शनिवार, 7 नवंबर 2009

बेगम अख्तर : सब अजनबी है यहां कौन किसको पहचाने


बिहार में भूकंप पीड़ितों की सहायता के लिये अपने जमाने के संगीतज्ञ उस्ताद अता मोहम्मद खान ने एक जलसे का आयोजन किया था, जिसमें फैयाज खान, विलायत खान, केसरबाई और मोगू बाई कुर्डीकर जैसे नामी गिरामी कलाकार आमंत्रित थे । कार्यक्रम में पूर्व निश्चित समय पर उनके पहुंचने में विलंब होने पर अता मोहम्मद खान ने दर्शकों के मनोरंजन के लिये अपनी एक छोटी सी शिष्या बिब्बी को गाने का मौका दिया । उस छोटी सी लड़की बिब्बी ने मंच पर जाकर ऐसा सुर लगाया कि हो हल्ला करने वाले श्रोता शांत हो गये और बाहर चले गये श्रोता भी वापस आकर अपनी कुर्सी पर बैठ गये । दूसरे दिन अखबार में उस छोटी लड़की की तारीफ छपी । यही नही कलकत्ता की मशहूर मेगाफोन कंपनी के अधिकारी भी उस लड़की से आकर मिले और उसके गानों का रिकार्ड बनाने की पेशकश की । यही लड़की बिब्बी बाद में संगीत जगत की महान गायिका बेगम अख्तर के नाम से मशहूर हुई ।
उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में 07 अक्टूबर 1914 में जन्मी बेगम अख्तर का बचपन के दिनों से ही संगीत की ओर रूझान था । वह पार्श्वगायिका बनना चाहती थी। उनके परिवार वाले उनकी इस इच्छा के सख्त खिलाफ थे लेकिन उनके चाचा ने बेगम अख्तर के संगीत के प्रति लगाव को पहचान लिया और उन्हें इस राह पर आगे बढने के लिये प्रेरित किया । बेगम अख्तर ने फैजाबाद में सारंगी के उस्ताद इमान खां और अता मोहम्मद खान से संगीत की प्रारंभिक शिक्षा ली । इसके अलावा उन्होने मोहम्मद खान, अब्दुल वहीद खान से भारतीय शास्त्रीय संगीत सीखा।
बचपन के दिनों में उस्ताद मोहम्मद खान और बेगम अख्तर के बीच ऐसी घटना हुई जब बेगम अख्तर ने गाना सीखने से इन्कांर कर दिया । उन दिनों बेगम अख्तर से सही सुर नही लगते थे । उनके गुरु ने उन्हें इसके बारे में कई बार सिखाया और जब वह नही सीख पाई तो उन्हे डांट दिया । इसके बाद बेगम अख्तर रोने लगी और कहा हमसे नहीं बनता नानाजी, मैं गाना नहीं सीखूंगी । तब उनके उस्ताद ने कहा बस इतने में हार मान ली तुमने नही बिटृो ऐसे हिम्मत नही हारते मेरी बहादुर बिटिया चलो एक बार फिर से सुर लगाने में जुट जाओ । उनकी इस बात सुनकर बेगम अख्तर ने फिर से रियाज शुरू किया और सही सुरलगाये । तीस के दशक में बेगम अख्तर पारसी थियेटर से जुड़ गई । नाटकों में काम करने के कारण उनका रियाज छूट गया जिससे उनके गुरु मोहम्मद अता खान काफी नाराज हुये और कहा जब तक तुम नाटक में काम करना नही छोड़ती मैं तुम्हें गाना नहीं सिखाउंगा । उनकी इस बात पर बेगम अख्तर ने कहा आप सिर्फ एक बार मेरा नाटक देखने आ जाये उसके बाद आप जो कहेगे मै करूंगी । उस रात मोहम्मद अता खान बेगम अख्तर के नाटक तुर्की हूर देखने गये । जब बेगम अख्तर ने उस नाटक का गाना चल री मोरी नैय्या गाया तो उनकी आंखों में आंसू आ गये और नाटक समाप्त होने के बाद बेगम अख्तर से उन्होंने कहा बिटिया तू सच्ची अदाकारा है जब तक चाहो नाटक में काम करो नाटकों में मिली शोहरत के बाद बेगम अख्तर को कलकत्ता की ईस्ट इंडिया कंपनी में अभिनय करने का मौका मिला। बतौर अभिनेत्री बेगम अख्तर ने एक दिन का बादशाह से अपने सिने कैरियर की शुरूआत की लेकिन इस फिल्म की असफलता के कारण अभिनेत्री के रुप में वह कुछ ख़ास पहचान नहीं बना पाई । वर्ष 1933 में ईस्टइंडिया के बैनर तले बनी फिल्म नल दमयंती की सफलता के बाद बेगम अख्तर बतौर अभिनेत्री अपनी कुछ पहचान बनाने में सफल रही ।
इस बीच बेगम अख्तर ने अमीना, मुमताज बेगम, 1934, जवानी का नशा, 1935, नसीब का चक्कर जैसी फिल्मों मे अपने अभिनय का जौहर दिखाया । कुछ समय के बाद वह लखनउ चली गई जहां उनकी मुलाकात महान निर्माता -निर्देशक महबूब खान से हुई जो बेगम अख्तर की प्रतिभा से काफी प्रभावित हुये और उन्हें मुंबई आने का न्योता दिया । वर्ष 1942 में महबूब खान की फिल्म रोटी में बेगम अख्तर ने अभिनय करने के साथ ही गाने भी गाये । उस फिल्म के लिए बेगम अख्तर ने छह गाने रिकार्ड कराये थे लेकिन फिल्म निर्माण के दौरान संगीतकार अनिल विश्वास और महबूब खान के आपसी अनबन के बाद रिकार्ड किये गये तीन गानों को फिल्म से हटा दिया गया 1बाद में उनके इन्हीें गानों को ग्रामोफोन डिस्क ने जारी किया गया । कुछ दिनों के बाद बेगम अख्तर को मुंबई की चकाचौंध कुछ अजीब सी लगने लगी और वह लखनऊ वापस चली गई । वर्ष । 945 में बेगम अख्तर का निकाह बैरिस्टर इश्ताक अहमद अब्बासी से हो गया। दोनों की शादी का किस्सा काफी दिलचस्प है । एक कार्यक्रम के दौरान बेगम अख्तर और इश्ताक मोहम्मद की मुलाकात हुई । बेगम अख्तर ने कहा .मैं शोहरत और पैसे को अच्छी चीज नही मानती हूं औरत की सबसे बड़ी कामयाबी है किसी की अच्छी बीवी बनना यह सुनकर अब्बासी साहब बोले क्या आप शादी के लिये अपना कैरियर छोड़ देगी । इस पर उन्होंने जवाब दिया हां यदि आप मुझसे शादी करते है तो मैं गाना बजाना तो क्या आपके लिये अपनी जान भी दे दूं । बाद में शादी के बाद उन्होंने गाना बजाना तो दूर गुनगुनाना तक छोड़ दिया ।
शादी के बाद अपने पति की इजाजत नही मिलने पर बेगम अख्तर ने गायकी से मुख मोड़ लिया । गायकी से बेइंतहा मोहब्बत रखने वाली बेगम अख्तर को जब लगभग पांच वर्ष तक आवाज की दुनिया से रूखसत होना पड़ा तो वह इसका सदमा बर्दाश्त नहीं कर सकीं और हमेशा बीमार रहने लगी । हकीम और वैद्यों की दवाइयां भी उनके स्वास्थ्य को नही सुधार पा रही थी । एक दिन जब बेगम अख्तर गा रही थी तभी उनके पति के दोस्त सुनील बोस जो लखनऊ रेडियो के स्टेशन डायरेक्टर ने उन्हें गाते देखकर कहा अब्बासी साहब यह तो बहुत नाइंसाफी है । कम से कम अपनी बेगम को रेडियो में तो गाने का मौका दीजिये । बाद में अपने दोस्त की बात मानकर उन्होंने बेगम अख्तर को गाने का मौका दिया । जब लखनऊ रेडियों स्टेशन में बेगम अख्तर पहली बार गाने गई तो उनसे ठीक से नही गाया गया । अगले दिन अखबार में निकला बेगम अख्तर का गाना बिगड़ा। बेगम अख्तर नही जमी यह सब देखकर बेगम अख्तर ने रियाज करना शुरू कर दिया और बाद में उनका अगला कार्यक्रम अच्छा हुआ । इसके बाद बेगम अख्तर ने एक बार फिर से संगीत समारोहों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया । इस बीच उन्होंने फिल्मों में भी अभिनय करना जारी रखा और धीरे धीरे फिर से अपनी खोई हुई पहचान पाने में सफल हो गई । महान संगीतकार मदन मोहन के कहने पर बेगम अख्तर ने 1953 मे प्रदशत फिल्म दानापानी के गीत ऐ इश्क मुझे और कुछ याद नही और 1954 में प्रदशत फिल्म एहसान के गीत हमें दिल में बसा भी लो गाकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया । पचास के दशक में बेगम अख्तर ने फिल्मों मे काम करना कुछ कम कर दिया । वर्ष 1958 में सत्यजीत राय द्वारा निमत फिल्म जलसा घर बेगम अख्तर के सिने कैरियर की अंतिम फिल्म साबित हुई । इस फिल्म में उन्होंने एक गायिका की भूमिका निभाकर उसे जीवंत कर दिया था। इस दौरान वह रंगमंच से भी जुड़ी रही और अभिनय करती रही । बेगम अख्तर बहुत स्वाभिमानी गायिका थी । एक बार कश्मीर में वह कार्यक्रम करने के लिये गई थी । वहां के राज्यपाल ने उन्हें चाय पर आमंत्रित किया था । जब वह वहां पहुंची तो राज्यपाल ने कहा पहले आप गाना सुनाये उसके बात मैं आपको चाय पिलाता हूं । उनकी इस
बात से बेगम अख्तर काफी नाराज हुई और कहा आपने मुझे चाय पर बुलाया है न कि गाना सुनने और वह वहां से चली गई । बाद में राज्यपाल ने उनसे इस बात के लिये माफी भी मांगी । सत्तर के दशक में लगातार संगीत से जुड़े कार्यक्रमों मे भाग लेने और काम के बढ़ते दबाव के कारण वह बीमार रहने लगी और इससे उनकी आवाज भी प्रभावित होने लगी । इसके बाद उन्होंने संगीत कार्यक्रमों में हिस्सा लेना काफी कम कर दिया। वर्ष 1972 में संगीत के क्षेत्र मे उनके अप्रतिम योगदान को देखते हुये संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया । इसके अलावा वह पदम्श्री और पदम भूषण पुरस्कार से भी सम्मानित की गई । जब बेगम अख्तर को दिल का पहला दौरा पड़ा तो डॉक्टर ने उनसे कहा आप गाना छोड़ दीजिये और कार्यक्रम में हिस्सा नही लें । इस पर बेगम अख्तर ने कहा .अरे गाना नहीं तो जीना कैसा । वर्ष 1974 में अहमदाबाद में वह एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने गई ।
अपनी जादुई आवाज से श्रोताओं के दिलों के तार झंकृत करने वाली यह महान गायिका 30 अक्तूबर 1974 को इस दुनिया को अलविदा कह गई । अपनी मौत से सात दिन पहले बेगम अख्तर ने कैफी आजमी की गजल गाई थी।
सुना करो मेरी जान उनसे उनके अफसाने
सब अजनबी है यहां कौन किसको पहचाने

प्रेम कुमार

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