बुधवार, 13 जनवरी 2010

एक रानी. जो आदेश नहीं मानने पर कटवा देती थी नाक

इतिहास में कर्णावती नाम की दो रानियों का उल्लेख मिलता है । इनमें एक चित्तौड के शासक राणा संग्राम सिंह. राणा सांगा. की पत्नी थी. जिन्होंने अपने राज्य को गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह के हमले से बचाने के लिए मुगल बादशाह हुमायूं को राखी भेजी थी जबकि दूसरी उत्तराखंड के गढवाल की शासिका थीं. जिनका ..नाक काटने वाली रानी.. के नाम से उल्लेख मिलता है। उनके बारे में कहा जाता है कि वह अपनी आज्ञा का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति की नाक कटवा देती थीं । गढवाल की इस रानी के बारे में इतिहास में दर्ज है कि उसने अपनी राजनीतिक सूझबूझ और पराक्रम से मुगल सेना के छक्के छुडा दिए थे । हालांकि रानी कर्णावती के जन्म. मायके आदि के बारे में जानकारी नहीं मिलती है लेकिन यह निश्चित है कि उनका जन्म किसी उच्च कुल में हुआ था। रानी कर्णावती का विवाह गढवाल के राजकुमार महीपति शाह के साथ हुआ था. जो अपनी पराक्रम गाथाओं से बाद में महाराजा. गर्वभंजन महीपति शाह. के नाम से प्रसिध्द हुए । जुलाई. 1631 में अल्मोडा के युध्द में महीपति शाह के मारे जाने के बाद उनके पुत्र पृथ्वीपति शाह का सात साल की उम्र में राजतिलक कर दिया गया लेकिन उसके वयस्क होने तक पूरा राजकाज रानी कर्णावती ने संभाला। इतिहासकार कैप्टन शूरवीर सिंह पवार राजमाता कर्णावती के विषय में लिखते हैं...वह अपनी विलक्षण बुध्दि एवं गौरवमय व्यक्तित्व के लिए प्रसिध्द थीं। अपने पुत्र के नाबालिग होने के कारण वह कर्तव्यवश जन्मभूमि गढवाल के हित के लिए अपने पति की मृत्यु पर सती नहीं हुईं और बडे धैर्य और साहस के साथ उन्होंने पृथ्वीपति शाह के संरक्षक के रूप में राज्यभार संभाला। रानी कर्णावती ने राजकाज संभालने के बाद अपनी देखरेख में शीघ्र ही शासन व्यवस्था को सुद्यढ किया। गढवाल के प्राचीन ग्रंथों और गीतों में रानी कर्णावती की प्रशस्ति में उनके द्वारा निमत बावलियों. तालाबों , कुओं आदि का वर्णन आता है।
रानी कर्णावती ने निर्माण कार्यो के अलावा गढवाली सेना को भी पुनर्गठित एवं संगठित किया। मुख्य सेनाध्यक्ष माधोसिंह भण्डारी के नेतृत्व में सेना को सुव्यवस्थित करने में उन्हें अच्छी सफलता मिली। इतिहासकारों के अनुसार दोस्तबेग मुगल नाम का एक मुसलमान सेनानायक महाराजा महीपति शाह के ाासनकाल से उनकी सेना में नियुक्त था। राजमाता ने उसके परामर्श से विशेष लाभ उठाना प्रारंभ किया और संभवत: उसी की सलाह पर उन्होंने विद्रोहियों तथा आतताईयों को कठोर दण्ड देना शुरु किया तथा अपनी आज्ञा का उल्लंघन करने वालों की नाक कटवा देने की प्रथा डाली। इसी कारण वह नाक काटने वाली रानी के नाम से जानी गयी। इसे ऐतिहासिक संयोग ही कहा जा सकता है कि 1634 में बदरीनाथ धाम की यात्रा के दौरान छत्रपति शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास की गढवाल के श्रीनगर में सिख गुरु हरगोविन्द सिंह से भेंट हुई। इन दो महापुरषों की यह भेंट बडी महत्वपूर्ण थी क्योंकि दोनों का एक ही उद्देश्य था ,मुगलों के बर्बर शासन से मुक्ति प्राप्त करके हिन्दू धर्म की रक्षा करना। इतिहासकार कैप्टन पंवार लिखते हैं, देवदूत के रप समर्थ गुरु स्वामी रामदास 1634 में श्रीनगर गढवाल पधारे और रानी कर्णावती को उनसे भेंट करने का सौभाग्य प्राप्त किया। समर्थ गुरु रामदास ने रानी कर्णावती से पूछा क्या पतित पावनी गंगा की सप्त धाराओं से सिंचित भू , खंड में यह शक्ति है कि वैदिक धर्म एवं राष्ट्र की मार्यादा की रक्षा के लिये मुगल शक्ति से लोहा ले सके। इस पर रानी कर्णावती ने विनम्र निवेदन किया पूज्य गुरुदेव , इस पुनीत कर्तव्य के लिये हम गढवाली सदैव कमर कसे हुए उपस्थित हैं।
रानी कर्णावती के शासन के समय दिल्ली के तख्त पर मुगल सम्राट शाहजहां आसीन थे। महीपति शाह के शासनकाल में मुगल सेना गढवाल विजय के बारे में सोचती भी नहीं थी लेकिन जब वह युध्द में मारे गए और रानी कर्णावती ने गढवाल का शासन संभाला तब मुगल शासकों ने सोचा कि उनसे शासन छीनना सरल होगा। शाहजहां को समर्थ गुरु रामदास और गुरु हरगोविन्द सिंह के श्रीनगर पहुंचने और रानी कर्णावती से सलाह मशविरा करने की खबर लग गयी थी। नजाबत खां नाम के एक मुगल सरदार को गढवाल पर हमले की जिम्मेदारी सौंपी गयी और वह 1635 में एक विशाल सेना लेकर आक्रमण के लिये आया। उसके साथ पैदल सैनिकों के अलावा घुडसवार सैनिक भी थे । सिरभौर के राजा मान्धाता प्रकाश ने उसकी सैनिक सहायता भी की। इसलिये शुरुआती प्रयास में ही मुगल सेना ने दूनघाटी के शेरगढ, ननारगढ , सतूरगढ आदि केन्द्रों पर अधिकार करने के साथ ही कालसी तथा बैरागढ को भी गढवाली सेनाओं से छीन लिया और उन्हें सिरभौर के राजा को सौंपकर वह गढवाल के मुख्य भू , भाग पर आक्रमण करने की तैयारी करने लगी।
रानी कर्णावती ने मुगल आक्रमण की खबर पाते ही राजधानी श्रीनगर की ओर प्रस्थान किया और अपने सिपहसलारों से परामर्श किया। तब तक नजाबत खां के नेतृत्व में मुगल सेना दून ने घाटी को रौंदती हुए और वहां के कई किलों पर अधिकार करने के बाद हरिद्वार से चण्डीघाट पर नदी को पार करके उसके पूर्वी किनारों से आगे बढती हुए और सलाण के इलाके , नीला , मोहरी कुमाऊं , लक्ष्मण झूला और मोहन नट्टी के मार्ग से श्रीनगर की ओर बढने की तैयारियां शुरु कर दी। ऐसी विषम परिस्थितियों में रानी कर्णावती ने सीधा मुकाबला करने के बजाय कूटनीति से काम लेना उचित समझा। उन्होंने नजाबत खां के पास संदेश भेजा कि वह बादशाह की अधीनता स्वीकार करने के लिए तैयार है और यदि उन्हें दो हफ्ते की मोहलत दी जाये तो वह उन्हें दस लाख रुपये भेंट स्वरुप दे सकती हैं। नजाबत खां ने दो सप्ताह की अवधि मंजूर कर ली और मुगल सेना को आगे बढने से रोक दिया। रानी रपये भेजने में बहाने और विलंब करने लगीं। बार बार धमकियां देने और प्रयत्न करने पर डेढ माह बीत जाने के बाद नजाबत खां को बडी मुश्किल से रानी से केवल एक लाख रपये मिल सके। डेढ महीने तक रपयों के इंतजार में शाही सेना की रसद समाप्त हो गयी। नजदीक कोई गांव या नगर न होने से मुगल सेना को खाद्य सामग्री मिलने की कोई संभावना भी नहीं थी। इस अनुभवहीन सरदार ने अब तक लगातार विजय प्राप्त करने के गर्व से इस संकट से बचने की कोई तरकीब नहीं सोची थी। खान पान का सामान इतना घट गया कि मुगल सैनिक भूखों मरने लगे। गढवालियों ने सब मार्ग बंद कर दिये , इसलिये जो भी मुगल सैनिक दूर स्थित ग्राम, नगरों में रसद लाने के लिये जाता था उसे वह लूट लेते थे। सेना में भीषण ज्वर फैल गया जिससे सैनिक बडी संख्या में मरने लगे। ज्वर और भूख से व्याकुल शत्रु सेना को गढवाली सैनिकों ने घेर लिया। युध्द में शाही सेना के अनेक सैनिक मारे गये और लगभग सभी के घोडे और युध्द सामग्री छीन ली गयी। निरपाय होकर नजाबत खां नींद से जागा और अपने प्राण तथा नाक की रक्षा के लिये जंगलों के रास्ते से मैदान की ओर भागा । उसके अधिकतर सैनिक नककटवा रानी के चंगुल से बचने के लिये पैदल ही भाग गये। इस पराजय से क्षुब्ध होकर शाहजहां ने नजाबत खां का मनस छीन लिया। इस तरह मोहन चट्टी में मुगल सेना को नेस्तनाबूद कर देने के बाद रानी कर्णावती ने जल्द ही पूरी दून घाटी को भी पुन: गढवाल राज्य के अधिकार क्षेत्र में ले लिया। गढवाल की उस नककटवा रानी ने गढवाल राज्य की विजय पताका फिर शान के साथ फहरा दी और समर्थ गुरु रामदास को जो वचन दिया था, उसे पूरा करके दिखा दिया। रानी कर्णावती के राज्य की संरक्षिका के रप में 1640 तक शासनरढ रहने के प्रमाण मिलते हैं लेकिन यह अधिक संभव है कि युवराज पृथ्वीपति शाह के बालिग होने पर उन्होंने 1642 में उन्हें शासनाधिकार सौंप दिया होगा और अपना बाकी जीवन एक वरिष्ठ परामर्शदात्री के रप में बिताया होगा।

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