सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

ग्लोबल स्टार बन गए शाहरुख


डॉ. महेश परिमल
इन दिनों पूरे देश ही नहीं, बल्कि विश्व में यदि केवल चर्चा है, तो केवल शाहरुख खान की। आखिर हो भी क्यों न? यही तो एक ऐसा सितारा है, जिसने बर्र के छत्ते पर हाथ डाला है। वह भी पूरी शिद्दत के साथ। उन शक्तियों के खिलाफ उसने आवाज उठाई है, जो अपनी संकीर्ण मानसिकता के कारण ही पहचानी जाती है। जिनका अस्तित्व एक छोटे से द्वीप की तरह ही है। यही नहीं, इन्हें मुगालता है कि हमारे कहने मात्र से ही दुनिया चलती है। अच्छा भी है इनका यह मुगालता बना रहे, क्योंकि जिस दिन यह भ्रम टूटेगा, ये जी भी नहीं पाएँगे। अब इन्हीं के न जीने की परिस्थितियाँ बन रहीं हैं। आम जनता को यह पता चल गया है कि उनके मनोरंजन में यदि स्वार्थी राजनीति को डाला गया, तो यह उन्हें कतई मंजूर नहीं।
आप सोच भी सकते हैं कि बर्लिन में जिन्होंने माय नेम इज खान की टिकट 60 हजार रुपए में खरीदी हो, वह भला ऐसी क्षुद्र राजनीति का हिस्सा बन सकता है? अपनी फिल्म के प्रमोशन के लिए शाहरुख जब बर्लिन में थे, तो कई ऐसे दृश्य सामने आए, जिससे लगता है कि अब उन्हें किंग खान के बजाए ग्लोबल स्टॉर कहा जाए, तो अतिशयोक्ति न होगी। वहाँ शाहरुख के ऐसे दीवाने मिले, जिनके बारे में सोचा ही नहीं जा सकता। युवतियाँ तो शाहरुख की फिल्मों के गीत गा रहीं थी। विदेशी जबान से हिंदी गीत सुनना कितना अच्छा लगता होगा? यही नहीं, 50 लोगों का एक दल विएना से बर्लिन पहुँचा था, इन लोगों का कहना था कि हम शाहरुख की फिल्म देखने के लिए कहीं भी जा सकते हैं। ऐसी दीवानगी एक अभिनेता शाहरुख के लिए नहीं, बल्कि एक ऐसे सुलझे हुए कलाकार के प्रति है, जो उन छद्म शक्तियों को अच्छी तरह से पहचानता है। उसे यह अच्छी तरह से पता है कि सच्चे देशवासी बनने का नारा लगाने से कोई सच्च राष्ट्रभक्त नहीं हो जाता। इसके लिए सच्च भारतीय बनना पड़ता है। सच्च भारतीय वही हो सकता है, जिसके दिल में सभी के लिए प्यार हो। यही शाहरुख है, जो एक तरफ दिन में पाँच बार नमाज अदा करता है, तो दूसरी तरफ अपने घर पर गणपति की स्थापना करता है। नवरात्रि में माँ दुर्गा की आराधना करता है। यह सब कुछ करने में उसे गर्व होता है। वह इसे छद्म राजनीति का हिस्सा नहीं मानता। पाकिस्तानी Rिकेट खिलाड़ियों को वह अपनी टीम में लेना चाहते थे, लेकिन ले नहीं पाए। अपनी इस बात पर वे आज भी कायम हैं। वे कहते हैं कि उन्होंने कुछ भी गलत नहीं कहा। जो कह दिया, उसके लिए माफी क्यों माँगें? माफी के लायक उन्होंने कुछ भी ऐसा कहा ही नहीं है।
असल में इन छद्म शक्तियों को अपनी कुर्सी हिलती दिखाई दे रही है। अपना जनाधार खो रहे हैं, वे लोग। अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए वे कुछ ऐसा कर रहे हैं, जिससे उन्हें मीडिया हाथो-हाथ ले। मीडिया के पास भी ऐसा कोई मसाला नहीं है, जिससे वे अपनी टीआरपी बढ़ाएँ। बस जो कुछ सामना में छपा, उसे ही इशु बनाकर पेश कर दिया। दो साल बाद मुंबई में पालिका चुनाव हैं, उसमें अपने आधार को बनाए रखने के लिए कुछ मुद्दे चाहिए, जिसे वे अभी से भुनाना चाहते हैं। आज जो प्रांतवाद का नारा दिया जा रहा है, तो फिर वे अपने यहाँ काम करने वाले उत्तर प्रदेश या बिहार के मजदूरों को बाहर क्यों नहीं कर देते। आखिर वे भी तो एक बिल्डर हैं, अपने यहाँ परप्रांतीय मजदूरों को क्यों रखा है? अपने मराठी मानुष को ही रख लेते। इसके बाद यदि बहुत सारे मकान बना भी लिए, तो भी प्रांतवाद आड़े नहीं आता। सभी वर्ग के लिए, जो धनिक हैं, वे उनके बनाए हुए लैट खरीद सकते हैं। यहाँ पर उन लैट्स पर मराठी मानुष का ही कब्जा क्यों नहीं होता? चूँकि परप्रांतीय को कम मजदूरी देकर अधिक काम लिया जा सकता है और धनिक वर्ग से अधिक धन लेकर लैट दिए जा सकते हैं, इसलिए प्रांतवाद आड़े नहीं आता। यह कैसा न्याय? अपने खिसकते हुए जनाधार को वे राहुल गांधी की यात्रा के बाद समझ भी गए थे, पर हमारे कृषि मंत्री ने उनके चरणों में लोटकर उन्हें यह अहसास दिलाया कि वे आज भी मुंबई के परमपिता परमेश्वर हैं। बस यही मुगालता उन्हें शाहरुख के बयान पर आपत्ति दर्ज करने का समय दे गया। वे बिफर गए। बात बिगड़ गई। तीर हाथ से छूट गया।
एक आम आदमी बनकर राहुल ने बाल ठाकरे की चुनौती का मुँहतोड़ जवाब दे दिया, अब शाहरुख की फिल्म में अपनी दिलचस्पी दिखाकर जनता ने बाल ठाकरे के मुँह पर हाऊसफुल का तमाचा मारा है। क्या इसका दर्द सह पाएँगे? अब भी समय है, उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि क्षुद्र राजनीति से जनता का भला नहीं होने वाला। वे कुछ ऐसा भी करें, जिससे आम जनता को लाभ हो। अपनी सत्ता अलग बनाने के चक्कर में वे किस तरह से अपनों से ही दूर हो जाते हैं, यह उन्हें अब पता चल गया होगा। रही बात शाहरुख की, तो पूरी फिल्मी दुनिया में वे एक ऐसे ताकतवर इंसान के रूप में उभरे हैं, जो अपनी बात पर अड़ना भी जानता है। इस घटना ने शाहरुख की लोकप्रियता को और भी बढ़ाया है। इसे लोग शाहरुख का स्टंट कह सकते हैं, लेकिन ऐसे स्टंट के लिए हिम्मत चाहिए, जो उनमें है। क्या ऐसी हिम्मत मायानगरी के दूसरे कलाकारों में है? क्या हमारे देश के राजनेताओं में है? अपनी इस दृढ़ता से शाहरुख ने बता दिया कि महानायक होना बड़ी बात नहीं है, बल्कि महानायक बने रहना बड़ी बात है? माफी माँगने से कोई छोटा नहीं हो जाता है, यह सच है, लेकिन माफी उनसे माँगी जाए, जिनके दिल बड़े हों। जो माफी का अर्थ समझते हों। हर किसी से माफी मँगवाने का शौक महँगा भी साबित हो सकता है।
देश को आज शाहरुख जैसी दृढ़ता की आवश्यकता है। स्वार्थ की राजनीति से ऊपर उठकर देश की समस्याओं को देखने की आवश्यकता है। वे महानायक को अपनी तरह का बना सकते हैं, पर महानगर को अपनी तरह का नहीं बना सकते। महानायक की विवशता हो सकती है, पर महानगर कई रंगों और कई संस्कृतियों का मिला-जुला रूप होता है। इसे अपना बनाने के लिए अपनों की तरह व्यवहार करना चाहिए। बहुत सारे चापलूसों के बीच घिरे रहने वाले आज भले ही यह सोच लें कि वे एक महानगर के पोषक हैं, तो यह उनकी भूल है। इसी महानगर के लोगों ने बता दिया कि उन्हें राजनीति नहीं, बल्कि मनोरंजन चाहिए। मनोरंजन में बाधक तत्वों को एक जुनून की तरह से उखाड़ फेंका जाएगा। कुछ भी हो, पर इस सच से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि फिल्म ‘माय नेम इज खान’ के पहले हुए इस विवाद ने शाहरुख खान को एक ग्लोबल सितारा बना दिया है। महानायक भी इस सितारे के आगे बौना दिखाई देता है।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

ऐसी पाबंदी भला किस काम की


प्लास्टिक के दुष्प्रभावों को देखते हुए कई राज्य सरकारों ने पालीबेग के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी है लेकिन कई उद्योग इसके स्थान पर अपने उत्पादों के लिए प्लास्टिक पाउच का इस्तेमाल करने लगे हैें. जिससे समस्या खत्म होने के स्थान पर गंभीर होती जा रही है। बच्चों और बडों के लगभग सभी उत्पाद प्लास्टिक पाउच की पै¨कग में उपलब्ध हैं। देखा जाए तो हमारी दिनचर्या प्लास्टिक से शुर होकर प्लास्टिक पर ही खत्म हो रही है। कम्पनियां दूध, ब्रेड, चाय, बिस्कुट आदि की पैेकें¨जग के लिए प्लास्टिक पाउच का धडल्ले से इस्तेमाल कर रही हैं।
खाद्य पदार्र्थो आदि की प्लास्टिक पाउच पैके¨जग मौजूदा पालिथीन कानून का मजाक उठाती दिखाई दे रही हैं। कंपनियों और उद्योगों को प्लास्टिक पाउच पै¨कग की छूट मिली हुई है । शायद इसीलिए आम आदमी इस कानून का पालन नहीं कर पा रहा है। हालत यह है कि बच्चों के उत्पादों की पैके¨जग में १क् या १५ ग्राम सामान के लिए चार से पांच सौ ग्राम के पाउच का इस्तेमाल किया जाता है । इससे समस्या और विकट होती जा रही है। देखा जाए तो बच्चों के लिए खाद्य उत्पाद बनाने वाली कंपनियां और गुटका तथा तंबाकू उद्योग प्लास्टिक पाउच का सबसे अधिक इस्तेमाल कर रहे हैं। जरूरत इस बात की है कि कंपनियां पहल करके अपने उत्पादों की पैके¨जग को पूरी तरह प्लास्टिक मुक्त बनाएं. लेकिन लगता है कि कंपनियों के लिए इस संदर्भ में कानून नहीं है। इसकी वजह से वे विकल्पों का इस्तेमाल नहीं कर पा रही हैं। प्लास्टिक् पाउच के विकल्प के तौर पर तंबाकू उत्पादक एल्यूमीनियम पेपर और सिगरेट की पैके¨जग जैसे पेपर बाक्स का इस्तेमाल कर सकते हैं। उल्लेखनीय है कि केन्द्र सरकार ने २क् माइक्रोन से अधिक मोटी पालिथीन के इस्तेमाल को प्रतिबंधित कर दिया है और इसके तहत नवीन पालिथीन इकाइयों के लिए प्रदूषण नियंत्नण समिति में पंजीकरण कराना अनिवार्य कर दिया है। उसने इसके लिए कुछ मापदंड भी निर्धारित किए हैं लेकिन प्लास्टिक पाउच को इससे बाहर रखा गया है. जो सबसे अधिक प्रयोग में लाया जा रहा है। आमतौर पर देखा गया कि प्लास्टिक बैग के इस्तेमाल को लेकर हमारी लापरवाही ही समस्या का कारण बनती है। मसलन स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतें। नाले.नालियों तथा सीवर के जाम का प्रमुख कारण पालिथीन पाउच हैं। इतना सब कुछ जान.जानवरों के लिए भी घातक हैं। जानवर इनमें रखकर फेंके गए खाद्य पदार्थो के साथ पालिथीन भी निगल जाते हैं जो उनकी मौत का करण भी बन जाती है। पालिथीन के अत्यधिक प्रयोग ने पर्यावरण प्रभावित किया है जबकि इसके इस्तेमाल पर पर्यावरण संरक्षण कानून १९८६ के तहत दंड का प्रावधान भी है। यहां देखा जाये तो दोष सरकारी नीतियों का भी है, जिसकी वजह से आम जनता के साथ व्यापारी भी परेशान है। पालीबैग का विकल्प न उपलब्ध करा पाने से समस्या जस की तस बनी हुई है। जूट के बैग. कपड़ा मिलों द्वारा निकलने वाले कपडे के कट पीस से बने थैले. कागज के लिफाफे, एलुमिनियम पेपर और पेपर बाक्स का उपयोग करके पालिथहन के इस्तेमाल को रोका जा सकता है।
पालिथीन पर प्रतिबंध के बावजूद भी इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है। बहाना है. वैकल्पिक साधन का। जबकि गत वैकल्पिक साधन भी उपलब्ध हैं पर यह अपेक्षाकृत कम टिकाऊ हैं और अधिक महंगे पडते हैं। रही प्लास्टिक कचरे के निबटाने की समस्या के लिए सरकार को रि साइक¨लग प्लास्टिक को सड़कों के निर्माण में प्रयोग करना लाजमी बनाया जाना चाहिए जिससे इसका निदान संभव हो सकते है। कानून को सख्ती से अमल में लाकर पाउच पै¨कग को प्रतिबंधित किया जाना नितांत आवश्यक हो गया है ।इसका उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कडी कार्रवाई की जानी चाहिए। इसके लिए नगर निगम को आगे आने की आवश्यकता है। एक अनुमान के अनुसार एक ाहर में प्रतिदिन लगभग ३क् टन प्लास्टिक कचरे के रप में आता है। प्लास्टिक कचरे के निबटान की समस्या के लिए सरकार को रि साइ¨क¨लग प्लास्टिक को सड़कों के निर्माण में प्रयोग करना लाजमी बनाया जाना चाहिए। रही विकल्प की बात तो कुछ चीजों की पैक¨जग के लिए एलुमिनियम पेपर, एलुमिनियम बाक्स और मक्का से तैयार प्राकृतिक प्लास्टिक के पालिथीन भी जल्द ही बाजार में आने वाली है. जो जल्द ही नष्ट हो सकते है और परिणाम को नुकसान भी नहीं पहुंचाते हैं। सरकार की सुस्ती के कारण ही प्लास्टिक बैग पर पूर्ण प्रतिबंध के बावजूद इसका प्रयोग बदस्तूर जारी है। प्लास्टिक बैग के संदर्भ में न्यायालय और सरकार के फैसले को अच्छा तो सभी बताते हैं, पर उस पर अमल नहीं करना चाहते। क्योंकि इसके लिए चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। मनुष्य की मानसिकता है जब तक हो सके चुनौती से बचा जाए, केवल संकट के समय ही चुनौतियों का सामना किया जाए।

बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

हमारी संसद



संसद भवन संपदा के अंतर्गत संसद भवन, स्वागत कार्यालय भवन, संसदीय ज्ञानपीठ (संसद ग्रंथालय भवन) संसदीय सौध और इसके आस-पास के विस्तृत लॉन, जहां फव्वारे वाले तालाब हैं, शामिल हैं । संसद के सत्रों के दौरान और अन्य महत्वपूर्ण अवसरों पर भवन में महत्वपूर्ण स्थलों को विशेष रूप से पुष्पों से सुसज्जित किया जाता है । विद्यमान व्यवस्था के अनुसार संपूर्ण संसद भवन संपदा और विशेषकर दोनों सभाओं के चैम्बर्स में पूरे वर्ष कड़ी सुरक्षा रहती है । संपूर्ण संसद भवन संपदा सजावटी लाल पत्थर की दीवार या लोहे की जालियों से घिरा है तथा लौह द्वारों को आवश्यकता पड़ने पर बंद किया जा सकता है । संसद भवन संपदा से होकर गुजरने वाले पहुंच मार्ग संपदा का हिस्सा है और उनका उपयोग आम रास्ते के रूप में करने की अनुमति नहीं है । संसद भवन , नई दिल्ली स्थित सर्वाधिक भव्य भवनों में से एक है, जहाँ विश्व में किसी भी देश में मौजूद वास्तुकला के उत्कृष्ट नमूनों की उज्ज्वल छवि मिलती है । राजधानी में आने वाले भ्रमणार्थी इस भवन को देखने जरूर आते हैं जैसाकि संसद के दोनों सभाएं लोक सभा और राज्य सभा इसी भवन के अहाते में स्थित हैं । भवन का निर्माण इस भवन की अभिकल्पना दो मशहूर वास्तुकारों - सर एडविन लुटय़न्स और सर हर्बर्ट बेकर ने तैयार की थी जो नई दिल्ली की आयोजना और निर्माण के लिए उत्तरदायी थे । संसद भवन की आधारशिला 12 फरवरी, 1921 को महामहिम द डय़ूक ऑफ कनाट ने रखी थी । इस भवन के निर्माण में छह वर्ष लगे और इसका उद्घाटन समारोह भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड इर्विन ने 18 जनवरी, 1927 को आयोजित किया । इसके निर्माण पर 83 लाख रूपये की लागत आई । भवन का आकारसंसद भवन एक विशाल वृत्ताकार भवन है जिसका व्यास 560 फुट (170.69 मीटर) है और इसकी परिधि एक मील की एक तिहाई 536.33 मीटर है तथा यह लगभग छह एकड़ (24281.16 वर्ग मीटर) क्षेत्रफल में फैला हुआ है । इसके प्रथम तल पर खुले बरामदे के किनारे-किनारे क्रीम रंग के बालुई पत्थर के 144 स्तंभ हैं और प्रत्येक स्तंभ की ऊंचाई 27 फुट (8.23 मीटर) है । भवन के 12 द्वार हैं जिनमें से संसद मार्ग पर स्थित द्वारा सं0 1 मुख्य द्वार है । वास्तु अभिकल्पना इस तथ्य के बावजूद कि भवन का निर्माण स्वदेशी सामग्री से और भारतीय श्रमिकों द्वारा किया गया है, भवन के वास्तुशिल्प में भारतीय परंपरा की गहरी छाप मिलती है । भवन के भीतर और बाहर फव्वारों की बनावट, भारतीय प्रतीकों " छज्जों " के प्रयोग जो दीवारों और खिड़कियों पर छाया का काम करते हैं और संगमरमर से बनी तरह-तरह की "जाली " प्राचीन इमारतों और स्मारकों में झलकते शिल्प कौशल का स्मरण कराते हैं । इसमें भारतीय कला की प्राचीन विशेषताओं के साथ ध्वनि व्यवस्था, वातानुकूलन, साथ-साथ भाषांतरण और स्वचालित मतदान आदि जैसी आधुनिक वैज्ञानिक उपलब्धियां शामिल हैं । भवन की सामान्य रूपरेखा भवन का केन्द्रीय तथा प्रमुख भाग उसका विशाल वृत्ताकार केन्द्रीय कक्ष है । इसके तीन ओर तीन कक्ष लोक सभा, राज्य सभा और पूर्ववर्ती ग्रंथालय कक्ष (जिसे पहले प्रिंसेस चैम्बर कहा जाता था) हैं और इनके मध्य उद्यान प्रांगण है । इन तीनों कक्षों के चारों ओर एक चार मंजिला वृत्ताकार भवन है, जिसमें मंत्रियों, संसदीय समितियों के सभापतियों के कक्ष, दलों के कार्यालय, लोक सभा तथा राज्य सभा सचिवालयों के महत्वपूर्ण कार्यालय और साथ ही संसदीय कार्य मंत्रालय के कार्यालय हैं । प्रथम तल पर तीन समिति कक्ष संसदीय समितियों की बैठकों के लिए प्रयोग किए जाते हैं । इसी तल पर तीन अन्य कक्षों का प्रयोग प्रेस संवाददाता करते हैं जो लोक सभा और राज्य सभा की प्रेस दीर्घाओं में आते हैं । भवन में छह लिफ्ट प्रचालनरत हैं जो कक्षों के प्रवेशद्वारों के दोनों ओर एक-एक हैं । केन्द्रीय कक्ष शीतल वायुयुक्त है और कक्ष (चैम्बर) वातानुकूलित हैं । भवन के भूमि तल पर गलियारे की बाहरी दीवार प्राचीन भारत के इतिहास और अपने पड़ोसी देशों से भारत के सांस्कृतिक संबंधों को दर्शाने वाली चित्रमालाओं से सुसज्जित है । संसद भवन परिसर में प्रतिमाएं और आवक्षमूर्तियांसंसद भवन परिसर हमारे संसदीय लोकतंत्र के प्रादुर्भाव का साक्षी रहा है । संसद भवन परिसर में हमारे इतिहास की उन निम्नलिखित विभूतियों की प्रतिमाएं और आवक्षमूर्तियां हैं जिन्होंने राष्ट्र हित के लिए महान योगदान दिया है (एक) चन्द्रगुप्त मौर्य (दो) पंडित मोतीलाल नेहरू (तीन) गोपाल कृष्ण गोखले (चार) डा0 भीम राव अम्बेडकर (पांच) श्री अरबिन्द घोष (छह) महात्मा गाँधी (सात) वाई.बी. चव्हाण (आठ) पंडित जवाहर लाल नेहरू (नौ) पंडित गोविन्द वल्लभ पन्त (दस) बाबू जगजीवन राम (ग्यारह) पंडित रवि शंकर शुक्ल (बारह) श्रीमती इंदिरा गांधी (तेरह) मौलाना अबुल कलाम आजाद (चौदह) नेताजी सुभाष चन्द्र बोस (पन्द्रह) के. कामराज (सोलह) प्रो0 एन.जी. रंगा (सत्रह) सरदार पटेल (अठारह) बिरसा मुण्डा (उन्नीस) आंध्र केसरी तंगुतुरी प्रकाशम (बीस) जयप्रकाश नारायण (इक्कीस) एस. सत्यमूर्ति (बाईस) सी.एन. अन्नादुरै (तेइस) लोकप्रिय गोपीनाथ बारदोली (चौबीस) पी. मुथुरामालिंगा थेवर (पच्चीस) छत्रपति शिवाजी महाराज (छब्बीस) महात्मा बसवेश्वर (सत्ताइस) महाराजा रणजीत सिंह (अठाइस) शहीद हेमू कलानी (उनतीस) चौधरी देवी लाल (तीस) महात्मा ज्योतिराव फुले केन्द्रीय कक्षकेन्द्रीय कक्ष गोलाकार है और इसका गुम्बद जिसका व्यास 98 फुट (29.87 मीटर) है, को विश्व के भव्यतम गुम्बदों में से एक माना जाता है । केन्द्रीय कक्ष ऐतिहासिक महत्व का स्थान है । 15 अगस्त, 1947 को ब्रिटिश शासन द्वारा भारत को सत्ता का हस्तान्तरण इसी कक्ष में हुआ था । भारतीय संविधान की रचना भी केन्द्रीय कक्ष में ही हुई थी । शुरू में केन्द्रीय कक्ष का उपयोग पूर्ववर्ती केन्द्रीय विधान सभा और राज्य सभा के ग्रन्थागार के रूप में किया जाता था । 1946 में इसका स्वरूप परिवर्तित कर इसे संविधान सभा कक्ष में बदल दिया गया । 9 दिसम्बर, 1946 से 24 जनवरी, 1950 तक वहां संविधान सभा की बैठकें हुईं । वर्तमान में, केन्द्रीय कक्ष का उपयोग दोनों सभाओं की संयुक्त बैठकें आयोजित करने के लिए किया जाता है । लोक सभा के प्रत्येक आम चुनाव के बाद प्रथम सत्र के आरंभ होने पर और प्रत्येक वर्ष पहला सत्र आरंभ होने पर राष्ट्रपति केंद्रीय कक्ष में समवेत संसद की दोनों सभाओं को संबोधित करते हैं । जब दोनों सभाओं का सत्र चल रहा हो, केन्द्रीय कक्ष का उपयोग सदस्यों द्वारा आपस में अनौपचारिक बातें करने के लिए किया जाता है । केन्द्रीय कक्ष का उपयोग विदेशी गण्यमान्य राष्ट्राध्यक्षों द्वारा संसद सदस्यों को संबोधन के लिए भी किया जाता है । कक्ष में समानांतर भाषान्तरण प्रणाली की सुविधा भी उपलब्ध है । मंच के ऊपर मेहराब में महात्मा गांधी का चित्र लगा हुआ है जिसकी नक्काशी सर ओस्वाल्ड बर्ले द्वारा की गयी थी और जिसे भारतीय संविधान सभा के एक सदस्य श्री ए.पी. पट्टानी द्वारा राष्ट्र को उपहार स्वरूप दिया गया था । मंच के बायीं तथा दायीं ओर दीवार और मेहराबों पर निम्नलिखित गण्यमान्य राष्ट्रीय नेताओं के चित्र लगे हुए हैं :- (एक) मदन मोहन मालवीय (दो) दादाभाई नौरोजी (तीन) लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक (चार) लाला लाजपत राय (पांच) मोतीलाल नेहरू (छह) सरदार वल्लभभाई पटेल (सात) देशबंधु चित्तरंजन दास (आठ) रवीन्द्रनाथ टैगोर (नौ) श्रीमती सरोजनी नायडू (दस) मौलाना अबुल कलाम आजाद (ग्यारह) डा0 राजेन्द्र प्रसाद (बारह) जवाहरलाल नेहरू (तेरह) सुभाष चन्द्र बोस (चौदह) सी0 राजगोपालाचारी (पन्द्रह) श्रीमती इन्दिरा गाँधी (सोलह) डा0 बी.आर. अम्बेडकर (सत्रह) डा0 राम मनोहर लोहिया (अठारह) डा0 श्यामा प्रसाद मुखर्जी (उन्नीस) राजीव गाँधी (बीस) लाल बहादुर शास्त्री (इक्कीस) चौधरी चरण सिंह (बाईस) मोरारजी देसाई (तेईस) स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर कक्ष की दीवार पर अविभाजित भारत के 12 प्रांतों को दर्शाते हुए 12 स्वर्ण रंजित प्रतीक भी लगे हैं । केन्द्रीय कक्ष के चारों तरफ छह लॉबी हैं जहां गलीचे लगे हैं और वे सुसज्जित हैं । एक लाउंज केवल महिला सदस्यों के अनन्य उपयोग के लिए, एक प्राथमिक उपचार केन्द्र के लिए, एक लोक सभा के सभापति पैनल के लिए तथा एक संसद सदस्यों के लिए कंप्यूटर पूछताछ बूथ के लिए आरक्षित है । केन्द्रीय कक्ष की पहली मंजिल पर छह दीर्घाएं हैं । जब दोनों सभाओं की संयुक्त बैठकें होती हैं तो मंच के दायीं ओर की दो दीर्घाओं में प्रेस संवाददाता बैठते हैं, मंच के सामने की दीर्घा विशिष्ट दर्शकों के लिए रखी जाती है और बाकी तीन दीर्घाओं में दोनों सभाओं के सदस्यों के अतिथि बैठते हैं । लोक सभा कक्ष (चैम्बर)लोक सभा कक्ष का आकार अर्द्ध-वृत्ताकार है जिसका फ्लोर एरिया लगभग 4800 वर्गफुट (446 वर्गमीटर) है । अध्यक्षपीठ डायमीटर के केन्द्र में ऊँचे प्लेटफार्म पर बनाया गया है जो अर्द्ध-वृत्त के दोनों छोरों से जुड़े हैं । अध्यक्ष की पीठ के ठीक ऊपर लकड़ी से बने पैनल पर जिसका मूल अभिकल्प एक प्रसिद्ध वास्तुकार सर इरबर्ट बेकर द्वारा तैयार किया गया था, बिजली की रोशनी से युक्त संस्कृत भाषा में लिखित आदर्श वाक्य अंकित है । अध्यक्षपीठ की दाहिनी ओर आधिकारिक दीर्घा है जो उन अधिकारियों के उपयोग के लिए होता है जिन्हें सभा की कार्यवाही के संबंध में मंत्रियों के साथ उपस्थित होना पड़ता है । अध्यक्षपीठ के बायीं ओर एक विशेष बॉक्स होता है जो राष्ट्रपति, राज्यों के राज्यपाल, विदेशी राष्ट्रों के राष्ट्राध्यक्षों और प्रधानमंत्रियों के परिवार के सदस्यों व अतिथिगण एवं अध्यक्ष के विवेकाधीन अन्य गण्यमान्य व्यक्तियों के लिए आरक्षित होता है । अध्यक्षपीठ के ठीक नीचे सभा के महासचिव की मेज होती है । उसके सामने एक बड़ा पटल होता है जो सभा का पटल होता है जिस पर मंत्रियों द्वारा औपचारिक तौर पर पत्र रखे जाते हैं, सभा के अधिकारीगण तथा सरकारी रिपोर्टर इस पटल के साथ बैठते हैं । कक्ष में 550 सदस्यों के बैठने की व्यवस्था है । सीटें छह खंडों में बंटे होते हैं, प्रत्येक खंड में ग्यारह कतारें हैं । अध्यक्षपीठ के दाहिनी ओर खंड संख्या 1 और बायीं ओर खंड संख्या 6 में प्रत्येक में 97 सीटें हैं । शेष प्रत्येक 4 खंडों में 89 सीटें हैं । कक्ष में प्रत्येक सदस्य, जिसमें मंत्रिगण जो लोक सभा के सदस्य हैं, एक सीट आवंटित किया जाता है । अध्यक्षपीठ की दाहिनी तरफ सत्ता पक्ष के सदस्य और बायीं तरफ विपक्षी दल/समूहों के सदस्य स्थान ग्रहण करते हैं । उपाध्यक्ष बायीं तरफ अगली पंक्ति में स्थान ग्रहण करते हैं । अध्यक्ष के आसन के ठीक सामने जहां लकड़ी की कलापूर्ण नक्काशी है, भारतीय विधायी सभा के प्रथम निर्वाचित अध्यक्ष श्री विट्ठल भाई पटेल का चित्र लगा हुआ है । लोक सभा कक्ष के चारों ओर की लकड़ी के 35 सुनहरे डिजाइन हैं । जो अविभाजित भारत के विभिन्न प्रांतों, शासित क्षेत्रों और कतिपय अन्य ब्रिटिश उपनिवेशों का प्रतिनिधित्व करते हैं । सदस्य लॉबीचैम्बर से सटे और इसकी दीवारों से संलग्न दो कवर्ड गलियारे हैं जिन्हें भीतरी लॉबी और बाह्य लॉबी कहा जाता है । ये लॉबियां पूर्णतः सुसज्जित हैं और सदस्यों के बैठने और आपस में अनौपचारिक चर्चा करने के लिए सुविधाजनक स्थल है । दर्शक दीर्घालोक सभा चैम्बर के पहले तल में कई सार्वजनिक दीर्घाएं और प्रेस दीर्घा है । प्रेस दीर्घा आसन के ठीक ऊपर है और इसके बायीं ओर अध्यक्ष दीर्घा (अध्यक्ष के अतिथियों के लिए) राज्य सभा दीर्घा (राज्य सभा के सदस्यों के लिए) और विशेष दीर्घा है । सार्वजनिक दीर्घा प्रेस दीर्घा के सम्मुख है । प्रेस गैलरी के दायीं ओर राजनयिक और गण्यमान्य आगंतुकों की विशिष्ट दीर्घा है । स्वचालित मतदान रिकॉर्डिंग प्रणाली सभा में मत विभाजन के दौरान मत रिकार्ड करने के लिए लोक सभा चैम्बर में माइक्रोफोन प्रबंध, साथ-साथ भाषान्तरण तथा स्वचालित मतदान रिकार्डिंग संबंधी एक समेकित प्रणाली की व्यवस्था की गई है । सदस्य स्वचालित मत अभिलेखन यंत्र का संचालन अपने-अपने नियत स्थानों (वहीं जो उनकी विभाजन संख्याएं हैं) से करते हैं । स्वचालित मत रिकार्डिंग यंत्र का संचालन करने के लिए चैम्बर में महासचिव की मेज पर एक वोटिंग कंसोल लगाया गया है । अध्यक्ष के निर्देश पर महासचिव मतदान प्रक्रिया को शुरू करते हैं । महासचिव द्वारा अपनी मेज पर लगे बटन को दबाते ही ऑडियो-अलार्म बजता है और प्रत्येक सदस्य के पुश-बटन-सेट पर लगी "अब मतदान करें" संकेतक प्रकाश द्योतक बत्ती चमकने लगती है और इस प्रकार सदस्यों को अपना मत डालने के लिए संकेत दिया जाता है । मतदान के लिए सभा में प्रत्येक सदस्य को पहला ऑडियो-अलार्म बजने के साथ ही मतदान प्रक्रिया आरम्भक स्विच को दबाना होता है और साथ ही साथ अपनी इच्छानुसार तीनों पुश बटनों में से किसी एक को दबाना होता है अर्थात् हरा बटन ""हाँ"" के लिए, लाल बटन ""ना"" के लिए तथा पीला बटन "मतदान में भाग न लेने" के लिए । मतदान आरम्भक स्विच और संबंधित पुश-बटन (इच्छानुसार) दोनों को तब तक दबाए रखना चाहिए जब तक कि दस सेकंड के पश्चात् दूसरी घंटी नहीं बजती । दस सेकंड का समय बीतने की सूचना सकल परिणाम सूचक बोर्ड पर अवरोही क्रम में 10, 9, 8 से 0 तक दर्शाई जाती है । मत विभाजन के दौरान एम्बर रंग वाला बटन न दबाया जाए । मतदान में कोई गलती होने पर सदस्य दूसरी घंटी बजने से पहले वांछित पुश-बटन और मतदान आरम्भक स्विच को एक साथ दबाकर ठीक कर सकता है । बटन दबाते ही सदस्य की सीट पर लगे "पुश-बटन-सेट" से किए गए मतदान के साथ ही संबंधित प्रकाश द्योतक बत्ती जलती है । इस बत्ती का जलना इस बात का संकेत होता है कि मत को यंत्र द्वारा रिकार्ड किया जा रहा है । उपर्युक्त से यह स्पष्ट होता है कि सभा में अध्यक्ष पीठ द्वारा मत-विभाजन की घोषणा किए जाने पर सदस्य को निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना होता है- (एक) वे अपनी नियत सीट से ही प्रणाली को संचालित करें; (दो) घंटी बजने तथा प्रत्येक सदस्य की सीट पर लगे "अब मतदान करें" प्रकाश द्योतक बत्ती, के जलने का इन्तजार करें; (तीन) मतदान आरम्भक स्विच को और साथ ही साथ अपनी इच्छानुसार तीनों पुश- बटनों में से किसी एक अर्थात् ""हां"" के लिए हरे बटन ("ए"), "ना" के लिए लाल बटन ("एन") तथा "मतदान में भाग न लेने" के लिए पीले बटन ("ओ") को दबाना होता है ; (चार) यह सुनिश्चित करना कि मतदान आरम्भक स्विच और अपनी पसंद का पुश-बटन एक साथ तब तक दबाए रखा जाए जब तक कि दस सेकण्ड के पश्चात् दूसरी बार घंटी नहीं बजती है; और (पांच) मत विभाजन के दौरान एम्बर रंग वाला बटन ("पी") न दबाएं । यदि कोई सदस्य अपने मतदान में सुधार करना चाहता है तो वह दूसरी घंटी बजने से पहले दस सेकंड के भीतर वांछित पुश-बटन और मतदान आरम्भक स्विच को एक साथ दबाकर ऐसा कर सकता है । मतदान का परिणाम दूसरे ऑडियो अलार्म के बजने के तुंत बाद प्रणाली "हाँ" और "ना" के मतों के अतिरिक्त ""मतदान में भाग न लेने वाले"" मतों की गणना करना आरंभ कर देती है और "टोटल रिजल्ट डिस्प्ले बोर्ड" में "हाँ", "ना" और "मतदान में भाग न लेने" वालों की कुल संख्या प्रदर्शित होती है । इसमें मतदान का प्रयोग करने वाले सदस्यों की कुल संख्या भी दर्शाई जाती है । मतदान के परिणाम लोक सभा अध्यक्ष, महासचिव और ध्वनि नियंत्रण कक्ष में लगे मॉनिटरों पर भी दिखाई देते हैं । जैसे ही मतदान का परिणाम प्रदर्शित होता है, स्थायी रिकॉर्ड के लिए मतदान का प्रिंट आउट लिया जाता है । लोक सभा कक्ष में आधुनिक स्वचालित मतदान रिकार्डिंग और ध्वनि एम्पलीफाइंग प्रणाली लगी है । चुने गए स्थानों पर पेडेस्टल स्टैंड पर बैक अप के रूप में शक्तिशाली माइक्रोफोन भी लगे हैं । प्रत्येक सीट में बैंच के पीछे लचीले स्टैंड पर संवेदी माइक्रोफोन लगे हैं । गैलरी में छोटे-छोटे लाउडस्पीकर भी लगे हैं । मत विभाजन के मामले में लोक सभा चैम्बर में स्थापित स्वचालित मतदान प्रणाली से सदस्य शीघ्रता से अपना मत रिकार्ड कर सकेंगे । भाषांतरण प्रणाली को इस तरह तैयार किया गया है कि सभा की कार्यवाही का भाषांतरण अंग्रेजी से हिन्दी और विलोमतः साथ-साथ तथा असमी, कन्नड़, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, तमिल और तेलुगु से अंग्रेजी और हिंदी में साथ-साथ हो सके । इनमें से किसी भी भाषा में बोलने की इच्छा रखने वाले सदस्य को पटल में उपस्थित अधिकारी को इसकी अग्रिम सूचना देनी होगी । प्रश्न काल के दौरान भी जिस सदस्य ने मुख्य प्रश्न उठाया है, वह पूर्व सूचना देकर उपर्युक्त में से किसी भी भाषा में अनुपूरक प्रश्न पूछ सकता है । सदस्य उपर्युक्त भाषाओं में नियम 377 के अधीन वक्तव्य भी दे सकते हैं । राज्य सभा कक्ष (चैम्बर)यह लगभग उसी नमूने पर बना है जिस पर लोक सभा कक्ष (चैम्बर) है, लेकिन आकार में उससे छोटा है । इसमें बैठने की क्षमता 250 है । यह आधुनिक ध्वनि उपकरण, स्वचालित मतदान रिकार्डिंग और एक साथ भाषांतरण प्रणाली से भी सुसज्जित है । सार्वजनिक दीर्घा, विशिष्ट दर्शक दीर्घा, राजनयिक दीर्घा, सभापति दीर्घा (सभापति के अतिथियों के लिए नियत), प्रेस दीर्घा और लोक सभा सदस्यों के लिए दीर्घा राज्य सभा कक्ष के प्रथम तल पर उसी तरह अवस्थित हैं जिस तरह लोक सभा कक्ष में ये सब अवस्थित हैं । स्वागत कार्यालयद्वार सं. 1 के सामने बने गोलाकार भवन में स्थित स्वागत कार्यालय सदस्यों, मंत्रियों, आदि से भेंट करने या संसद की कार्यवाही देखने के लिए भारी संख्या में आने वाले आगंतुकों के लिए एक अनुकूल प्रतीक्षा स्थल है । इसका प्रवेश द्वार रायसीना रोड पर है । पूर्णतः वातानुकूलित इस भवन की अवधारणा अनुपम हैं और इसमें वास्तुकला के प्राचीन व नवीन दोनों रूपों की विशेषताओं की झलक मिलती है । भवन का बाहरी भाग लाल बालूपत्थर से बना है और भीतरी भाग पर लकड़ी की लाइनिंग का काम है जो सहृदयता और स्वागत की भावना का सूचक है । आगंतुकों की सुविधा के लिए स्वागत कार्यालय के भीतर कैफेटीरिया की व्यवस्था है । सदस्यों की सुविधा के लिए स्वागत कार्यालय भवन में बेसमेंट लेवल पर एक लॉन्ज है जहाँ सदस्य अपने अतिथियों से भेंट कर उनका सत्कार कर सकते हैं । संसद ग्रंथालय भवन (संसदीय ज्ञानपीठ)मई, 2002 तक संसद ग्रंथालय संसद भवन में ही स्थित था । समय के साथ ग्रंथालय सेवा का विस्तार हुआ जिसे अब लार्डिस (ग्रंथालय और संदर्भ, शोध, प्रलेखन तथा सूचना सेवा) के नाम से जाना जाता है । संसद ग्रंथालय और इसकी संबद्ध सेवाओं के लिए संसद भवन में उपलब्ध स्थान ग्रंथालय द्वारा एकत्र किए जा रहे साहित्य की मात्रा को देखते हुए काफी सीमित था । इसके अलावा, संसद सदस्यों को और अधिक प्रभावी, कुशल और आधुनिक शोध, संदर्भ व सूचना सेवा उपलब्ध कराने की निरंतर मांग भी होती रही थी । इस आवश्यकता को पूरा करने की दृष्टि से नए संसद ग्रंथालय भवन (संसदीय ज्ञानपीठ) के बारे में सोचा गया । इस भवन की आधारशिला तत्कालीन माननीय प्रधान मंत्री श्री राजीव गाँधी ने 15 अगस्त, 1987 को रखी और भूमि-पूजन तत्कालीन माननीय अध्यक्ष श्री शिवराज वि. पाटील ने 17 अप्रैल, 1994 को किया । इस पूर्णतः वातानुकूलित बृहद् भवन का निर्माणकार्य केंद्रीय लोक निर्माण विभाग ने किया । मेसर्स राज रेवल एसोसिएट्स इसके परामर्शी वास्तुकार थे । बाह्य तौर पर ग्रंथालय भवन संसद भवन से मेल खाता है और इसमें उसी प्रकार लाल और मटियाले बालूपत्थर की सामग्री का प्रयोग किया गया है । सामान्य ऊँचाई गोलाकार स्तंभावली के नीचे संसद की पीठिका तक सीमित रखी गई है । ग्रंथालय भवन की छत पर राष्ट्रपति भवन के पत्थर के विद्यमान गुम्बदों की तर्ज पर इस्पात की संरचनाओं पर टिके लघु आकार के खोखले गुम्बदों की एक श्रृंखला है । ग्रंथालय का मुख्य प्रवेश द्वार संसद के द्वारों में से एक से सीधे जुड़ा है । यह स्टेनलेस स्टील रिंग के ऊपर धरी गोलाकार छत से ढके प्रांगण तक जाता है जहाँ छत से हल्की रोशनी आती रहती है । परिसर का नाभीय केंद्र सूर्य प्रकाश प्रत्यावर्तनकारी, अत्याधुनिक संरचनापरक काँच और स्टेनलेस स्टील से बना है । यह चौपंखुड़ियों से संयोजित है । ये चौपंखुड़ियां आकर्षक तनन छड़ों से जुड़ी हैं । काँच गुम्बद के ऊपरी भाग में अशोक चक्र को निरूपित करता गोलाकार प्रतीक है । उपलब्ध सुविधाएंसंसद सदस्यों के लिए ग्रंथालय परिसर के केंद्रीय निकाय में एक अध्ययन कक्ष है जो भीतरी अहाते के सामने स्थित है । यह दो मंजिला स्थल है जिसमें भीतरी प्रांगण है जो चार स्तंभों के सहारे बने गोलाकार गुम्बद से ढका है । छत स्तर के ऊपर सफेद रोगन से रंगे इस्पात की प्रमुख संरचना है जहाँ से काँच के खण्डों में से पारभासी प्रकाश छन कर आता है जो भव्य कक्ष के भीतर शांत-सौम्य वातावरण बनाता है । मुख्य ग्रंथालय के बड़े कक्ष और अनुप्रस्थ ध्रुवों के दोनों सिरों पर दृश्य-श्रव्य संग्रहालय में एक समान विन्यास है । इनकी 35 मीटर बड़ी विस्तृति है । यह इतना बड़ा क्षेत्र शीर्ष से प्रकाशमान रहता है जहाँ कंक्रीट बुलबुलों के भीतर काँच प्रखण्ड अंतःस्थापित हैं । इसकी प्रमुख इस्पात संरचना नीची रखी गई है और इसकी परिधि पर प्राकृतिक प्रकाश जगमगाता रहता है । ऑडिटोरियम 35 एमएम फिल्म प्रोजेक्शन के लिए अद्यतन डिजिटल डोल्बी सराउंड साउंड सिस्टम; मूल और चार भाषा भाषांतरण के लिए साथ-साथ वायरलेस भाषांतरण प्रणाली; 10,000 एएनएसआई ल्यूमेन्स आउटपुट वाली ज़ेनन इल्युमिनेशन प्रणाली युक्त वीडियो प्रोजेक्शन प्रणाली; और स्कैनर नियंत्रित एफओएच प्रकाशयुक्त स्टेज प्रकाश प्रणाली से सज्जित है । भवन में 10 समिति कक्ष/व्याख्यान कक्ष हैं जिनमें से 7 कक्षों में अत्याधुनिक कॉफ्रेंसिंग प्रणाली और 3 कक्षों (इन 7 कक्षों में से) में साथ-साथ भाषान्तरण प्रणाली की व्यवस्था की गई है । सदस्य अध्ययन कक्ष संसद ग्रंथालय भवन के "एच" ब्लॉक में अवस्थित है । जो संसद सदस्य अध्ययन करना और इंटरनेट के माध्यम से सूचना प्राप्त करना चाहते हैं; वे अध्ययन कक्ष सं. जी-049 और कक्ष सं. एफ 058 में यह सुविधा प्राप्त कर सकते हैं । कक्ष सं. जी. 049 में सदस्य सहायता फलक भी स्थापित किया गया है जो संसद सदस्यों को उनके दैनंदिन संसदीय कार्य में अपेक्षित जानकारी प्राप्त करने में उनकी सहायता करता है । प्रकाशित दस्तावेज़ में तुंत उपलब्ध सांख्यिकीय आंकड़े ऑर सूचना तक्षण सुलभ कराई जाती है जबकि जिन पूछताछों में समय लगना होता है और विस्तृत सूचना की आवश्यकता होती है, उन्हें तथ्यपरक और अद्यतन सूचना प्राप्त करने के लिए सदस्य संदर्भ सेवा को भेज दिया जाता है । सदस्यों की सूचना संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने की दृष्टि से हिंदी, अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषाओं में नवीनतम पत्रिकाएं और समाचार पत्र उपर्युक्त अध्ययन कक्ष में प्रदर्शित किए जाते हैं । लोक सभा/ राज्य सभा समाचार और न्यूज बुलेटिन भी सदस्यों के प्रयोग के लिए सुलभ रखे जाते हैं । सदस्य संदर्भ को सुकर बनाने के लिए पुस्तकें आरक्षित भी कर सकते हैं । सूचना प्राप्त करने के लिए सदस्य सहायता फलक और अध्ययन कक्ष में इंटरनेट कनेक्शन के साथ कंप्यूटर लगाए गए हैं । भवन में उपलब्ध अन्य सुविधाएं इस प्रकार हैं:- • तीस लाख ग्रंथो को रखने की व्यवस्था के साथ ग्रंथालय; • शोध और संदर्भ प्रभाग; • कंप्यूटर केंद्र; • प्रेस और जनसंपर्क सेवा; • मीडिया केन्द्र; • प्रेस-ब्रीफिंग कक्ष; • संसदीय अध्ययन और प्रशिक्षण ब्यूरो; • दृश्य-श्रव्य ग्रन्थालय; • संसदीय संग्रहालय और अभिलेखागार; • 1,067 व्यक्तियों की क्षमता वाला प्रेक्षागृह; • समिति और सम्मेलन कक्ष; • भोज कक्ष; • 212 कारों के लिए पार्किंग स्थल । गुम्बद - अभिनव विशेषताभवन की मूल संरचना प्रबलित सीमेंट कंक्रीट की ढांचा वाली संरचना के रूप में परिकल्पित की गई है जिसमें सामान्यतः 5 मीटर के अंतर पर स्तम्भों के लिए स्थान छोड़ा गया है । मध्यवर्ती फ्लोर कॉफर एकक निर्माण के स्वरूप के हैं जबकि छत में अंशतः कॉफर एकक हैं और आंशिक रूप से इस्पात तथा कंक्रीट के गुम्बद हैं । गुम्बदों का अभिकल्प और इसका निर्माण देश में अनुपम है । गुम्बदों के निर्माण में अंतर्ग्रस्त कुछ अभिनव विशेषताएं निम्नानुसार हैं- • 12 में से दो गुम्बदों में ए.आई.एस.आई. 304 एल ग्रेड के स्टेनलेस स्टील का प्रयोग किया गया है । इस्पात को पूर्णतः स्तरीय बनाया गया हे । अन्य सभी गुम्बद कार्बन स्टील के हैं जिन पर इपौक्सी पेन्ट कर इन्हें पूरा किया गया हे । • फ्रेमवर्क के सभी जोड़ों को ढलाई द्वारा सांचों में ढालकर एच.एस.एफ.जी. बोल्टों के संयोजन से टय़ूब से जोड़ा गया था और नियंत्रित स्थितियों में इनकी वेल्डिंग की गई थी । इसके परिणामस्वरूप 12 मेम्बरों के एक ही संयुक्त स्थल पर मिलने की जगह भी जोड़ पतले दिखते हैं । • गुम्बद के विभिन्न तत्वों यथा कास्ट ज्वाइंट्स (वक्रित) टय़ूब्स और स्टील के ढांचे पर लगा पूर्वनिर्मित कंक्रीट बबल्स के विनिर्माण और इसके संयोजन के मामले में ज्यामितीय सुनिश्चितता प्राप्त हुई । कुछ ई. एण्ड एम. सेवाएं, जो प्रदान की जा रही हैं, निम्नवत् हैं- • जाड़े में उष्मीकरण तथा उप-द्रवीकरण समेत 5 x 500 टी.आर. अपकेन्द्री प्रशीतन मशीनों वाली केन्द्रीय वातानुकूलन प्रणाली जो भवन के 45,000 वर्गमी0 के वातानुकूलन के लिए है । • स्वचालित, संसूचना अग्नि संकेतक प्रणाली, जो आग लगने की स्थिति में समन्वित कार्यकरण के लिए ए.एच.यू.पी.ए. सिस्टम और अग्नि नियंत्रण दरवाजों से विधिवत एकीकृत होता है । • कंप्यूटर केन्द्र में एन.ए.एफ.एस. - तीन गैस के साथ बिना भींगी हुई अग्निशमन प्रणाली तथा स्विच रूम के लिए सूक्ष्म फिल्मिंग स्टोर और सी.ओ. । • निगरानी, ग्रन्थालय के कामकाज तथा संसद में कार्यवाहियों के प्रदर्शन हेतु सी.सी.टी.वी. । • भवन के अधिकांश भागों में पी.ए. प्रणाली । • समिति कक्षों में वीडियो प्रक्षेपण प्रणाली, डिजीटल कांफ्रेंसिंग सिस्टम तथा समानान्तर भाषान्तरण प्रणाली । • पार्किंग क्षेत्र के लिए कार-नियंत्रण प्रणालियां । भवन का कुल आच्छादित क्षेत्र 60, 460 वर्गमी0 है और इसे 200 करोड़ रु0 की लागत से बनाया गया है । इस निर्माण कार्य को पूरा करने में 7 वर्ष 9 महीने का समय लग गया । संसद ग्रंथालय भवन का उद्घाटन 7 मई, 2002 को भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति श्री के.आर. नारायणन द्वारा किया गया । इस अवसर पर निम्नलिखित व्यक्ति उपस्थित थे- श्री कृष्णकांत, माननीय उप-राष्ट्रपति श्री अटल बिहारी वाजपेयी, माननीय प्रधानमंत्री श्री पी.एम. सईद, माननीय उपाध्यक्ष, लोक सभा (अध्यक्ष के कार्यों का निर्वहन करते हुए) श्रीमती सोनिया गांधी, विपक्ष की नेता श्री प्रमोद महाजन, माननीय संसदीय कार्य मंत्री श्री अनंत कुमार, माननीय शहरी विकास और गरीबी और उपशमन मंत्री । संसद भवन में सदस्यों के लिए विशेष सुविधाएंसंसद सदस्यों की सुविधा के लिए, संसद भवन में निम्नलिखित सुविधाएं उपलब्ध कराई गई है- (एक) जलपान कक्ष मुख्य जलपान कक्ष प्रथम तल पर कमरा सं0 70 और 73 में स्थित हैं । केन्द्रीय कक्ष से चेम्बरों में जाने वाले मार्गों के समीप चाय, कॉफी, दुग्ध के बूथ, स्नैक बार और रिफ्रेशमेंट लांज हैं । (दो) रेल बुकिंग कार्यालय (तृतीय तल पर कमरा संख्या 131) । (तीन) स्वागत ब्लॉक में रेल बुकिंग कार्यालय । (चार) भारतीय स्टेट बैंक का वेतन कार्यालय (कमरा संख्या 57, प्रथम तल) । (पांच) केन्द्रीय कक्ष की एक लॉबी में स्थित प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र । (छह) डाकघर (भूमि तल) । (सात) एयर-बुकिंग (तृतीय तल पर कमरा सं0 131 - ए) । (आठ) के.लो.नि.वि. शिकायत प्रकोष्ठ (केन्द्रीयकृत पास निर्गम प्रकोष्ठ के समीप) । संसदीय सौध (पी.एच.ए.)स्वतंत्रता के पश्चात संसद के कामकाज में कई गुणा वृद्धि होने से, संसदीय दलों/समूहों के लिए स्थान, दलों/समूहों के लिए बैठक कक्ष, समिति कक्ष तथा संसदीय समितियों के सभापतियों के लिए कार्यालयों और दोनों सभाओं के सचिवालयों के लिए कार्यालयों की मांग में बहुत अधिक वृद्धि हुई है । मूल संसद भवन में निम्नलिखित तीन चैम्बर थे- (एक) दि सेन्ट्रल असेम्बली (दो) दि काउंसिल ऑफ स्टेट्स (तीन) दि प्रिंसेस चैम्बर उस समय तीनों सभाओं की सदस्य संख्या लगभग 300 थी । वर्तमान संसद में कुल 795 सदस्य हैं । सदस्यों की अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा करने तथा उन्हें मिलनेवाली कुछ सुविधाओं में वृद्धि करने के लिए संसदीय सौध का निर्माण किया गया । जनप्रतिनिधियों के भारी उत्तरदायित्वों के प्रभावकारी निर्वहण की दिशा में इस तरह की सुविधाओं का प्रावधान करना अनिवार्य होता है । भवन का निर्माण इस भवन का डिजाइन केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग के मुख्य वास्तुविद् श्री जे.एम. बेन्जामिन ने किया था ओर इसका ढांचा वाफ्ल-स्लाब युक्त आर.सी.सी. कंस्ट्रक्शन है । यह भवन आधुनिक, क्रियात्मक, किफायती तथा प्रतिष्ठित है । भारत के राष्ट्रपति श्री वी.वी. गिरी ने 3 अगस्त, 1970 को संसदीय सौध का शिलान्यास किया था । प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने 24 अक्तूबर, 1975 को इसका उद्घाटन किया था । भवन का सामान्य नक्शा इस भवन के तीन भाग हैं - अग्र भाग, पश्च भाग और मध्य भाग । इसके अतिरिक्त भवन के सामने कार पार्किंग के लिए एक आच्छादित प्लाजा भी है । अग्र भाग और पश्च भाग (ब्लॉक) तीन मंजिला है और मध्य भाग खुली छत के साथ छह मंजिला है । अग्र भाग (फ्रंट ब्लॉक) बेसमेंट में विश्रांतिका, डाक घर तथा एक छोटा-सा समिति कक्ष है और भूतल पर भारतीय स्टेट बैंक की शाखा और एक बहुद्देश्य हॉल है । प्रथम तल पर अध्यक्ष, राज्य सभा के सभापति, प्रधान मंत्री, संसदीय कार्य मंत्री, राज्य सभा के महासचिव, लोक सभा के महासचिव, आदि के कमरे तथा दल बैठक कक्ष स्थित हैं । बेसमेंट में जलाशय, उसके ऊपर बनी सीढ़ियां और सूर्य की रोशनी को बिखेरने के लिए बने पिरामिड इस क्षेत्र की शोभा बढ़ाते हैं । मध्य भाग बेसमेंट में भौतिक चिकित्सा केन्द्र, नेत्र चिकित्सालय, दन्त चिकित्सालय और पैथोलोजिकल प्रयोगशाला आदि से पूरी तरह सुसज्जित एक चिकित्सा केन्द्र है । टेलीफोन एक्सचेंज और टेलीफोन ब्यूरो भी बेसमेंट में स्थित है और भूतल पर भोज-कक्ष, निजी भोज-कक्ष और जलपान कक्ष स्थित हैं । दूसरे तल से पांचवें तल तक लोक सभा और राज्य सभा के सचिवालय अवस्थित हैं । छज्जे के दोनों ओर कैंटीन, लोक सभा और राज्य सभा के कर्मचारियों के लिए क्लब भी है । समिति कक्ष बेसमेंट में एक लघु समिति कक्ष "ई" है । भूतल पर एक मुख्य समिति कक्ष और चार लघु समिति कक्ष हैं जो कि केन्द्रीय प्रांगण के आसपास अवस्थित है । सभी समिति कक्षों में संसद भवन के लोक सभा तथा राज्य सभा चेम्बरों की तरह साथ-साथ भाषान्तरण प्रणाली की व्यवस्था है । इस तल पर संसदीय समितियों के सभापतियों के कार्यालय भी अवस्थित है । संसदीय सौध में सदस्यों के लिए विशेष सुविधाएं संसद सदस्यों की सुविधा के लिए संसदीय सौध में निम्नलिखित सुविधाएं प्रदान की गई हैं :- (1) भूतल पर जलपान कक्ष (2) भूतल पर मिल्क बार (3) विशेष प्रीतिभोज/समारोहों के लिए भूतल पर भोज कक्ष तथा निजी भोज कक्ष (4) चिकित्सा जांच केन्द्र (5) भूतल पर भारतीय स्टेट बैंक (6) बेसमेंट में डाक घर (7) भूतल पर बहुद्देशीय हॉल (8) बेसमेंट और भूतल पर विश्रांतिकाएं (9) आय कर प्रकोष्ठ - कमरा संख्या 314 तीसरा तल (10) टेलीकॉम ब्यूरो - बेसमेंट तल ईपीएबीएक्स दूरभाष केन्द्र संसदीय सौध में आधुनिक एवं कार्यक्षम ईपीएबीएक्स दूरभाष केन्द्र की स्थापना की गई है जो केवल संसद भवन संपदा हेतु सेवाएं प्रदान करता है । इन्टर-कॉम से तथा बाहर बात करने के लिए एक ही उपकरण का इस्तेमाल किया जाता है । ईपीएबीएक्स एक्सचेंज के बाहर के किसी नम्बर पर बात करने के लिए "शून्य" डायल करने के पश्चात वांछित नम्बर डायल करना अपेक्षित है ।

सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

नादिरा, जिनकी ऑंखें बोलती थीं


हिन्दी फिल्मों की मशहूर अभिनेत्नी नादिरा अपने समय से कहीं आगे थीं। लाजवाब खूबसूरती और शाहाना अंदाज की शख्सियत रखने के बावजूद उन्होंने उस दौर में खलनायिका बनना पसंद किया, जब नायिकाएं इस तरह की भूमिकाएं करने से घबराती थीं।
फरहत एजेकेल नादिरा का जन्म ५ दिसम्बर १९३२ को इजराइल में एक यहूदी परिवार में हुआ । उन्होंने अपने पांच दशक लंबे कैरियर में ६क् से अधिक फिल्मों में काम किया, जिनमें उन्होंने नायिका, खलनायिका की भूमिका करने के साथ चरित्न भूमिकाएं भी निभाईं। उनके अभिनय कैरियर की शुरुआत महबूब खान की १९५२ में निíमत फिल्म आन से हुई, जिसमें उन्होंने एक बिगडैल राजकुमारी की भूमिका निभाई और उस समय की सहमी हुई नायिकाओं के विपरीत एक बोल्ड ²श्य भी दिया। इस फिल्म में दिलीप कुमार उनके नायक थे। इसके बाद उन्होंने श्री ४२क्, १९५६, दिल अपना और ह्न्रीत पराई १९६क्, पाकीजा १९७१, अमर अकबर एंथनी १९७७, आदि फिल्मों में काम किया, जिनमें उन्होंने अधिकतर ऐसी महिला की भूमिका निभाई, जो नायक को अपनी अदाओं से जाल में फंसाने की कोशिश करती है। उनकी अन्य प्रमुख फिल्में हैं, वारिस, १९५४, डाक बाबू, १९५४, रफ्तार, १९५५, जलन, १९५५, सिपहसालार, १९५६, समुद्री डाकू, १९५६, पाकेटमार, १९५६, गेलियबट कोरीना, १९५६, पुलिस, १९५८, मेरी सूरत तेरी आंखें, १९६३, सपनों का सौदागर, १९६६, तलाश, १९६९, जहां प्यार मिले, १९६९, इंसाफ का मंदिर, १९६९, द गुर, १९६९, सफर, १९७क्, बांबे टाकी, १९७क्, कहीं आर कहीं पार, १९७१, राजा जानी, १९७२, एक नजर, १९७२, हंसते जख्म, १९७३, प्यार का रिश्ता, १९७३, एक नारी दो रूप, १९७३, वो मैं नहीं, १९७४, इश्क इश्क इश्क, १९७४, मेरे सरताज, १९७४, कहते हैं मुझको राजा, १९७५, जूली, १९७५, धर्मात्मा, १९७५, पापी, १९७७, भंवर, १९७७, डाìलग डाìलग, १९७७, आशिक हूं बहारों का, १९७७, आप की खातिर, १९७७, नौकरी, १९७८, मगरूर, १९७९, बिन फेरे हम तेरे, १९७९, दुनिया मेरी जेब में, १९७९, स्वयंवर, १९८0् चालबाज, १९८0्, आसपास, १९८१, दहशत, १९८१, अशांति, १९८२, रास्ते प्यार के, १९८२, सागर, १९८५, मौला बक्श, १९८६, झूठी शान, १९९१, लैला, १९९१, महबूबा, १९९२, गाडफादर, १९९२, तमन्ना, १९९७, आदि। नादिरा ने इस्माइल मर्चेट की एक इंग्लिश फिल्म , काटन मैरी १९९९ में भी काम किया। शाहरुख खान और ऐश्वर्या राय अभिनीत फिल्म , जोश, २0्0्0् उनकी अंतिम फिल्म थी। फिल्म जूली के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ सहनायिका का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला। इस फिल्म में उन्होंने नायिका जूली की मां मार्गरेट का किरदार निभाया। नादिरा ने दो बार विवाह किया लेकिन दोनों ही बार वह वैवाहिक सुख से वंचित रहीं। पहले उनका विवाह उर्दू शायर, गीतकार और फिल्म निर्माता नक्शब से हुआ, जिसकी दु:खद परिणति हुई। दूसरी बार उन्होंने एक विवाहित व्यक्ति से शादी की, जो एक सप्ताह ही चल पाई। ज्यादातर रिश्तेदारों के इजरायल चले के जाने के कारण नादिरा अपने जीवन के अंतिम अकेली रह गईं । जीवन के अंतिम तीन वर्षो में तो उन्होंने खुद को घर में कैद सा कर लिया और जमकर शराब पीने लगीं, जिसकी वजह से उन्हें कई तरह की बीमारियों ने घेर लिया। उन्हें मुम्बई के ताड़देव में अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां ९ फरवरी २00६ को ७४ वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया।

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

परिपक्व प्रेम का प्रतीक हैं सानिया-सोहराब


भारती परिमल
प्रेम एक ऐसी अनुभूति है, जो अभिव्यक्ति पाने के बाद अपना रूप बदल देता है। प्रेम में रचे-बसे और पगे लोग यह बात अच्छी तरह से समझते हैं कि प्रेम उनका संबल है। प्रेम के बिना वे किसी अच्छी चीज की कल्पना ही नहीं कर सकते। प्रेम वह साहस देता है, जिसमें डूबकर इंसान बड़े से बड़ा काम कर सकता है। कहते हैं कि प्रेम को अभिव्यक्ति की आवश्यकता नहीं, पर सच यही है कि अभिव्यक्त प्यार अपने आप में गहरा अपनापा लिए हुए होता है। हाँ प्यार को देखने और परखने का लोगों का दृष्टिकोण सदैव बदलता रहता है। कुछ लोग पूरा जीवन प्यार करते हुए खामोशी से बिता देते हैं, कुछ लोग इतना हल्ला करते हैं कि पूरे विश्व को पता चल जाता है। इसमें खामोश प्यार इतना संवदेनशील होता है कि वह अभिव्यक्ति का प्यासा नहीं होता। यही है सच्चे प्यार की गहराई।
इस सच्चे प्यार की गहराई की मिसाल हमें पिछले दिनों देखने को मिली, जब सानिया और सोहराब की सगाई टूट गई। दोनों के परिवार परस्पर २५ वर्षो से परिचित थे। इस परिचय को रिश्ते में बदलने की एक कोशिश हुई थी। सानिया ने भी इसे समझा और दोनों ने मिलकर परिवार को साथ लेकर सगाई कर ली। इस सगाई में दोनों की सहमति तो थी ही, साथ ही परिवार वाले भी खुश थे। कुछ महीनों बाद ही यह सगाई टूट गई। इस संबंध में सानिया का कहना था कि हम काफी वर्षो से अच्छे मित्र थे। सगाई के बाद हमें लगा कि हमारे बीच वह प्यार नहीं आ पाया है, जो वास्तव में होना चाहिए। फिर हम दोनों ने ही मिलकर सगाई तोड़ दी। इसके बाद भी मैं यही कहूँगी कि सोहराब हमेशा आगे बढ़ते रहें, मैं उनके सुखद भविष्य की कामना करती हूँ। उधर जब सोहराब को मीडिया ने घेर लिया, तब भी इस तरह से नाराज होते हुए यही कहा कि सोनिया आज भी मेरी अच्छी मित्र है। सगाई टूटने के बाद हमारी मित्रता नहीं टूटेगी। प्लीज आप लोग उस पर कीचड़ न उछालें। यह है सच्च प्यार। उनके लिए भी दुआ, जो उनके नहीं हैं। या फिर जो अपने होते-होते रह गए। बदले में कुछ पाने की चाहत में किया गया प्यार वास्तव में प्यार नहीं है। हाँ उसे वासना अवश्य कहा जा सकता है।
आज की युवापीढ़ी शार्प, फोक्स्ड और क्लियर है। इन पर कोई किसी प्रकार की जबर्दस्ती नहीं कर सकता। पूरी जिंदगी प्यार का नाटक कर उसे ढोते हुए जीना आज की पीढ़ी को जरा भी पसंद नहीं है। यदि प्यार नहीं है, तो उसे प्यार से ही बाय-बाय कर दिया जाए। इस यह पीढ़ी बहुत अच्छे से समझती है। इस मामले में उन्हें समाज का भी डर नही है।जिसे जो कहना है, कहता रहे। अब जमाना देवदास का नहीं रहा। आजादी और प्राइवेसी, ये दो शब्द आज यंगस्टर्स को खूब भाते हैं। यही सच भी है। एक ही बिस्तर पर दो अजनबी जीवन बिताते हुए एक-दूसरे को कोसते रहें, इससे तो अच्छा है कि आजाद होकर अपनी तरह से जीवन बिताएँ। कम से कम परिवार तो तनाव से बच जाएगा।
सानिया एक सेलिब्रिटी हैं, सोहराब को 6 महीने पहले तक कोई नहीं जानता था। गत जुलाई में ही जब दोनों की सगाई हुई, तो लोग उसे पहचानने लगे। सोहराब ब्रिटेन में मास्टर ऑफ बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन की पढ़ाई कर रहे हैं। सगाई टूटने के बाद सोहराब के पिता इमरान मिर्जा ने कहा कि दोनों ही मेरे पास आए थे, दोनों ने ही खुशी-खुशी अलग होने के लिए राजी हो गए। उनके इस निर्णय से हमारे परिवार में किसी प्रकार की कटुता नहीं आई है।
इस पूरी घटना में पालकों के लिए सीखने का यह माद्दा है कि आप अपनी संतानों को यह तय करने दो कि वे क्या चाहते हैं? अपना निर्णय उन पर थोपो नहीं। जो भार वे स्वेच्छा से स्वीकार लें, उस भार को वहन करने दो। सानिया-सोहराब जैसे यंगस्टर्स की परिपक्वता की यह पहली मिसाल नहीं है। इसके पहले भी शाहिद कपूर और करीना के मामले में भी ऐसा ही हुआ। दोनों एक-दूसरे के प्यार में पूरी तरह से डूबे थे। कुछ समय बाद उन्हें लगा कि हमारा प्यार अधिक दिनों तक नहीं टिक सकता। इसलिए हँसते-हँसते दोनों ने अपनी राहें अलग बना लीं। आमिर खान ने भी रीना से तलाक लेकर किरण राव से शादी की। आमिर आज भी रीना को ‘लकी मेस्कोट’ मानते हैं। आज भी आमिर की हर नई फिल्म के प्रीमियर में रीना की उपस्थिति होती ही है। दोनों अब पति-पत्नी नहीं हैं, फिर भी उनकी दोस्ती जीवित है। कहाँ तो लोग परस्पर अपशब्दों का प्रयोग करते हुए देख लेने और बता देने से नहीं चूकते, वेसी परिस्थितियों में राजी-खुशी से अलग हो जाएँ, वही दोनों के लिए बेहतर होता है।
सानिया-सोहराब आज के यंगस्टर्स का प्रतिनिधित्व करते हैं। दोनों हमारे लिए जाने-पहचाने हैं, इसलिए उनकी यह बात सामने आई। इसके अलावा परिपक्व प्यार की कई मिसाल हमारे आसपास ही होंगी, जिसे हम जानकर भी अनजान हैं। इसका आशय यह कतई नहीं है कि नई पीढ़ी प्यार को गंभीरता से नहीं लेती। यह तो परिपक्वता की निशानी है। जब दिल में एक-दूसरे के लिए प्यार है, तो साथ रहें, बिना प्यार के साथ रहना दिखावा है, विवशता है। फिर क्या मतलब ऐसे प्यार का?
प्रेम संबंध पूरी जिंदगी चले, इसकी कोई गारंटी नहीं दे सकता। कई संबंध कम समय के लिए होते हैं, पर पूरी जिंदगी नहीं भूले जाते। जो हमें अच्छे लगते हैं, वे अच्छे या बुरे कारणों से हमसे अलग हो जाते हैं। कोई नाराज होकर चला जाता है, तो कोई हालात का मारा होता है। एक छोटा सा उदाहरण ही काफी है। यदि आम पर कोई दाग है, तो हम पूरा आम ही फेंक नहीं देते, उस दाग वाले भाग को अलग कर देते हैं और आम की मिठास का रसास्वादन करते हैं। जिस तरह से हमने आम की मिठास को जानने की कोशिश की, ठीक उसी तरह जीवन की सुवास को भी जानने-समझने की कोशिश करनी चाहिए।
आज हालात काफी बदल रहे हैं। प्यार की उम्र कम होने लगी है। वैसे भी प्यार की उम्र नहीं, बल्कि गहराई देखी जाती है। प्यार तो ऐसा होना चाहिए, जिस पर सबको गर्व हो। सच्चे प्यार को अभिव्यक्ति देता यह किस्सा पर्याप्त होगा:- हमेशा के लिए विदेश जाती अपनी गर्लफ्रेंड को विदा करने के लिए युवक ने गुडबाय प्रार्थना सभा रखी। प्रार्थना के बाद दोनों को एकांत मिला। गर्लफेंड्र ने कहा-मुझे तो डर है कि तुम्हारे मोबाइल पर मेरे तमाम संदेशों, तस्वीरों का तुम कहीं गलत इस्तेमाल न करो। तब युवक ने अपना मोबाइल देते हुए कहा, लो अब उसे तुम ही डिलीट कर दो। हम किस तरह से मिल रहे थे, इससे आवश्यक है कि हम किस तरह से जुदा हो रहे हैं। हमारे जुदा होने पर हमारे प्यार, हमारी भावनाओं और हमारे संबंधों का सम्मान होता रहेगा। तो इसे ही कहा जाएगा सच्च प्यार। आवश्यक नहीं है कि सभी का प्यार, दोस्ती और संबंध लंबे समय तक कायम रहे। जब भी किसी को कम समय के लिए भी चाहो, पर दिल से चाहो। फिर चाहे वह आपके करीब हो या दूर। यही है सच्चे प्यार की परिभाष। आज मैं तुमसे अलग हो रहा हूँ, तुम्हारे दिल से नहीं। यदि मेरा प्यार सच्चा है, तो वह कभी भी तुम्हारे जीवन में बाधक नहीं बनेगा। यह है सच्चे प्यार की सच्ची मिसाल!
भारती परिमल

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

बहुत-कुछ कह देगी अमरीश पुरी की आत्मकथा


भारतीय सिनेमा के इतिहास में अमर खलनायकों में से एक स्व अमरीश पुरी १९५क् के दशक में हीरो बनने का सपना लेकर मुंबई आए थे, पर निराश होकर रंगमंच की दुनिया में चले गए। उनके नाटकों को देखने के लिए स्व. इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे लोग आते थे। पद्म विभूषण रंगकर्मी अब्राहम अल्काजी से १९६१ में हुई ऐतिहासिक मुलाकात ने उनके जीवन की दिशा बदल दी और वे बाद में भारतीय रंगमंच के प्रख्यात कलाकार बन गए। उसके बाद बेहतर आजीविका के लिए फिल्मों की दुनिया में फिर आए और गब्बर के बाद दूसरे सबसे सफल खलनायक चरित्न , मोगैम्बो, के रूप में लोकप्रिय हुए। उनके बडे भाई मदनपुरी फिल्मों में स्थापित कलाकार थे, पर उन्होंने अमरीशपुरी को साफ साफ कह दिया था कि वह आगे बढ़ाने में मदद नहीं करेंगे, बल्कि उन्हें खुद अपनी किस्मत और प्रतिभा से बालीवुड में जगह बनानी होगी। अमरीशपुरी ने कला और व्यवसायिक फिल्में दोनों में सफलता के कीíतमान कायम किए तथा ३१६ फिल्मों में भूमिका निभाई।
अमरीशपुरी की आत्मकथा ‘जीवन एक रंगमंच ’ उनके निधन के पांच वर्ष बाद हिन्दी में अनूदित होकर विश्व पुस्तक मेले में आई जिसका लोकार्पण चíचत अभिनेता इरफान ने किया। स्व. अमरीशपुरी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, मदन भाई, मदनपुरी, की चेतावनी कि फिल्मों में काम करने का अवसर मिलना उतना आसान नहीं, जितना प्रतीत होता है, को ध्यान में रखकर मैने अभिनय की अपनी इच्छा को त्याग दिया।, मेरे भाग्य ने मुझे प्रेरित किया ओर मैं ऐसे लोगों के संपर्क में आया जिनसे नियति ने मुझे मिलवाना था। यह वर्ष १९६१ अक्टूबर माह का था और एम पी मेघनानी नायक मेरे सहकर्मी भारतीय रंगमंच के पर्याय अब्राहम अल्काजी से मेरा ऐतिहासिक परिचय करवाने में सहायक बने। दिसंबर १९६१ में उन्होंने मुझे अंधायुग में धृतराष्ट्र की भूमिका दी। वाण्ी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित आत्मकथा के अनुसार १९७३ में प्रधानमंत्नी इंदिरा गांधी गिरीश कनार्ड के नाटक हयवदन देखनी आई थी। उनके पास सिर्फ ४क् मिनट का समय था, पर वह इतना प्रभावित हुई कि नाटक पूरा खत्म होने के बाद ही गई और अगले दिन उन्होंने हमें नाश्ते पर आमंत्नित किया। १९९क् में तो दो तीन बार प्रधानमंत्नी अटल बिहारी वाजपेयी हमारे नाटक देखने आए थे। अमरीशपुरी पहली बार फिल्म में १९७क् में देवानंद की प्रेम पुजारी में आए, फिर रेशमा और शेरा में, लेकिन उन्हें पहचान मिली श्याम वेनेगल की १९७५ में बनी फिल्म निशांत से, लेकिन वह शुरू में कला फिल्मों के अभिनेता बने रहे। उसके बाद वह व्यावसायिक फिल्मों में आए। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है, समानांतर फिल्मों से व्यावसायिक फिल्मों में आने से मेरे भीतर के अभिनेता ने बहुत कुछ खो दिया। मैं तो यहां तक कहता हूं कि कला फिल्में अभिनय के विद्यालय है तो व्यावसायिक फिल्में धन जुटाती है। ये फिल्में मेरी दाल-रोटी हैं, आजीविका हैं। आत्मकथा के अनुसार अमरीशपुरी प्राण के प्रशंसक थे और १९४क् से ही उनकी फिल्में देखते थे। उनके जीवन पर बडे भाई मदनपुरी का भी प्रभाव रहा, पर उन्होंने उनकी नकल नहीं की। जब मिस इंडिया बनी तो मोगैम्बे के रूप में वह गब्बर की तरह मशहूर हुए। यह चरित्न १९५३ में बनी अंग्रेजी फिल्म मोगेम्बो से लिया गया जो हिटलर के चरित्न को ध्यान में रखकर बनाया गया था। अमरीशपुरी अपनी सफलता की कुंजी के लिए प्रेमनाथ को जीवन भर याद करते रहे। उन्होंने लिखा है, एक बार मुझे प्रेमनाथ ने कहा था, सदा तीन , पी, यानी पाटिन्स , धैर्य, प्रेसीवान्स , ²ढ प्रतिज्ञा और प्रेसिस्हेन्स हठ, को याद रखो और उसका अनुसरण करो। उनकी यह सलाह मेरे मन मस्तिष्क को अंकित हो गई और मैं जब तब इसे याद करता हूं। आत्मकथा में अमरीशपुरी ने पुराने कलाकारों की समर्पण भावना पर विस्तार से लिखा है और इस पर चिंता व्यक्त की है कि आज सिनेमा बहुत अधिक व्यापार उन्मुख हो गया है। आत्मकथा में पृथ्वीराज कपूर, सहगल, नरगिस, अशोक कुमार, मीना कुमारी, वहीदा रहमान, नूतन को भी आदर से याद किया गया है तथा सत्यदेव दुबे को अपना गुरु बताया गया है।

सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

ओबामा का डर, हमारे लिए गर्व


डॉ. महेश परिमल
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा भारतीय युवा शक्ति से डरने लगे हैं। यह हमारे लिए गर्व की बात है। पिछले दस वर्षो में जिस तेजी से भारतीय युवा शक्ति सामने आई है, उससे देश का गौरव बढ़ा है। आज इस युवा शक्ति के चर्चे सात समुंदर पार जाकर लोगों को दहला रहे हैं। अमेरिका को इस बात का डर है कि कहंीं उसकी दादागिरी खत्म न हो जाए। स्थिति फड़फड़ाने की नहीं बल्कि बढ़ती छाटपटाहट की है। उनका इस तरह से डरना एक विकासशील देश के लिए गर्व की बात है।
कुछ वर्ष पूर्व अमेरिकी पूर्व राष्ट्रपति जार्ज बुश ने कहा था कि अमेरिकियों पढ़ो, नहीं तो भारतीय तुम्हें खा जाएँगे। कुछ इसी तरह की बोली ओबामा की भी थी। हाल ही में उन्होंने इसे नए रूप में पेश किया है। स्टेट ऑफ द यूनियन को पहली बार संबोधित करते हुए बराक ओबामा ने चीन, भारत और जर्मनी की विकास की गति की काफी प्रशंसा की। इन देशों की विकास दर से अपने देशवासियों को सचेत करते हुए उन्होंने कहा कि अब हमारी स्पर्धा में केवल चीन ही नहीं, बल्कि भारत और जर्मनी भी है। यह हमारे लिए गौरव की बात है कि एक महाशक्ति ने हमें हमारी ताकत से अवगत कराया है। ओबामा ने यह स्पष्ट कर दिया है कि उन्हीं अमेरिकी कंपनियों को सब्सिडी का लाभ दिया जाएगा जो अमेरिकियों को रोजगार देगी। इस लाभ से अंशत: उन कंपनियों को वंचित कर दिया जाएगा जो दूसरे देशों में रोजगार के अवसर को बढ़ाते हैं। यह निश्चित ही ओबामा की अदूरदर्शिता और प्रतिद्वंद्विता को उजागर करता है। इसीलिए अमेरिका ने कई कंपनियों को दी जाने वाली राहत पर अंकुश लगाया है। इससे निश्चित रूप से भारत को असर होगा। पर भारत जिस सधे कदमों से अपनी मंजिल की ओर बढ़ रहा है, उसे देखते हुए लगता है कि भारत अमेरिका की इस बाधा को भी दूर कर लेगा।
आज ओबामा चारों तरफ से घिर गए हैं। राष्ट्रपति पद सँभाले हुए उन्हें एक वर्ष हो गए हैं, उन्होंने जो वचन अमेरिका निवासियों को दिए थे, वे पूरे नहीं हो पाए हैं। आर्थिक, राजनीतिक और विदेश नीति की समस्याओं का भी अंत नहीं आया है। उनकी लोकप्रियता का ग्राफ तेजी से नीचे जा रहा है। अमेरिका में बेरोजगारी दूर नहीं हो पाई है। विश्व आर्थिक मंदी से बाहर निकलने के लिए उन्होंने जो प्रयास किेए थे, वे पूरी तरह से फलीभूत नहीं हो पाए हैं। अब उनमें वह ताकत नहीं रही कि वे अमेरिका का उद्धार करने के लिए एक दशक की राह देखें। एक दशक में चीन और भारत कहाँ से कहाँ पहुँच जाएँगे। अपने ६९ मिनट के भाषण में ओबामा ने भारत के लिए सबसे महत्वपूर्ण यह थी कि भले ही आउटसोर्सिग करने वाली अमेरिकी कंपनियों पर उसका नियंत्रण हो, पर हमारे देश के युवाओं के लिए सबसे बड़ी बात उच्च शिक्षा की है। ओबामा कहते हैं ‘‘अमेरिका विश्व की महासत्ता के रूप में दूसरे क्रम में आ जाए, यह हम नहीं चाहते। यदि अमेरिका परिश्रम नहीं करेगा, तो भारत और चीन उसे ओवरटेक करते हुए आगे निकल जाएँगे, क्योंकि ये दोनों देश गणित और विज्ञान को अधिक प्राथमिकता दे रहे हैं।’’ इसके पहले भी उन्होंने अमेरिकी युवाओं से कहा था कि यदि नहीं पढ़ोगे, तो भारत के युवा आगे आकर यहाँ की नौकरियों पर कब्जा कर लेंगे। ओबामा की इस चिंता में यह साफ झलकता है कि अमेरिकी युवा आजकल काफी आलसी हो गए हैं। महासत्ता होने के मद ने उन्हें मस्त कर दिया है। भारत की युवा पीढ़ी के लिए यह एक सुनहरा अवसर है कि वह आगे आकर अमेरिकियों को यह बता दे कि उनमें भी दम है। अमेरिका पर मानसिक रूप से दबाव बनाने का भी यह एक बेहतर मौका है। यही मौका है, जब हम अमेरिका को मानसिक रूप से हरा सकते हैं।
शस्त्रों के इस सौदागर को हम भले ही शस्त्रों से नहीं जीत सकते हांे, पर बुद्धि से हम उसे अवश्य पराजित कर सकते हैं। अभी अमेरिका को यह डर है कि उसकी महासत्ता पर किसी तरह की आँच न आने पाए। अभी वह अपनी सारी ताकत अपनी महासत्ता बने रहने के लिए लगा रहा है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि उसके पास कोई जादू की छड़ी नहीं है, जिससे वह बहुत ही कम समय में अपने देश के युवाओं को तेजस्वी बना सके। इसलिए यही मौका है, जब हम उस पर मानसिक दबाव बना सकते हैं।
भारत के पास अगले कुछ वर्षो में विश्व के सबसे अधिक युवा होंगे, यही युवाशक्ति ओबामा को डराने के लिए पर्याप्त है। हमारे लिए इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि एक महासत्ता ने हमारे अस्तित्व को स्वीकारा है। यदि ओबामा भारतीय युवाशक्ति की प्रतिभा को समझ कर अपने देश के हित में कोई कदम उठा रहे हैं, तो प्रतिभा को नकारने की उनकी यह एक राजनैतिक चाल है। हमें इसका मुँहतोड़ जवाब देना ही होगा। वैसे भी ओबामा ने अभी तक भारत को लाभ पहुँचाने वाली किसी नीति की घोषणा तो की ही नहीं है। हाँ अपने सलाहाकरों में भले ही भारतीय मूल के लोगों को लिया है। इससे वे भारतीय संस्कृति, भारतीय परंपरा और भारतीय राजनीति को बेहतर समझ रहे हैं। शायद इसीलिए वे भारतीय युवाशक्ति से डरने लगे हैं। यही समय है कि उनके इस डर का पूरा-पूरा लाभ उठाया जाए। तभी भारत एक सशक्त देश बन पाएगा।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

गाता हुआ पहाड़



सुशोभित शक्‍यावत

उस्ताद अमीर ख़ां साहब के बारे में सोचते हुए मुझे और कुछ नहीं सूझता सिवाय इसके कि उन्हें एक गाता हुआ पहाड़ कहूं. मेरू पहाड़. आज उनके वक़्त से 35 बरस बाद टेप-कैसेट पर उनकी आवाज़ सुनकर हम बस अंदाज़ा ही लगा सकते हैं उन्हें सामने बैठकर सुनना कैसा लगता होगा.
इसी इंदौर शहर में उस्ताद अमीर ख़ां रहे थे. यहां हम आज भी उनके अंतिम राग के अंतिम षड्ज की अनुगूंज छूकर देख सकते हैं... हमारे लिए इंदौर एक शहर नहीं, एक घराना है.
मुझे नहीं मालूम उत्तरप्रदेश के कैराना और इंदौर के बीच की दूरी कितनी है. शायद सैकड़ों किलोमीटर होगी, लेकिन संगीत की सरहद में सांसें लेने वालों के लिए इन दो शहरों की दूरी तानपूरे के दो तारों जितनीभर है- षड्ज और पंचम-कुल जमा इतनी ही. जैसे स्पेस की छाती में अंकित दो वादी और सम्वादी सुर. कैराना गाँव में ही उस्ताद अब्दुल करीम ख़ां और उस्ताद अब्दुल वहीद ख़ां (बेहरे ख़ां) जन्मे और जवान हुए. उन्हीं के साथ परवान चढ़ा गायकी का वह अंदाज़, जिसे किराना घराने की गायकी कहा जाता है. कोमल स्वराघात और धीमी बढ़त वाला शरीफ़ ख़्याल गायन. इन दोनों उस्तादों के बाद इस घराने में सवाई गंधर्व, गंगूबाई हंगल, पं. भीमसेन जोशी, हीराबाई बड़ोदेकर जैसे गाने वाले हुए. उस्ताद अमीर ख़ां देवास वाले उस्ताद रज्जब अली ख़ां साहब की परंपरा से इंदौर घराने में आते हैं, लेकिन सच तो यह है किराना घराने वाले उन्हें अपना सगा मानते हैं. आप बात शुरू करें और कोई भी किराना घराने वाला कह देगा- ग़ौर से सुनिए, क्या गायकी की यह ख़रज और गढ़न हूबहू हमारे बेहरे ख़ां साहब जैसी नहीं है.
उस्ताद को पहले-पहल नौशाद साहब के मार्फत सुना था. बैजू बावरा में पलुस्कर के साथ. ये भी नौशाद साहब ही थे, जिन्होंने 'मुग़ले-आज़म' में उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ां साहब से शायद दरबारी कानड़ा में) वो कमाल की चीज़ गवाई थी- 'प्रेम जोगन बन के'. लेकिन लड़कपन के उन दिनों में 'पक्का गाना' सुनने और समझने की कोई तासीर न रही थी. गो सुगम गाने और पक्के गाने के बीच में लकीरें खेंचना कोई वाजिब चीज़ फिर भी नहीं है (इसकी ताईद करने के लिए कुमार गंधर्व का लता मंगेशकर पर लिखा लेख पढ़ लेना काफ़ी होगा.), तब भी इतना तो है ही कि ये दोनों मौसिक़ी के दो अलग-अलग मौसम हैं. दो अलग-अलग मूड. सुगम में हल्के और पारदर्शी रंग हैं, पक्के गाने में ख़ूब गाढ़ापन है. जैसे वो दूध, तो ये खीर.
बचपन के बाद फिर बहुत से रोज़ गुज़र गए.
तक़रीबन तीन बरस पहले एक नितांत संयोग के तहत उस्ताद का एक ऑडियो टेप हाथ लगा. इसमें रिकॉर्ड था आध घंटे का राग यमन बड़ा और छोटा ख़्याल. आध घंटे से थोड़ा कम राग तोड़ी बड़ा और छोटा ख़्याल. और कोई दसेक मिनट का राग शाहना मध्यलय. आज मैं बयान नहीं कर सकता उस नादमय पाताली आवाज़ का उन दिनों मुझ पर क्या असर हुआ था. दर्जनों दफ़े ये ऑडियो मैंने सुना है. एक दौर ऐसा भी आया कि अमीर ख़ां का तोड़ी या सितार पर विलायत ख़ां का सांझ सरवली सुने बिना सूरज नहीं बुझता था. उसके बाद उस्ताद का मालकौंस, दरबारी और अभोगी कानड़ा ढूंढ-ढूंढकर सुने... कर्नाटकी संगीत वाला वही अभोगी कानड़ा, जिसे उस्ताद की आवाज़ में सुनकर पं. निखिल बनर्जी ठिठक गए थे और फिर छोड़ी हुई सभा में लौट आए थे, जैसे सितार की गत झाला से आलाप पर लौट रही हो.
जब हम हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के एस्थेटिक्स और उसके स्थापत्य की बात करते हैं तो ज़ाहिराना तौर पर हम यह भी साफ़ कर लेना चाहेंगे कि इस कला में ऐसी क्या ख़ूबी है जो दुनियाभर के बाशिंदों के कानों में यह सदियों से पिघला सोना ढालती रही है और इसके फ़न की सफ़ाई हासिल करने के लिए सैकड़ों उस्तादों ने अपनी पूरी की पूरी जिंदगी बिता दी है. दरअस्ल, अगर इस तरह कहा जा सके तो, हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत उस आदिम संसार से उठकर आता है, जो कंठ की कंदराओं में बसता है और जहाँ आज भी अर्थध्वनियों की दख़ल नहीं हो सकी है. यह बात मैं यह जानने-बूझने के बावजूद कह रहा हूं कि भारतीय शास्त्रीय संगीत पूर्णत: पद्धति आधारित संरचना है और इसके हर चरण, हर मात्रा का मुक़म्मल हिसाब उस्तादों के पास हुआ करता है. तब भी- बाय टेम्परामेंट- मुझे ये एहसास है कि वो एक अछूती और अंधेरी खोह से आता है. वह अनहद का आलाप है. समूचे अस्तित्व के मंद्रसप्तक से उठता हुआ एक आलाप... जिस मंद्र में आलम के तमाम रास्ते रुके हुए हैं.
हिंदुस्तानी संगीत के दो हिस्से मेरे लिए हमेशा ही सबसे ज़्यादा रोमांचक रहे हैं और उस्ताद अमीर ख़ां की गायकी में ये दोनों हिस्से अपनी पूरी धज के साथ मौजूद रहते हैं. इनमें पहला है सम पर आमद और दूसरा है षड्ज पर विराम. मुझे सम पर हर आमद घर वापसी जैसी लगती है. लगता है दुनिया में केवल एक ही घर है और वो है सम. षड्ज के विराम को मैं निर्वाण से कम कुछ नहीं मान सकता. अंत के बाद फिर-फिर... जैसे दिया बुझ जाए और हम घुप्प निर्वात में अनुगूंज के वलय देखते रहें.
लेकिन सबसे बड़ी चीज़ है वह पुकार, वह आह्लाद, वह बेचैनी और वह अधूरापन, जो संगीत की बड़ी से बड़ी सभा के बाद पीछे छूट जाता है. न जाने क्यों, मैं यह मानने को मजबूर हूं कि महानतम कला वही है, जो हमें हमारे उस अपूर्ण आह्लाद पर स्थानांतरित कर दे. बोर्खेस के लफ़्ज़ों में 'साक्षात की तात्कालिक संभावना'... एक अजब-सी सुसाइडल और ट्रांसेंडेंटल शै, जो सदियों से इंसानी रूह को रूई की मानिंद धुनती रही है. मैं लिखकर बता नहीं सकता अमीर ख़ां के तोड़ी में 'काजो रे मोहम्मद शाह' पर पड़ने वाली पहली सम क्या बला है और मालकौंस के पुकारते हुए आलाप के हमारी जिंदगी और हमारे वजूद के लिए क्या मायने हैं.
उस्ताद अमीर ख़ां की शालीन और ज़हीन शख्सियत के कई किस्से हैं. और ये भी कि सालोंसाल रियाज़ करने के बाद पहली दफ़े जब वे सार्वजनिक रूप से गाना सुनाने आए, तो उन्हें शुरुआत में ही अज़ीम उस्ताद क़बूल लिया गया. लेकिन बंबई के भिंडी बाज़ार में उस्ताद अमान अली ख़ां साहब के घर की सीढियों पर खड़े होकर गाना सुनने-सीखने वाले अमीर ख़ां ने अपनी आवाज़ और अपने संगीत को किस तरह धीमे-धीमे ढाला, इसके अफ़साने ज़्यादा नहीं मिलेंगे क्योंकि उन्होंने इन्हें ज़ाहिर करने की कभी इजाज़त नहीं दी. अपने एक संस्मरण में अशोक वाजपेयी ने लिखा है कि वे हमेशा गुम-गुम से रहने वाले शख़्स थे. जब गाते थे, तब भी लगता था, कुछ सोचते हुए गा रहे हैं. चैनदारी के साथ. कुछ वही, जिसे फिराक़ ने 'सोचता हुआ बदन' लिखा है. लेकिन उसी शख्सियत का एक दूसरा पहलू ये भी है कि उज्जैन में पं. नृसिंहदास महंत के बाड़े में पंडितजी के बच्चों को अलसुबह चिडियों की आवाज़ निकालकर भी उन्होंने सुनाई थी- एक ख़ास पंचम स्वर में. पं. ललित महंत आज भी उस आवाज़ को पुलक के साथ याद करते हैं. उस्ताद ने ठुमरियां भी गाई हैं, लेकिन न कभी उसे मंच पर लेकर आए और न कभी उन्हें कैसेट में नुमायां होने दिया- वजह, ठुमरी गाने में सिद्धहस्त उस्ताद बड़े ख़ां साहब के होते हुए उनके सामने वे ठुमरियां पेश करना नहीं चाहते थे. उनका इलाक़ा ख़्याल का इलाक़ा था. उस्ताद की गाई हुईं दुर्लभ ठुमरियों के रिकॉर्ड इंदौर के गोस्वामी गोकुलोत्सवजी महाराज के पास अब भी सुरक्षित हैं.
उस्ताद को सुनते हुए मैं अक्सर सोचा करता था कि क्या इस शख़्स के सामने वक़्त जैसी कोई दीवार खड़ी है या नहीं. टाइम और स्पेस आदमियत के दु:ख के दो छोर हैं- ऐसा मैंने हमेशा माना है- और उस्ताद को सुनते हुए हमेशा मैंने हैरानी के साथ ये महसूस किया है कि ज़मानों और इलाक़ों के परे चले जाना क्या होता है... जहाँ मौत एक मामूली-सा मज़ाक़ बनकर रह जाती है. उस्ताद की भरावेदार आवाज़ ने कई स्तरों पर हमारी जिंदगी को एक कभी न ख़त्म होने वाली सभा बना दिया है.
और तब मैं एक फ़ंतासी में दाखि़ल हो जाता हूं, जहाँ झूमरा ताल की बेहद धीमी लय सरकती रहती है... तानपूरे की नदी 'सा' और 'पा' के अपने दोनों किनारे तोड़ रही होती है... लय द्रुत होती चली जाती है और मात्राएँ तबले से फिसलकर गिरने लगती हैं... सन् 74 का साल आता है और कलकत्ते के क़रीब एक मोटरकार दुर्घटनाग्रस्त होकर चकनाचूर हो जाती है... कार में से एक लहीम-शहीम मुर्दा देह ज़ब्त होती है, लेकिन बैकग्राउंड में बड़े ख़्याल की गायकी बंद नहीं होती...वह आवाज़ बुलंद से बुलंदतर होती चली जाती है और तमाम मर्सियों के कंधों पर चढ़कर गहरी-अंधेरी खोहों के भीतर सबसे ऊँचे पहाड़ झाँकते रहते हैं...गाते हुए पहाड़, धीरे-धीरे पिघलते-से... जैसे वजूद की बर्फ गल रही हो.
उस्ताद को याद करते ये शहर एक घराना है... उस्ताद को सुनते ये सुबह एक नींद.
सुशोभित शक्यावत

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

गंगा पर सरकार की नीयत साफ नहीं



डॉ. महेश परिमल

कुंभ मेला शुरू हो चुका है। लोग उसमें स्नान कर अपने पापों को धो रहे हैं। पवित्र बन रहे हैं। अब तक लाखों बल्कि अरबों लोगों को ये गंगा नदी निष्पापी बना चुकी है। फिर भी इनकी संख्या कम नहीं हुई है। जितना ये लोगों का मैल धोती है, उतनी ही अपवित्र होती जाती है। अब तो ये पतित पावन गंगा इतनी मैली हो चुकी है कि अरबों रुपए खर्च होने के बाद भी इसे साफ नहीं किेया जा सका है। हो भी क्यों न आखिर इतने शहरों का मैला भी तो इसी गंगा में जा रहा है। आखिर वह किसे साफ करे, रोज लाखों टन आने वाले कचरे को या फिर उसमें डुबकी लगाने वालों को? गंगा मैली होती जा रही है, हम उसमें डुबकी लगाकर धन्य हो रहे हैं। ऐसा केवल और केवल हमारे ही देश में हो सकता है।
गंगा नदी को प्रदूषणमुक्त बनाने के लिए अब तक कुल 1670 करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं। इसके बाद भी यही गंगा लगातार प्रदूषित होती जा रही है। गंगा नदी को साफ करने की दिशा में पहला प्रयास राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में हुआ था, तब उन्होंने गंगा एक्शन प्लान शुरू किया था। इस महत्वाकांक्षी योजना को अमल में लाने के लिए सेंट्रल गंगा अथारिटी नामक एजेंसी का गठन किया गया। इस योजना का उद्देश्य था कि सन् 1984 से 1990 तक गंगा नदी में आने वाले हर प्रकार के प्रदूषण को रोककर संपूर्ण रूप से शुद्ध करना था। यह योजना अन्य सरकारी योजनाओं की तरह भ्रष्टाचार का शिकार हो गई। अंतत: इस योजना को सन् 2000 में बंद कर देना पड़ा। लेकिन तब तक इस पर कुल 452 करोड़ रुपए खर्च हो चुके थे। सेंट्रल गंगा अथारिटी ने नदी के किनारे उद्योगों के रसायनयुक्त पानी को गंगा नदी में आने से रोकने के लिए काम करना था, पर उसने अपना सारा ध्यान गटर के पानी को शुद्ध करने में लगाया। गटर के पानी के शुद्धिकरण के लिए आसपास के कुल 261 को शामिल किया गया। इसके लिए टेंडर जारी किए गए। ठेकेदारों को काम दिया गया, पर यह योजना भी भ्रष्टाचार का शिकार हो गई। ठेकेदारों ने धन ले लिया, पर काम नहीं किया। सरकार को करोड़ों का चूना लग गया।
गंगा एक्शन प्लान का पहला चरण अभी चल ही रहा था कि 1993 में केंद्र सरकार ने इसका दूसरा चरण प्रारंभ करने की घोषणा कर दी। इस दूसरे चरण में गंगा की सहायक नदियाँ यमुना, गोमती और दामोदर नदियों को शुद्ध करने का अभियान शुरू किया गया। इस अभियान से राय सरकार और ठेकेदारों को लगा कि इस योजना से तो बहुत ही कमाया जा सकता है, अतएव उन्होंने इस योजना का विस्तार करने की योजना बनाई। 1994 में केंद्र सरकार ने देश की सभी नदियों को प्रदूषणमुक्त करने के लिए नेशनल रिवर कंजर्वेशन अथारिटी की स्थापना की। इसके लिए 4064 करोड़ रुपए की महत्वाकांक्षी योजना तैयार की गई। इस योजना के तहत 18 रायों की 31 नदियों और उसे प्रदूषित करने वाले 157 शहरों को लिया गया। इस योजना को शुरू हुए 13 वर्ष हो गए, पर अभी तक इसमें ऐसी कोई खास प्रगति नहीं हुई है। उधर गंगा एक्शन प्लान के दूसरे चरण का काम 1993 में शुरू हुआ, जिसका 2001 तक मात्र 4 प्रतिशत काम ही हो पाया। इसके बाद इस योजना को नेशनल रिवर कंजर्वेशन प्रोग्राम के साथ मर्ज कर दिया गया।
इस पूरे प्रकरण पर भारत सरकार के कंट्रोलर एंड ओडियर जनरल (सीएजी)ने 1993-2000 के दौरान हुए भ्रष्टाचार पर अपनी बेरुखी प्रकट की थी। यही नहीं उश्रर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल द्वारा गंगा एक्शन प्लान में 35.07 करोड़ रुपए का भ्रष्टाचार किया गया। आश्चर्य की बात यह है कि इसमें 72.62 करोड़ रुपए खर्च ही नहीं हो पाए और 6.75 करोड़ रुपए के गलत आँकड़े तैयार किए गए। गंगा एक्शन प्लान के तहत जिन गटरों का शुद्धिकरण किया गया था, वे अब फिर उसी हालत में आ गए हैं, क्योंकि किसी की मशीन खराब हो गई है, किसी पम्पिंग स्टेशन से डीजल चोरी हो रही है, कहीं वहाँ की नगरपालिका के पास उसके संचालन के लिए धन नहीं है। कहीं बिजली नहीं है, कहीं मशीनें जंग खा रहीं हैं, कहीं पाइपों में कचरा जमा हो गया है। सबसे अधिक घपला पश्चिम बंगाल में हुआ। इसे देखते हुए अब कई राय भी इस योजना में शामिल होना चाहते हैं।
केंद्र सरकार द्वारा जो नेशनल कंजर्वेशन प्रोजेक्ट की योजना तैयार की गई है, उसका 70 प्रतिशत खर्च केंद्र सरकार देती है, शेष 30 प्रतिशत राय सरकार को खर्च करना होता है। अभी तक 2460 करोड़ की लागत वाली 763 योजनाएँ मंजूर की गई हैं। राय सरकारें इस योजना को अपने राय में शुरू करने के लिए उत्सुक दिखाई देती हैं। किंतु जितनी तत्पर वे धन प्राप्त करने में होती हैं, उतनी तत्पर योजना को अमल करने में नहीं होती। जिन 18 रायों को इस योजना के लिए चयन किया गया है, उसमें से बिहार, झारखंड, ओडिसा, राजस्थान, गोवा और केरल में शुरुआत भी नहीं हो पाई है। पश्चिम बंगाल में कुल 94 योजनाएँ मंजूर की गईं हैं, किंतु अभी तक उसमें से केवल एक योजना पर ही कार्यवाही पूरी हुई है। नेशनल रिवर कंजर्वेशन प्रोग्राम की पूरी कार्यशैली किसी भूलभुलैया से कम नहीं है। कई लोग इसे मजाक में नेशनल गटर ट्रिटमेंट प्रोग्राम के नाम से जानते हैं। क्योंकि इस योजना में यह मान लिया गया है कि गटर के पानी का यदि शुद्धिकरण कर दिया जाता है, तो देश की संपूर्ण नदियाँ प्रदूषण से मुक्त हो जाएँगी। हकीकत तो यह है कि जिस दिल्ली जैसे राय, जहाँ इसे पूरी तरह से लागू किया गया है और जहाँ शत-प्रतिशत काम हुआ है, वहीं की नदियों का पानी सबसे अधिक प्रदूषित हुआ है। नवम्बर 2002 में सेंट्रल पाल्यूशन कंट्रोल बोर्ड यहाँ की नदियों के पानी का नमूना लिया, तो पता चला कि उस पानी में कोलीफार्म बेक्टिरिया की मात्रा 100 मिलीमीटर में से 118 मिलियन जितनी देखने को मिली। ये बैक्टिरिया मानवमल के माध्यम से इस नदियों में पहुँच रहे हैं।
सेंट्रल पालुशन बोर्ड के अतिरिक्त डायरेक्टर आर.सी. त्रिवेदी स्वीकारते हैं कि दिल्ली शहर में रोज 330 करोड़ लीटर गंदा पानी पैदा होता है। इसमें से केवल 150 करोड़ लीटर का ही शुद्धिकरण हो पाता है। क्योंकि म्युनिसिपल कार्पोरेशन के पास इससे अधिक पानी के शुद्धिकरण की व्यवस्था नहीं है। शेष 180 करोड़ लीटर पानी बिना किसी शुद्धिकरण के यमुना नदी में छोड़ दिया जाता है। यही पानी आगे चलकर गंगा नदी में मिल जाता है। दिल्ली में यमुना को साफ रखने के लिए सरकार ने 150 करोड़ रुपए केवल संडास बनाने में ही खर्च किया, ताकि लोग नदी के किनारे दिशा मैदान न करें। पर इस काम में इतना अधिक भ्रष्टाचार हुआ कि आज अधिकांश संडास जर्जर हो गए हैं। इस काम के लिए धन जापान बैंक ऑफ इंटरनेशनल कार्पोरेशन नामक एक संस्था ने दिया था। यमुना एक्शन प्लान के पहले ही चरण में जो भ्रष्टाचार हुआ, उससे नाराज होकर कंपनी ने अगले चरण का धन देने से ही इंकार कर दिया।
चाहे वह यमुना एक्शन प्लान हो या फिर गंगा एक्शन प्लान, इसमें दूरदर्शिता का पूरा-पूरा अभाव है। केवल भ्रष्टाचार ही इसका मुख्य उद्देश्य बन गया है। सरकार की तरफ से दी जाने वाली सहायता को राय सरकारें हड़प लेती हैं। न नदियाँ साफ हो रहीं हैं और न ही गटर की सफाई हो पा रही है। साफ होता है तो केवल धन, बाकी सब भ्रष्टाचार की भेेंट चढ़ जाता है। ऐसे मेें कैसे हो पाएगी हमारी गंगा नदी प्रदूषणमुक्त? हमारी योजनाओं में कोई खामी नहीं है, खामी है हमारी कार्यप्रणाली में, हमारी मानसिकता में, हमारी सोच में, जब तक इसे नहीं बदला जाएगा, तब तक कई गंगाएँ इसी तरह प्रदूषित होती रहेंगी और इसमेें डुबकी लगाकर हम अपने सारे पापों को धोते रहेंगे। ऐसे में आखिर गंगा भी कब तक पवित्र बनी रहेगी?
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

फिल्‍मी नायकों की बनती बिगड़ती जोडि़यॉं


हिन्दी सिनेमा जगत में फिल्मों को हिट कराने में नायकों की जोडियां बनाने का फार्मूला बेहद कामयाब रहा है लेकिन कई बार कलाकारों के बीच अहम के टकराव और अन्य कारणों से उनकी जोडियां बन नहीं पाती और दर्शक अपनी मनपसंद जोडियों को फिल्म में देखने से वंचित रह जाते हैं। बालीवुड का इतिहास देखे तो नायकों की जोडियों को परदे पर उतारने की शुरआत पचास के दशक में हुई, जब निर्माता निर्देशक महबूब खान ने अपनी फिल्म अंदाज दिलीप कुमार और राजकपूर को पहली बार एक साथ पेश किया था। प्रेम त्रिकोण पर आधारित इस फिल्म में नरगिस ने भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। बेहतरीन गीत,संगीत से सजी यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट साबित हुई। बाद में कई फिल्म निर्माताओं ने दिलीप कुमार और राजकपूर को अपनी फिल्म के जरिए पेश करना चाहा लेकिन उनका यह प्रयास असफल रहा। इसी तरह पचास के दशक में दिलीप कुमार और देवानंद को निर्माता, निर्देशकों ने अपनी फिल्मों में जोड़ी बनाकर पेश करना चाहा लेकिन यहां भी उन्हें कुछ खास सफलता हासिल नहीं हुई। हांलाकि ये दोनों कलाकार निर्माता निर्देशक एस,एस,वासन की 1955 में प्रदशत फिल्म इंसानियत में नजर आए थे लेकिन इसके बाद उन्होंने कभी एक साथ काम नही किया। इसी तरह राजकपूर और देवानंद को एक साथ रूपहले पर्दे पर लाने का प्रयास कई फिल्म निर्माताओ ने किया लेकिन उन्हें सफलता नही मिली। लोकप्रियता के लिहाज से लगभग बराबरी पर रहने वाले इन कलाकारों के बीच अहम का टकराव उन्हें परदे पर एक साथ लाने में बाधक बना रहा। फिल्म निर्माताओं ने अभिनय सम्राट दिलीप कुमार और संवाद अदायगी के बेताज बादशाह राजकुमार की जोड़ी बनाने का भी प्रयास किया। आरंभिक दौर में फिल्म पैगाम के जरिए दोनों कलाकार एक साथ नजर आए लेकिन बाद में उनके बीच कुछ मनमुटाव हो गया। बाद में नब्बे के दशक में निर्माता निर्देशक सुभाष घई के बहुत जोर देने पर दिलीप कुमार और राजकुमार एक साथ काम करने के लिए राजी हुए। नतीजा यह हुआ कि दोनों की जोड़ी वाली फिल्म सौदागर बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट साबित हुई। पचास के दशक में ही राजकपूर, राज कुमार, देवानंद, राजकुमार राजेन्द्र कुमार राजकुमार राजेन्द्र कुमार देवानंद की जोड़ी बनाने के लिए प्रयास किए गए लेकिन अधिकतर मौके पर निर्माता-निर्देशकों को नाकामी ही हासिल हुई। देवानंद और राजकुमार और राजकपूर राजकुमार ने कभी एक साथ काम नहीं किया। साठ के दशक में फिल्म दिलीप कुमार और संजीव कुमार 1968 में प्रदशत फिल्म संघर्ष में एक साथ दिखाई दिए। हालांकि पूरी फिल्म अभिनेता दिलीप कुमार छाए हुए थे लेकिन संजीव कुमार अपनी छोटी सी भूमिका में दर्शकों का दिल जीतने में सफल रहे । फिल्म में एक दो मौके पर तो संजीव कुमार अपने अभिनय से दिलीप कुमार पर हावी नजर आते हैं। सत्तर के दशक में भी दिलीप कुमार और संजीव कुमार की जोड़ी को रूपहले पर्दे पर एक साथ उतारने का प्रयास किया गया लेकिन यह प्रयास नाकाम रहा । बाद में सुभाष घई ने अपनी फिल्म विधाता के जरिए दोनों को एक साथ पेश किया। इस फिल्म में उनका टकराव देखने लायक था। जाहिर है कि फिल्म ने सफलता के नए कीतमान स्थापित किए । इसके बाद दिलीप कुमार और संजीव कुमार की जोड़ी फिल्मी पर्दे पर नहीं दिखाई दी। दिलीप कुमार और राजेन्द्र कुमार ने केवल एक फिल्म जोगन में एक साथ काम किया था। साठ के दशक में राजकपूर और जुबली कुमार राजेन्द्र कुमार को भी रूपहले पर्दे पर पेश करने का प्रयास किया गया लेकिन यह प्रयास भी नाकाम रहा। बाद में राजकपूर ने अपनी ही निमत फिल्म संगम के जरिए राजेन्द्र कुमार के साथ जोड़ी बनाकर दर्शकों का मनोरंजन किया। इसके बाद राज कपूर और राजेन्द्र कुमार राज कपूर निमत फिल्म, मेरा नाम जोकर, में एक साथ नजर आए लेकिन वास्तविक तौर पर यह राज कपूर की केन्द्रीय भूमिका वाली फिल्म थी न कि उनकी जोड़ी वाली फिल्म।
इसके बाद काफी अरसे तक सिने दर्शक दोनों की जोड़ी वाली फिल्म देखने से वंचित रहे। बाद में दोनों कलाकार एक साथ फिल्म दो जासूस में नजर आए। इस दशक में फिल्मकारो ने मनोज कुमार, दिलीप कुमार, राजकुमार, राजेन्द्र कुमार जैसे सितारों की जोडी बनानी चाही लेकिन कुछ मौको को छोड़कर ये जोडियां कायम नहीं रह सकी। दिलीप कुमार को अपना आदर्श मानकर फिल्म इंडस्ट्री का रूख करने वाले मनोज कुमार ने जब कभी उनके साथ काम किया, फिल्म सुपरहिट रही। सबसे पहले यह जोड़ी फिल्म आदमी में एक साथ दिखाई दी बाद में मनोज कुमार ने अपनी निमत फिल्म क्रांति में दिलीप कुमार के साथ काम किया लेकिन इसके बाद दोनो कलाकारो ने कभी एक साथ काम नहीं किया। मनोज कुमार और राजकुमार ने फिल्म नील कमल की कामयाबी के बाद कभी सुपरहिट जोड़ी के रूप में काम नही किया। हालांकि फिल्म पंचायत में दोनों कलाकारो ने साथ काम किया लेकिन फिल्म कब आई और कब गई, पता ही नही चला। इसी तरह मनोज कुमार और राजेन्द्र कुमार को रूपहले पर्दे पर जोड़ी के रूप में एक साथ देखने की दर्शकों की हसरत अधूरी ही रही हांलाकि एक फिल्म क्लर्क में दोनो एक साथ नजर आए लेकिन फिल्म में मनोज कुमार केन्द्रीय भूमिका में थे जबकि राजेन्द्र कुमार के हिस्से महज चरित्र भूमिका आई। सत्तर के दशक में ही देवानंद, राजेन्द्र कुमार राजकुमार, संजीव कुमार और देवानंद, संजीव कुमार की जोड़ी बनाने के लिए निर्माता-निर्देशकों द्वारा प्रयास किया गया लेकिन बात नहीं बनी और दर्शक इन कलाकारो की जोड़ी वाली फिल्म देखने से सदा के लिए वंचित रह गए। सत्तर और अस्सी का दशक अमिताभबगान, राजेश खन्ना जितेन्द्र धर्मेन्द्र, फीरोज खान और विनोद खन्ना जैसे सितारो का था। अमिताभ बगान और जितेन्द्र ने केवल एक फिल्म ,गहरी चाल, में एक साथ काम किया। अमिताभ बगान और राजेश खन्ना की जोड़ी केवल दो फिल्मों आनंद और नमक हराम में एक साथ नजर आई। दर्शको ने भी इस जोड़ी को सर आंखों पर लिया लेकिन इसके बाद दोनों कलाकार ने कभी एक साथ काम नहीं किया। इन सबके साथ ही संवाद अदायगी में माहिर अमिताभ और राजकुमार को पर्दे पर एक साथ देखने की दर्शकों की तमन्ना अधूरी ही रह गई।
सिने दर्शक अमिताभ बगान राजकपूर और अमिताभ देवानंद राजेश खन्ना दिलीप कुमार और राजेश खन्ना देवानंद की जोड़ी वाली फिल्मों का लुत्फ नहीं उठा पाए। राजकपूर और राजेश खन्ना ने केवल एक फिल्म नौकरी मे एक साथ काम किया। दर्शक दिलीप कुमार और अमिताभ बगान को एक साथ देखना चाहते थे। दोनों कलाकार फिल्म शक्ति में एक साथ नजर आए। पिता और पुत्र के बीच अंतर्द्वद्व को दिखाने वाली इस फिल्म को सिने दर्शको ने सर आंखों पर लिया। लेकिन इसके बाद दोनों कलाकार एक साथ कभी काम नहीं कर सके। अस्सी और नब्बे का दशक में सन्नी देओल, संजयदत्त, जैकी श्राफ और अनिल कपूर जैसे सितारे आए। इस दशक में मैचो मैन संजय दत्त और रफ टफ अनिल कपूर को एक साथ देखने की दर्शकों की तमन्ना अधूरी ही रही। हालांकि निर्माता,निर्देशकों के काफी प्रयास के बाद अरसे बाद फिल्म मुसाफिर में दोनों कलाकार एक साथ नजर आए। नब्बे और 2000 का दशक आमिर खान सलमान खान शाहरूख खान और अक्षय कुमार जैसे सितारों का रहा। आमिर खान ने शाहरूख खान के साथ कभी काम नहीं किया। जबकि सलमान खान और आमिर खान केवल एक फिल्म अंदाज अपना अपना में एक साथ नजर आए। अक्षय कुमार ने जोड़ी बनाकर न तो आमिर खान, सलमान खान और न ही शाहरुख खान के साथ कभी काम किया।

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

फोटोग्राफी को नया आयाम देने वाले वी के मूर्ति



दादा साहेब फाल्के पुरस्कार मिलने पर विशेष

भारतीय फिल्म जगत में अपनी प्रयोगधमता के लिए विख्यात दिग्गज फोटोग्राफर वी, के,मूर्ति को हाल में वर्ष 2008 के सर्वोच्च फिल्म सम्मान दादा साहेब फाल्के पुरस्कार के लिएचुना गया। हालांकि यह सम्मान उन्हें वर्षों पहले मिल जाना चाहिए था लेकिन खुशी की बात है कि देर से ही सही, उन्हें इस पुरस्कार के लायक समझा गया। प्रसन्नता की बात यह भी है कि इससे पहले किसी फिल्मी छायाकार को यह पुरस्कार नहीं मिला था। इस तरह किसी फोटोग्राफर को इस पुरस्कार के लिए चुनकर एक नई शुरुआत भी हुर्ई है। 1923 को कर्नाटक के मैसूर में जन्मे 86 वर्षीय वी के मूर्ति किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। पांच दशक लंबे कैरियर में उनके खाते में जाल,1952, बाज,1953, आर पार,1954, मिस्टर ऐंड मिसेज 55,1955, मिलाप,1955, सीआईडी,1956, प्यासा,1957, 12 ओ क्लाक,1958, कागज के फूल,1959,चौदहवीं का चांद,1960, साहब बीबी और गुलाम,1962, जिद्दी,1964, लव इन टोक्यो,1966, सूरज,1966, शिकार,1968, तुमसे अच्छा कौन है,1969, नया जमाना,1971, जुगनू,1973, पाकीजा, वारंट,1975, बारूद,1976, आजाद, 1978, नास्तिक,1983, रजिया सुल्तान,1983 ,जागीर,1984, कलयुग और रामायण,1987, खुलेआम,1992, और दीदार, 1992, द्रोहकाल,1994,जैसी फिल्में दर्ज हैं। इसके अलावा उन्होंने कमाल अमरोही की महल,1949, में प्रोडक्शन सेक्रेटरी और फिल्म,बाजी ,1951, में सहायक कैमरामैन के रूप में किया तथा वह टेलीविजन शृंखला,भारत एक खोज,1988, और तमस,से भी जुडे थे। उन्होंने राजेंद्र सिंह बाबू की एक बहुप्रशंसित फिल्म,हूवु हन्नु, के लिए भी फोटोग्राफी की और उसमें अभिनय भी किया। मूर्ति ने निर्माता, निर्देशक,अभिनेता गुरुदत्त के साथ सर्वाधिक फिल्मों में काम किया । इसके बाद उन्होंने निर्माता,निर्देशक कमाल अमरोही,प्रमोद चक्रवर्ती, श्याम बेनेगल और गोविंद निहलानी की फिल्मों के लिए फोटोग्राफी की। उनका गुरुदत्त के साथ जुड़ाव मृत्युपर्यंत रहा। गुरुदत्त की टीम में उनके आने की कहानी बड़ी दिलचस्प है। मूर्ति बताते हैं कि पहली बार वह उनसे नवकेतन की ,बाजी, फिल्म की शूटिंग के दौरान मिले। इस फिल्म में वह सहायक कैमरामैन के रूप में काम रहे थे। उन्होंने गुरुदत्त को मुश्किल शाट लेने का सुझाव दिया, जिस पर उन्होंने कहा कि उनका कैमरामैन यह शाट नहीं ले पाएगा तब मूर्ति ने उनसे शाट लेने की इजाजत देने को कहा । इस पर गुरुदत्त ने उन्हें दो या तीन टेक में वह शाट ,ओके, करने को कहा लेकिन उन्होंने पहले ही टेक में वह शाट ओके कर दिया। गुरुदत्त मूर्ति से बेहद प्रभावित हुए और उन्होंने ,पैक अप, के बाद उनसे ,बाजी, फिल्म के लिए काम करने को कहा लेकिन इसे मूर्ति की सदाशयता कहा जाएगा कि उन्होंने गुरुदत्त से कहा कि फिल्म के बीच में कैमरामैन को हटाना ठीक नहीं होगा।वह उनकी अगली फिल्म में जरूर काम करेंगे। इसके बाद तो उन्होंने गुरुदत्त की फिल्मों के जरिए फिल्मी फोटोग्राफी की एक नई इबारत लिख दी। मूर्ति की छायांकन कला की पराकाष्ठा गुरुदत्त की फिल्म,कागज के फूल, में देखने को मिलती है। यह भारत की पहली सिनेमास्कोप फिल्म थी। गुरुदत्त और मूर्ति को विदेशी फिल्में देखकर सिनेमास्कोप रूप में यह फिल्म बनाने का विचार आया था। मूर्ति बताते हैं कि टवेन्टियथ सेंचुरी फाक्स के मैनेजर प्रभु अपनी एक फिल्म को सिनेमास्कोप शूट करने के लिए भारत आए तो वह वापस जाते समय लेंस यहां अपने कार्यालय में छोड़ गए । उन्होंने गुरुदत्त से कहा कि क्या वह उनके उपकरणों का इस्तेमाल करना चाहेंगे। मूर्ति ने कुछ शाट लिए और रशेज देखने के बाद गुरुदत्त ने कागज के फूल को सिनेमास्कोप रूप में बनाने का फैसला किया।
इसी फिल्म के एक गीत,वक्त ने किया क्या हसीं सितम, में मूत ने रोशनदान से लकीर में रूप में कमरे के भीतर आ रहे प्रकाश को दिखाया था, जो भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक मिसाल बन चुका है। मूत बताते हैं कि उन्होंने इस मुश्किल द्यश्य को किस तरह शूट किया था। उन्हें यह आइडिया एक लाइट ब्वाय को शीशे से प्रकाश को परावतत करते देखकर आया था। वह बताते हैं, हमने दो बडे शीशे मंगाये और एक को नटराज स्टूडियो के बाहर और दूसरे को सूरज की रोशनी में रख दिया। इससे प्रकाश परावतत होकर दूसरे शीशे पर पड़ने लगा। इसके बाद स्टूडियो की बालकनी का दरवाजा खोल दिया गया,जिससे ह्नरकाश रोशनदान से लकीर के रूप में भीतर आने लगा और कुछ धुआं छोड़ दिया गया।गुरुदत्त अपनी फिल्मों में चेहरे की सूक्ष्म भावों को कैद करने के लिए क्लोज अप शाट लेने के वास्ते 75 एम एम के लेंस का इस्तेमाल करते थे। मूत ने अपने कैमरे से इनका कुशल इस्तेमाल किया। मूत अपने कैमरे के कमाल से गुरुदत्त की नायिकाओं को खूबसूरत दिखाने में कोर्ई कसर नहीं छोड़ते थे, इसलिए वह उनके बीच काफी लोकप्रिय थे। गुरुदत्त कभी, कभी उनसे मजाक में कहा करते थे, मैं डायरेक्टर हूं, लेकिन अभिनेतियां मुझसे बात नहीं करतीं। गुरुदत्त से अभिनय कराने में भी मूत की महत्वपूर्ण भूमिका रही। गुरुदत्त अभिनेता के रूप में कैमरे के सामने आने में हिचकते थे लेकिन मूत के आग्रह पर वह अभिनय करने लगे। वह बताते हैं कि उनके और गुरुदत्त के बीच एकाध मौको को छोड़कर व्यावसायिक रिश्ते काफी मधुर थे। मूत फिल्म के द्यश्यों को लेकर कभी हस्तक्षेप नहीं करते थे और गुरुदत्त उनके काम में कभी दखलंदाजी नहीं करते थे लेकिन यदि वह कोर्ई सुझाव देते थे तो मूत उसे स्वीकार करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। वह बताते हैं कि एक बार गुरुदत्त उनसे नाराज हो गए थे क्योंकि वह शाट के लिए काफी समय ले रहे थे। इस पर उन्होंने कहा कि जब वह खर्च उठाने लायक हो जाएंगे तो उनके लिए एक फिल्म बनाएंगे, जिसमें वह अपने शाट की तैयारी के लिए उन्हें पूरा समय देंगे। गुरुदत्त ने अपने वादे को कागज के फूल के जरिए
पूरा किया। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि मूत फिल्मों में काम करने से पहले वायलिन वादक थे और उन्होंने आजादी के आंदोलन में भाग लिया था। इस दौरान वह कुछ दिन जेल में भी रहे थे। मूत ने ज्यादातर श्वेत,श्याम फिल्मों में अपनी फोटोग्राफी का जादू दिखाया लेकिन यह उल्लेखनीय है कि उन्होंने रंगीन फिल्मों में काम करने के लिए लंदन में प्रशिक्षण हासिल करने के दौरान द गन्स आफ नवारोन के दल के साथ भी काम किया। कन्नड़ भाषा में उनके जीवन पर लेखिका उमा राव ने पुस्तक लिखी है,जिसका जनवरी,2006 में बेंगलूर में विमोचन किया गया। मूत को सिनेमा में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए 2005 में आइफा लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया गया। इसके अलावा कागज के फूल और साहब बीबी और गुलाम के लिए फिल्मफेयर तथा कन्नड़ फिल्म हूवु हन्नु के लिए कर्नाटक सरकार का सर्वश्रोष्ठ सिनेमैटोग्राफी पुरस्कार मिल चुका है। मूत 2001 में अस्सी वर्ष की उम्र में मुम्बई से वापस बेंगलूर चले गए, जहां वह फिल्मों की चमकती,दमकती दुनिया से दूर शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
अजय कुमार विश्वकर्मा

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

लकी नाम, बॉलीवुड को बस इसी से काम

कहावत है कि नाम से क्या रखा है, लेकिन हिन्दी, फिल्म उद्योग में नाम से ही काम है। बालीवुड में सितारे किसी फिल्मी नाम के एक बार हिट हो जाने के बाद उस ,लकी नाम, के साथ परदे पर अक्सर देखे जाते हैं। किसी ,खास, नाम से निभाये नायकों के किरदारों की लंबी फेहरिस्त रही है। रामगोपाल वर्मा की 29 जनवरी को प्रदशत हो रही फिल्म ,रण, भी इसी श्रृंखला की नईकड़ी में शामिल होने जा रही है। इसमें अभिनेता अभिताभ बच्चन ने एक बार फिर अपने फिल्मी नाम ,विजय, का सहारा लिया है। इसमें किसी फिल्म के सफल होने के बाद किसी खास नाम को अपनाने और बार,बार उसी नाम से भूमिकाएं निभाने की प्रवृत्ति एक बार फिर पुख्ता हुई है। महानायक अमिताभ बच्चन के सिने कैरियर पर निगाह डालने पर पता चलता है कि उनके निभाये किरदारों को बार,बार ,विजय, नाम दिया गया। सबसे पहले वह अपनी पहली सुपरहिट फिल्म ,जंजीर, में विजय नाम से परदे पर आए थे। ,दीवार, से वह सुपर स्टार बने और उस फिल्म में भी उनका नाम ,विजय, ही था। इसके अलावा उन्होंने त्रिशूल, डान, शक्ति, काला पत्थर, द ग्रेट गेम्बलर, शहंशाह, अकेला, अग्निपथ, रोटी कपड़ा और मकान, शान, हेराफेरी, आंखें, एक रिश्ता द बांड आफ लव, आखिरी रास्ता और हेराफेरी में भी उन्होंने विजय नाम से काम किया। अमिताभ बच्चन का पारिवारिक नाम ,अमित, भी उनकी फिल्मों में इस्तेमाल किया जाता रहा है। महान, सिलसिला, सुहाग, कसमें वादे, परवरिश, कभी कभी,दो अनजाने, बेनाम और कसौटी में भी उनके किरदार का नाम अमित था। अमिताभ बच्चन नाम के मोह में फ्सँने वाले अकेले अभिनेता नहीं हैं। कई अन्य नायकों का भी इस मिथक पर अटूट विश्वास रहा है। उन्होंने भी अपने ,खास, नाम को लेकर किरदार निभाएँ हैं और उनकी फिल्‍मों को खासी कामयाबी भी मिली है । इन अभिनेताओं में अजय देवगन शाहरूख खान, सलमान खान,गोविंदा,राजकपूर, जितेन्द्र, और मनोज कुमार प्रमुख रहे हैं। अजय देवगन अपनी फिल्मों मे अक्सर अपने पारिवारिक नाम ,अजय ,का सहारा लेते रहे हैं। वह अजय नाम का इस्तेमाल अपनी पहली फिल्‍म फूल और कांटे के अलावा सुहाग, गुंडाराज, हकीकत जंग इश्क जख्म और हिन्दुस्तान की कसम में कर चुके हैं। इसी नाम ने उनकी किस्मत के सितारों को बुलंदी तक पहुंचाया है।
बॉलीवुड के बादशाह शाहरूख खान का नाम उनकी निभाई फिल्मो में अक्सर ,राहुल, और ,राज, रहा करता है। उन्होंने राहुल नाम का इस्तेमाल डर दिल तो पागल है जमाना दीवाना यस बॉस कुछ कुछ होता है और कभी खुशी कभी गम में किया है । मेहमान कलाकार की भूमिका वाली फ्ल्मि ,हर दिल जो प्यार करेगा और डॉन में भी उनका नाम राहुल था। इसके अलावा मोहब्बते दिलवाले दुल्हनिया ले जायेगे बादशाह और चलते चलते मे उनका फ्ल्मिी नाम राज था। फ्ल्मिी दुनिया और हकीकत में अपने कारनामों से हमेंशा चचत रहने वाले सलमान खान अपनी फिल्मो मे, प्रेम,नाम का इस्तेमाल करते रहे है । प्रेम नाम का इस्तेमाल सबसे पहले मैंने प्यार किया और इसके बाद हम आपके है कौन हम साथ,साथ है कहीं प्यार न हो जायेअंदाज अपना अपना बीबी नं । नो एंट्री चल मेरे भाई जुड़वा तथा मेहमान भूमिका वाली फिल्म सिर्फ तुम दीवाना मस्ताना और मैरी गोल्ड में किया। फिल्म इंड्रस्टी के राजा बाबू यानी गोविन्दा अपनी फिल्मों मे अपना नाम ,राजा, रखते आये है । प्रतीक्षा राजाबाबू दुलारा खुल्लम खुल्ला प्यार करें राजा भइया जोरू का गुलाम अनाड़ी न,। और दुल्हे राजा मे उनका नाम राजा था। प्रसिद्व अभिनेता,निर्माता,निर्देशक राजकपूर ने अपनी फिल्मों मे अपना नाम राज रखा था। दास्तान आवारा बेवफा अंबर आह, श्री 420 अनाड़ी दुल्हा-दुल्हन, एराउंड द वर्ल्ड और सपनों का सौदागर में राजकपूर का नाम राज ही रहा। जितेन्द्र की फिल्मों मे उनका पारिवारिक नाम रवि कपूर रहा है। परिचय आखिरी दांव प्रियतमा प्यासा सावन हिम्मतवाला अपने अपने नफरत की आंधी न्याय अन्याय जन्म कुंडली कुछ तो है ्खलनायिका और आसूँ बने अंगारे फिल्मों में जितेन्द्र का नाम रवि ही था। जितेन्द्र , विजय, नाम का इस्तेमाल भी अपने फिल्मों मे करते आये है । उनकी पहली फिल्म गीत गाया पत्थरों ने में उनका नाम विजय था। उसके बाद जैसे को तैसा् दुल्हन दिल और दीवार टक्कर जख्मी शेर स्वर्ग से सुन्दर सोने पे सुहागा प्रतीक्षा आदमी खिलौना है और महानता फिल्म में भी जितेन्द्र का नाम विजय ही रहा। भारत कुमार के नाम से मशहूर मनोज कुमार ने क्रांति रोटी कपड़ा और मकान पूरब और पश्चिम और उपकार मे ,भारत, नाम का इस्तेमाल किया। नाम से प्रेम के मामले में बालीवुड के खलनायक भी नायकों से पीछे नहीं हैं । शक्ति कपूर ने शक्ति नाम का सहारा अपनी फिल्म शा ्वारदात ये रिश्ता न टूटे हिम्मतवाला शपथ राजा और राणा असली नकली इंसानियत के दुशमन जमाई राजा जिंदगी एक आ ्पायल इंसानियत के देवता जल्लाद जोड़ी न. 1 और अंखियो से गोली मारे फिल्मों मे किया। प्रेम चोपड़ा ने प्रेम नाम का इस्तेमाल बाबी डोली यादगार दो जासूस महाचोर ड्रीमगर्ल आजाद झूठा कही का संन्यासी आसपास ् हवालात और अंहकार फिल्म में किया। बाबी फिल्म मे बोला गया ,डायलाग प्रेम नाम है मेरा प्रेम चोपड़ा,काफी हिट रहा था। फिल्म इंड्रस्टी के बैड मैन कहे जाने वाले गुलशन ग्रोवर का फिल्मी नाम गुलशन या गुल्लू रहा है । अर्थ, अंदर बाहर हिफाजत दरियादिल, सपनों का मंदिर कर्ज चुकाना है सपने साजन के् मां दुलारा ईस्ट साईड और ये मोहब्बत है फिल्मों में उनका नाम गुलशन या गुल्लू था। गोगा कपूर का फिल्मी नाम गोगा रहा है । जंजीर हेराफेरी खून पसीना मुकद्दर का सिकन्दर् लहू के दो रंग कुली मर्द अल्ला रखा, असली नकली ्सड़क छाप गंगा जमुना सरस्वती इंसानियत और कलयुग का अवतार फिल्मो मे उनका नाम गोगा ही था। रंजीत ने ,रंजीत, नाम का इस्तेमाल बंधे हाथ अमीर गरीब हिमालय से उंचा धोती लोटा और चौपाटी धरमवीर अमर अकबर एंथोनी टक्कर नमकहलाल शपथ् गिरफ्तार मेरी जबान जिम्मेदार, जालिम आतंक और बुलंदी फिल्मो मे किया है।
प्रेम कुमार

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