शनिवार, 5 दिसंबर 2009

देश भर में चेक बाउंसिंग के 38 लाख मामले लटके


डॉ. महेश परिमल
हमारा देश सचमुच महान है। कई मामलों में तो यह विश्व में सबसे आगे है। ईमानदारी में हमारा क्रम अभी 84 है, यानी बेईमानी अभी भी हमारे आसपास ही है। यह हमसे दूर नहीं है, बल्कि बहुत ही करीब है। पाकिस्तान के अधिकांश युवा भले ही प्रजातंत्र पर विश्वास न करते हों, पर हमारे देश के नागरिक अब भी लोकतंत्र में गहरा विश्वास रखते हैं। हमारे लिए न्यायालय किसी मंदिर से कम नहीं है। न्यायालय लोगों से निष्पक्ष न्याय देता है। पर जब निर्णय किसी एक के साथ होता है, तो फिर वह निष्पक्ष कैसे हुआ? खैर न्याय पर विश्वास करने वालों के लिए यह एक दु:खभरी खबर हो सकती है कि हमारे देश में चेक बाउंसिंग के 38 लाख मामले लंबित पड़े हैं। इसका न्याय होते-होते न जाने कितनी सदियाँ बीत जाएगी। तब तक लाखों और मामले आ जाएँगे, फिर क्या होगा, किसी ने सोचा?
हमारे देश में आम लोगों को न्याय इतनी देर से मिलता है कि तब तक काफी देर हो जाती है। न्याय की यह मंथर गति कई नए विवादों को जन्म देती है। न्याय प्रक्रिया की यह धीमी रफ्तार कई जिंदगियाँ तबाह कर देती है। कई बार न्याय एक पीढ़ी को तो नहीं मिल पाता, अलबत्ता दूसरी को मिलता है। तब इसका कोई महत्व नहीं होता। इसके अलावा होता यह है कि बिल्डर, कुछ फाइनेंस कंपनियाँ एवं कुछ लोग लेनदार से अपना पीछा छुड़ाने के लिए चेक दे देते हैं, उसके बाद उनके खाते में उतनी रकम होती ही नहीं है। इससे चेक बाउंस हो जाता है। बस फिर क्या? जिसने चेक प्राप्त किया, वह न्यायालय की शरण में जाता है। उसके बाद बरसों बरस तक उसे न्याय नहीं मिल पाता। ऐसे में कोई किस तरह से देश की न्याय प्रक्रिया पर विश्वास करे? यह एक जटिल प्रश्न है। जिसका समाधान हमें ढूंढना है।
सबसे पहली बात यह है कि अभी तक झूठा चेक देने वाले व्यक्ति को किसी भी तरह की कड़ी सजा का प्रावधान हमारे कानून में नहीं है, इसलिए लोग यह अपराध बार-बार करते हैं। इन लोगों को कानून का डर नहीं रहता। या फिर ये कानून को अपनी तरह से चलाना जानते हैं। खाते में राशि न होने के बाद भी चेक जारी करना फौजदारी अपराध है। ऐसे लोगों को दो वर्ष की कैद की सजा हो सकती है। यह जानते हुए भी न्याय की धीमी प्रक्रिया के कारण वह यह अपराध बार-बार करते हैं। देश भर की विभिन्न अदालतों में इस समय चेक बाउंसिंग के 38 लाख मामले न्याय की प्रतीक्षा कर रहे हैं। सबसे अधिक मामले देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में हैं। यहाँ हुंडी वापस करने के दो लाख 30 हजार मामलों के लिए केवल 23 मजिस्ट्रेट कोर्ट है। इस संबंध में बाम्बे हाईकोर्ट के एडिशनल पब्लिक प्रोसीक्यूटर आनंद पाटिल का कहना है कि मुंबई में धन का सबसे अधिक लेन-देन होता है, इसलिए यहाँ चेक बाउंस के सबसे अधिक मामले दर्ज होते हैं। ऐसी स्थिति में केवल इस तरह के मामलों का निबटारा करने के लिए अधिक से अधिक अदालतों की आवश्यकता है। इतनी अधिक अदालतों के साथ उससे भी अधिक न्यायाधीशों की नियुक्ति भी आवश्यक है। सबसे पहले तो हमें इस समस्या से निबटना होगा।
इस तरह के मामलों से देश की अर्थ व्यवस्था भी प्रभावित होती है। क्योंकि इस तरह का मामला जब अदालत पहुँचता है, तब सबसे पहले झूठा चेक जारी करने वाला व्यक्ति या कंपनी 'नेगोसिएबल इंस्ट्रुमेंट्सÓ की धारा 138 को भंग करती है। जब मामला अदालत पहुँचता है, तो मामले से संबंधित राशि अदालत में लॉक कर दी जाती है, जिससे एक बड़ी राशि स्थगित हो जाती है। जिसका प्रभाव अंत में हमारी अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। जिस तेजी से इस तरह के मामले बढ़ रहे हैं, उतनी ही तेजी से हमारी अर्थव्यवस्था प्रभावित हो रही है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए। सरकार इस दिशा में गंभीर होकर कार्रवाई करे, तो कुछ उम्मीदें जागती हैं। वैसे सरकार की नीयत साफ हो, तो इस तरह का मामला मात्र कुछ घंटों में ही निबट सकता है। मुंबई हाईकोर्ट के एक कानूनविद के अनुसार पीडि़त व्यक्ति यदि कोर्ट का नोटिस और अपना बैंक स्टेटमेंट दिखाए, तो उसका फैसला एक ही दिन में हो सकता है। पर अदालतें काम के बोझ से इतनी दबी हुई हैं कि एक घंटे का काम ही मुश्किल से एक सप्ताह में ही हो पाता है। विश्व के लिए हम भले ही कितने ही आगे बढ़ जाएँ, पर अदालतों की धीमी प्रक्रिया किसी आदिम युग से कम नहीं है। कानून में इतना लचीलापन है कि एक ही अपराध को बार-बार दोहराने वाले व्यक्ति को भी सजा मिलने के बाद भी अधिक दु:ख नहीं होता। कई अपराधी तो कुछ समय बाद कानून और अदालती प्रक्रिया से इतने अधिक वाकिफ हो जाते हैं कि उन्हें सब पता रहता है कि कब, कहाँ, किस तरह से सजा होगी।
ऐसा नहीं है कि सरकार इस दिशा में कुछ नहीं कर रही है। इस समस्या के समाधान के लिए सरकार ने प्रत्येक राज्य में हाई टेक सुविधाओं से युक्त फास्ट ट्रेक कोर्ट शुरू करने की घोषणा की है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2000 में लागू होने वाली एक योजना के अनुसार 1735 फॉस्ट ट्रेक कोर्ट शुरू की गई थी। वर्ष 200 से 2005 के दौरान चलने वाली इन अदालतों में लंबे समय से अटके 18.66 लाख मामले भेजे गए। 5 वर्ष में इन अदालतों के माध्यम से 10.66 लाख मामलों का निबटारा हो पाया। इससे उत्साहित होकर सरकार ने हाई टेक फॉस्ट ट्रेक कोर्ट शुरू करने का निर्णय लिया। एक अन्य कानूनविद का कहना है कि चेक बाउंसिंग के मामलों के तेजी से निपटारे के लिए पर्याप्त अदालतों के होने के बाद भी इस समस्या में उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहेगी।
अब इस दिशा में सरकार के साथ-साथ कानून और व्यापार जगत ने भी अपनी कमर कस ली है। आईसीआईसीआई बैंक ने पहल करते हुए 'दिल्ली लिगल सर्विस अथारिटी से संपर्क कर 8 फरवरी 09 को पहली साइबर लोक अदालत का गठन किया है। दिल्ली के 5 जिला अदालतों में एक ही दिन में बैंक के एक लाख दस हजार मामलों पर अपना निर्णय दिया। दावेदारों को यह कहा गया कि उन्होंने जिस कोर्ट में केस किया है, उसके बदले में किसी भी अदालत में जाकर मुकदमा लडऩे की छूट दी जाती है। इस वर्ष देश के कुछ शहरों में चलने वाली आईसीआईसीआई बैंक के 9359 मामलों पर फैसला नियमित लोक अदालतों के माध्यम से किया गया। बैंक के एक प्रवक्ता के अनुसार लोक अदालतों के माध्यम से चेक बाउंसिंग एव उससे संबंधित मामलों का तेजी से निराकरण किए जाने से यह कारगर साबित हो रही है। उधर 'इंटरनेशनल कंज्यूमर राइट्स प्रोटेक्शन काउंसिलÓ के पास इससे आगे बढ़कर एक योजना है। वह 'के्रडिट रेटिंग बॉडीÓ की रचना करने का सुझाव देते हुए जो बार-बार इस अपराध को करते हैं, इससे जुड़े व्यक्ति या कंपनी को काली सूची में डाल दिया जाए। इसके अलावा उन्होंने पोस्ट डेटेट चेक को बैंक द्वारा प्रमाण पत्र देने की सूचना भी दी थी, ताकि चेक बाउंस हो, तब बैंक संबंधित चेक जारी करने वाले के खाते में धनराशि जमा कर दे, अथवा लेनदार को धन देने के बदले चेक जारी करने वाले की सम्पत्ति कुर्क कर राशि का भुगतान करे। इसके अलावा अदालत के बाहर भी समाधान करने के लिए अनेक सुझाव दिए गए।
ये सब तो होता ही रहेगा, यदि देश की न्याय प्रक्रिया को तेज नहीं किया गया, तो यह समस्या निकट भविष्य में बहुत विकराल हो जाएगी। इस मामले में पीडि़त व्यक्ति अपना आपा खो बैठता है, कुछ समय बाद वह अपने पर काबू भी पा लेता है, पर देश को जो नुकसान हो रहा है, उस पर कैसे काबूू पाया जा सके। यह एक विचारणीय है।
डॉ. महेश परिमल

2 टिप्‍पणियां:

  1. अंग्रज़ों ने एक सिस्टम बनाया ...
    भारतीयों पर बिल्कुल भरोसा न करो..
    सो उन्होंने भारतीयों के लिए कानून बनाए...
    कागज़ो में सबकुछ एक दम दुरूस्त हो तो ठीक वर्ना ग़लत
    ...आज वही ढो रहे हैं हम. जज साहब को दीखता है कि सही क्या है पर कानून के आंख तो पट्टी है..वकील बाबू तारीखे लेते रहते हैं जो उन्हें principle of natural justice के नाम पर मिलती भी रहती हैं...केसों का अंबार तो लगवै इ करी...

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  2. सरकार पहले ही जितने मुकदमे थे उन के लिए पर्याप्त अदालतें नहीं दे सकती थी। पर अंतर्राष्ट्रीय दबावों के चलते उन्हें चैक बाउंस को अपराध घोषित करना पड़ा। नतीजा आप देख ही रहे हैं। दिल्ली की अदालतों में कुल फौजदारी मुकदमों के 60 प्रतिशत से अधिक मामले चैक बाउंस के हैं।
    अभी हमारे देश की व्यवस्था इस काबिल नहीं कि चैक बाउंस जैसे पैसे के लेन-देन के मामलों को अपराध घोषित किया जाता।
    @ काजल कुमार जी,
    इस में वकीलों का क्या दोष है। उन्हें तारीख मिलेगी तो क्यों न लेंगे? अदालत क्यों देती है? एक अदालत के पास पाँच-पाँच अदालतों जितने मुकदमे हैं। एक अदालत में पन्द्रह से बीस मुकदमों से अधिक रोज सुनवाई के लिए नहीं लगने चाहिए। लेकिन मजबूरी में सौ लगते हैं। उन में से अस्सी को तो बदलना ही है। अब ऐसे में रीडर, बाबू मौज ना करेंगे तो क्या करेंगे? मूल व्यवस्था में दोष या कमी हो तो उस पर निर्भर रहने वाले उस का लाभ क्यों नहीं उठाएंगे। सत्यवादी हरिश्चंद्र लाखों में कोई एकाध होता होगा।

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