बुधवार, 24 जून 2009
हार गए कहार
डॉ.महेश परिमल
अब इसे कुछ भी कह लें, डोली या पालकी। यह जब भी उठती है, कई कलेजे बैठने लगते हैं। इसका उठना शुभ होते हुए भी उस क्षण के लिए अतिदु:खदायी होता है। पालकी उठाने वालों को कहार कहा जाता है। यह अमीरी की निशानी है। जितनी अच्छी पालकी, उतना बड़ा रुतबा। तंदरुस्त कहार, सजी हुई पालकी और एक लोकगीत। फिर वह 'डोला हो डोला हो या फिर 'चलो रे डोली उठाओ रे कहार, पिया मिलन की रुत आई । अलग-अलग क्षेत्रों के अनुसार पालकी की सजावट भी अलग-अलग हो सकती है। पर उसके पीछे की भावना वही रहती है। पालकी का ही दूसरा रूप डोली है। जिसमें दुल्हन को विदा किया जाता है। विदाई का क्षण ऐसा होता है कि अच्छे-अच्छों का कलेजा भी दहल जाता है। इसका उठना कई आँखें गीली कर देता है।
आधुनिकता के साथ अब डोली या कह लें पालकी का स्वरूप कार ने ले लिया है। कार का सजाना अब डोली को सजाने की तरह होता है। महँगी कार और महँगी सजावट अब शान का प्रतीक बन गई है। अब उसमें कहारों की कोई भूमिका नहीं है। इसलिए कहारों के दुर्दिन शुरू हो गए हैं। अब कहारों ने अपना रास्ता बदल दिया है। अब वे रोजगार की तलाश में निकल पड़े हैं। अब उन्हें जो भी रोजगार मिल जाए, उससे ही संतुष्ट हो जाते हैं। अब न तो शहनाई की धुन है और न ही कहारों द्वारा गाया जाने वाला गीत। दुल्हन की विदाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले ये कहार अब इस धंधे से ही विदाई ले रहे हैं। अब शादी-ब्याह में उनकी आवश्यकता ही नहीं पड़ती। माँग कम हो गई है, इसलिए वे अब दूसरे रोजगार की ओर बढऩे लगे हैं।
पश्चिम बंगाल में उत्तर-24 परगना जिले के निबाधुनी गांव और कोलकाता के भीड़भरे इलाके बीके पाल एवेन्यू में क्या समानता है? वैसे तो ये दोनों जगहें सामाजिक और भौगोलिक रूप से अलग-अलग हैं, लेकिन पालकी उठाने और कान साफ करने जैसे विलुप्त होते जा रहे पारंपरिक व्यवसायों से जुड़े लोग यहां रहते हैं।
निबाधुनी में करीब 25 परिवार रहते हैं जो पालकी उठाने के अपने पारंपरिक पेशे को जिंदा रखने की कोशिश कर रहे हैं। उनका कहना है कि आजादी से पहले पालकी की मांग बहुत ज्यादा थी और उनके पूर्वज इससे अच्छी खासी कमाई कर लेते थे। लेकिन अब मांग खत्म होने के साथ ही इन परिवारों के सदस्य किसान बन गए हैं, या फिर मजदूरी करने लगे हैं।
ऐसे ही एक परिवार के सदस्य असीत अधिकारी ने कहा, 'पालकी की मांग सीमित है। हमें कभी-कभी सिनेमा, रंगमंच आदि के निर्देशक बुला लेते हैं। यदाकदा शादियों में दुल्हन को ससुराल तक पहुंचाने का काम भी मिल जाता है।Ó
दूसरी ओर, लोगों के कान से मैल साफ करने का परंपरागत काम भी अंतिम सांसें गिन रहा है। यह काम करने वाले अब केवल 20 लोग बचे हैं, जो बीके पाल एवेन्यू में एक छोटे से कमरे में एकसाथ रहते हैं। कसीम नामक व्यक्ति ने बताया, 'सामाजिक स्थिति बदलने के कारण हमारा काम काफी प्रभावित हुआ है। पहले हमारी बहुत मांग होती थी, खासकर सामाजिक कार्यक्रमों में, जब खुशबूदार तेल से अपने कान साफ करवाने को प्रतिष्ठा का प्रतीक माना जाता था।Ó
डॉ.महेश परिमल
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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सही है समय के साथ साथ सभी कुछ बदलता जा रहा है।अब शादि ब्याह मे भी पहले जैसा भावपूर्ण माहौल नजर नही आता। अ्भी तो ना जानें और कितने बदलाव आएगें.......समय के साथ चलना भी जरूरी है....
जवाब देंहटाएंबहुत यादों में ले गये आप. समय के साथ सब बदल रहा है.
जवाब देंहटाएं