लालू कहते हैं कि गडकरी कान पकड़कर माफी माँगें और मुलायम तो अदालत की शरण में जाने की बात कह रहे हैं।
राजनेताओं की बेबाक टिप्पणी सदा ही चर्चित रही है। १३ मई को ही मध्यप्रदेश विधानसभा में ऐसी टिप्पणी की गई कि विधानसभा अध्यक्ष ईश्वरदास रोहाणी रो पड़े। उधर नीतिन गडकरी को अब लग रहा है कि उन्होंने जिस मुहावरे का प्रयोग किया, उसका गलत अर्थ निकल गया। अब माफी के सिवाय दूसरा कोई चारा नहीं है। पर चारा के नाम से ही दागदार बने लालू यादव तो बिफर ही गए। यह भी सच है कि कई बार वरिष्ठ नेताओं के लिए उन्होंने भी बहुत-कुछ गलत कहा है। पर अब वे सब कुछ भूलकर भाजपाध्यक्ष के पीछे हाथ धोकर पड़ गए हैं। वैसे भी लालू यादव ही नहीं, बल्कि अमर सिंह, मुलायम यादव, ममता बनर्जी, मायावती आदि सब अपनी बेबाक टिप्पणी के कारण देश में पहचाने जाने हैं। फिर भी इसकी वाणी इतनी संयत तो है ही कि अपशब्द की सीमा पर नहीं पहुँचती। कई बार ये सभी इतने आक्रामक हो जाते हैं कि लगता है अब ये फट ही पड़ेंगे। पर कुछ देर बाद सब कुछ सामान्य हो जाता है।
शशि थरुर, जयराम रमेश की जीभ भी फिसल चुकी है। जयराम रमेश को इसके लिए प्रधानमंत्री ने लताड़ भी लगाई। शशि थरुर भी अपने विवादास्पद बयानों के लिए पहले काफी चर्चित हो चुके हैं। आईपीएल की जो पोल खुली, उसमें शशि थरुर की यही बयानबाजी ही काम आई। न ललित मोदी उनसे पंगा लेते, न कोई बात सामने आती। वाणी में संयम जहाँ खो जाता है, वहीं से शुरू होता है विवाद। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भी जब कोई तीखी टिप्पणी करते हैं, तब सामने वाला जल-भुन जाता है। पर मोदी अपनी वाणी पर इतना अधिक नियंत्रण रखते हैं कि जीभ फिसलती नहीं। शब्दों को कटार के रूप में इस्तेमाल करना कोई नरेंद्र मोदी से सीखे। पर हमारे नेताओं को कौन समझाए? आज जो भाजपाध्यक्ष के खिलाफ मोर्चा खोल रहे हैं, उनकी वाणी भी संयत नहीं है। वे भी खूब बोलते हैं। पर उनकी बातों का अर्थ वह नहीं निकलता, जो वे चाहते हैं। बड़ी सफाई से ये लोग उसे मीडिया पर दोष देकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैँ। आज जिस तरह से संसद में मारा-मारी के दृश्य आम हो गए हैं, उसी तरह ये अपशब्द की संस्कृति कहीं नेताओं का स्थायी भाव न बन जाए। इसका सबको खयाल रखना होगा।
याद कीजिए, जब राम जेठमलानी भाजपा में थे, तब उन्होंने बोफोर्स कांड पर राजीव गांधी से रोज दस सवाल पूछने का सिलसिला शुरू किया था। कई दिनों तक यह सिलसिला चलता रहा, पर राजीव गांधी ने कभी इसका जवाब नहीं दिया। जब लोगों ने पूछा, तो राजीव जी ने यही कहा कि कुत्ते भौंकते ही रहते हैं। तब शायद उनकी इस बात को किसी ने गंभीरता से नहीं लिया था। पर आज जो शब्द भाजपाध्यक्ष के माध्यम से सामने आया, तो कई लोगों की बेरोजगारी अचानक ही खत्म हो गई।
जीभ के सहयोग से मुँह से शब्द निकल गया यानी तीर हाथ से निकल गया। यह तो सब जानते हैं, पर कई बार ऐसी स्थिति भी आती है, विशेषकर संसद में, जब एक नेता दूसरे के सामने आवाज तो नहीं निकालता, पर ओठों को मोड़कर कुछ ऐसा अभिनय करता है, जिससे साफ पता चलता है कि वह गाली दे रहा है। पर चूँकि उस समय आवाज नहीं होती, इसलिए कुछ कहना मुश्किल है सामने वाला क्या कह रहा है? कुछ संस्कृतप्रेमी तो कह देते हैं - वराह पुत्र अंजुलिभर जल में निमग्न हो जा। अब इसका अर्थ वह कितने दिनों में समझेगा? यह कहना मुश्किल है? कई बार ऐसी भी स्थिति आती है, जब अच्छे संस्कारी शब्द भी किसी को गाली लगते हैं। वाहन के सामने आने वाले व्यक्ति से कहा गया- महापुरुष जरा हटेंगे! तो व्यक्ति का जवाब था- हट तो रहे हैं, पर गाली क्यों दे रहे हैं? उस महाशय से सपने में भी नहीं सोचा होगा कि कोई उन्हें महापुरुष कहेगा। यह अप्रचलित शब्द उसे किसी गाली से कम नहीं लगा। अब भला इसे क्या कहा जाए? शब्दों की अपनी सीमा होती है। कई बार ये ऐसे लगते हैं किे साधारण प्रेमी तुलसीदास बन जाता है। कई बार गंभीर घाव कर जाते हैं।
डॉ. महेश परिमल

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