सोमवार, 30 नवंबर 2009

संस्कारों की पूंजी जीवन भर साथ देती है



आज के अभिभावक अपने बच्चों को आगे बढाने के लिए तो हर संभव सुविधाएं प्रदान करते हैं लेकिन उन्हें मूल्य और संस्कार देने की तरफ उनका ध्यान कम ही होता है । एक समय था जब संयुक्त परिवारों
की गहन परम्परा इस देश में रची बसी थी और हर बच्चा होश संभालने पर अपने आसपासी दादा दादी के रूप में ऐसे स्नेहिल बुजुर्गों को देखता था जिनकी सुबह गहन पूजा पाठ से होती थी। हाथ में रामायण या
गीता रखने वाले इन बुजुर्गों को अगर संस्कारों की पाठशाला कहा जाए तो गलत नहीं होगा। जीवन में त्याग स्नेह और द्यढ चरित्र की क्या महत्ता होती है यह बात इन बुजुर्गों से बखूबी सीखी जा सकती थी । आज के दौर में भौतिक सुख सुविधाओं में जरूर अप्रत्याशित वृध्दि हुई है लेकिन मनुष्यता मूल्य और संस्कार तेजी से कम हुए हैं। दरअसल आगे बढने की होड में व्यक्ति जिन चीजों को बाधा समझकर पीछे छोड देता है वही आगे जाकर उसके गले का फंदा बन जाती हैं। हमारे आसपास की दुनिया इन दिनों कुछ इस कदर रफ्तार पकड चुकी है कि सभी के पास आज समय का बेहद अभाव है। समय नहीं होने की वजह से यह दौर इंस्टैट काफी की तरह हो गया है । यानी जो कुछ करना है तुरन्त करना है। यही वजह है कि इस दौर में संस्कार और आचार व्यवहार के तौर तरीके भी किसी डिब्बाबंद खाद्य सामग्री की तरह बाजार में उपलब्ध हैं।
युवा पीढी को बिगडैल घोडों का हुजूम कहने वालों को यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि अगर इन घोडों पर मूल्य और संस्कारों की लगाम कसी जाती तो ये नायाब घोडे साबित होते। आज भी युवा पीढी के कई ऐसे प्रतिनिधि नजर आते हैं जिनका मूल्य और संस्कारों से गहरा रिश्ता है और इसी वजह से वह सह अस्तित्व के महत्व को भी अच्छी तरह समझते हैं। बच्चो जब छोटे होते हैं तब अभिभावक यह बात आसानी से सोच और कह पाते हैं कि उनकी बच्चों से कोई अपेक्षा नहीं है और वे सिर्फ उनके बेहतर जीवन की कामना करते हैं लेकिन वृध्दावस्था की सांझ जब घिरती है तो फिर उन्हें अपने ही याद आते हैं। इन हालात में अगर हानगर या विदेश में रहने वाला बच्चा फोन करने से कतराए तो किसी माता या पिता की क्या हालत हो सकती है इसे बखूबी समझा जा सकता है। बच्चो का भविष्य संवारने और उसे जीवन की हर ुख सुविधा देने का संकल्प अच्छी बात है लेकिन इसके साथ ही उसे संस्कारों की पाठशाला में जीवन मूल्यों का पाठ पढाना भी जरूरी है। ये मूल्य जिन्दगी के उतार चढाव में संजीवनी बूटी का काम करते हैं। जीवन का हर पल चुनौती है जिसका जवाब बंदूक धन नाराजगी और निराशा से नहीं दिया जा सकता है। इन परिस्थितियों में यही मूल्य और संस्कार व्यक्ति को मुश्किलों को पार ले जाते हैं क्योंकि इनमें धैर्य और धर्म का पाठ छिपा है। कोशिश करिए कि बच्चों में बचपन से ही संस्कार और मूल्यों का क्रमिक विकास हो। जीवन की चुनौतियों से जूझने के लिए उसे स्वार्थी और आत्मकेन्द्रित मत बनाइए। अगर वह अपना होमवर्क किसी बच्चो से शेयर करता है तो डांट का नहीं बल्कि प्रशंसा का हकदार है। बचपन की इसी भोली भाली दुनिया में वह सीख सकता है कि जीवन दूसरों की मदद करने और मदद लेने के मानवीय तंतुओं पर ही टिका है। यह बात कभी नहीं भूलनी चाहिए कि स्वार्थपरता और सिर्फ अपने बारे में सोचने की बात अगर उसके मन में घर कर गयी तो इसका शिकार खुद उसके माता पिता भी हो सकते हैं।

जीवन में यांत्रिकता को स्थान न दें

जीवन में जैसे जैसे समझदारी का स्तर बढ़ता है, लोग इस तरह की शिकायतें भी खूब करते हैं कि अब ङ्क्षजदगी में पहले जैसा मजा नहीं रहा। ऐसा क्यों होता है कि बचपन और युवावस्था का आनंद विवाहित जीवन में प्रवेश और उम्र बढने के साथ जाता रहता है। यह भी सवाल उठ सकता है कि ऐसी समझदारी किस काम की जिसकी वजह से जीवन में आनंद का भाव निरंतर कम होता जाए। इसी पृष्ठभूमि पर किसी ने बहुत खूबसूरत शेर कहा है 'अच्छा है दिल के साथ रहे पासबाने अक्ल लेकिन कभी कभी इसे तन्हा भी छोड़ दें यानी ङ्क्षजदगी में दिल के साथ दिमाग का होना भी बहुत जरूरी है। लेकिन कभी कभी सिर्फ दिल से काम लेना चाहिए। काफी हद तक इस बात में सच्चाई भी है कि दिमाग की उधेड़बुन ङ्क्षजदगी के आनंद से हमें दूर कर देती है। याद कीजिए उस निर्दोष बचपन को जो होमवर्क के गुंताड़े से दूर पतंगबाजी का जमकर लुत्फ उठाता है। घर लौटने पर माता पिता की पिटाई भी उस आनंद को कम नहीं करती है और दूसरे दिन फिर मैदान में हाथ में चरखी लिए बच्चों की पतंग आसमान की बुलंदियों की छूती रहती थी। इसी तरह युवावस्था में कॉलेज से भाग कर फिल्म देखना। देर रात तक चौराहों पर मित्रों के साथ चाय की चुस्कियों में ङ्क्षजदगी के हर गम को घोल कर पी जाना और ठहाके लगाते रहने वाले बेफिक्र यौवन को भला कौन भूल सकता है। उन बुजुर्गों की सभी तारीफ करते हैं, जिनके बारे में यह कहा जाता है कि उनकी उम्र जरूर बढ गई लेकिन दिल अभी भी जवान है। निस्संदेह ऐसे बुजुर्ग चुस्त दुरूस्त भी रहते हैं और नई पीढी के साथ बेहतर संवाद कायम करने के साथ उनके बीच लोकप्रिय भी रहते हैं। आइए अब इस बात को भी समझने की कोशिश करते हैं कि उम्र बढने के साथ व्यक्ति के भीतर क्या कुछ घटता है। उम्र बढने के साथ शायद अधिकतर लोगों के भीतर संदेह.भय.असुरक्षा और मतलब परस्ती जैसे भाव भी बढते जाते हैं। जीवन में जब ढेर सारे नकारात्मक भाव एकत्र हो जाते हैं तो वह आनंद पर कुंडली मार बैठ जाते हैं। एक उम्र के बाद अगर दोस्ती व्यक्ति के लिए सिर्फ समझौता हो जाए तो फिर मन की बातें वह किस मित्र से कहेंगा। याद कीजिए जवानी का वह दौर जब कुछ भी अच्छा बुरा घटता था और आप सीधे उसे शेयर करने के लिए अपने सबसे प्रिय मित्र के पास तुरंत पहुंचते थे। अब व्यक्ति के लिए किसी से कुछ शेयर करना तो दूर उसे यही डर लगा रहता है कि उसकी कोई अच्छी या बुरी बात किसी को पता न चल जाए। सभी ने महसूस किया है कि निश्छल व्यक्ति संत महात्मा और शुद्ध आचरण वाले लोगों के व्यक्तित्व में उनकी प्रौढ़ वय के बावजूद बचपन और युवावस्था के भाव बहुधा झलक जाते हैं। यही उनकी प्रसन्नता का राज है। भले ही व्यक्ति को उम्र ४० साल हो और वह किसी कंपनी में शीर्ष पद पर हो लेकिन कभी कभी छत पर जाकर बच्चे के साथ पतंग उडाने या किसी चौराहे पर चाट के ठेले पर गोलगप्पे खाने के लुफ्त से वंचित नहीं रहना चाहिए। काम का बोझ व्यक्ति की पीठ पर इस निर्मम तरीके से नहीं लद जाना चाहिए कि वो उसके बचपन और जवानी की सभी सुखद स्मृतियों को खुरच खुरच कर मिटा दे। ङ्क्षजदगी का हर हिस्सा अपने आप में संपूर्ण होता है और उसका एक दूसरे के साथ अभिन्न संबंध होता है। जीवन में परिपक्वता की उम्र में प्रवेश करने के बाद बचपन और जवानी की रोमांचक और आनंद भरी दुनिया की तरफ रूख न करना ही व्यक्ति को पीडा से भरता है और जीवन को मशीनी बनाता है। व्यक्ति यह जरूर याद रखें कि जीवन में कैसे आगे बढना है.मकान की किस्त कब चुकानी है.बॉस को कैसे खुश रखना है.बीबी बच्चों के जीवन को कैसे खुशहाल बनाना है और धनवान कैसे बनना है। लेकिन इन बातों के साथ यह भी याद रखें कि बचपन में उस कौन सी मिठाई पसंद थी.जवानी में किस गजल को सुन कर उसकी आंख से आंसू निकल पडते थे और किस दोस्त के साथ बैठ कर उसे जीवन के वास्तविक आनंद की अनुभूति होती थी। यकीन जानें ऐसा करने पर आप इस निराशावादी भाव से एकदम बाहर निकल आएंगे कि इन दिनों मेरा जीवन बस एक ठंडी मशीन बन कर रह गया है।

शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

करण जौहर का क अक्षर से प्रेम


प्रेम कुमार
हिन्दी फिल्म उद्योग के कई निर्माता-निर्देशक यदि किसी अक्षर विशेष से प्यार करने लगते हैं तो उसे फिर पूरा निभाते हैं। अक्षर विशेष से उनका प्रेम कभी फिल्मों के नाम तो कभी अभिनेत्रियों के नामों से हमेशा परिलक्षित होता रहा है। फिल्मों के निर्माण की दौड़ में हमेशा एक कदम आगे रहने वाले करण जौहर को क अक्षर से विशेष प्रेम है। वह अपनी फिल्मों की कामयाबी के लिए क से शुरू होने वाले टाईटल नाम और क अक्षर वाली नायिकाओं को हमेशा शुभ मानते आये हैं। 20 नवंबर को प्रदशत फिल्म कुर्बान, में उन्होंने एक बार फिर से टाइटल के लिए , क ,अक्षर और े क अक्षर वाली ही ग्लैमरस अभिनेत्री करीना कपूर का चुनाव किया है।
करण जौहर इसके पहले भी फिल्मों के टाइटल के लिये .क. अक्षर का ही इस्तेमाल करते आये हैं । बतौर निर्माता निर्देशक करण ने कुछ कुछ होता है. कभी खुशी कभी गम. काल. कल हो न हो. कभी अलविदा ना कहना जैसी क अक्षर वाली एक से बढ़कर एक ब्लॉकबस्टर फिल्में बनाई हैं। इसके अलावा करण जौहर की बनाई फिल्मों में नायिकायें भी अक्सर .क. अक्षर वाली ही रहती हैं। उदाहरण के तौर पर कुछ कुछ होता है में काजोल कभी खुशी कभी गम में करीना कपूर और काजोल ने अभिनय किया है। फिल्म कल हो न हो में काजोल ने मेहमान भूमिका निभाई थी। करण जौहर की तरह ही फिल्म निर्मात्री एकता कपूर के लिए क अक्षर लकी रहा है। उनके बनाये गये टीवी सीरियल क अक्षर से ही शुरू होते हैं जिनमें कहानी घर घर की क्योंकि सास भी कभी बहू थी , कहीं तो होगा के स्ट्रीट पाली हिल कभी तो मिलेंगे कोई अपना सा ,कुसुम कुटुम्ब कसौटी जिंदगी की कैसर कैसा ये प्यार है कुमकुम और किसी रोज जैसे टीवी सीरियल काफी लोकप्रिय रहे हैं। इसके अलावा उनकी निमत फिल्मों के नाम भी अक्सर क अक्षर से ही शुरू होते है जिनमें बाक्सऑफिस पर सुपरहिट हो चुकी मैं झूठ नहीं बोलता के अलावा कोई आप सा कृष्णा काटेज क्या कूल है हम और कुछ तो है उल्लेखनीय हैं। प्रसिध्द निर्माता-निर्देशक राकेश रोशन भी .क. अक्षर को अपनी फिल्मों के लिए लकी मानते रहे हैं। इस अक्षर से उन्होंने कामचोर , खुदगर्ज खून भरी मांग काला बाजार किशन कन्हैया कोयला करन अर्जुन ,कहो ना प्यार है कोई मिल गया और क्रिश जैसी कई सुपरहिट फिल्म बनाई है। उनकी अगली आने वाली फिल्म का नाम भी के से ही .काइट्स. है।
फिल्म इंडस्ट्री में शो मैन सुभाष घई म अक्षर वाली अभिनेत्रियों को अपनी फिल्म के लिये शुभ मानते रहे है । सुभाष घई ने फिल्म हीरो तथा मेरी जंग में मीनाक्षी शेषाद्रि रामलखन तथा खलनायक में माधुरी दीक्षित परदेस में महिमा चौधरी तथा सौदागर में मनीषा कोइराला को ले चुके हैं। इतना ही नहीं उनके बैनर का नामभी म से से ही मुक्ता आर्टस है। सुभाष घई की तरह ही राजकुमार संतोषी भी म अक्षर वाली अभिनेत्रियों को अपनी फिल्म के लिए शुभ मानते हैं। उनकी बनाई फिल्म घायल में मीनाक्षी शेषाद्रि और मौसमी चटर्जी ने तथा दामिनी में मीनाक्षी शेषाद्रि ने काम किया है। फिल्म लाा में तो सुभाष घई ने म अक्षर वाली तीन अभिनेत्रियों महिमा चौधरी मनीषा कोइराला और माधुरी दीक्षित का अभिनय प्रस्तुत किया। फिल्म चाइना गेट और घातक में ममता कुलकर्णी ने राजकुमार संतोषी के निर्देशन में काम किया। निर्माता-निर्देशक सावन कुमार को स अक्षर से विशेष लगाव है। इसके पहले भी वह अपनी कई फिल्मों के नाम में स अक्षर का इस्तेमाल कर चुके है। उनमें साजन बिना सुहागन साजन की सहेली , सौतन सौतन की बेटी और सनम बेवफा जैसी फिल्में भी शामिल है , जिन्होंने बाक्स आफिस पर अच्छी खासी कमाई की और कामयाब रहीं। प्रसिध्द निर्माता-निर्देशक जे0 ओम प्रकाश का अ अक्षर का प्रेम किसी से छुपा नहीं है। उन्होंने सर्वप्रथम 1961में अ अक्षर से आस का पंछी फिल्म बनाई थी ,जिसके हिट होने के बाद उन्हें अ अक्षर से लगाव हो गया। इसके बाद उनकी लगभग सभी फिल्मे.अ अक्षर वाली रही। उनमें आपकी कसम आक्रमण अपनापन आशिक हूं बहारों का , आशा अर्पण आखिर क्यों आंधी आंखो आंखो में और आन मिलो सजना उल्लेखनीय हैं। रमेश शिप्पी को एस अक्षर से विशेष प्रेम रहा है। उन्होंने सीता और गीता शोले शान शक्ति और सागर जैसी कई फिल्मों का निर्माण किया इनमें शोले ने कई कीतमान बनाये और अन्य फिल्मों ने भी शानदार बिजनेस किया। प्रसिध्द निर्देशक कल्पतरू अपनी फिल्मों के नाम में घर शब्द का इस्तेमाल करते आये है। घर द्वार घर का सुख घर घर की कहानी बडे घर की बेटी अपना घर घर हो तो ऐसा घर की लाज और घर की इात , जैसी .घर.शब्द वाली फिल्में है। डेविड धवन और गोविन्दा नं.1 को अपनी फिल्मों के लिए शुभ मानते हैं। इस जोडी की कुली नं. 1 हीरो नं. 1 जोडी नं.1 हिट रही है। इसके अलावा डेविड धवन की शादी नं.1 बीबी नं.1 सफल रही है। इसके अतिरिक्त गोविन्दा ने बेटी नं.1 और आंटी नं.1 में भी काम किया है।अक्षय कुमार अपनी फिल्मों में खिलाडी शब्द का अक्सर इस्तेमाल करते आये हैं। इनमें खिलाडी खिलाडियों का खिलाडी सबसे बडा खिलाडी इंटरनेशनल खिलाडी खिलाडी 420 मिस्टर ऐंड मिसेज खिलाडी और मैं खिलाडी तू अनाडी शामिल हैं।
प्रेम कुमार

गुरुवार, 26 नवंबर 2009

महँगाई का असर जनप्रतिनिधियों पर क्यों नहीं होता?


डॉ. महेश परिमल
लो, अब शक्कर और महँगी हो गई। बढ़ती महँगाई पर तो काबू नहीं पाया जा रहा है, तो दूसरी तरफ हमारे मंत्रीगण अपने बयानों से बाज नहीं आ रहे हैं। महँगाई बढ़ेगी, तो सबसे अधिक प्रभावित गरीब वर्ग ही होगा। नेताओं को कोई फर्क नहीं पडऩे वाला? यह इस देश का दुर्र्भाग्य है कि जनता का प्रतिनिधि लखपति ही नहीं, बल्कि करोड़पति होता है। जब भी देश में विधान सभा या लोकसभा चुनाव होते हैं, तब पता चलता है कि हमारे किस प्रतिनिधि के पास कितनी संपत्ति है। करोड़पति सांसदों और विधायकों से कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वे महँगाई को समझ पाएँगे? आम जनता के दु:ख-दर्द को महसूस करेंगे? कोई उनसे यह पूछने वाला नहीं है कि उनकी संपत्ति मात्र कुछ ही वर्षों में इतनी अधिक कैसे हो गई? क्या जनता का प्रतिनिधित्व करना इतना फायदेमंद सौदा है? यदि सचमुच ऐसा ही है, तो फिर देश के हर नागरिक को एक बार तो जनप्रतिनिधि बनना ही चाहिए। जब तक इस देश में आम जनता का प्रतिनिधि वीआईपी होगा, तब तक गरीब और गरीब होते रहेंगे और अमीर और अमीर?
देश की गरीब से गरीब जनता से विभिन्न करों के रूप में धन बटोरने वाली सरकार के जनप्रतिनिधि लगातार स्वार्थी बनते जा रहे हैं। उन्हें दूसरों की खुशी बर्दाश्त नहीं होती। अपना तो देख नहीं पाते, पर दूसरे जो अपनी मेहनत से प्राप्त कर रहे हैं, वह उनकी आँखों में खटक रहा है। अब हमारे मंत्री सलमान खुर्शीद को ही देख लो, वे कहते हैं कि देश की निजी कंपनियों के सीईओ को दिए जाने वाले वेतन में कटौती की जाए। इनसे भी आगे निकले कृषि मंत्री शरद पवार। वे कहते हैं कि देश में मानसून की बेरुखी के कारण अब महँगाई बढ़ती रहेगी, आम जनता को इसके लिए मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिए।
उक्त दोनों मंत्रियों के बयान कितने बचकाना हैं, यह सर्वविदित है। अब इन्हें कौन बताए कि जरा अपने गरेबां में झाँक लेते, तो शायद ऐसा नहीं कहते। क्या कभी यह सुनने में आया कि किसी मंंंंंंंंंंंत्री, सांसद या विधायक को धन की कमी के कारण भूखे रहना पड़ा, या फिर इलाज नहीं करवा पाए? या फिर अपनी बेटी की शादी नहीं कर पाए? जब सब पर मुसीबत आती है, तब इन पर क्यों नहीं आती। मंदी के दौर में भी इन लोगों के खर्च पर किसी प्रकार की कटौती नहीं हुई, फिर भला ये कैसे कह सकते हैं कि गरीब जनता महँगाई से निबटने के लिए तैयार रहें। क्या ये अपनी तरफ से कुछ ऐसी कोशिशें नहीं कर सकते, जिससे आम जनता को राहत मिले। दूसरी ओर यदि कंपनियाँ अपने कर्मचारियों के कामों से खुश होकर उन्हें यदि अच्छा वेतन देती हैं, तो हमारे मंत्री को भला क्या आपत्ति है?
इन नेताओं ने कभी यह तो नहीं कहा कि आखिर नेताओं की संपत्ति दिन दुनी रात चौगुनी कैसे बढ़ रही है? क्या इसका किसी ने कभी विरोध किया? हाल ही में महाराष्ट्र, अरुणाचल और हरियाणा विधान सभा के चुनाव हुए। चुनाव के पूर्व जनप्रतिनिधियों ने अपनी-अपनी संपत्तियों के बारे में जानकारी दी। आपको आश्चर्य होगा कि इन तीनों राज्यों के प्रतिनिधि लखपति नहीं, करोड़पति हैं!
नेशनल इलेक्शन वॉच (एनईडब्ल्यू) नामक एक सामाजिक संस्था ने एक व्यापक सर्वेक्षण किया। इसके अनुसार हरियाणा विधान सभा के २००९ के चुनाव में कुल ४२ लोगों ने अपनी उम्मीदवारी घोषित की। इनकी संपत्ति का ब्योरा आश्चर्यजनक है। २००४ की तुलना में प्रत्येक विधायक की संपत्ति में 4 करोड़ ८० लाख की वृद्धि हुई। इसे यदि दूसरे शब्दों में कहें, तो हरियाणा के इन ४२ विधायकों की संपत्तियों में ३८८ प्रतिशत की जंगी वृद्धि देखी गई। इसकी गहराई में जाएँ, तो स्पष्ट होगा कि इन विधायकों की संपत्तियों में हर महीने ८ लाख रुपए की वृद्धि हुई। यानी हर घंटे इन्होंन अपनी संपत्तियों में ११०० रुपए की वृद्धि की।
हरियाणा के उक्त ४२ विधायकों से सीधा सवाल यह करना चाहिए कि आपके पास इतनी अधिक संपत्ति आई कहाँ से? यदि एक विधायक के नाते उन्हें मिलने वाली तमाम राशि को जोड़ा जाए, तो भी इतनी राशि नहीं होती। आखिर उन्होंने ५ वर्ष में ऐसा क्या किया, जिससे उनकी संपत्ति में ३८८ प्रतिशत की बेतहाशा वृद्धि हुई? इसमें भी चार कांगे्रसी विधायकों की संपत्ति सबसे अधिक है? क्या सलमान खुर्शीद को इन विधायकों की संपत्ति दिखाई नहीं देती? यदि दिखाई दे रही है, तो फिर आपको यह अधिकार कहाँ से मिला कि आप सीईओ के वेतन में कटौती की बात करें।
नेशनल इलेक्शन वॉच के अनुसार हरियाणा के चार सबसे अमीर कांगे्रसी विधायकों के खजाने में ८०० प्रतिशत की वृद्धि देखी गई। देश की जनता यह पूछना चाहती है कि क्या इन विधायकों पर किसी प्रकार का कानून लागू नहीं होता? उनके परिवारों को महँगाई क्यों आड़े नहीं आती? कुछ दिलचस्प बातें भी सामने आईं, जिसमें एक विधायक ने यह कहा है कि उनके पास संपत्ति के नाम पर केवल ३००० रुपए ही हैं। एक विधायक ने तो यहाँ तक कहा है कि उसके पास एक फूटी कौड़ी तक नहीं है? सवाल यह उठता है कि आखिर चुनाव में खर्च करने के लिए उनके पास धन कहाँ से आया? शायद ये विधायक देश की जनता को मूर्ख समझते हैं।

महाराष्ट्र के विधायक भी हरियाणा के विधायक से कम नहीं हैं। महाराष्ट्र के प्रत्याशियों की संपत्तियों में कुल ३३ प्रतिशत का इजाफा देखा गया। कुल ३५०० में से ८०० प्रत्याशियों के शपथपत्र का अध्ययन करने के बाद यह सामने आया कि हर चार प्रत्याशियों में से एक लखपति है। २१२ प्रत्याशी तो करोड़पति हैं। इसमें कांग्रेस के ४२, भाजपा-शिवसेना और राष्ट्रवादी कांगे्रस समेत प्रत्येक दल के २९ प्रत्याशी करोड़पति हैं। इनकी बढ़ती हुई संपत्तियों का हिसाब कौन पूछेगा? दूसरी ओर अपनी कंपनी के लिए दिन-रात एक करने वाले, कंपनी को अधिक से अधिक मुनाफा दिलाने वाले, अपना विवेक और श्रम का भरपूर उपयोग करने वाले सीईओ तनाव और स्पर्धा में अपना बेहतर प्रदर्शन करते हैं, इससे खुश होकर कंपनी यदि उन्हें आकर्षक वेतन देती है, तो इन नेताओं को क्या आपत्ति है? कोई बता सकता है? यदि विधायक बनने के बाद संपत्ति इतनी तेजी से बढ़ती है, तो देश के हर नागरिक को यह अधिकार होना चाहिए कि वह ५ वर्ष तक विधायक बने। हमारा देश इन विधायकों की संपत्ति नहीं हो सकता। ये भले ही स्वयं को भारत का भाग्य विधाता कहें, पर सच क्या है, यह जनता बहुत ही अच्छी तरह से जानती है।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 25 नवंबर 2009

भारतीय राजनीति का काला अध्याय: मधु कोडा


डॉ. महेश परिमल
झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोडा द्वारा अर्जित की गई बेशुमार दौलत से भारतीय राजनीति का एक ऐसा चेहरा दिखाई दे रहा है, जो बहुत ही डरावना है। हमारे प्रधानमंत्री ने पहले ही कह दिया है कि राजनीति में बड़ी मछलियों को बख्शा नहीं जाएगा। यह उसी की शुरुआत है। सवाल यह उठता है कि आखिर मधु कोडा के पास इतनी संपत्ति आई कहाँ से? क्या २३ माह तक ही मुख्यमंत्री बनने से अरबों की सम्पत्ति अर्जित की जा सकती है? तो फिर जिन मुख्यमंत्रियों ने कई बार प्रदेशों की कमान संभाली है, उनके पास कितनी संपत्ति होगी? मधु कोडा के काले कारनामे लगातार सुर्खियों में स्थान प्राप्त कर रहे हैं। नित नई जानकारी मिल रही है। लेकिन यह तय है कि यह मामला भी उन सारे मामलों की तरह दब जाएगा, क्योंकि इस मामले को दबाने के लिए अदृश्य शक्तियाँ सक्रिय हो गई हैं।
यह तो तय है कि मधु कोडा ने सत्ता का बुरी तरह से दुरुपयोग किया। इससे अरबों रुपए की संपत्ति अर्जित की। यह काम उसने अकेले ने नहीं किया है। इस काम में बराबर की साझेदारी है, उन सफेदपोशों की, जिनका चेहरा आज समाज के सामने बहुत ही धवल है। यदि आयकर विभाग को अन्य विभाग पूरी तरह से सहयोग करते हैं, तो मधु कोडा को सहयोग देने वाले अंतिम व्यक्ति का नाम सामने आ जाए, तो सभी चौंक उठेंगे। पर जो हालात बन रहे हैं, उससे नहीं लगता कि मधु कोडा ने किस तरह से सम्पत्ति अर्जित की, यह पता चल पाएगा। खैर, जो भी हो, सच तो यह है कि मधु कोडा ने झारखंड की हरियाली को दाँव पर लगा दिया। करोड़ो वृक्षों की अवैध कटाई करवाई। हजारों एकड़ जमीन खनिज माफिया को सौंप दी। जंगल के जंगल नीलाम कर दिए। लाखों वनवासियों को बेकार कर दिया। अपने शासनकाल में मधु कोडा ने लोहे की खदानों की खुदाई करने के लिए वहाँ लोहे के कारखाने स्थापित करने के लिए ४२ निजी कंपनियों के साथ कुल १.७० लाख करोड़ रुपए के निवेश के लिए समझौता किया है। यदि इस समझौते को लागू किया जाए, तो झारखंड राज्य के सारंडा डिवीजन में ८५,००० हेक्टयर जमीन पर स्थित जंगल क्षेत्र पूरी तरह से खत्म हो जाएगा। दूसरे शब्दों में कहा जाए, तो देशी और विदेशी उद्योगपतियों ने जिस तरह से चुनाव के लिए नेताओं को चंदे के रूप में जो करोड़ो रुपए दिए हैं, यह उसे वापस करने का एक नायाब तरीका ही है। जो इन्हें लायसेंस के रूप में प्राप्त होता है।
झारखंड डिवीजन में कुल ८५,००० हेक्ैटयर जमीन पर घना जंगल है। इसमें २८ लोहे की खानों के लिए ९,३०० हेक्टेयर जमीन पर ऊगे वृक्षों को समाप्त कर दिया गया है। एक हेक्टेयर जमीन पर औसतन १० हजार बड़े वृक्ष होते हैं। इस हिसाब से ९,३०० हेक्टेयर जमीन से करीब ९.३ करोड़ वृक्षों का संहार किया गया है। अब मित्तल उद्योग समूह ने खनिज और लोहे की खान और कारखाने के लिए ८ हजार हेक्टेयर जंगल साफ कर देने की सरकार की योजना है। इस जंगल पर ८ हजार वृक्षों का संहार कर वहाँ ४०,००० करोड़ रुपए की लागत से १.२ करोड़ टन की वार्षिक क्षमता वाला कारखाना बनने वाला है। यह तो केवल एक कारखाने की बात है। अभी तो कुल ४२ कारखाने और बनने हैं। जिंदल उद्योग यहाँ १,८०० हेक्टेयर भूमि पर १.८० करोड़ वृक्षों का सफाया कर ११,५०० करोड़ की लागत से एक करोड़ टन फौलाद का उत्पादन करने वाले कारखाना खोलने की अनुमति माँगी है। टाटा कंपनी ने भी यहाँ ४,८०० हैक्टेयर जमीन पर ४.८० करोड़ वृक्षों की बलि लेकर ५० लाख टन फौलाद का उत्पादन करने वाले कारखान की अनुमति माँगी है। इसके लिए समझौतों पर सरकार ने अपनी अनुमति दे दी है।
सवाल यह उठता है कि हमारे देश में अचानक इस तरह से स्टील के कारखानों की भला क्या आवश्यकता आ पड़ी? इन कारखानों के लिए करोड़ों वृक्षों के सफाए पर भी सरकार किस तरह से राजी हो गई? इसके जवाब में यही कहा जा सकता है कि सरकार को जब भी कहीं नया उद्योग लगाना चाहती है, तो उसके लिए लोहे की आवश्यकता पड़ती है। यदि देश का विकास तेजी से करना है, तो लोहे के कई नए कारखानों का निर्माण करना ही होगा। यहाँ एक दूसरा सवाल यह खड़ा होता है कि क्या हमारे देश को इतने अधिक उद्योगों की आवश्यकता है? इसका जवाब यही है कि हमारे देश में जितने भी कुटीर उद्योग हैं, या ग्रामीण गृह उद्योग हैं, उससे देश के सभी नागरिकों की जरुरतों को पूरा किया जा सकता है। इससे बेरोजगारी को भी दूर करने में सहायता मिलेगी। पर इससे उद्योगपतियों और नेताओं को किसी प्रकार का लाभ नहींं होता। आज सत्ता देश के राजनेताओं के हाथ में है, उन्हें चुनाव जीतने के लिए धन की आवश्यकता होती है, जो इन्हीं उद्योगपतियों से पूरी होती है। इसलिए हमारे देश की प्रजा पर पर्यावरण का नुकसान पहुँचाने वाले कारखाने थोपे जा रहे हैं।
झारखंड के सारंडा डिवीजन के फारेस्ट ऑफिसरों का कहना है कि अभी भी प्रदेश के ६४,००० हेक्टेयर जमीन पर जंगल हैं। एशिया का सबसे बड़ा साल वृक्ष का जंगल भी झारखंड में ही है। इस जंगल में शेर, हाथी, रीछ, चार सिंग वाला हिरण, उड़ती गिलहरी आदि वन्य प्राणियों की भरमार है। सन् २००१ में इस जंगल को हाथियों का अभयारण्य बनाने की घोषणा भी की गई थी। लेकिन आबादी के कारण हाथियों की संख्या दिनों-दिन कम हो रही है। सन् २००२ में यहाँ ४२४ हाथी थे, तो २००५ में यह संख्या घटकर ३७५ रह गई है। जंगलों में आवाजाही और बढ़ते शोर के कारण ये हाथी खेतों की ओर भाग जाते हैं, जिससे फसलों को भारी नुकसान होता है। हाथियों से मुक्ति पाने के लिए किसान उन्हें जहर दे देते हैं, या गोली मार देते हैं, जिससे उनकी मौत हो जाती है। दूसरी ओर खानों से निकलने वाले जहरीले कचरे के कारण यहाँ की नदियाँ प्रदूषित हो गई हैं। सारंडा क्षेत्र में नई खानों की खुदाई का विरोध न केवल वनवासी बल्कि फारेस्ट अधिकारी भी कर रहे हैं। उनका कहना है कि इस जंगल में अभी तो २८ लोहे की खानों से खुदाई हो ही रही है। उद्योगपति इन पुरानी खानों का उपयोग नहीं करते, बल्कि नए स्थान पर खुदाई कर रहे हैं। इसकी वजह यही है कि पुरानी खानों से लोहा निकालने का खर्च अधिक आता है और उसकी लागत बढ़ जाती है। उद्योगपतियों को खानों के लिए जमीन इतनी सस्ती दी गई है कि उन्हें नई खानों से लोहा निकालने में आसानी होती है। पुरानी खानों का वे इस्तेमाल करते ही नहीं। सरकार को यदि पर्यावरण की थोड़ी सी भी चिंता है, तो उद्योगपतियों को नई खानों से लोहा निकालने ही नहीं देना चाहिए।
उल्लेखनीय है कि जब हमारा देश आजाद हुआ था, तब देश का ३४ प्रतिशत भाग वनों से आच्छादित था। आज देा की २३ प्रतिशत जमीन पर ही जंगल है। ऐसा वन विभाग कहता है, लेकिन तस्वीर कुछ और ही कहानी कहती है। हकीकत में देश में केवल १० से १२ प्रतिशत भूमि पर जंगल बचे हैं। १९५१ से लेकर १९७२ तक देश में सबसे अधिक जंगलों का नाश हुआ। उसके बाद तो जंगल को विनाश करने का एक अभियान ही शुरू हो गया। जंगलों को नाश करने का लायसेंस नेताओं द्वारा ही दिए गए। इससे अंदाजा लग जाता है कि केवल लायसेंस देकर ही हमारे नेताओं ने कितना कमाया होगा? जो आदिवासी जंगल पर ही निर्भर होते हैं, उन्हें 'जंगलीÓ कहा जाता है, पर इन्हें क्या कहा जाए, जो जंगल का सत्यानाश कर रहे हैं। ये तो जंगली से भी गए बीते हैं।
झारखंड में मधु कोडा के कार्यकाल में जितने भी करार हुए हैं, उन पर नजर डालना आवश्यक है। कानून कहता है कि आदिवासियों की जमीन को कोई बाहरी व्यक्ति नहीं खरीद सकता, पर झारखंड सरकार ने इसे आदिवासियों के हितार्थ बताकर जंगल की जमीन उद्योगपतियों को सस्ते दामों में बेच दी। अब वनवासी भी अपना अधिकारों के प्रति सजग हो चुके हैं। अब यदि झारखंड सरकार जबर्दस्ती यदि आदिवासियों से जमीन हड़पती है, तो उद्योगपतियों और आदिवासियों के बीच खूनी संघर्ष की आशंका है। मधु कोडा इस बजबजाती हुई गंदी राजनीति का एक छोटा-सा हिस्सा भर है। यदि मधु कोडा को ही एक सिरा मानकर जाँच की जाए, तो इसके कई ऐसे सिरे मिलेंगे, जो निश्चित रूप से हृदयविदारक होंगे। बहुत से राज दफ्न हैं मधु कोडा के मामले में। सरकार की नीयत यदि साफ है, तो पूरी ईमानदारी से इस मामले की जाँच कराकर देख ले, एक से एक खूंखार चेहरे सामने आएँगे।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 24 नवंबर 2009

डर से डरो मत उसका सामना करो


व्यक्ति के जीवन में भय अनादि काल से अनन्त रूपों में व्याप्त है । डर की हालांकि कोई शक्ल नहीं होती लेकिन अगर दुनिया की कोई सबसे भयानक और डरावनी चीज है, तो वह डर ही है । डर और असुरक्षा का बडा गहरा संबंध है बल्कि यह कहना चाहिए कि दोनों एक.दूसरे के पूरक हैं । डर अपने साथ असुरक्षा लाता है । इससे पीड़ित व्यक्ति की जीवन की दिशा ही बदल जाती है । बहुत लोग इस व्याधि से पीडित है । सुबह के उजाले से लेकर रात के अंधेरे तक डर वेताल की तरह उनकी पीठ पर लदा रहता है और वे जीवन का आनन्द नहीं उठा पाते हैं । भय ने पूरे निरपेक्ष भाव से संसार के अधिकतर लोगों पर अपना दबदबा कायम किया हुआ है । जिन व्यक्तियों को संसारसफलतम मानता है. उनके जीवन पर भी इसका ह्नरभाव देखा जा सकता है । डर के इतने रूप और ह्नरकार हैं कि शायद ही कोई इससे बच पाया है। कोई सुंदर नहीं है.इसलिए डरा हुआ है तो कोई बहुत सुंदर होने की वजह से भयभीत है यानी भय व्यक्ति के जीवन में अनेक रूपों में व्याप्त है । क्रांतिकारी ध्यात्मिक संत स्वामी विवेकानन्द का एक बार कुछ उत्पाती बंदरों से पाला पडा । बंदर का स्वभाव है कि जब वह आक्रमण करता है तो तरह.तरह की भाव.भंगिमाएं बनाकर कुछ इस तरह का माहौल बनाता है कि व्यक्ति बुरी तरह डर जाताहै । विवेकानन्द भी रों से बचने के लिए भागे । उनके पीछे भयानक मुख.मुद्राओं वाली वानरों की सेना दौड रही थी । उसी दौरान दूर खडे कुछ साधुओं ने जोर से आवाज देकर कहा अरे. युवा संन्यासी. बंदरों से डरो मत. लाठी ठोंककर उनके सामने खडे हो जाओ । फिर देखना कि वह तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड पाएंगे । स्वामी विवेकानन्द को जैसे ही अंतज्र्ञान हुआ .वह रुके तथा बंदरों के खातिब होकर जोर से हुंकार भरी । देखते ही देखते बंदरों का हुजूम नदारद हो गया । बाद में स्वामी विवेकानन्द ने अपने किसी प्रवचन में उस प्रसंग का उल्लेख करते हुए कहा था जीवन में बहुत सी समस्याओं के प्रति भी व्यक्ति का इसी तरह का पलायनवादी रवैया होता है । उनके सामने आने पर वह पीठ दिखाने की तैयारी कर लेता है लेकिन जिस दिन वहखम ठोककर उस समस्या के सामने खुद को खडा कर लेता है तो तय मानिए कि फिर समस्या का समाधान भी बहुत दूर नहीं है । डर की तरफ पीठ करना या उससे भागना उसकी शक्ति को दोगुना कर देता है । व्यक्ति को सिर्फ इतना करना है कि अपने डर को अच्छी तरह से पहचान कर खुद को उसके सामने पूरी ताकत से खडा करना है । डर को हराना है तो सबसे पहले अच्छे.बुरे परिणामों के प्रति एक निरपेक्ष भाव होना जरूरी है । इस दुनिया में शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा जिसका पूरा जीवन सफलता और असफलता के झंझावातों से न घिरा हो । फर्क सिर्फ इतना है कि व्यक्ति सफलता का तो दिल खोलकर स्वागत करता है लेकिन असफलता से डरता हैं. खीजता हैं.निराश होता हैं । सफलता और असफलता का शाश्वत क्रम निरंतर चलता रहता है लेकिन कई लोग असफलता के डर को कुछ इस तरह सीने से लगा लेते हैं कि सफलता चाहकर भी उनके पास नहीं आ पाती है । स्वामी विवेकानन्द की तरह एक बार पूरी मजबूती से अपनी समस्याओं. डर और अपनी असुरक्षा के सामने खडे तो हो जाइए. फिर देखिए जीत किसकी होती है । यकीनन बाजी आपके हाथ ही होगी ।

सोमवार, 23 नवंबर 2009

चीन में आ गई फ्रो जी तकनीक


चीन में आया फ्रो जी हम अभी थ्री जी पर अटके
पड़ोसी देश चीन में दूरसंचार क्षेत्र की नई तकनीक फ्रो ४ जी टेक्नोलाजी के आगमन की घोषणा हो गई है। मजे की बात यह है कि भारत में इससे पुरानी तकनीक यानी की थ्री जी सेवाएं अभी शैशवास्था में ही है। इस नई फ्रो जी तकनीक की मदद से आंकड़े बहुत तेजी से प्रेषित हो सकेंगे। यह गति वर्तमान थ्री जी तकनीक की गति से बीस से तीस गुना तक ज्यादा होगी। इसका चीन में २०११ तक प्रयोग होने लगेगा। वैसे वर्तमान में विश्वस्तर पर टू जी तकनीक का अधिक इस्तेमाल हो रहा है और थ्री जी तकनीक अभी लोगों में ज्यादा पैठ नहीं बना पाई है, लेकिन तकनीक की चौथी पीढ़ी ने पांव पसारने शुरू कर दिए हैं। यूं तो तकनीक के महारथी पांच जी की भी बात करने लगे हैं, लेकिन अभी इसके बारे में कुछ ठोस तरीके से कह पाना मुमकिन नहीं है, लेकिन फ्रो जी तकनीक का खाका तैयार हो चुका है।

टू जी तकनीक के साथ एक बड़ी मुश्किल यह है कि इसके जरिए आंकडे प्रेषित करने की गति बहुत कम है। इस वजह से वीडियो क्रांफ्रेंसिंग या म्युजिक, वीडियो डाउनलोड करने का काम नहीं हो पाता। वैज्ञानिकों ने इस चुनौती को स्वीकारा और इसे सुधारते हुए २.५ जी. जीपीआरएस. पेश की। इस नई तकनीक ने डाटा संप्रेक्षण की दर में सुधार किया। इस दिशा में और प्रयास किए गए और नतीजे के तौर पर थ्री जी तकनीक सामने आई। इसके जरिए दो मेगाबाइट प्रति सेकण्ड की दर से डाटा भेजना संभव हो सका। लेकिन कहा जा रहा है कि इसके बाद आई फ्रो जी तकनीक से सौ मेगाबाइट प्रति सेकेण्ड तक की दर से यह काम हो सकेगा। इस टू जी .थ्री जी या फ्रो जी में इस्तेमाल होने वाला शब्द 'जीÓ किसी सम्मान का सूचक नहीं, बल्कि यह शब्द जेनरेशन यानी की पीढ़ी की वर्तनी का पहला शब्द जी का प्रतिनिधित्व क रता है। तब टू जी का आशय हुआ, दूसरी पीढी और थ्री जी का तीसरी पीढी जबकि फ्रो जी का मतलब हुया चौथी पीढ़ी। दरअसल तकनीक का विकास इसी तरह हो रहा है। किसी तकनीकी वस्तु में विकास के चरणों को पीढिय़ों का नाम दिया जाता है। पूरे विश्व में इस समय धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रही टू जी तकनीक से पहले वन जी तकनीक का इस्तेमाल हो रहा था। इस तकनीक से तार रहित दूरसंचार मशीन का प्रयोग संभव हो सका। आम लोगों की भाषा में इसे मोबाइलफोन या सेल फोन का नाम दिया गया। यह तकरीबन १९८० के दशक की बात है। वैज्ञानिकों ने इसके पहले की तकनीक को शून्य या जीरो जी पीढ़ी का नाम दिया है। इसके तहत मोबाइल रेडियो टेलीफोन 'पुश टू टाक' आदि तकनीकों को रखा गया है। वन जी तकनीक में सिग्नल की पुरानी तकनीक एनालाग का इस्तेमाल होता था जबकि टू जी तकनीक में डिजीटल तकनीक का इस्तेमाल होने लगा। डिजीटल तकनीक के प्रयोग से दूरसंचार के क्षेत्र में संचार के काम में बहुत बडा बदलाव आ गया। अब आंकड़ों का संप्रेषण कहीं ज्यादा आसान हो गया बल्कि इससे भी ज्यादा आंकड़ों को भेजे जाने की दर भी पहले से कहीं ज्यादा हो गई। तीसरी पीढी यानी की थ्री जी के आने से यह काम और तेजी से होने लगा जिसका असर यह रहा कि मोबाइल फोन के जरिए वीडियो काल या इंटरनेट और टीवी का इस्तेमाल होने लगा। अब चौथी पीढ़ी की तकनीक फ्रो जी के तहत यही आंकड़े भेजे जाने की दर से कम से कम बीस गुनी से अधिक हो जाएगी। इसके अलावा प्रति काल की लागत थ्री जी के मुकाबले बहुत कम हो सकती है। विशेषज्ञों के अनुसार फ्रो जी तकनीक में यह संभव हो सकेगा कि दो लोगों से एक साथ विडियो बातचीत हो सके। इसके अलावा एक ही फोन को विश्व की सभी जगहों पर इस्तेमाल किया जा सकेगा। इसका एंटीना पहले से कहीं ज्यादा बेहतर होगा और इसके अलावा सुरक्षा संबंधी पहलू पहले से कहीं ज्यादा मजबूत होंगे। वैज्ञानिक कोशिश कर रहे हैं कि फ्रो जी तकनीक में गले का इस्तेमाल किए बिना ही ध्वनि भेजी जा सके। इसका मतलब हुआ कि बटन के जरिए ही आवाज दूसरे छोर पर आ सके। इसके अलावा यह भी जाना जा सके कि काल किस दिशा से आ रही है और दोस्त कितनी दूरी पर है। जानकारों के अनुसार यह संभव है कि यह सारे गुण शायद फ्रो जी में मुहैया न कराएं जा सकें। इसके लिए लोगों को फाइव जी का इंतजार करना होगा। हो सकता है कि यह नवीनतम फ्रो जी तकनीक अपनी ऊँची लागत के कारण शायद व्यावसायिक इस्तेमाल में फिलहाल नहीं लाई जाए। कोशिशें ये हो रहीं हंै कि थ्री जी और फ्रो जी के मध्य की तकनीक पर जोर दिया जाए। इसे सुपर थ्री जी का नाम दिया जा रहा है। फ्रो जी को पीछे धकेलने की कंपनियों की एक मजबूरी यह भी है कि कंपनियों ने अपना काफी धन थ्री जी सेवाओं के विस्तार में लगा दिया है और फिलहाल उनकी मंशा यह है कि इन सेवाओं से मिलने वाले पैसा का इस्तेमाल वे फ्रो जी को स्थापित करने में करे। लेकिन चूंकि तकनीक को रोका नहीं जा सकता इसलिए एक बीच का रास्ता अपनाते हुए सुपर थ्री जी तकनीक की बात कही जा रही है।
शोभित जायसवाल

शनिवार, 21 नवंबर 2009

सरकार के खिलाफ बोलने वाला शायर: फैज


नहीं विसाल मयस्सर तो आरजू ही सही

भारतीय उपमहाद्वीप के महान शायर फैज अहमद फैज ने अपने मुल्क पाकिस्तान की जनता को दु:ख तकलीफोंं से निजात दिलाने और देश में सच्ची जम्हूरियत लाने की कोशिश की, लेकिन सरकार के तानाशाही रवैए के कारण उन्हें इसके लिए चार साल की जेल की सजा काटनी पड़ी। कहा जाता है कि फैज ने अपने कुछ चुङ्क्षनदा साथियों के साथ मिलकर वर्ष १९५१ एक योजना तैयार की। इसके तहत मुल्क के तत्कालीन गवर्नर जनरल ख्वाजा निजामुद्दीन और प्रधानमंत्री लियाकत अली को गिरफ्तार करना तय किया गया, लेकिन सरकार को इसकी भनक लग गई और उन्हें उनके साथियों के साथ पकड कर सलाखों के पीछे डाल दिया गया। सरकार ने इसे रावलङ्क्षपडी षड्यंत्र केस का नाम दिया। आम आदमी के हक में आवाज बुलंद करने वाले और गालिब की परंपरा के शायर फैज का २० नवम्बर १९८४ को ७३ साल की उम्र में निधन हो गया। पाकिस्तान के सर्वोच्च सम्मान निशान ए इम्तियाज से सम्मानित फैज का जन्म सात जनवरी १९११ को तत्कालीन पंजाब में स्यालकोट के गांव काला कादेर में हुया। फैज को इस्लामिक परंपरा के मुताबिक दीनी तालीम के लिए मौलवी मुहम्मद इब्राहीम मीर स्यालकोटी के पास भेजा गया। बाद में दुनियावी तालीम के लिए स्काट मिशन स्कूल और आगे की पढाई के लिए मुर्रे कालेज में प्रवेश दिलाया गया। फैज ने लाहौर के गवर्नमेंट कालेज से अंग्रेजी में स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल की और बाद में यही उपाधि लाहौर के ओरियंटल कालेज में अरबी साहित्य में प्राप्त की। फैज पर शम्स उल उल्लामाह सैयद मीर हसन नाम के शिक्षक का सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा। शम्स ने ही उन्हें दर्शन, कविता और राजनीति की बारीकियों से अवगत कराया। उन्हीं दिनों फैज ने दार्शनिक और कवि अल्लामा इकबाल और युसूफ् सलीम चिश्ती को पढ़ा और उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। अपनी युवावस्था में फैज वैज्ञानिक समाजवाद के प्रवर्तक कार्ल माक्र्स की ओर आकॢषत हुए और उन्होंने वर्ष १९३६ के दौरान पंजाब में प्रगतिशील लेखक आंदोलन की शाखा खोली और इसका सचिव पद संभाला। फैज ने मासिक पत्र अदीब ए लतीफ का संपादन का काम हाथ में लिया बाद में उन्होंने अमृतसर के एम ए ओ कालेज में प्रवक्ता का पद ग्रहण किया लेकिन फिर वह लाहौर के हेली कालेज चले गए।
फैज कुछ समय के लिए ब्रिटिश इंडियन आर्मी में भर्ती हो गए और वह १९४४ में लेफ्टिनेंट कर्नल नियुक्त किए गए। लेकिन कलम के सिपाही का मन संगीनों में नहीं रमा और उन्होंनें सन १९४७ में सेना की नौकरी छोड़ दी और लाहौर वापस चले गए। अब फैज ने पाकिस्तान टाइम्स के जरिए एक बार फिर पत्रकारिता का दामन थामा। फैज इस अखबार के पहले संपादक बने। रावलङ्क्षपडी षडयंत्र मामले में सजा काटने के कुछ समय बादफैज को १९५९ में पाकिस्तान आट्र्स काउंसिल का सचिव बनाया गया। फैज ने यहां १९६२ तक काम किया। सन १९६४ में फैज कराची गए और वहां के अब्दुल्ला हारून कालेज में प्रिङ्क्षसपल नियुक्त हुए। फैज ने उर्दू अखबार इमरोज और लैइल ओ निहार का संपादकीय दायित्व भी संभाला और वर्ष १९६५ में भारत पाक युद्ध में उन्होंने सूचना विभाग में काम किया। फैज का जुड़ाव पाकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी से भी रहा। सन १९५० से १९६० के दशक में उन्होंने वामपंथी झुकाव वाले कई लेख लिखे और पाकिस्तान में इन क्रांतिकारी विचारों को फलैाने का प्रयास किया। पाकिस्तान कम्युनिस्ट पार्टी के साथ संबंध रखने के कारण ही उनका नाम रावलङ्क्षपडी षड्यत्र केस में आया और उन्हें प्रगतिशील लेखक सज्जाद जहीर के साथ चार साल की जेल काटनी पडी। इतिहास में दर्ज हो चुके दस्तावेज के अनुसार पाकिस्तान की सेना में मेजर जनरल अकबर खां तत्कालीन राजनीतिक और सैन्य व्यवस्था से बेहद खफा थे और उन्होंने इसकी चर्चा सेना के कुछ अफसरों और दोस्तों के साथ करनी शुरू की। उस दौर में पाकिस्तान कम्युनिस्ट पार्टी पर लियाकत अली खां सरकार का खासा दबाव था। यहां तक इस पार्टी को ठीक से राजनीतिक गतिविधियां तक चलाने नहीं दी जाती। उस दौर में इस पार्टी से सहानुभूति रखने वालों को सरकारी तानाशाही का शिकार होना पडता। अकबर खां की पत्नी नसीम का ताल्लुक राजनीतिक घरानों से था और इस नाते वह फैज के वाम तेवरों से परिचित थीं। यहां से फैज की नजदीकियां अकबर खां से बढ़ीं। माना जाता है अकबर खां नेफैज को यह आश्वासन दिया कि अगर वह सत्ता में आए तो कम्युनिस्ट पार्टी को राजनीतिक गतिविधियां चलाने में पूरी आजादी दी जाएगी और कुछ समय बाद में मुल्क में नए चुनाव करावाए जाएंगे। बदले में विभिन्नवाम संगठनों को उनकी संक्रमणकालीन सैन्य सरकार का समर्थन करना होगा। वर्ष १९५१ में २३ फरवरी को अकबर खां के घर एक बैठक हुई जिसमें कई फौजी अफसरों ने भी भाग लिया। सेना के इन अधिकारियों के अलावा इसमें फैज कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सज्जाद जहीर और साम्यवादी नेता मोहम्मद अता भी शामिल हुए। अकबर खां ने इसमें तत्कालीन गवर्नर जनरल और प्रधानमंत्री की गिरफ्तारी का प्रस्ताव रखा। इसके अलावा इस बैठक में भू सुधार, भ्रष्टाचार के खात्मे, भाई-भतीजावाद की समाप्ति आदि मसलों की बातें कही गई। लेकिन सरकार को इसकी भनक लग गई और गिरफ्तारियों का दौर का शुरू हो गया। फैज भी इस तानाशाही का शिकार हुए और उन्हें जेल में भेज दिया गया। फैज उच्च कोटि के शायर होने के अलावा सूफीवाद के बडे समर्थक थे। फैज का अपने समय के लगभग सभी सूफियों के साथ संपर्क था। सूफियों में वह सबसे ज्यादा बाबा मलंग साहिब के करीब थे। एक बार उनसे पूछा गया था कि वह सूफी की साम्यवादियों के साथ की गई तुलना करना पसंद करेंगे तो फैज ने कहा कि सूफी ही असली साम्यवादी हैं। फैज को इस बात का Ÿोय भी जाता है कि उन्होंने दार्शनिक मंसूर के विचार अनहल हक की राजनीतिक व्याख्या की। अनहल हक के विचार को भारतीय दर्शन के अनुसार अह्म ब्रह्स्मि अर्थात ' मैं ब्रह्म हूंÓ के तादाम्य में देखा जाता है।
फैज के आलोचक कहते हैं कि वाम झुकाव होने के बावजूद उनकी शायरी में आवाम के लिए कुछ खास नहीं है। लेकिन फैजै की कही गई बातों से स्पष्ट होता है कि वह विचारधारा को शायरी से अलग रखने के पक्षधर थे। वह मानते थे कि गजल को उसके मूल अर्थों के समीप होना चाहिए। गजल का अर्थ हुया .ी से बात करना। गजल को इसी के मुताबिक अपनी बात कहनी चाहिए, लेकिन इसमें विचारधारा का घालमेल नहीं होना चाहिए। फैज ने नक्शे फरयादी, दस्ते सबा, सरे वादियां, सीना और दस्ते तह संग जैसी प्रसिद्ध किताबें लिखी। फैज की मशहूर नज्मों और गजलों की एक लंबी फेहरिस्त है। उनके खास कलाम इस प्रकार हैं ' तुम्हारी यादों के जख्म जब भरने लगते हैं, मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग, चांदनी दिल दुखाती रही रात भर, गुलों में रंग भरे बाद ए नौबहार चले, बोल के लब आजाद हैं तेरे राज ए उल्फत छपा के देख लिया, अब कहा रस्म घर लुटाने की, नहीं विसाल मयस्सर तो आरजू ही सही, वे बेखबर ही सही इतने बेखबर भी नहीं, आदि।
फैज को कई सम्मान मिले। उन्हें १९६२ में लेनिन शांति पुरस्कार मिला। यह पुरस्कार चिली के मशहूर कवि पाब्लो नेरूदा दक्षिण अफ्रीका की आजादी के नायक नेल्सन मंडेला, नाटककार बर्तोल्त ब्रेख्त आदि को मिल चुका है। फैज को १९८४ में नोबल सम्मान के लिए नामांकित किया गया। पाकिस्तान सरकार ने उन्हें मरणोपरांत १९९० में निशान ए इम्तियाज से सम्मानित किया।

शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

.....खूब पानी पीयो और रोग भगाओ



रोगमुक्ति पानी ग्रहण करने की संतुलित मात्रा बचा सकती है बीमारियों
पानी यूं तो मनुष्य की बुनियादी जरूरत में शामिल हैं लेकिन सही और उचित मात्रा में इसके सेवन से कई बीमारियों से भी बचा जा सकता है। करीब डेढ दशक से जल थैरेपी के जरिए कई बीमारियों को दूर भगाने का दावा करने वाले प्राकृतिक चिकित्सा विशेषज्ञ डॉ आशीष मेहता ने यूनीवार्ता से चर्चा में कहा कि जल की उचित मात्रा के सेवन से सर्दी. जुकाम. खांसी. दमा. मधुमेह. उच्च रक्तचाप. बुखार. मोटापा. गठिया. सिरदर्द और जननांगो संबंधी रोगो का निदान हो सकता है। डॉ मेहता ने बताया कि सुबह उठते ही व्यक्ति को गोदुग्धासन में बैठकर कम से कम पांच गिलास पानी पीना चाहिए। रात्रि के समय लकडी के आसन या टेबल पर तांबे के पात्र में रखा गया पानी पीना स्वास्थ्य के लिये लाभप्रद होता है। सुबह के बाद दिन में एक साथ अधिक मात्रा में पानी का सेवन नहीं करना चाहिए।
उन्होने बताया कि प्रात:काल पीया गया पानी ऊषापान कहलाता है। इससे मनुष्य के यौवन और आयु में वृद्धि होती है। सुबह उठने पर बिना कुल्ला आदि किए ऊषापान करना सेहत के लिए बेहतर साबित होता है। डॉ मेहता ने जल चिकित्सा पद्धति के जरिए अनेक व्यक्तियों को विभिन्न रोगों से मुक्त करने का दावा करते हुए बताया कि भोजन के एक घंटे पहले और आहार ग्रहण करने के एक घंटे बाद पानी पीना चाहिए। इससे कब्जियत समाप्त होती है और मोटापा भी कम होता है। उन्होंने कहा कि मौसम के अनुसार पानी पीने की आदत डालनी चाहिए। उदाहरण के लिए गर्मी के मौसम में एक व्यक्ति को १ से १५ गिलास.सर्दी व वर्षा काल में आठ से दस गिलास पानी का सेवन करना चाहियें। संभव हो सके तो सूर्य उदय के पूर्व ठंडे पानी से स्नान करना चाहिये और गर्मी के दिनों में सोने से पूर्व स्नान से मनुष्य का स्वास्थ्य अच्छा रहता है। कटिस्नान से भी कई रोग ठीक होते हैं। उन्होंने कहा कि रात्रि में सोने से पूर्व ठंडे पानी से हाथ पैर धोकर शयन के लिए जाने से नींद अच्छी आती है। मौसम की अनुकूलता को देखते हुए स्नान करने से स्फूर्ति और शक्ति के साथ थकावट दूर होती है और त्वचा संबंध रोगो से भी मुक्ति मिलती है।

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

बाल कालाकारों का जलवा भी कम नहीं


यूं तो हिन्दी सिनेमा युवा प्रधान है और समूचा सिने उद्योग युवा. उसकी सोच और मांग को ध्यान में रखकर फिल्मों का निर्माण करता है लेकिन बाल कलाकारों ने इस व्यवस्था को अपने दमदार अभिनय से लगातार चुनौती दी है। फिल्म ब्लैक में आयशा कपूर और तारे जमीं पर में दर्शील सफारी अमिताभ बच्चन और आमिर खां जैसे दिग्गज कलाकारों की उपस्थिति का रंग फीका तक कर गए। , बाल फिल्मों की गिनीचुनी संख्या और बाल कलाकारों कोमुख्यधारा के सिनेमा में कमजगह मिलने के बावजूद इन कलाकारों का इतिहास भरपूर रोशन है। इनमें बेबी तबस्सुम. मास्टर रतन. डेजीईरानी. पल्लवी जोशी. मास्टर सचिन. नीतू सिंह. पद्मिनी कोल्हापुरे और उर्मि ला मातोंडकर का नाम काफी मशहूर हुआ। सत्तर के दशक में ऐसे कई बाल कलाकार भी हुये जिन्होंने बादमें बतौर अभिनेता और अभिनेत्री बनकर फिल्म इंडस्ट्री में अपनी अमिट छाप छोड़ी । ऐसे ही बाल कलाकारों में नीतू ङ्क्षसह , पद्मिनी कोल्हापुरी और सचिन प्रमुख हैं। सत्तर के दशक में नीतू ङ्क्षसह ने कई फिल्मों में बाल कलाकार के तौर पर अभिनय किया इनमें वर्ष १९६८ में प्रदॢशत फिल्म इस फिल्म खासतौर पर उल्लेखनीय है । फिल्म दो कलियां में नीतू ङ्क्षसह की दोहरी भूमिका को सिने प्रेमी शायद ही कभी भूल पायें। इस फिल्म में उन पर फिल्माया यह गीत बच्चे मन के सच्चे दर्शको के बीच आज भी लोकप्रिय है।

सत्तर के दशक में बाल कलाकार के तौर पर फिल्म इंडस्ट्री में पद्मिनी कोल्हापुरे ने भी अपनी धाक जमायी थी। बतौर बाल कलाकार उनकी महत्वपूर्ण फिल्मों में सत्यम शिवम सुंदरम , ड्रीमगर्ल , ङ्क्षजदगी , ््सजना बिना सुहागन आदि शामिल है। अस्सी के दशक में बाल कलाकार अपनी भूमिका में विविधता को कुशलता पूर्वक निभाकर अपनी धाक बचाने में सफल रहे । निर्देशक शेखर कपूर ने एक ऐसा ही प्रयोग किया था फिल्म मासूम में जिसमें बाल कलाकार जुगल हंसराज ने अपनी दमदार अभिनय से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया। वर्ष १९९८ में प्रदॢशत फिल्म कुछ कुछ होता है फिल्म इंडस्ट्री की सर्वाधिक कामयाब फिल्मों में शुमार की जाती है । शाहरूख खान और काजोल जैसे दिग्गज कलाकारों की उपस्थिती में बाल अभिनेत्री सना सईद अपने दमदार अभिनय से दर्शकों का दिल जीतने में सफल रही। हाल के दौर में बाल कलाकारों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो गयी है उनका काम दो प्रेमियों को मिलाने भर नहीं रह गया है। हाल के वर्षों में बाल कलाकार जिस तरह से अभिनय कर रहे है वह अपने आप में अद्वितीय है । इसकी शुरूआत फिल्म ब्लैक से मानी जा सकती है। संजय लीला भंसाली निॢमत फिल्म में आयशा कपूर ने जिस तरह की भूमिका की उसे देखकर दर्शकों ने दातों तले उंगलियां दबा लीं।
लेखक अमोल गुप्ते ने डिसलेक्सिया से पीडि़त बच्चे की कहानी बनाने का निश्चय किया और अभिनेता आमिर खान से इस बारे में बातचीत की । आमिर खान को यह विषय इतना अधिक पसंद आया कि न सिर्फ उन्होंने फिल्म में अभिनय किया. साथ ही निर्देशन भी किया। फिल्म में अपने बेहतरीन अभिनय से दर्शील सफारी ने यह साबित कर दिया कि सुपर स्टार की तुलना में बाल कलााकार भी सशक्त अभिनय कर सकते है बल्कि करोड़ो दर्शकों के बीच किसी संवेदनशील मुद्दे पर सामाजिक जागरूकता फैलाने और उसपर जरूरी कदम उठाने में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाते है ।

आज के दौर में बाल कलाकारों की प्रतिभा के कायल महानायकअमिताभ बच्चन भी है । सदी के महानायक फिल्म ब्लैक में काम करने वाली बाल कलाकार आयशा कपूर की तारीफ करते नहीं थकते । इसकी वजह यह है कि इन कलाकारों को अभिनय की ट्रेनिंग नहीं मिली होती और वह वास्तविकता के करीब का अभिनय करते। इसी तरह फिल्म भूतनाथ में अमिताभ बच्चन के साथ भूमिका करने वाले अमन सिद्दकी ने बंकू की भूमिका को सहज ढंग से निभाया। अमिताभ बच्चन के सामने किसी भी कलाकार को सहज ढंग से काम करने में दिक्कत हो सकती थी लेकिन अमन सिद्दकी को ऐसा महसूस ही नहीं हुआ कि सुपरस्टार अमिताभ बच्चन उसके साथ काम कर रहा है।
रूपहले पर्दे पर बाल कलाकारों तथा बाल गीतों ने हमेशा से सिने प्रेमियों के दिलों पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। वर्ष १९५४ में प्रदॢशत फिल्म जागृति , संभवत: पहली फिल्म थी. जिसमें बाल गीत को खूबसूरती से रूपहले परदे पर दिखाया गया था ।
इस फिल्म में संगीतकार हेमंत कुमार के संगीत निर्देशन में कवि प्रदीप का रचित और उनका ही गाया यह गीत आओ बच्चों तुम्हें दिखाये झांकी ङ्क्षहदुस्तान की बेहद लोकप्रिय हुआ था और बाल गीतों में इस गीत का विशिष्ट स्थान आज भी बरकरार है । इसके अलावा इसी फिल्म में मोहम्मद रफी की आवाज में कवि प्रदीप का ही लिखा गीत हम लाये है तूफान से कश्ती निकाल के श्रोताओं के बीच आज भी अपनी अमिट छाप छोड़ता है । शायद ही लोगों को मालूम होगा कि दिलीप कुमार और वैजंयती माला को लेकर बनी फिल्म गंगा जमुना , नाम से बनी फिल्म में आज के दौर की चरित्र अभिनेत्री अरूणा ईरानी ने बतौर बाल कलाकार काम किया था । इस फिल्म में नौशाद के संगीत निर्देशन में हेमंत कुमार की आवाज में शकील बदायूंनी का रचित यह गीत इंसाफ की डगर पर बच्चो दिखाओ चल के , श्रोताओं को आज भी अभिभूत कर देता है । इसके बाद समय समय पर फिल्मों में बाल गीत फिल्माये गये इनमें प्रमुख है , नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुटठी मे क्या है बूट पालिश .इचक दाना बिचक दाना श्री ४ ० तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा धूल का फूल , इंसाफ की डगर पे बच्चो दिखाओ चल के गंगा जमुना नन्हा मुन्ना राही हू सन ऑफ इंडिया , चक्के पे चक्का ब्रहम्चारी बच्चे मन के सच्चे दो कलियां , चंदा है तू मेरा सूरज है तू आराधना , रेलगाड़ी रेलगाडी आशीर्वाद , रे मामा रे रामा रे , है न बोलो बोलो अंदाज चंदा मामा दूर के वचन रोना कभी नही रोना , अपना देश एक बटा दो , कालीचरण रोते रोते हंसना सीखो अंधा कानून लकड़ी की काठी काठी पे घोडा. जिंदगी की यही रीत है मिस्टर इंडिया आदि ने खूब लोकप्रियता अर्जित की।
.प्रेम कुमार

बुधवार, 18 नवंबर 2009

70 साल के बूढ़े और 66 साल की बुढिय़ा से शादी रचाने को भी तैयार

विदेशी चमक दमक में सारी सीमाएं लांघ गई युवा पीढ़ी
विदेश में बसने की चाहत में भारत की युवा पीढ़ी किस हद को पार कर सकती है ,इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि माता और पिता के उम्र दराज के लोगों के साथ ब्याह रचाने में आतुरता दिखा कर सामाजिक ताने-बाने को तारतार करने से भी परहेज नहीं कर रही है। आमतौर पर विवाह के मामले में युवक और युवतियों को काफी होशियार समझा जाता रहा है लेकिन अमेरिका में रहने वाले 70 साल के वृद्ध एनआरआई के साथ ब्याह रचाने के लिए उनकी आधी उम्र की युवतियां और 66 साल की वृद्धा के साथ सात फेरे लेने के लिए तीस साल के युवकों की कतार लग गई थी । इससे गिरते सामाजिक स्तर का सहज ही कयास लगाया जा सकता है। इस प्रकार का एक चौंकाने वाला मामला प्रकाश में आया है। यह सर्वविदित है कि प्यार में उम्र की सीमा या बंधन नहीं होते हैं लेकिन इस प्रेम में विदेशी चमक-दमक साफ झलकती हैं जिसके पीछे युवक और युवतियां सारी सीमाओं को फांदने के लिए लालायित हैं।
बुजुर्ग एनआरआई को सताने लगी पत्नी की कमी:
करीब 35 साल से अमेरिका के न्यूयार्क में खुद का कारोबार करने वाले मूल गुजराती चंद्रकांतभाई की पत्नी लीलीबहन का दो साल पहले बीमारी से निधन हो गया था। पुत्र-पुत्री और पुत्र बधू के साथ ही पौत्र-पौत्रियों का जमावड़ा होने के बाद भी इस सज्जन को पत्नी की कमी खलने लगी थी। इस कारण से उन्होंने यहां बिनामूल्य अमूल्य सेवा से जीवनसाथी की तलाश के लिए संपर्क किया। संस्था के नटूभाई व भारतीबहन ने बताया कि अपनी जरुरतों को बताते हुए उन्होंने जल्द जीवनसाथी की तलाश की बात कही थी। इस कारण से मीडिया में विज्ञापन दिए गए थे। दो दिनों में दस से अधिक विवाह इच्छुक युवतियों के प्रस्ताव मिले जिनमें से पांच 30 से 35 साल की युवतियां थीं। सबसे दिलचस्प बात तो यह है कि ये प्रस्ताव उनके परिजनों की जानकारी में भेजे गए थे। यह देखकर संस्था के नटुभाई और खुद चंद्रकांतभाई भी चकित रह गए थे।
संस्था के नटूभाई ने बताया कि दो युवतियां प्रस्ताव के साथ अपने पिता की चिठ्ठी भी लाईं थीं जिसमें लिखा था कि पुत्री को किसी भी तरह से अमेरिका जाना है ,इस कारण से उम्र का कोई मायने नहीं रह जाता । इसके लिए तुरंत मुलाकात की व्यवस्था कराई जाए।
दूल्हे की सबसे छोटी पुत्री की उम्र है 40 साल:
जीवनसाथी की तलाश में गुजरात आए चंद्रकांतभाई ने संस्था को बताया कि उनकी चार संतानों में से सबसे छोटी पुत्री की उम्र 40 साल की है। ऐसे में इतनी कम उम्र की युवतियों के साथ शादी रचाने का विचार तक नहीं किया जा सकता। उधर अन्य बायोडाटा में से 58 वर्षीय एक विधवा के साथ उनकी मुलाकात करावाई गई जिसे चंद्रकांतभाई ने जीवसाथी के तौर पर चुना और उसके साथ शादी कर ली।
66 वर्षीय विधवा से उसके आधी उम्र के युवक शादी को तैयार:
अमेरिका के शिकागो में अपने 35 वर्षीय पुत्र के साथ रहने वाली 66 वर्षीय विधवा को भी आखिरी वक्त पर जीवनशाथी की कमी खल रही है। शिकागो में उनका मोटेल का कारोबार है। योग्य जीवनसाथी की तलाश में वे यहां आईं थीं और उक्त संस्था से मद्द मांगी। इसमें भी ऐसा हुआ कि 66 वर्षीय वृद्धा के साथ शादी रचाने के लिए 30 से 32 साल के युवकों ने दिलचस्पी दिखाई। इससे संबंधित प्रस्ताव भी मिले। यह देखकर चकित पद्माबहन ने बताया कि उनके पुत्र की उम्र पैंतीस साल की है । ऐसे में वह इतने कम आयु के युवक को अपना जीवनसाथी कैसे बना सकती हैं। उनका कहना था कि उनका जीवन साथी अधेड़ होना चाहिए जिससे कि उनका पुत्र उसे पापा कह सके। फिलहाल पद्माबहन को जीवनसाथी की तलाश है।

मंगलवार, 17 नवंबर 2009

...एक ईमानदार जीवनी पर बवाल क्यों!


मैत्रेयी पुष्पा
'हजारों साल का इतिहास है कि स्त्री के लिए पति रूपी पुरुष मालिक है, स्वामी है। बराबरी की बात सिर्फ बात है, जो व्यवहार में लागू होने से आज तक कतरा रही है।' ऊपर लिखे वाक्यों को सोचते हुए मेरे मन में उन सवालों की उमड़-घुमड़ रही, जिन्हे पुरुष मानसिकता के धधकते हुए आवेश और आक्रोश ने जन्म दिया। बात यहां एक बायोग्राफी यानी जीवनी की है। जीवनी पति की है और कलमकार है पत्नी। पत्नी, जिससे ज्यादा पति नामक जीव को कोई नही जानता न पिता न भाई न बहन, यहां तक कि मां भी नहीं, जो उसे जन्म देती है। 'सत्य के प्रयोग' लिखने वाले महात्मा गांधी की जीवनी अगर कस्तूरबा लिखती तो किताब का चेहरा कुछ और ही होता।
कितना अच्छा रहा तब तक, जब तक स्त्रियां अनपढ़ रहीं। पढ़ भी गई तो मर्यादा और कुलशीलता से भयभीत रहकर चुप, लगभग बेजुबान रहीं। मैं चुप्पी को जुबान या जिह्वा से जोड़कर ही नहीं देखती, अपनी बात कहने का माध्यम कलम ज्यादा ताकतवर है।
गजब यही हुआ कि 20वीं शताब्दी में जहां देश को अंग्रेजों से आजादी मिली, औरतों ने अपनी लेखकीय जंग छेड़ दी। पुरुषों की दुनिया में विध्वंसक बदलाव। आंगन में तूफान। हां, साहित्य के संसार में जहां स्त्रियों की आत्मकथाओं ने तहलका मचाया, वहीं ऐसी जीवनियों ने भी, जो स्त्री द्वारा लिखी गई।
आत्मकथा और जीवनी में अंतर तो होता है कि आत्मकथा लेखक खुद लिखता है और जीवनी किसी शख्स की लिखी जाती है, जो शख्सियत बन चुका हो। फर्क यह भी होता है कि आत्मकथा के लिए सारे विवरण, सवाल-जवाब, नीति-अनीति, दुख-दर्द हमारे अपने भीतर होते है, जबकि जीवनी में आए वृत्तांत हमें वह खुद बताता-सुनाता है या उसके निकट संबंधी अथवा परिजन और मित्र कहते है।
बहुत से लेखक 'आत्मकथा और जीवनी' इन दोनों विधाओं में कलम चलाने से हिचकते है, क्योंकि यहां एक व्यक्ति की जिंदगी से कई लोगों का जीवन जुड़ा रहता है। अत: उन लोगों का मान प्रतिष्ठा गिराने वाली बातें क्यों आनी चाहिए, जिनकी यह कथा नहीं?
निसंदेह यह जोखिम भरा काम है। लगभग 'सीस उतारे मुइ धरै' के अंजाम तक पहुंचने वाला रास्ता। इन दिनों भाव प्रवण अभिनेता ओमपुरी की जीवनी की विशेष चर्चा है। चर्चा में उनकी पत्नी का जहां एक ओर साहस है, वहीं दूसरी ओर उनकी 'ले दे' हो रही है। पुरुष वर्ग को पत्नी द्वारा पति के जीवन प्रसंगों का खुलासा रास नहीं आ रहा।
लेखिका में लगभग हर पुरुष को गद्दार पत्नी नजर आ रही है। नंदिता को क्या पता होगा कि उनके तथाकथित विश्वासघात के घेरे में कितनी स्त्रियां आ गई? कहा यह भी जा रहा है कि मीडिया ने पूरी किताब में से केवल सेक्स प्रसंगों को उछाला है, जिससे आदरणीय अभिनेता की छवि धूमिल हुई है। और अखबारों तथा टीवी के पाठक और दर्शक बढ़ने की उम्मीद जगी है।
दूसरी बात यह भी सामने आई कि किताब की पब्लिसिटी के लिए यह सब किया गया है। जितने मुंह, उतनी बातें। फिर भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सेक्स-प्रसंग हमारे समाज में सनसनी फैलाते है, क्योंकि सेक्स को लेकर अभी तक पर्देदारी रही है।
मैं पर्देदारी शब्द इसलिए प्रयोग कर रही हूं कि पर्दे में होता सब कुछ है, दिखता कुछ भी नहीं। किया जाता बहुत कुछ है, कहा नहीं जाता कुछ भी। 'करो, लेकिन कहो नहीं' का सिद्धांत समाज का शांत और व्यवस्थित चेहरा ऐसे ही प्रस्तुत करता रहा, जैसे हरी-भरी घास के मनोरम मैदान के नीचे गहरी भयानक जीव-जंतुओं भरी खाई हो।
हमें सज्जान व्यक्तियों की बेदाग साफ शफ्फाक चादर देखकर उनके व्यक्तित्व की उज्जावलता का विश्वास करना होता है। और पुरजोर कोशिश की जाती है कि यह धारणा टूटनी नहीं चाहिए। मगर क्यों टूटनी नहीं चाहिए? क्यों झूठ में जीना सुविधाजनक लगता है? इसलिए कि ज्यों-ज्यों हमें अपने बड़े होने का अहसास होता है, हम उस छवि से चिपके रहना चाहते है और इसी चाहत में देवता का दर्जा पा लेना चाहते है।
इज्जात का सुनहरी मुलम्मा जब दमकता है तो लगता है कोई इसे छूकर मैला न कर दे। और जब सभी ही इस मुलम्मे को उखाड़ने लगें तो आक्रोश की सीमा नहीं रहती। आखिर औरत की औकात क्या है? उसने किस हिम्मत से वे राज खोले, जिन्हें राज ही रहना था? पतिव्रत से विश्वासघात, मान सम्मान से विश्वासघात, परिवार से विश्वासघात, पत्नी पर भरोसेमंदी से विश्वासघात।
कहने वाले यह भी कह रहे हैं कि उन्हें अपनी फिक्र से ज्यादा उन स्त्रियों के सम्मान की चिंता है, जिनके नाम सेक्सुअल संबंधों के लिए आए है। क्या खूब है यह दलील भी। अगर ऐसा ही होता तो ये संबंध बनते ही क्यों?
अपनी गृह सेविकाओं से पुरुषों को सेक्सुअल संबंध बनाने में कितनी सुविधा रहती है, लगातार देखने में आ रहा है। रोटी-कपड़ा देने की एवज दासी से कितना कुछ लिया जा सकता है, शोषण का नायाब तरीका है। मैं इस ढंग को अजूबा इसलिए नहीं मानती, क्योंकि यह परंपरा राजाओं, नबाबों और जागीरदारों के यहां बराबर चलती आई है। उनके हरम तरह-तरह की औरतों से सजे और भरे रहते थे।
आज उन लोगों के नाम राजा, नबाब और जागीरदार या जमींदार नहीं है, उनकी श्रेष्ठ जाति धनवान है, उनकी दूसरी कोटि राजनेताओं की है, उनका तीसरा तबका दलालों का है। महान परंपरा जारी है और उस संस्कृति को क्षीण नहीं होने देती, जो स्त्री जीवन पर भारी है। जो औरत को गुलाम बनाती है।
हां, रोटी कपड़ा पाने वाली सेविका या सम्मानित पति से विवाहिता पत्नी क्रमश: मालिक और सामाजिक मान्यता के डर के मारे अहसान फरामोश भी कैसे हो? पत्नी देवी की तरह चुप रहती है तो दासी सती की तरह जलती झुलसती हुई दिन काटती है।
यह कौन है, जिसने कुछ खोलने की जुर्रत की? पत्नी। पत्नियां जानती है कि मिलन की पहली रात से ही पति लोग अपने अपूर्व सेक्सुअल पराक्रमों की कथाएं सुनाना शुरू कर देते है। पतियों का पत्नियों से सवाल होता है कि उनके किस-किस से संबंध रहे हैं? नवविवाहिता लजा जाती है।
जाहिर है कि वह 'हर हाल में कुंआरी कन्या' जिसका पिता ने कन्यादान किया है। लजाना स्त्री का गुण माना गया है, उसे इस तरह की कोई भी सच्चाई शर्म के गर्त में डाल सकती है और भय की खाई में धकेल देगी, क्योंकि जो पति के लिए जायज मान लिया गया है, वह पत्नी के लिए घोर नाजायज है। नंदिता पुरी को सारी बातें अपने पति से ही मालूम हुई न?
ऐसे ही क्षणों में पुरुष वर्ग के राज खुलते है, क्योंकि वह नहीं समझता कि यह औरत बोलना-लिखना सीख गई है। मान्यता तो यही है न कि सीख भी गई है तो अपनी अभिव्यक्ति को पत्नी के चोगे से बाहर नहीं आने देगी। नस-नस में स्त्री को बांधने वाला यह विश्वास कैसा भोला पराक्रम है!
और अब यही पराक्रम बच्चे की जिद-सा आरोप लगाने पर उतारू हो गया। धमकियां भी कम नहीं मिलती इस तरह के जीवन-वृत्तांत लिखने वाली स्त्रियों को। आदर्श और मर्यादा का पालन करने वाले किरदारों के असली चेहरे तो उसी मनुष्य के होते है, जो गुण और दोषों से बना है। फिर क्यों लालसा लगी रहती है कि उनके दर्शन ईश्वरीय रूप में हों?
इन दिनों ऊंचे से ऊंचे सिंहासनों पर विराजे भगवानों के मुकुट उलट गए। साहित्य से लेकर सिनेमा तक, राजनीति से लेकर धार्मिक संस्थानों तक पुरुषों का कामुक जाल बिछा हुआ है और इस महीन जाल को उधेड़ती हुई छिन्न-भिन्न कर रही है पत्नियां ही।
'नाच री घुमा' लिखने वाली माधवी देसाई हों या राजेंद्र यादव की लेखिका पत्नी मन्नू भंडारी, इन विनम्र स्त्रियों से ऐसे खुलासों की किसी को उम्मीद नहीं थी।
लग रहा है कि पुरुष वर्ग अब तक भी स्त्री को समझ नहीं पाया। क्या स्त्री के शरीर से लेकर उसके मन की बनावट इतनी जटिल है? या यह भी एक सामाजिक सम्मान की बात है कि पत्नी की अनैतिक मानी जाने वाली करतूतों को पुरुष उघाड़ेगा तो इज्जात उसी की जाएगी, क्योंकि इज्जात भी पुरुष की ही होती है, जिसे औरत अपने चरित्र से हर हाल में बचाने के लिए बाध्य रहती है। समाज में बौना हो जाने का आतंक पुरुष को पत्नी की हत्या के लिए तो उकसा सकता है, पत्नी की बदनामी के लिए नहीं। दूसरे की जूठी औरत एक मर्द बच्चा पचा नहीं पाता।
यह अलग बात है कि दूसरी औरतों को जूठी करने का चस्का उसे अपने पौरुष की बढ़ोतरी अनुभव कराता है। इस तरह कितनी औरतों का गृह निष्कासन और बहिष्कार कराया होगा, इसकी गिनती कौन करे?
वृंदावन में सभी विधवाएं नहीं, विधवाओं के नाम पर बहुत-सी परिव्यक्ता हैं। पराए मर्द की जूठन, लेकिन यह पुरुष का कौन-सा संस्कार है, सभी के चलते? वह मानती है कि यह मर्द की कमजोरी और कुंठा है, जो अपने प्रति उसके भय से निकलती है या फिर झूठा दम, जो जब न तब उसी के ऊपर भारी घन की तरह आ गिरता है।
लात लताड़ खाकर रोती औरत कितनी निरीह, लाचार और असहाय लगती है, लगता है यही उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है, इसी रूप पर पुरुष को बेइंतहा प्यार आया है। जहां उसने पुरुष से पूछ-पूछकर कोई काम किया है, वहां वह अपनी लगी है। मगर यह कौन है, जिसने अपने आप किताब लिख डाली? यह प्यारी पत्नी तो नहीं, जिसने पुस्तक का एक वर्क भी न देखने दिया।
पत्नी ने लेखिका होने का अभिनय किया या लेखिका अब तक पत्नी होने का स्वांग रचती रही? आखिर इसकी असलियत क्या है? एक स्वतंत्र व्यक्ति जो पुरुष की तरह खुद ले रही है? पति की मंशा आदेश और वांछनाओं का क्या होगा? उसके लिए किसी पत्रकार की तरह पेश आकर या अपनी अभिव्यक्ति को अधिकार मानकर जो कर डाला, इसके लिए पनिश किया जाए या पुरस्कार दिया जाये? लेकिन पति रूपी पुरुष के इस निर्णय पर भी कौन तवच्चो देगा? अब तो लेखिका का ही अपना फैसला है कि वह अपने लिखे पर अडिग है और मानती है कि जो लिखा है, किसी को अपमानित करने के लिए नहीं, छिपे हुए सत्यों को उद्घाटित करने के लिए कलम उठाई।
अगर इस सच्चाई से संबंधित व्यक्ति आहत या क्रोधित होता है तो यह तय है कि वह अभी खुद को गिलाफों में छिपाकर रखना चाहता है।
मैत्रेयी पुष्पा
[लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार हैं]

सोमवार, 16 नवंबर 2009

....महानायक के चार दशक


महानायक की 40 वर्ष में 40 महत्वपूर्ण हिन्दी सिनेमा जगत में महानायक के रप में मशहूर अमिताभ बच्चन ने फिल्म इंडस्ट्री में 40 वर्ष पूरे कर लिए है और 1969 में प्रदशत फिल्म सात हिंदुस्तानी से शुरू हुआ उनका फिल्मी सफर आज भी जारी है । वर्ष 1969 में ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म सात हिंदुस्तानी से अमिताभ बच्चन ने अपने सिने कैरियर का आगाज किया । वर्ष 1971 में अमिताभ बच्चन को ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म आनंद में2सुपरस्टार राजेश खन्ना के साथ काम करने का मौका मिला। जिसमें फिल्म में बाबू मोशाय के छोटे से किरदार के जरिए अमिताभ बच्चन ने दर्शकों का मन मोह लिया । इस फिल्म के लिए वह सर्वश्रोष्ठ सहायक अभिनेता के फिल्म फेयर पुरस्कार से भी सम्मानित किए गए । वर्ष 1973 अमिताभ बच्चन के सिने कैरियर का अहम वर्ष साबित हुआ । उस वर्ष उनकी अभिमान जैसी संवेदनशील फिल्म प्रदशत हुई. जबकि प्रकाश मेहरा के निर्देशन में बनी फिल्म जंजीर अमिताभ उनकी पहली सुपरहिट फिल्म साबित हुई । वर्ष 1975 में रमेश सिप्पी के निर्देशन में बनी फिल्म शोले हिन्दी सिनेमा जगत के इतिहास की सबसे कामयाब फिल्म साबित हुई । फिल्म दीवार के जरिए अमिताभ बच्चन ने यह साबित कर दिया कि राजेश खन्ना के बाद फिल्म इंडस्ट्री को नया सुपरस्टार मिल चुका है । फिल्म चुपके चुपके में अमिताभ बच्चन का नया अंदाज दर्शकों को देखने को मिला । इस फिल्म से पहले अमिताभ बच्चन की छवि एंग्री यंग मैन की थी । पहली बार इस फिल्म के जरिए उन्होंने साबित कर दिया कि वह रूपहले पर्दे पर हास्य भूमिका बखूबी निभा सकते है । इस फिल्म में अमिताभ और धर्मेन्द्र के हास्य अभिनय को आज भी सिने प्रेमी नहीं भूल पाए हैं । यूं तो 1976 में प्रदशत फिल्म दो अनजाने अमिताभ बच्चन की कम चचत फिल्मों मे गिनी जाती है लेकिन यह वहीं फिल्म थी. जिसमें अमिताभ और रेखा की सुपरहिट जोड़ी ने एक साथ काम किया था । वर्ष 1976 में अमिताभ बच्चन की एक और सुपरहिट फिल्म अदालत प्रदशत हुई जिसमें उनका डबल रोल दर्शकों को काफी पसंद आया । वर्ष 1976 में ही अमिताभ बच्चन ने फिल्म कभी कभी में रूमानी किरदार निभाकर दर्शकों को अंचभित कर दिया । माना जाता है कि अमिताभ बच्चन ने गीतकार साहिर लुधियानवी की जिंदगी से जुड़े पहलुओं को रूपहले पर्दे पर पेश किया था । अमिताभ बच्चन के सिने कैरियर में उनकी जोड़ी अभिनेता विनोद खन्ना के साथ काफी पसंद की गई । वर्ष 1976 में प्रदशत फिल्म हेराफेरी वह पहली फिल्म थी, जिसमें उनकी सुपरहिट जोड़ी2ने दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया । वर्ष 1977 में अमिताभ बच्चन की सुपरहिट फिल्म अमर अकबर ऐंथनी प्रदशत हुई । मनमोहन देसाई की फिल्म में अपने दमदार अभिनय से अमिताभ बच्चन वन मैन इंडस्ट्री के रूप में विख्यात हो गए ।
वर्ष 1978 में अमिताभ बच्चन के सिने कैरियर का एक अहम पड़ाव साबित हुआ । उस वर्ष उनकी डॉन त्रिशूल और मुकद्दर का सिकंदर जैसी सुपरहिट फिल्में प्रदशत हुई । फिल्म डॉन में जहां अमिताभ बच्चन ने नेगेटिव किरदार निभाकर दर्शकों को रोमांचित कर दिया. वहीं त्रिशूल और मुकद्दर का सिकंदर जैसी सुपरहिट फिल्मों में काम कर वह फिल्म इंडस्ट्री के सिकंदर साबित हुए । अमिताभ बच्चन ने अपने सिने कैरियर में कई फिल्मों में पार्श्वगायन से फिल्म इंडस्ट्री को अपना दीवाना बनाया है । फिल्म मिस्टर नटवर लाल पहली फिल्म थी जिसमें उन्होंने अपना पहला फिल्मी गीत मेरे पास आओ मेरे दोस्तो गाया ।
वर्ष 1981 में अमिताभ बच्चन की नसीब लावारिस और नमकहलाल जैसी सुपरहिट फिल्म प्रदशत हुई । फिल्म इंडस्ट्री मेंं फिल्म नसीब मील का पत्थर के रूप में आज भी याद की जाती है । इस फिल्म में पहली बार एक गाने जॉन जॉनी जर्नादन में कई सितारों को एक साथ दिखाया गया । नसीब और लावारिस जैसी फिल्मों में जहां अमिताभ बच्चन ने अपनी एंग्री यंग मैन की छवि बरकरार रखी, वहीं नमकहलाल में उन्होंने हास्य अभिनय से दर्शकों को हंसाते हंसाते लोटपोट कर दिया । उसी वर्ष अमिताभ बच्चन की फिल्म सिलसिला प्रदशत हुई । माना जाता है कि इस फिल्म में अमिताभ और रेखा के जीवन को रूपहले पर्दे पर दर्शाया गया है । सिलसिला, अमिताभ और रेखा की जोड़ी वाली आखिरी फिल्म साबित हुई । अमिताभ बच्चन का ख्वाब था कि वह अपने आदर्श दिलीप कुमार के साथ भी काम करे । वर्ष 1982 में प्रदशत फिल्म शक्ति में उन्हें दिलीप कुमार के साथ काम करने का मौका मिला । पिता और पुत्र के द्वंद्व पर आधारित इस फिल्म में दोनों कलाकारों का टकराव देखने लायक था । वर्ष 1983 में फिल्म अंधाकानून में उन्होंने अतिथि भूमिका की छोटी भूमिका निभाकर दर्शकों का दिल जीत लिया । यूं तो यह फिल्म अभिनेता रजनीकांत पर आधारित थी लेकिन दर्शकों का मानना है यह फिल्म अमिताभ की थी ।
मनमोहन देसाई की फिल्म कुली .1983.अमिताभ बच्चन के सिने कैरियर के साथ ही व्यक्तिगत जीवन में भी सदा याद रखी जाएगी । इसी फिल्म की शूटिंग के दौरान अमिताभ बच्चन को गंभीर चोट लगी थी और वह लगभग मौत के मुंह में चले गए थे। वर्ष 1983 में ही अमिताभ बच्चचन की फिल्म महान प्रदशत हुई । इस फिल्म को टिकट खिड़की पर व्यावसायिक सफलता नहीं मिली, लेकिन अमिताभ ने पहली बार तिहरी भूमिका निभाकर दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया । अमिताभ बच्चन के शुरुआती दौर में निर्माता निर्देशक प्रकाश मेहरा की फिल्मों का अहम योगदान रहा है । वर्ष 1984 में प्रदशत फिल्म शराबी प्रकाश मेहरा के साथ उनकी अंतिम सुपरहिट फिल्म थी । अमिताभ बच्चन के सिने कैरियर को सजाने संवारने में निर्माता निर्देशक मनमोहन देसाई की फिल्मों का अहम योगदान रहा है । वर्ष 1985 में प्रदशत फिल्म मर्द अस्सी की दशक में अमिताभ बच्चन की कामयाब फिल्मों में एक मानी जाती है । इस फिल्म में अमिताभ बच्चन का बोला गया संवाद मर्द को दर्द नहीं होता सिने दर्शक आज भी नहीं भूल पाए हैं । वर्ष 1986 में प्रदशत सुपरहिट फिल्म आखिरी रास्ता के बाद अमिताभ बच्चन ने फिल्म इंडस्ट्री से कुछ समय तक किनारा कर लिया और राजनीति में चले गए । राजनीति की दुनिया रास नहीं आने के कारण अमिताभ बच्चन एक बार फिर से 1988 में प्रदशत फिल्म शहंशाह के जरिए फिल्म इंडस्ट्री में वापस लौटे । दिलचस्प बात है कि काफी लंबे अरसे से दर्शकों को उनकी वापसी का इंतजार था और उनकी मांग को देखते हुए मुंबई के सिनेमाहॉल में इसे प्रदर्शन के एक दिन पहले रिलीज करना पड़ा । फिल्म इंडस्ट्री में अपने दमदार अभिनय से अमिताभ बच्चन ने यह बता दिया कि फिल्म जगत के शहंशाह वही हैं । वर्ष 1990 में अमिताभ बच्चन की फिल्म अग्निपथ प्रदशत हुई । मुकुल एस.आनंद के निर्देशन में बनी फिल्म हांलाकि बाक्स ऑफिस पर सफल नहीं रही, लेकिन अमिताभ बच्चन सर्वश्रोष्ठ अमिनेता के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किए गए । वर्ष 1992 में बढ़ती उम्र और तकाजे को देखते हुए अमिताभ बच्चन ने फिल्म खुदागवाह के प्रदर्शन के बाद इंडस्ट्री से किनारा कर लिया । लगभग पांच वर्षो तक फिल्म इंडस्ट्री से दूर रहने के बाद उन्होंने अपनी होम प्रोडक्शन ए.बी.सी.एल में बनी फिल्म मृत्युदाता के जरिए कम बैक करने का प्रयास किया लेकिन दुर्भाग्य से फिल्म टिकट खिड़की पर असफल साबित हुई ।
फिल्म इंडस्ट्री में दुबारा कदम रखने के बाद 1998 में उनकी फिल्म बड़े मियां छोटे मियां प्रदशत हुई । डेविड धवन के निर्देशन में बनी इस फिल्म में उन्होंने अपने हास्य अभिनय से दर्शकों को दीवाना बना दिया । वर्ष 2000 में प्रदशत फिल्म मोहब्बतें के जरिए अमिताभ बच्चन की यश चोपड़ा कैंप में दमदार वापसी की और अपने अभिनय से दर्शकों को रोमांचित कर दिया । वर्ष 2001 में प्रदशत फिल्म अक्स के जरिए अमिताभ बच्चन के अभिनय का नया अंदाज दर्शकों के सामने आया । फिल्म में उन्होंने नेगेटिव किरदार के जरिए दर्शकों को कहने पर मजबूर कर दिया बंदा ए बिंदास है वर्ष 2003 में उनकी एक और महत्वपूर्ण फिल्म बागबान प्रदशत हुई । पारिवारिक पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म में अमिताभ और हेमा मालिनी की जोड़ी को जमकर सराहा गया । वर्ष 2005 में अमिताभ बच्चन ने ब्लैक और सरकार जैसी सफल फिल्मों में जबरदस्त अभिनय से यह बता दिया कि फिल्म इंडस्ट्री के असली सरकार वही है । इसके साथ ही फिल्म ब्लैक में दमदार अभिनय के लिए वह सर्वश्रोष्ठ अभिनेता के राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किए गए । उसी वर्ष अमिताभ ने अपने उम्र से काफी कम कम की नायिका के साथ फिल्म निशब्द में काम कर दर्शकों को निशब्द कर दिया ।
अमिताभ बच्चन का सपना था कि वह फिल्म शोले के किरदार गब्बर सिंह को रूपहले पर्दे पर अदा करें। वर्ष 2008 में प्रदशत फिल्म राम गोपाल वर्मा की आग में उन्हें गब्बर सिंह से मिलते जुलते किरदार को निभाने का अवसर मिला लेकिन दुर्भाग्य से फिल्म टिकट खिड़की पर असफल साबित हुई । वर्ष 2009 में अमिताभ बच्चन के सिने कैरियर की एक और महत्वपूर्ण फिल्म पा प्रदशत होने जा रही है । दिलचस्प बात है कि अपने उम्र के 67 बसंत पार कर चुके अमिताभ बच्चन फिल्म में बारह साल के बच्चो का किरदार निभाने जा रहे हैं । इस फिल्म में पह प्रोजेरिया से ग्रस्त एक ऐसे लड़के की भूमिका निभा रहे है -.जो बचपन के दिनों में ही बूढ़ा दिखाई देने लगता है ।
प्रेम कुमार

शनिवार, 14 नवंबर 2009

....एक घड़ी की मौत


राग तैलंग
घर में दीवाल घड़ी का एक निश्चित स्थान हुआ करता था। उस एक बेजान घड़ी से घर के सजीवों और निर्जीवों के संबंध और कार्य-व्यवहार संचालित हुआ करते। आंखें घड़ी के उस स्थान को देखने की इतनी अभ्यस्त हो चुकी थीं कि उस एक दिन घड़ी को वहां न पाकर उनमें पानी आ गया। उस खाली स्थान पर घड़ी के हस्ताक्षर पढ़े जा सकते थे। घड़ियां कैसे अपनी जगह दर्ज कर लेती हैं, यह समझ में आ रहा था। घड़ी अपने स्थान पर नहीं थी, फिर भी घर का हर बच्चा स्कूल जाते वक्त उस स्थान पर नजर डालता था। दफ्तर जाते समय बड़ा आदमी जल्दी-जल्दी में ही सही, उस स्थान के खाली हो जाने से, घर से भुनभुनाते हुए निकलता था। गृहिणी के कई कामों के घंटों की इबारत उस घड़ी के छोटे और बड़े कांटों के बीच बनने वाले कोणों पर टंगी होती थी। एक डायरी की तरह। उस डायरी के पन्ने चिंदी-चिंदी हो चुके थे। बुजुर्गवार उस स्थान के आसपास अब ज्यादा बेचैनी से टहलते पाए जाते। उन्हें लगता यह समय बोझ बन चुका है और अब कभी नहीं कटेगा। घड़ी के न होने से नल के आनेका, दूध वाले के आने का, काम वाली का या किसी भी अपेक्षित के आने का इंतजार लंबा हो चुका था। उस स्थान के खाली हो जाने से सब तरफ खालीपन का अहसास हो रहा था। घड़ी के अभाव में सारे अंदाज गड्डमड्ड हो चुके थे। जीवन में चिड़ियों के चहचहाने का, रातरानी की महक फैलने का एक तय समय होता है, यह महसूस किया जा सकता था। घड़ी के वहां न होने से घर की पूरी समय-सारणी गड़बड़ा गई थी। वह घड़ी देखने में जरूर कैलेंडरों की तरह आकर्षक और मादक नहीं थी, पर वह घर के भीतर का सब कुछ बांधे रखती थी। अब उसकी जगह लगने वाली तमाम प्रस्तावित चीजों में सब रंगीन चीजें थीं, मगर उनमें घड़ी का नाम नहीं था। घड़ी इतिहास बन चुकी थी। उस एक घड़ी से सब अपनी घड़ियां मिलाते थे, वे घड़ियां भी शोक संतप्त थीं। उन्हें पहनने वालों के साथ भी गड़बड़झाला चल रहा था। उस घड़ी ने अपने नियत स्थान पर खड़े रह कर सबको चलना सिखाया था। उसने कई दफे समय के बारे में लोगों में एक दर्शन पैदा किया था। आज समय अपने साथ है। आज बुरी घड़ी टल गई। वक्त हमेशा एक सा नहीं रहता, कल अपना भी टाइम आएगा। समय के बारे में ऐसे दार्शनिक वाक्य
उस घड़ी की उपस्थिति में ही बोले गए थे। उस वक्त घड़ी एक दार्शनिक की तरह बिल्कुल चुप थी। समय दूसरों की भाषाओं में अपना मौन व्यक्त करता है। एक समय घर के बीचों-बीच वाला वह कमरा जो घड़ी की वजह से घड़ी वाली खोली कहलाता था, अब इलेक्ट्रॉनिक घड़ियों, लैपटॉप, मोबाइल से अंट चुका था और इससे घर के लोगों को लगने लगा कि उसे अब घड़ी वाला कमरा कहना उचित नहीं है। इस तरह मनुष्य की एक अप्रतिम खोज के नाम पर हुए कमरे का नामकरण बदल कर ड्राइंगरूम हो गया। उस घड़ी की टिक-टिक के साथ घर के एक-एक इंच का नक्शा बदल रहा था। साथ ही बदले जा रहे थे पहचान के कुछ नाम। समूचा आकाश फैल रहा था। तारे, ग्रह, पिंड सब दूर छिटक रहे थे। लगता था किसी एक बड़े से हाथ में से फिसल कर सब चीजें भाग रही हैं, एक दूसरे की विपरीत दिशाओं में। जमाने में बाजार ने घरों में इतनी घड़ियां ठूंस दी थीं कि लोग घड़ी देखते ही यह कह कर भागने को उद्यत रहते ‘समय नहीं है’। आधुनिकता ने सभी घड़ियों के भीतर का समय चूस लिया था और लोग फुर्सत की एक घड़ी को तरस गए थे। रिटायरमेंट, शादी, जन्मदिन, परीक्षा में सफलता पर घड़ी देने का रिवाज खत्म हो चुका था, क्योंकि घड़ियों का बाजार मूल्य इतना गिर चुका था कि इस बात की पूरी आशंका थी कि घड़ी पाने वाला अपमानित महसूस कर जाए। घड़ियां सुधारने वाले घड़ीसाज और उनकी एक आंख में लगने वाले लैंस और उस जमाने की घड़ियां फॉसिल्स में तब्दील हो चुके थे। एक समय के बाद वह खाली स्थान कब भर गया किसी ने गौर ही नहीं किया। चूंकि
समय का अनुशासन, जो उस घड़ी के रहते हुआ करता था, उससे वह घर मुक्त हो चुका था। ऐसा सभी घरों में हो रहा था। यह स्वच्छंद संस्कृति के विकास का दौर था, जिसमें ऐसी घड़ियों की मौत सबसे जरूरी थी, जिनके बूते चला करती थी घरों की शांत और संतोषप्रद जिंदगी। संस्कृति-समाज-घर के ताने-बाने के टूटने के लिए बस एक घड़ी के लुप्त होने की जरूरत होती है
राग तैलंग
(जनसत्‍ता से साभार)

शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

...गजानन माधव मुक्तिबोध की दो कविताऍं


ब्रह्मराक्षस

गजानन माधव मुक्तिबोध

शहर के उस ओर खँडहर की तरफ़
परित्यक्त सूनी बावड़ी
के भीतरी
ठण्डे अँधेरे में
बसी गहराइयाँ जल की…
सीढ़ियाँ डूबी अनेकों
उस पुराने घिरे पानी में…
समझ में आ न सकता हो
कि जैसे बात का आधार
लेकिन बात गहरी हो।बावड़ी को घेर
डालें खूब उलझी हैं,
खड़े हैं मौन औदुम्बर।
व शाखों पर
लटकते घुग्घुओं के घोंसले परित्यक्त भूरे गोल।
विद्युत शत पुण्यों का आभास
जंगली हरी कच्ची गंध में बसकर
हवा में तैर
बनता है गहन संदेह
अनजानी किसी बीती हुई उस श्रेष्ठता का जो कि
दिल में एक खटके सी लगी रहती।बावड़ी की इन मुँडेरों पर
मनोहर हरी कुहनी टेक
बैठी है टगर
ले पुष्प तारे-श्वेत
उसके पास
लाल फूलों का लहकता झौंर–
मेरी वह कन्हेर…
वह बुलाती एक खतरे की तरफ जिस ओर
अँधियारा खुला मुँह बावड़ी का
शून्य अम्बर ताकता है।
बावड़ी की उन गहराइयों में शून्य
ब्रह्मराक्षस एक पैठा है,
व भीतर से उमड़ती गूँज की भी गूँज,
हड़बड़ाहट शब्द पागल से।
गहन अनुमानिता
तन की मलिनता
दूर करने के लिए प्रतिपल
पाप छाया दूर करने के लिए, दिन-रात
स्वच्छ करने–
ब्रह्मराक्षस
घिस रहा है देह
हाथ के पंजे बराबर,
बाँह-छाती-मुँह छपाछप
खूब करते साफ़,
फिर भी मैल
फिर भी मैल!!
और… होठों से
अनोखा स्तोत्र कोई क्रुद्ध मंत्रोच्चार,
अथवा शुद्ध संस्कृत गालियों का ज्वार,
मस्तक की लकीरें
बुन रहीं
आलोचनाओं के चमकते तार!!
उस अखण्ड स्नान का पागल प्रवाह….
प्राण में संवेदना है स्याह!!
किन्तु, गहरी बावड़ी
की भीतरी दीवार पर
तिरछी गिरी रवि-रश्मि
के उड़ते हुए परमाणु, जब
तल तक पहुँचते हैं कभी
तब ब्रह्मराक्षस समझता है, सूर्य ने
झुककर नमस्ते कर दिया।
पथ भूलकर जब चाँदनी
की किरन टकराये
कहीं दीवार पर,
तब ब्रह्मराक्षस समझता है
वन्दना की चाँदनी ने
ज्ञान गुरू माना उसे।
अति प्रफुल्लित कण्टकित तन-मन वही
करता रहा अनुभव कि नभ ने भी
विनत हो मान ली है श्रेष्ठता उसकी!!
और तब दुगुने भयानक ओज से
पहचान वाला मन
सुमेरी-बेबिलोनी जन-कथाओं से
मधुर वैदिक ऋचाओं तक
व तब से आज तक के सूत्र छन्दस्, मन्त्र, थियोरम,
सब प्रेमियों तक
कि मार्क्स, एंजेल्स, रसेल, टॉएन्बी
कि हीडेग्गर व स्पेंग्लर, सार्त्र, गाँधी भी
सभी के सिद्ध-अंतों का
नया व्याख्यान करता वह
नहाता ब्रह्मराक्षस, श्याम
प्राक्तन बावड़ी की
उन घनी गहराईयों में शून्य।
……ये गरजती, गूँजती, आन्दोलिता
गहराईयों से उठ रही ध्वनियाँ, अतः
उद्भ्रान्त शब्दों के नये आवर्त में
हर शब्द निज प्रति शब्द को भी काटता,
वह रूप अपने बिम्ब से भी जूझ
विकृताकार-कृति
है बन रहा
ध्वनि लड़ रही अपनी प्रतिध्वनि से यहाँ
बावड़ी की इन मँडेरों पर
मनोहर हरी कुहनी टेक सुनते हैं
टगर के पुष्प-तारे श्वेत
वे ध्वनियाँ!
सुनते हैं करोंदों के सुकोमल फूल
सुनता है उन्हे प्राचीन ओदुम्बर
सुन रहा हूँ मैं वही पागल प्रतीकों में कही जाती हुई
वह ट्रेजिडी
जो बावड़ी में अड़ गयी।खूब ऊँचा एक जीना साँवला
उसकी अँधेरी सीढ़ीयाँ…
वे एक आभ्यंतर निराले लोक की।
एक चढ़ना औ’ उतरना,
पुनः चढ़ना औ’ लुढ़कना,
मोच पैरों में
व छाती पर अनेकों घाव।
बुरे-अच्छे-बीच का संघर्ष
वे भी उग्रतर
अच्छे व उससे अधिक अच्छे बीच का संगर
गहन किंचित सफलता,
अति भव्य असफलता
…अतिरेकवादी पूर्णता
की व्यथाएँ बहुत प्यारी हैं…
ज्यामितिक संगति-गणित
की दृष्टि के कृत
भव्य नैतिक मान
आत्मचेतन सूक्ष्म नैतिक मान…
…अतिरेकवादी पूर्णता की तुष्टि करना
कब रहा आसान
मानवी अंतर्कथाएँ बहुत प्यारी हैं!!
रवि निकलता
लाल चिन्ता की रुधिर-सरिता
प्रवाहित कर दीवारों पर,
उदित होता चन्द्र
व्रण पर बाँध देता
श्वेत-धौली पट्टियां
उद्विग्न भालों पर
सितारे आसमानी छोर पर फैले हुए
अनगिन दशमलव से
दशमलव-बिन्दुओं के सर्वतः
पसरे हुए उलझे गणित मैदान में
मारा गया, वह काम आया,
और वह पसरा पड़ा है…
वक्ष-बाँहें खुली फैलीं
एक शोधक की।
व्यक्तित्व वह कोमल स्फटिक प्रासाद सा,
प्रासाद में जीना
व जीने की अकेली सीढ़ीयाँ
चढ़ना बहुत मुश्किल रहा।
वे भाव-संगत तर्क-संगत
कार्य सामंजस्य-योजित
समीकरणों के गणित की सीढ़ियाँ
हम छोड़ दें उसके लिए।
उस भाव तर्क व कार्य-सामंजस्य-योजन-
शोध में
सब पण्डितों, सब चिन्तकों के पास
वह गुरू प्राप्त करने के लिए
भटका!!
किन्तु युग बदला व आया कीर्ति-व्यवसायी
…लाभकारी कार्य में से धन,
व धन में से हृदय-मन,
और, धन-अभिभूत अन्तःकरण में से
सत्य की झाईं
निरन्तर चिलचिलाती थी।
आत्मचेतस् किन्तु इस
व्यक्तित्व में थी प्राणमय अनबन…
विश्वचेतस् बे-बनाव!!
महत्ता के चरण में था
विषादाकुल मन!
मेरा उसी से उन दिनों होता मिलन यदि
तो व्यथा उसकी स्वयं जीकर
बताता मैं उसे उसका स्वयं का मूल्य
उसकी महत्ता!
व उस महत्ता का
हम सरीखों के लिए उपयोग,
उस आन्तरिकता का बताता मैं महत्व!!
पिस गया वह भीतरी
औ’ बाहरी दो कठिन पाटों बीच,
ऐसी ट्रेजिडी है नीच!!
बावड़ी में वह स्वयं
पागल प्रतीकों में निरन्तर कह रहा
वह कोठरी में किस तरह
अपना गणित करता रहा
औ’ मर गया…
वह सघन झाड़ी के कँटीले
तम-विवर में
मरे पक्षी-सा
विदा ही हो गया
वह ज्योति अनजानी सदा को सो गयी
यह क्यों हुआ!
क्यों यह हुआ!!
मैं ब्रह्मराक्षस का सजल-उर शिष्य
होना चाहता
जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य,
उसकी वेदना का स्रोत
संगत पूर्ण निष्कर्षों तलक
पहुँचा सकूँ।
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लकड़ी का रावण
दीखता
त्रिकोण इस पर्वत-शिखर से
अनाम, अरूप और अनाकार
असीम एक कुहरा,
भस्मीला अन्धकार
फैला है कटे-पिटे पहाड़ी प्रसारों पर;
लटकती हैं मटमैली
ऊँची-ऊँची लहरें
मैदानों पर सभी ओर


लेकिन उस कुहरे से बहुत दूर
ऊपर उठ
पर्वतीय ऊर्ध्वमुखी नोक एक
मुक्त और समुत्तुंग !!
उस शैल-शिखर पर
खड़ा हुआ दीखता है एक द्योः पिता भव्य
निःसंग
ध्यान-मग्न ब्रह्म...
मैं ही वह विराट् पुरुष हूँ
सर्व-तन्त्र, स्वतन्त्र, सत्-चित् !
मेरे इन अनाकार कन्धों पर विराजमान
खड़ा है सुनील
शून्य
रवि-चन्द्र-तारा-द्युति-मण्डलों के परे तक ।


दोनों हम
अर्थात्
मैं व शून्य
देख रहे...दूर...दूर...दूर तक
फैला हुआ
मटमैली जड़ीभूत परतों का
लहरीला कम्बल ओर-छोर-हीन
रहा ढाँक
कन्दरा-गुहाओं को, तालों को
वृक्षों के मैदानी दृश्यों के प्रसार को


अकस्मात्
दोनों हम
मैं वह शून्य
देखते कि कम्बल की कुहरीली लहरें
हिल रही, मुड़ रही !!
क्या यह सच,
कम्बल के भीतर है कोई जो
करवट बदलता-सा लग रहा ?
आन्दोलन ?
नहीं, नहीं मेरी ही आँखों का भ्रम है
फिर भी उस आर-पार फैले हुए
कुहरे में लहरीला असंयम !!
हाय ! हाय !
क्या है यह !! मेरी ही गहरी उसाँस में
कौन-सा है नया भाव ?
क्रमशः
कुहरे की लहरीली सलवटें
मुड़ रही, जुड़ रही,
आपस में गुँथ रही !!
क्या है यह !!
यर क्या मज़ाक है,
अरूर अनाम इस
कुहरे की लहरों से अगनित
कइ आकृति-रूप
बन रहे, बनते-से दीखते !!
कुहरीले भाफ भरे चहरे
अशंक, असंख्य व उग्र...
अजीब है,
अजीबोगरीब है
घटना का मोड़ यह ।


अचानक
भीतर के अपने से गिरा कुछ,
खास कुछ,
नसें ढीली पड़ रही
कमज़ोरी बढ़ रही; सहसा
आतंकित हम सब
अभी तक
समुत्तुंग शिखरों पर रहकर
सुरक्षित हम थे
जीवन की प्रकाशित कीर्ति के क्रम थे,
अहं-हुंकृति के ही...यम-नियम थे,
अब क्या हुआ यह
दुःसह !!
सामने हमारे
घनीभूत कुहरे के लक्ष-मुख
लक्ष-वक्ष, शत-लक्ष-बाहु ये रूप, अरे
लगते हैं घोरतर ।


जी नहीं,
वे सिर्फ कुहरा ही नहीं है,
काले-काले पत्थर
व काले-काले लोहे के लगते वे लोग ।


हाय, हाय, कुहरे की घनीभूत प्रतिमा या
भरमाया मेरा मन,
उनके वे स्थूल हाथ
मनमाने बलशाली
लगते हैं ख़तरनाक;
जाने-पहचाने-से लगते हैं मुख वे ।


डरता हूँ,
उनमें से कोई, हाय
सहसा न चढ़ जाय
उत्तुंग शिखर की सर्वोच्च स्थिति पर,
पत्थर व लोहे के रंग का यह कुहरा !
बढ़ न जायँ
छा न जायँ
मेरी इस अद्वितीय
सत्ता के शिखरों पर स्वर्णाभ,
हमला न कर बैठे ख़तरनाक
कुहरे के जनतन्त्री
वानर ये, नर ये !!
समुदाय, भीड़
डार्क मासेज़ ये मॉब हैं,
हलचलें गड़बड़,
नीचे थे तब तक
फ़ासलों में खोये हुए कहीं दूर, पार थे;
कुहरे के घने-घने श्याम प्रसार थे ।
अब यह लंगूर हैं
हाय हाय
शिखरस्थ मुझको ये छू न जायँ !!
आसमानी शमशीरी, बिजलियों,
मेरी इन भुजाओं में बन जाओ
ब्रह्म-शक्ति !
पुच्छल ताराओं,
टूट पड़ो बरसो
कुहरे के रंग वाले वानरों के चहरे
विकृत, असभ्य और भ्रष्ट हैं...
प्रहार करो उन पर,
कर डालो संहार !!
अरे, अरे !
नभचुम्बी शिखरों पर हमारे
बढ़ते ही जा रहे
जा रहे चढ़ते
हाय, हाय,
सब ओर से घिरा हूँ ।


सब तरफ़ अकेला,
शिखर पर खड़ा हूँ ।
लक्ष-मुख दानव-सा, लक्ष-हस्त देव सा ।
परन्तु, यह क्या
आत्म-प्रतीति भी धोखा ही दे रही !!
स्वयं को ही लगता हूँ
बाँस के व कागज़ के पुट्ठे के बने हुए
महाकाय रावण-सा हास्यप्रद
भयंकर !!
हाय, हाय,
उग्रतर हो रहा चेहरों का समुदाय
और कि भाग नहीं पाता मैं
हिल नहीं पाता हूँ
मैं मन्त्र-कीलि-सा, भूमि में गड़ा-सा,
जड़ खड़ा हूँ
अब गिरा, तब गिरा
इसी पल कि उल पल...

गजानन माधव मुक्तिबोध

आज मुक्तिबोध जी का जन्‍म दिन है। उन्‍हें याद करते हुए उनकी केवल दो ही कविताऍं प्रस्‍तुत हैं। विश्‍वास है कविताऍं कुछ सोचने को विवश करेंगे।

.........एक गुजारिश शिवराज से

डॉ. धर्मेंद्र गुप्ता
सुनो माननीय शिवराज, इस आम आदमी की आवाज।
बनाओ ना इस मध्यप्रदेश को भारत के सर का ताज।।

तुमसे हमें बस इतना ही कहना है।
इस आम आदमी को खुशहाल मध्यप्रदेश में रहना है।।

सुना है...
कल रात एक माँ ने अपने बच्चे को भूखा सुलाया था।
एक पति ने अपनी पत्नी को पीट-पीटकर जलाया था।।

सुना है...
कल उस मूँछ वाले घूसखोर ने खूब कमाया था।
कल ही उसने अपना एक नया घर बनावाया था।

सुना है...
कल एक युवक कुछ रद्दी बेचकर आया था।
उसमें मार्कशीट थी, ९० प्रतिशत अंक पाया था।।

सुना है...
कल एक पिता ने अपने बेटे की चिता को जलाया ।
सरकारी डॉक्टर ने उसे अपने क्लिनिक बुलाया था।।

सुना है...
आप चाहते हैं कि हर आदमी इस प्रदेश को अपना माने।
पर इन तकलीफों को वह किस तराजू पर तौले।।

सुना है...
आप इन तकलीफों को हमसे दूर करेंगे।
तभी हम इसे अपना मध्यप्रदेश कहेंगे।।
डॉ. धर्मेंद्र गुप्ता

गुरुवार, 12 नवंबर 2009

....रूप और अभिनय दोनों में अव्‍वल माला‍ सिन्‍हा


प्रसिध्द अभिनेत्री माला सिन्हा बालीवुड की उन चंद अदाकाराओं में हैं. जिनमें खूबसूरती के साथ बेहतरीन अभिनय का भी संगम देखने को मिलता है। ग्यारह नवम्बर 1936 को जन्मी माला सिन्हा अभिनेत्री नगस से प्रभावित थीं और बचपन से ही उन्हीं की तरह अभिनेत्री बनने का ख्वाब देखा करती थीं। उनका बचपन का नाम आल्डा था और स्कूल में पढने वाले बच्चो उन्हें ..डालडा.. कहकर पुकारा करते थे। बाद में उन्होंने अपना नाम अल्बर्ट सिन्हा की जगह माला सिन्हा रख लिया। स्कूल के एक नाटक में माला सिन्हा के अभिनय को देखकर बंगला फिल्मों के जाने.माने निर्देशक अर्धेन्दु बोस उनसे काफी प्रभावित हुए और उनसे अपनी फिल्म..रोशनआरा.. में काम करने की पेशकश की। उस दौरान माला सिन्हा ने कई बंगला फिल्मों में काम किया। एक बार बंगला फिल्म की शूटिंग के सिलसिले में उन्हें मुम्बई जाने का अवसर मिला। मुम्बई में माला सिन्हा की मुलाकात पार्श्व गायिका गीता दत्त से हुई. जिन्होंने उनकी प्रतिभा को पहचानकर उन्हें निर्माता.निर्देशक केदार शर्मा से मिलने की सलाह दी। उन दिनों केदार शर्मा अपनी फिल्म.. रंगीन रातें.. के निर्माण में व्यस्त थे। उन्हें माला सिन्हा में फिल्म इंडस्ट्री का उभरता हुआ सितारा दिखाई दिया औरइ उन्होंने माला सिन्हा को अपनी फिल्म के लिए अभिनेत्री के रूप में चुन लिया। वर्ष 1954 में प्रदशत फिल्म ..बादशाह ..में माला सिन्हा को प्रदीप कुमार के साथ काम करने का मौका मिला .जो नायिका के रप में उनकी पहली फिल्म थी । वर्ष 1954 में ही उन्हें एक बार फिर से प्रदीप कुमार के साथ फिल्म ..हेमलेट ..में काम करने का मौका मिला 1 दुर्भाग्य से उनकी दोनों फिल्में टिकट खिड़की पर विफल साबित हुयी लेकिन हेमलेट में उनके अभिनय को सराहा गया । माला सिन्हा के अभिनय का सितारा निर्माता.निर्देशक गुरूदत्त की 1957 में प्रदशत क्लासिक फिल्‍म .प्यासा से चमका । बेहतरीन गीत-संगीत और अभिनय से सजी इस फिल्म की कामयाबी ने माला सिन्हा को .स्टार. के रूप में स्थापित कर दिया । आज भी इस फिल्म के सदाबहार गीत दर्शकों और श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते हैं । इस बीच माला सिन्हा ने राजकपूर के साथ परवरिश ् फिर सुबह होगी, देवानंद .के साथ लव मैरिज और शम्मी कपूर के साथ फिल्म उजाला में हल्के-फुल्के रोल कर अपनी बहुआयामी प्रतिभा का परिचय दिया। माला सिन्हा को शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचाने में निर्माता.निर्देशक बी.आर.चोपड़ा की फिल्मों का बड़ा योगदान रहा। वर्ष 1959 में प्रदशत फिल्म ..धूल का फूल .. के हिट होने के बाद फिल्म इंडस्ट्री में माला सिन्हा के नाम के डंके बजने लगे और बाद में एक के बाद एक कठिन भूमिकाओं को निभाकर वह फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गयी। धूल का फूल निर्देशक के रूप में यश चोपड़ा की पहली फिल्म थी। वर्ष 1961 में माला सिन्हा को एक बार फिर से बी.आर.चोपड़ा की ही फिल्म ..धर्मपुत्र ..में काम करने का अवसर मिला जो उनके सिने कैरियर की एक और सुपरहिट फिल्म साबित हुयी । इसके बाद 1963 माला सिन्हा ने बी.आर.चोपड़ा की सुपरहिट फिल्म ..गुमराह ..में भी काम किया । ऐसा माना जाता है कि फिल्म ..गुमराह .. बतौर अभिनेत्री माला सिन्हा की सवश्रोष्ठ फिल्म है । वर्ष 1965 में माला सिन्हा को एक बार फिर से बी.आर.चोपड़ा की फिल्म ..वक्त ..में काम करने का अवसर मिला लेकिन फिल्म में अश्लील बिकनी द्यश्य होने की वजह से उन्होंने फिल्म में काम करने से इन्कार कर दिया । माला सिन्हा ने अपने सिने कैरियर में उस दौर के सभी दिग्गज अभिनेताओं के साथ अभिनय किया। राजकपूर के साथ फिल्म परवरिश में भोला -भाला प्यार हो या फिर शम्मी कपूर के साथ फिल्म दिल तेरा दीवाना में मस्त अंदाज या फिर गुरूदत्त के साथ फिल्म प्यासा में संजीदा अभिनय या फिर में विश्वजीत के साथ दो कलियां में छैल..छबीला रोमांस हो .माला सिन्हा हर अभिनेता के साथ उसी के रंग में रंग जाती थीं।

महान अभिनेता दिलीप कुमार के साथ अभिनय करना किसी भी अभिनेत्री का सपना हो सकता है लेकिन माला सिन्हा ने उनके साथ फिल्म ..राम और श्याम ..में काम करने के लिये इसलिये इन्कार कर दिया कि वह फिल्म में अभिनय को प्राथमिकता देती थी न कि शोपीस के रूप में काम करने को । माला सिन्हा ने चार दशक लंबे सिने कैरियर में कई फिल्मों में अपने दमदार अभिनय से दर्शकों का दिल जीता लेकिन दुर्भाग्य सेकिसी भी फिल्म में सर्वश्रोष्ठ अभिनेत्री के फिल्म फेयर से सम्मानित नही की गयी । हालांकि धूल का फूल 1959 ् बहू रानी 1963 ्जहां आरा 1964 और हिमालय की गोद में 1965 के लिये वह सर्वश्रोष्ठ अभिनेत्री के पुरस्कार के लिये अवश्य नामांकित की गयी । फिल्म के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान को देखते हुये 2007 में उन्हें स्टार स्क्रीन लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार से सम्मानित किया गया । माला सिन्हा के सिने कैरियर में उनकी जोड़ी अभिनेता धमेन्द्र के साथ खूब जमी । सबसे पहले यह जोड़ी 1962 में प्रदशत फिल्म ..अनपढ़ ..में पसंद की गयी । इसके बाद इस जोड़ी ने पूजा के फूल 1963 , जब याद किसी की आती है ् नीला आकाश 1965 ् बहारे फिर भी आयेगी 1966 ् और आंखे 1968 जैसी सुपरहिट फिल्मों में काम किया। धर्मेन्द्र के अलावा उनकी जोड़ी विश्वजीत ् प्रदीप कुमार और् मनोज कुमार के साथ भी पसंद की गयी । हिन्दी फिल्मों के अलावा माला सिन्हा ने अपने दमदार अभिनय से बंगला फिल्मों में भी दर्शको का भरपूर मनोरंजन किया । वर्ष 1957 में प्रदशत फिल्म ..पृथ्वी आमाके चाये ..में उन्हें सुपरस्टार उत्तम कुमार के साथ काम करने का मौका मिला । इस फिल्म में पार्श्वगायिका गीता दत्त की आवाज में फिल्माया गीत ..निशि रात बांका चांद ..आज भी श्रोताओं के बीच लोकप्रिय है । वर्ष 1958 में प्रदशत बंगला फिल्म ..लुकोचुरी ..माला सिन्हा के सिने करियर की एक और सुपरहिट फिल्म साबित हुयी । इस फिल्म में उन्हें किशोर कुमार के साथ काम करने का मौका मिला । बंगला फिल्म इंडस्ट्री के इतिहास में यह फिल्म सर्वाधिक हास्य से परिपूर्ण सुपरहिट फिल्मों में शुमार की जाती है और आज भी जब कभी कोलकाता में छोटे पर्दे पर यह फिल्म दिखाई जाती है दर्शक इसे देखने का मौका नही छोड़ते । इसके बाद माला सिन्हा ने बोन्धु 1958 शहरेर इतिकथा 1960 और साथीहारा 1960 जैसी सुपरहिट बंगला फिल्मों में भी काम किया । वर्ष 1966 में माला सिन्हा को नेपाली फिल्म ..माटिघर..में काम करने का मौका मिला । फिल्म के निर्माण के दौरान नकी मुलाकात फिल्म के अभिनेता ..सी.पी.लोहानी .से हुयी जो इस फिल्म के अभिनेता थे । फिल्म में काम करने के दौरान माला सिन्हा को उनसे प्रेम हो गया और बाद में दोनों ने शादी कर ली । सत्तर के दशक में शोहरत की बुंलदियों पर पहुंचने के बावजूद माला सिन्हा ने कई नये अभिनेताओं को स्थापित करने के लिये उनके साथ काम किया । इन फिल्मों में संजीव कुमार के साथ ..कंगन ..राजेश खन्ना के साथ ..मर्यादा ..और अमिताभ बच्चन के साथ संयोग ..खास तौर पर उल्लेखनीय है । माला सिन्हा ने लगभग 100 फिल्मों मे काम किया . कुछ उल्लेखनीय फिल्में है ..रंगीत रातें 1956,प्यासा 1957, धूल का फूल 1959,धर्मपुत्र 1961 ् अनपढ़ ् हरियाली और रास्ता 1962, गुमराह 1963 ् जहांआरा 1964, जब याद किसी की आती है , हिमालय की गोद में 1965, आंखें, दो कलियां 1968, मेरे हुजूर 1969 ,गीत 1970 , मर्यादा 1971, कर्मयोगी 1977् खेल 1994 आदि।
..प्रेम कुमार से..

बुधवार, 11 नवंबर 2009

....जिन्‍ना की खबर लेने वाले मौलाना आजाद


. जन्मदिन 11नवम्बर पर विशेष
पाकिस्तान आज जिन आंतरिक मतभेदों औेर अन्तवरोधों से जूझते हुए अपना वजूद बचाने की जो लडाई लड रहा है.उसे आजादी के महानायकों में शुमार मौलाना अबुल कलाम आजाद ने उसी समय देख लिया था. जब मुस्लिम लीग के प्रमुख मोहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान की मांग रखी थी ।मौलाना आजाद ने उस वक्त न केवल इसका जमकर विरोध किया था बल्कि लोगों के बीच जाकर पाकिस्तान की मांग के खतरों से भी लोगों को आगाह किया था । देश का संविधान का प्रारूप तैयार करने में अग्रणी भूमिका निभाने वाले और इस्लाम के गहरे जानकार मौलाना आजाद का जन्म सऊदी अरब में 11 नवम्बर 1888 को हुआ ।उनका पूरा नाम मौलान अबुल कलाम मुहिउद्दीन अहमद था । मुल्क को स्वतंत्र कराने का उनका जज्बा इतना गहरा था कि उन्होंने बाद में अपने नाम के पीछे .आजाद. शब्द जोड लिया । मौलाना आजाद की परवरिश इस्लाम धर्म के गहरे जानकारों के साये में शुरू हुयी लिहाजा उन्हें शुरू से एक सच्चा धामक माहौल मिला । कच्ची उम्र में ही उन्होंने इस्लाम धर्म की वह तालीम हासिल कर ली जो उनसे उम्र में दोगुने लडकों को भी हासिल नहीं थी । उनकी तालीम घर से शुरू हुयी और शिक्षक उन्हें घर पर ही पढाने आया करते थे । जल्द ही उन्हें हनफी .शरीयत. गणित.दर्शन .विश्व इतिहास और विज्ञान में महारत हासिल हो गयी । लेकिन शायद मौलाना आजाद की किस्मत ने शायद कुछ और ही लिखा था । जैसे जैसे मौलाना आजाद में उम्र के साथ तजुर्बे का इजाफा होने लगा वैसे वैसे उन्हें महसूस होने लगा कि दीनी तालीम के अलावा उन्हें दुनियावी तालीम की जानकारी होनी चाहिए । मौलाना आजाद ने अब अंग्रेजी की शिक्षा लेनी शुरू कर दी । और बाद में इतिहास . पश्चिमी दर्शन शास्त्र और समकालीन राजनीतिक विचारों को जाना । इससे उन्हें यह समझने मे आसानी हुयी कि दुनिया के और कुछ क्या चल रहा है । इसी दौरान उनका परिचय महान शिक्षा शास्त्री सर सैयद अहमद खां के सुधारवादी विचारों से हुया । इन विचारों ने मौलाना आजाद पर काफी प्रभाव डाला ।
अपने विद्रोही स्वभाव और राजनीतिक झुकाव के चलते मौलाना आजाद ने अब पत्रकारिता की राह पकड ली और 1912 में एक उर्दू साप्ताहिक .अल हिलाल .शुरू किया । इसके जरिए उन्होंने हिन्दू मुस्लिम एकता की जोरदार वकालत करते हुए ब्रिटिश नीतियों की जमकर आलोचना शुरू कर दी । मौलाना आजाद ने अपने अखबार में अंग्रेज हुक्मरानों की साम्राज्यवादी नीतियों के कारण आम आदमी को हो रही मुश्किलों को सामने रखा । लेकिन ब्रितानी सरकार उनक ी इस सच बयानी से चिढ गयी और प्रेस एक्ट बना कर अल हिलाल पर प्रतिबंध लगा दिया । लेकिन मौलाना आजाद इससे रूकने वाले कहां थे उन्होंने अल बलाग नाम का दूसरा अखबार शुरू कर दिया और साम्प्रदायिक एकता और राष्ट्रवादी विचारों की अलख जगानी शुरू कर दी । यह वह दौर था जब तुर्की के सुल्तान या जिसे खलीफ भी कहते थे उसके खिलाफ् अंग्रेज की बदनीयती के विरोध में खिलाफ्त आंदोलन शुरू हो रहा था । मौलाना आजाद भी इस आंदोलन में कूद पडे । इससे अंग्रेज सरकार के क्र ोध की सीमा नहीं रही और उसने दमनकारी कदम उठाते हुए मौलाना आजाद के दूसरे अखबार को नया कानून डिफ्सें आफ् इंडिया रेग्यूलेश्न एक्ट बना कर बंद कर दिया और उन्हें गिरफ्तार करके रांची जेल भेज दिया । मौलाना आजाद को एक जनवरी 1920 को रिहा किया गया । तब तक भारत के परिद्यश्य पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और देश परगांधी जी के ा प्रभाव का गहरा रंग जमने लगा था । गांधी जी ने उस समय असहयोग आंदोलन की शुरूआत की । मौलाना आजाद और अली बंधुओं ने इस आदोंलन को हाथों हाथ लिया और बरतानिया हुकूमत के स्कू ल .कालेज. न्यायालय .नौकरियों का बहिष्कार और स्वदेशी के प्रचार में जोर शोर से लग गए । यह वह वक्त था जब मौलाना आजाद ने अपने साथियों के साथ जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय की स्थापना की । असहयोग आदोंलन के बाद राष्ट्रवादी नेताओं में पैदा हुये मतभेदों में मौलाना आजाद ने गांधी जी का साथ दिया । सविनय अवज्ञा आदोंलन में बढ चढ कर हिस्सा लेने के कारण मौलाना आजाद को एक बार फ्रि जेल भेज दिया गया । मौलाना आजाद ने 1935 के दौरान मुस्लिम लीग और जिन्ना एवं कांग्रेस के साथ बातचीत की वकालत की ताकि राजनीतिक आधार को विस्तार दिया जा सके । लेकिन जब जिन्ना ने दूसरी राह पकडी तो मौलाना आजाद ने उनकी आलोचना करने में कोई कोताही नहीं बरती । सन 1938 में आजाद ने गांधी जी के समर्थकों एवं तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस के बीच पैदा हुयी तकरार में पुल का काम किया । मुस्लिम लीग ने जब 1940 में लाहौर मे हुए अधिवेशन में पाकिस्तान की मांग रखी तो उस समय मौलाना आजाद कांग्रेस के रामगढ अधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए थे । तब उन्होने जिन्ना के दो राष्ट्र सिद्वांत की जमकर खबर ली । मौलाना आजाद ने यह मानने से इंकार कर दिया कि मुसलमान और हिन्दू दो अलग राष्ट्र हैं । इस्लाम धर्म के इस गहरे जानकार ने इस्लाम के आधार पर बनने वाले देश को अस्वीकार कर दिया उन्होने सभी मुसलमानों से हिन्दुस्तान में हीं रहने की बात कही । मौलाना आजाद ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा कि हिन्दुस्तान की धरती पर इस्लाम का आये 11 सदी बीत गयी हैं । और अगर हिन्दू धर्म यहां के लोगो ंका हजारो सालों से धर्म रहा है तो इस्लाम को भी हजार साल हो गए हैं । जिस तरह से एक हिन्दू गर्व के साथ यह कहता है कि वह एक भारतीय है और हिन्दू धर्म को मानता है उसी तरह से उतने ही गर्व के साथ हम कह सकते हैें कि हम भी भारतीय हैं और इस्लाम को मानतें हैं । इसी तरह इसाई भी यह बात कह सकते हैं । मौलाना आजाद के अध्यक्ष रहने के दौरान 1942 में भारत छोडो आंदोलन शुरू हुया । और तक उन्होंने देश भर की यात्रा की और जगह जगह लोगो को राष्ट्र होने का अर्थ समझाया और आजादी की मशाल को घर घर तक ले गए । उस समय देश की बंटवारे की बात चलने लगी थी । मौलाना आजाद ने इसका खुलकर विरोध दर्ज कराना शुरू कर दिया । उन्होंने स्पष्ट तौर पर जिन्ना की पाकिस्तान बनाने की मांग को गलत ठहराया और मुल्क के बंटवारे को गैरवाजिब करार दिया । देश में सांप्रदायिक हिंसा का ज्वार बढने लगा था । ऐसे में मौलाना आजाद अपनी जान की परवाह किए बगैर हिंसा से जूझ रहे इलाको में गए और शांति बहाली के प्रयास किए और हिन्दू मुसलमान एकता के कमजोर पडते धागे में नयी जान फ्ू ंकने की कोशिश की । मौलाना आजाद धर्म के आधार पर बनने वाले मुल्क की कमजोर बुनियाद को अच्छी तरह समझते थे इसलिए वह हरचंद यही कोशिश करते रहे कि देश की नसों मे धर्मनिरपेक्षता का रक्त दौडे ताकि मुल्क हमेशा आबाद रहे । पाकिस्तान आज धर्म के नाम होने वाले जिस आतंकवाद के जिन्न से जूझ रहा है उसे इस इस्लाम के महान विद्वान ने अपनी दूरदशता से पहले ही भांप लिया था इसलिए उनका पाकिस्तान बनाये जाने से हमेशा विरोध रहा । आजादी के बाद बने मंत्रिमंडल में मौलाना आजाद को शिक्षा मंत्रालय का प्रभार दिया गया । तब मौलाना आजाद ने ऐसे शिक्षा तंत्र की कल्पना की जिसमें बुनियादी तालीम निशुल्क हो और उच्च शिक्षा के आधुनिक संस्थान हों । मौलाना आजाद ने ही देश में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान .आई आई टी . और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की स्थापना क ा स्वप्न बुना । बाइस फ्रवरी वर्ष 1958 में
मौलाना आजाद का निधन हो गया । मौलाना आजाद की किस्मत ने शायद कुछ और ही लिखा था । जैसे जैसे उनमें उम्र के साथ तजुर्बे का इजाफ होने लगा वैसे वैसे उन्हें महसूस होने लगा कि दीनी तालीम के अलावा उन्हें दुनियावी तालीम की जानकारी होनी चाहिए । यह सोचकर मौलाना आजाद ने अंग्रेजी की शिक्षा लेनी शुरू कर दी । और बाद में उन्होंने .इतिहास . पश्चिमी दर्शन शास्त्र तथा समकालीन राजनीतिक विचारों को जाना । इससे उन्हें यह समझने मे आसानी हुयी कि दुनिया में और क्या कुछ चल रहा है। इसी दौरान महान शिक्षा शास्त्री सर सैयद अहमद खां के सुधारवादी विचारों से उनका परिचय हुया । इन विचारों ने मौलाना आजाद पर काफ्ी प्रभाव डाला । अपने विद्रोही स्वभाव और राजनीतिक झुकाव के चलते मौलाना आजाद ने तब पत्रकारिता की राह पकड ली और 1912 में एक उर्दू साप्ताहिक .अल हिलाल .शुरू किया । इसके जरिए उन्होंने हिन्दू मुस्लिम एकता की जोरदार वकालत करते हुए ब्रिटिश नीतियों की जमकर आलोचना शुरू कर दी । मौलाना आजाद ने अपने अखबार में अंग्रेज हुक्मरानों की साम्राज्यवादी नीतियों के कारण आम आदमी को हो रही मुश्किलों को सामने रखा लेकिन ब्रितानी सरकार उनकी इस सच बयानी से चिढ गयी और प्रेस एक्ट बना कर अल हिलाल पर प्रतिबंध लगा दिया 1लेकिन मौलाना आजाद इससे रूकने वाले कहां थे उन्होंने अल बलाग नाम का दूसरा अखबार शुरू कर दिया और साम्प्रदायिक एकता और राष्ट्रवादी विचारों की अलख जगानी शुरू कर दी । यह वह दौर था. जब तुर्की के सुल्तान या जिसे खलीफ भी कहते थे के खिलाफ् अंग्रेजों की बदनीयती के विरोध में खिलाफ्त आंदोलन शुरू हो रहा था । मौलाना आजाद भी इस आंदोलन में कूद पडे । इससे अंग्रेज सरकार क्रोध की सीमा नहीं रही और उसने दमनकारी कदम उठाते हुए मौलाना आजाद के दूसरे अखबार को नया कानून डिफ्सें आफ् इंडिया रेग्यूलेशएक्ट बना कर बंद कर दिया और उन्हें गिरफ्तार करके रांची जेल भेज दिया। उन्हें एक जनवरी 1920 को जेल से रिहा किया गया । तब तक भारत के परिदृश्य पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और देश पर गांधी जी का प्रभाव गहरा रंग जमाने लगा था । उन्होंने असहयोग आंदोलन की शुरूआत की । मौलाना आजाद और अली बंधुओं ने इस आंदोलन को हाथों हाथ लिया और वे बरतानिया हुकूमत के स्कू ल .कालेज. न्यायालय .नौकरियों का बहिष्कार और स्वदेशी के प्रचार में जोर शोर से लग गए । यह वह वक्त था .जब मौलाना आजाद ने अपने साथियों के साथ जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय की स्थापना की । असहयोग आंदोलन के बाद राष्ट्रवादी नेताओं में पैदा हुये मतभेदों में मौलाना आजाद ने गांधी जी का साथ दिया । सविनय अवज्ञा आंदोलन में बढ चढ कर हिस्सा लेने के कारण उन्हें एक बार फ्रि जेल भेज दिया गया । मौलाना आजाद ने 1935 के दौरान मुस्लिम लीग और जिन्ना एवं कांग्रेस के साथ बातचीत की वकालत की ताकि राजनीतिक आधार को विस्तार दिया जा सके । लेकिन जब जिन्ना ने दूसरी राह पकडी तो मौलाना आजाद ने उनकी आलोचना करने में कोई कोताही नहीं बरती । सन 1938 में आजाद ने गांधी जी के समर्थकों एवं तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस के बीच पैदा हुयी तकरार को दूर करने में अहम भूमिका निभायी । मुस्लिम लीग ने जब 1940 में लाहौर मे हुए अधिवेशन में पाकिस्तान की मांग रखी तो उस समय मौलाना आजाद कांग्रेस के रामगढ अधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए थे । तब उन्होने जिन्ना के दो राष्ट्र के सिध्दांत की जमकर खबर ली । मौलाना आजाद ने यह मानने से इंकार कर दिया कि मुसलमान और हिन्दू धर्म के आधार पर दो अलग राष्ट्र हैं । इस्लाम धर्म के इस गहरे जानकार ने इस्लाम के आधार पर बनने वाले देश को अस्वीकार कर दिया । उन्होने सभी मुसलमानों से हिन्दुस्तान में ही रहने की बात कही ।

मौलाना आजाद ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा कि हिन्दुस्तान की धरती पर इस्लाम को आये 11 सदी बीत गयी है और अगर हिन्दू धर्म यहां के लोगो ंका हजारों सालों से धर्म रहा है तो इस्लाम को भी हजार साल हो गए हैं । जिस तरह से एक हिन्दू गर्व के साथ यह कहता है कि वह भारतीय है और हिन्दू धर्म को मानता है .उसी तरह से उतने ही गर्व के साथ हम कह सकते हैें कि हम भी भारतीय हैं और इस्लाम को मानते हैं । इसी तरह इसाई भी यह बात कह सकते हैं । मौलाना आजाद के अध्यक्ष रहने के दौरान 1942 में भारत छोडो आंदोलन शुरू हुया । उस दौरान उन्होंने देश भर की यात्रा की और जगह जगह लोगों को राष्ट्र होने का अर्थ समझाया और आजादी की मशाल को घर घर तक ले गए ।
उस समय देश की बंटवारे की बात चलने लगी थी । मौलाना आजाद ने इस पर खुलकर विरोध दर्ज कराना शुरू कर दिया । उन्होंने स्पष्ट तौर पर जिन्नाकी पाकिस्तान बनाने की मांग को गलत ठहराया और मुल्क के बंटवारे को गैरवाजिब करार दिया । देश में सांप्रदायिक हिंसा का ज्वार बढने लगा था । ऐसे में मौलाना आजाद अपनी जान की परवाह किए बगैर हिंसा से जूझ रहे इलाकों में गए और शांति बहाली के प्रयास किए तथा हिन्दू मुस्लिम एकता की कमजोर पडती भावनाओं में जान फ्ू ंकने की कोशिश की । मौलाना आजाद धर्म के आधार पर बनने वाले मुल्क की कमजोर बुनियाद को अच्छी तरह समझते थे इसलिए वह हरचंद यही कोशिश करते रहे कि देश की नसों मे धर्मनिरपेक्षता का रक्त दौडे ताकि मुल्क हमेशा आबाद रहे । पाकिस्तान आज धर्म के नाम होने वाले जिस आतंकवाद के अभिशाप से जूझ रहा है उसे इस इस्लाम के महान विद्वान ने अपनी दूरदर्शिता से पहले ही भांप लिया था इसलिए उनका पाकिस्तान बनाये जाने से हमेशा विरोध रहा ।
आजादी के बाद बने मंत्रिमंडल में मौलाना आजाद को शिक्षा मंत्रालय का प्रभार दिया गया । तब मौलाना आजाद ने ऐसे शिक्षा तंत्र की कल्पना की .जिसमें बुनियादी तालीम निशुल्क हो और उच्च शिक्षा के आधुनिक संस्थान हों । मौलाना आजाद ने ही देश में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान .आई आई टी . और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की स्थापना क ा स्वप्न बुना । बाइस फरवरी वर्ष 1958 में इस महान जननायक आजाद का निधन हो गया ।

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