सोमवार, 25 जनवरी 2010

तीनों कालखंडों में इतिहास रचने वाला दोआबा

कभी धन्ना सेठ का इलाका कहलाने वाले गंगा,यमुना के मध्य बसे कौशाम्बी के दोआबा में आज गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी ने भले ही अपना स्थाई ठिकाना बना लिया हो लेकिन तीनों काल खण्डों में इतिहास रचकर यह उत्तर प्रदेश के मानचित्र पर खास मुकाम रख रहा है। दोआबा क्षेत्र समकालीन भारतीय इतिहास के सुनहरे पन्नों में दर्ज है। इतिहास का कोई भी दौर हो, कौशाम्बी ने अपनी अमिट छाप छोडी है। यहां चारो तरफ फैले सबूत इसकी ऐतिहासिकता एवं पौराणिकता की गवाही देते हैं।
पुराणों के अनुसार वैदिक काल में राजा दक्ष के यज्ञ में बिना बुलाए गई सती ने जब अपने पति भगवान शंकर का अपमान मायके में देखा तो व्यथित होकर अपने प्राण त्याग दिए। इस अनहोनी की जानकारी होने पर शंकर सृष्टि के संहारक के रूप में सामने आ गए। उन्होंने सती का मृत शरीर लिया और उड़ चले आकाश मार्ग पर। भगवान विष्णु ने त्रिपुरारी को रोकने के लिए सुदर्शन चक्र का सहारा लिया, जिसने सती के शरीर के 51 टुकडे किए। इसमें से एक अंग यहां कडा में गिरा और यह स्थान शक्तिपीठ कहलाया जो शीतला मां के नाम से विख्यात हुआ। ऐसी मान्यता है कि चेचक से पीडित कोई व्यक्ति यदि उनके दर्शन को आता है तो उसे इससे निजात मिलती है। इसीलिए यहां हजारों लोग प्रतिदिन मां के दर्शन के लिए आते हैं। जैन काल में जैनियों के चौथे तीर्थकर भगवान पद्मप्रभु ने यमुना के सुरभ्य तट पर जन्म लिया। पभोषा के पौराणिक पहाड पर उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और इसी जगह पर जैन धर्म को मजबूत करने के लिए उन्होंने संदेश दिए। जैनियों के तीर्थकर भगवान महावीर ने भी इस पवित्र धरती पर कदम रखा। वह कौशाम्बी स्थित पभोषा की ख्याति सुनकर यहां आए। कौशाम्बी की ही पवित्र धरती पर जैन गणिनी चंद्रना ने खुद भूखे रह
कर उन्हें आहार दिया। इसके बाद ही चंदना इतिहास के पन्नों में अमर हो गई। चंदना-महावीर के इस मिलन का गवाह आज भी कौशाम्बी-पभोषा का पवित्र क्षेत्र है। महाभारत युध्द के बाद श्रीकृष्ण अंतिम दिनों में वह कौशाम्बी आए। यहीं एक बहेलिए के तीर का शिकार होकर वह गोलोकवासी हुए। कौशाम्बी का प्राचीन जैन मंदिर इस पूरी घटनाक्रम की गवाही दे रहा है।
बौध्द काल में षोडस महाजन पदों में से एक कौशाम्बी को धनिकों की नगरी कहा जाता था। इतिहासकारों का कहना है कि प्रसिध्द धन्नासेठ कौशाम्बी के ही निवासी थे। तब यमुना नदी के सहारे ही पूरा व्यापार होता था। कौशाम्बी में बौध्द धर्म का बोलबाला था। भगवान बुध्द श्रावस्ती से कई बार चतुर्मास गुजारने के लिए कौशाम्बी आए। घोषिता राम एवं कुकक्टा राम नाम के दो व्यापारियों ने उनके ठहरने के लिए यहां विहार बनवाना था। इस पवित्र क्षेत्र में भगवान बुध्द ने कई स्थानों पर अपनी यादगार छोडी है। कौशाम्बी के बारे में सम्राट अशोक ने भी सुन रखा था। कलिंग युध्द के बाद जब अशोक को हिंसा से नफरत हो गई तो उसने कौशाम्बी को ही ठिकाना बनाया। उन्होंने यहीं से अहिंसा का संदेश देना शुर किया। सम्राट अशोक ने कौशाम्बी में अशोक स्तम्भ का निर्माण कराया। बौध्द काल में ही कौशाम्बी एक सुविकसित नगरी थी । उत्खनन में इस बात के प्रमाण मिल चुके हैं। सिन्धु घाटी की सभ्यता के बाद अगर देश में कहीं नगरीय सभ्यता के प्रमाण मिले हैं तो वह केवल कौशाम्बी है। महराज उद्यन की चर्चा के बगैर कौशाम्बी का इतिहास अधूरा है। बौध्द काल के बाद महराज का राजपाठ चारो तरफ फैला था। गढवा का किला उद्यन के वैभव की गवाही दे रहा है। कौशाम्बी ने अगर वैदिक काल में अपनी सशक्त पहचान दर्ज की है तो मध्यकाल का इतिहास और भी वैभवशाली है। कडा का इतिहास मध्यकाल के सुनहरे पन्नों में दर्ज है। कडा की धरती को विद्रोह के लिए सबसे अनुकूल माना जाता था। खिलजी वंश के दौरान कडा का इतिहास उभरकर सामने आता है। देश की सल्तनत पर बैठे जलालुद्दीन खिलजी ने अपने भतीजे अलाउद्दीन को कडा की सूबेदारी सौंपी थी । तब कडा एक वैभवशाली सूबा हुआ करता था। अलाउद्दीन ने दक्षिण भारत सहित देश के कई सूबों पर जीत दर्ज की। इससे खुश होकर जलालुद्दीन खिलजी अपने भतीजे को मुबारकबाद देने गंगा नदी के रास्ते कडा आया। देश पर राज करने की हसरत पाले बैठे अलाउद्दीन ने यहीं चाल चली। उसने बीच गंगा में नाव पर जलालुद्दीन का सिर काट लिया था । वह स्थान आज भी ताजमल्लाहन के नाम से जाना जाता है। इससे पहले एवं बाद में कडा की धरती विद्रोहों का केन्द्र रही। अफगान सरदारों एवं देश की सल्तनत के बीच यहां अनेको युध्द हुए। इसका प्रमाण पूरे क्षेत्र में फैली कब्रें आज भी दे रही हैं। मुगल काल में विद्रोहों को दबाने के लिए कडा के किले से आगरा तक मुगल रोड बनवाई गई। इसके निशान आज भी कौशाम्बी से लेकर आगरा तक मिलते हैं। अकबर ने कडा के आसपास अपने सिपहसालारों को आबाद किया था। उनके नाम से तमाम गांव बसे। इनका वजूद आज भी फतेहशाह का पुरवा, ननसेनी, सिपाह, इस्लामइलपुर, कमालपुर, अलीपुरजीता एवं फरीदपुर आदि के रूरप में मिलते हैं। कन्नौज के राजा जयचंद ने कडा में गंगा नदी के किनारे मिट्टी का ऐसा किला बनवाया जिसके निशान आज भी पूरे जीवंत रप में मिलते हैं। इसी दौर में मुगल शहजादा दारा शिकोह ने औरंगजेब के कहर से बचने के लिए दारानगर में पनाह ली। औरंगजेब को इसका पता चल गया । उसक ी सेना आने से पहले ही दारा वहां से भाग निकला। उसके नाम से दारानगर आज भी बसा है। इसी दौरान संत मलूकदास एवं ख्वाजा खडक शाह जैसी शख्सियतों ने कडा में दस्तक दी। इन दोनों संतों के संदेश एवं निशान आज भी पूरे जहां को अलौकिक कर रहे हैं। आधुनिक काल में स्वतंत्रता संग्राम में भी दोआबा के सपूतों ने अपनी जान की बाजी लगा दी। मंहगांव की धरती से निकले मौलवी लियाकत अली ने इलाहाबाद में महीनों तक गोरी फौज को घुसने तक नहीं दिया। उन्होंने लम्बे समय तक इलाहाबाद पर शासन किया। देश भक्ति की भावना का पता इस बात से लगाया जा सकता है कि दारानगर में एक दर्जन से अधिक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। इन लोगों ने देश को आजाद कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अपनी इन्हीं उपलब्धियों के कारण कौशाम्बी आज भी प्रदेश के मानचित्र में अपनी पहचान बनाए हुए है।

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