बुधवार, 25 नवंबर 2009

भारतीय राजनीति का काला अध्याय: मधु कोडा


डॉ. महेश परिमल
झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोडा द्वारा अर्जित की गई बेशुमार दौलत से भारतीय राजनीति का एक ऐसा चेहरा दिखाई दे रहा है, जो बहुत ही डरावना है। हमारे प्रधानमंत्री ने पहले ही कह दिया है कि राजनीति में बड़ी मछलियों को बख्शा नहीं जाएगा। यह उसी की शुरुआत है। सवाल यह उठता है कि आखिर मधु कोडा के पास इतनी संपत्ति आई कहाँ से? क्या २३ माह तक ही मुख्यमंत्री बनने से अरबों की सम्पत्ति अर्जित की जा सकती है? तो फिर जिन मुख्यमंत्रियों ने कई बार प्रदेशों की कमान संभाली है, उनके पास कितनी संपत्ति होगी? मधु कोडा के काले कारनामे लगातार सुर्खियों में स्थान प्राप्त कर रहे हैं। नित नई जानकारी मिल रही है। लेकिन यह तय है कि यह मामला भी उन सारे मामलों की तरह दब जाएगा, क्योंकि इस मामले को दबाने के लिए अदृश्य शक्तियाँ सक्रिय हो गई हैं।
यह तो तय है कि मधु कोडा ने सत्ता का बुरी तरह से दुरुपयोग किया। इससे अरबों रुपए की संपत्ति अर्जित की। यह काम उसने अकेले ने नहीं किया है। इस काम में बराबर की साझेदारी है, उन सफेदपोशों की, जिनका चेहरा आज समाज के सामने बहुत ही धवल है। यदि आयकर विभाग को अन्य विभाग पूरी तरह से सहयोग करते हैं, तो मधु कोडा को सहयोग देने वाले अंतिम व्यक्ति का नाम सामने आ जाए, तो सभी चौंक उठेंगे। पर जो हालात बन रहे हैं, उससे नहीं लगता कि मधु कोडा ने किस तरह से सम्पत्ति अर्जित की, यह पता चल पाएगा। खैर, जो भी हो, सच तो यह है कि मधु कोडा ने झारखंड की हरियाली को दाँव पर लगा दिया। करोड़ो वृक्षों की अवैध कटाई करवाई। हजारों एकड़ जमीन खनिज माफिया को सौंप दी। जंगल के जंगल नीलाम कर दिए। लाखों वनवासियों को बेकार कर दिया। अपने शासनकाल में मधु कोडा ने लोहे की खदानों की खुदाई करने के लिए वहाँ लोहे के कारखाने स्थापित करने के लिए ४२ निजी कंपनियों के साथ कुल १.७० लाख करोड़ रुपए के निवेश के लिए समझौता किया है। यदि इस समझौते को लागू किया जाए, तो झारखंड राज्य के सारंडा डिवीजन में ८५,००० हेक्टयर जमीन पर स्थित जंगल क्षेत्र पूरी तरह से खत्म हो जाएगा। दूसरे शब्दों में कहा जाए, तो देशी और विदेशी उद्योगपतियों ने जिस तरह से चुनाव के लिए नेताओं को चंदे के रूप में जो करोड़ो रुपए दिए हैं, यह उसे वापस करने का एक नायाब तरीका ही है। जो इन्हें लायसेंस के रूप में प्राप्त होता है।
झारखंड डिवीजन में कुल ८५,००० हेक्ैटयर जमीन पर घना जंगल है। इसमें २८ लोहे की खानों के लिए ९,३०० हेक्टेयर जमीन पर ऊगे वृक्षों को समाप्त कर दिया गया है। एक हेक्टेयर जमीन पर औसतन १० हजार बड़े वृक्ष होते हैं। इस हिसाब से ९,३०० हेक्टेयर जमीन से करीब ९.३ करोड़ वृक्षों का संहार किया गया है। अब मित्तल उद्योग समूह ने खनिज और लोहे की खान और कारखाने के लिए ८ हजार हेक्टेयर जंगल साफ कर देने की सरकार की योजना है। इस जंगल पर ८ हजार वृक्षों का संहार कर वहाँ ४०,००० करोड़ रुपए की लागत से १.२ करोड़ टन की वार्षिक क्षमता वाला कारखाना बनने वाला है। यह तो केवल एक कारखाने की बात है। अभी तो कुल ४२ कारखाने और बनने हैं। जिंदल उद्योग यहाँ १,८०० हेक्टेयर भूमि पर १.८० करोड़ वृक्षों का सफाया कर ११,५०० करोड़ की लागत से एक करोड़ टन फौलाद का उत्पादन करने वाले कारखाना खोलने की अनुमति माँगी है। टाटा कंपनी ने भी यहाँ ४,८०० हैक्टेयर जमीन पर ४.८० करोड़ वृक्षों की बलि लेकर ५० लाख टन फौलाद का उत्पादन करने वाले कारखान की अनुमति माँगी है। इसके लिए समझौतों पर सरकार ने अपनी अनुमति दे दी है।
सवाल यह उठता है कि हमारे देश में अचानक इस तरह से स्टील के कारखानों की भला क्या आवश्यकता आ पड़ी? इन कारखानों के लिए करोड़ों वृक्षों के सफाए पर भी सरकार किस तरह से राजी हो गई? इसके जवाब में यही कहा जा सकता है कि सरकार को जब भी कहीं नया उद्योग लगाना चाहती है, तो उसके लिए लोहे की आवश्यकता पड़ती है। यदि देश का विकास तेजी से करना है, तो लोहे के कई नए कारखानों का निर्माण करना ही होगा। यहाँ एक दूसरा सवाल यह खड़ा होता है कि क्या हमारे देश को इतने अधिक उद्योगों की आवश्यकता है? इसका जवाब यही है कि हमारे देश में जितने भी कुटीर उद्योग हैं, या ग्रामीण गृह उद्योग हैं, उससे देश के सभी नागरिकों की जरुरतों को पूरा किया जा सकता है। इससे बेरोजगारी को भी दूर करने में सहायता मिलेगी। पर इससे उद्योगपतियों और नेताओं को किसी प्रकार का लाभ नहींं होता। आज सत्ता देश के राजनेताओं के हाथ में है, उन्हें चुनाव जीतने के लिए धन की आवश्यकता होती है, जो इन्हीं उद्योगपतियों से पूरी होती है। इसलिए हमारे देश की प्रजा पर पर्यावरण का नुकसान पहुँचाने वाले कारखाने थोपे जा रहे हैं।
झारखंड के सारंडा डिवीजन के फारेस्ट ऑफिसरों का कहना है कि अभी भी प्रदेश के ६४,००० हेक्टेयर जमीन पर जंगल हैं। एशिया का सबसे बड़ा साल वृक्ष का जंगल भी झारखंड में ही है। इस जंगल में शेर, हाथी, रीछ, चार सिंग वाला हिरण, उड़ती गिलहरी आदि वन्य प्राणियों की भरमार है। सन् २००१ में इस जंगल को हाथियों का अभयारण्य बनाने की घोषणा भी की गई थी। लेकिन आबादी के कारण हाथियों की संख्या दिनों-दिन कम हो रही है। सन् २००२ में यहाँ ४२४ हाथी थे, तो २००५ में यह संख्या घटकर ३७५ रह गई है। जंगलों में आवाजाही और बढ़ते शोर के कारण ये हाथी खेतों की ओर भाग जाते हैं, जिससे फसलों को भारी नुकसान होता है। हाथियों से मुक्ति पाने के लिए किसान उन्हें जहर दे देते हैं, या गोली मार देते हैं, जिससे उनकी मौत हो जाती है। दूसरी ओर खानों से निकलने वाले जहरीले कचरे के कारण यहाँ की नदियाँ प्रदूषित हो गई हैं। सारंडा क्षेत्र में नई खानों की खुदाई का विरोध न केवल वनवासी बल्कि फारेस्ट अधिकारी भी कर रहे हैं। उनका कहना है कि इस जंगल में अभी तो २८ लोहे की खानों से खुदाई हो ही रही है। उद्योगपति इन पुरानी खानों का उपयोग नहीं करते, बल्कि नए स्थान पर खुदाई कर रहे हैं। इसकी वजह यही है कि पुरानी खानों से लोहा निकालने का खर्च अधिक आता है और उसकी लागत बढ़ जाती है। उद्योगपतियों को खानों के लिए जमीन इतनी सस्ती दी गई है कि उन्हें नई खानों से लोहा निकालने में आसानी होती है। पुरानी खानों का वे इस्तेमाल करते ही नहीं। सरकार को यदि पर्यावरण की थोड़ी सी भी चिंता है, तो उद्योगपतियों को नई खानों से लोहा निकालने ही नहीं देना चाहिए।
उल्लेखनीय है कि जब हमारा देश आजाद हुआ था, तब देश का ३४ प्रतिशत भाग वनों से आच्छादित था। आज देा की २३ प्रतिशत जमीन पर ही जंगल है। ऐसा वन विभाग कहता है, लेकिन तस्वीर कुछ और ही कहानी कहती है। हकीकत में देश में केवल १० से १२ प्रतिशत भूमि पर जंगल बचे हैं। १९५१ से लेकर १९७२ तक देश में सबसे अधिक जंगलों का नाश हुआ। उसके बाद तो जंगल को विनाश करने का एक अभियान ही शुरू हो गया। जंगलों को नाश करने का लायसेंस नेताओं द्वारा ही दिए गए। इससे अंदाजा लग जाता है कि केवल लायसेंस देकर ही हमारे नेताओं ने कितना कमाया होगा? जो आदिवासी जंगल पर ही निर्भर होते हैं, उन्हें 'जंगलीÓ कहा जाता है, पर इन्हें क्या कहा जाए, जो जंगल का सत्यानाश कर रहे हैं। ये तो जंगली से भी गए बीते हैं।
झारखंड में मधु कोडा के कार्यकाल में जितने भी करार हुए हैं, उन पर नजर डालना आवश्यक है। कानून कहता है कि आदिवासियों की जमीन को कोई बाहरी व्यक्ति नहीं खरीद सकता, पर झारखंड सरकार ने इसे आदिवासियों के हितार्थ बताकर जंगल की जमीन उद्योगपतियों को सस्ते दामों में बेच दी। अब वनवासी भी अपना अधिकारों के प्रति सजग हो चुके हैं। अब यदि झारखंड सरकार जबर्दस्ती यदि आदिवासियों से जमीन हड़पती है, तो उद्योगपतियों और आदिवासियों के बीच खूनी संघर्ष की आशंका है। मधु कोडा इस बजबजाती हुई गंदी राजनीति का एक छोटा-सा हिस्सा भर है। यदि मधु कोडा को ही एक सिरा मानकर जाँच की जाए, तो इसके कई ऐसे सिरे मिलेंगे, जो निश्चित रूप से हृदयविदारक होंगे। बहुत से राज दफ्न हैं मधु कोडा के मामले में। सरकार की नीयत यदि साफ है, तो पूरी ईमानदारी से इस मामले की जाँच कराकर देख ले, एक से एक खूंखार चेहरे सामने आएँगे।
डॉ. महेश परिमल

2 टिप्‍पणियां:

  1. कितने भ्रष्ट होंगे इसका अंदाजा लगा सकते हैं इनकी सम्पति से !!इनका बाल भी बनका नहीं होता !

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  2. कितने भ्रष्ट होंगे इसका अंदाजा लगा सकते हैं इनकी सम्पति से !!इनका बाल भी बनका नहीं होता !

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