मंगलवार, 16 जून 2009

रेगिस्तान की खुशी


भारती परिमल
एक थी नदी। वह बड़े ही अनोखे स्वभाव की थी। अपना हर काम दूसरों से अलग करना चाहती थी। अपने इसी अनोखे स्वभाव के कारण वह पहाड़ की लाड़-दुलारी बेटी थी। चंचल, नटखट, कलकल करती प्यारी-सी बेटी। पिता का घर छोड़कर वह तो चल पड़ी अपनी लहरों के साथ धरती की गोद में। कल-कल करती कभी इठलाती तो कभी इतराती। रास्ते में उसे जो भी मिला उससे रिश्ता जोड़ लिया। मिट्टी को भिगोया, पेड़-पौधों को हरा-भरा किया और पशु-पक्षियों को तृप्त किया। यहाँ तक कि मानव की भी प्यास बुझाई और अपनी धुन में मस्त सभी पर अपना स्नेह लुटाती वह तो आगे ही बढ़ती रही।
उसकी दौड़ तो सागर पर जाकर खत्म होनी थी। इसलिए वह सागर से मिलने के लिए दौड़ती रही-दौड़ती रही। उसे मालूम था कि सागर के खारे पानी में मिलकर उसका मीठा जल भी खारा हो जाएगा, लेकिन उसे तो अंत में सागर में ही मिलना था, उसी में डूब जाना था। इसलिए वह सागर से मिलने के लिए आगे बढ़ती रही।
एकाएक सामने से उसे एक बूढ़ा, अशक्त और प्यासा रेगिस्तान आता दिखाई दिया। प्यास के मारे उसका कंठ सूखा जा रहा था। वह इतना दुर्बल था कि बड़ी मुश्किल से आगे बढ़ रहा था। नदी तो उसे देखती ही रह गई। चारों ओर फैला रेत का शरीर ही उसकी पहचान था। सूरज की किरणों से सुनहरा हुआ उसका शरीर पूरी तरह से तप रहा था। दूर-दूर तक हरियाली का नामो-निशान न था। नदी को उसकी हालत देखकर आश्चर्य हुआ। उसने पूछा- तुम कौन हो? मैं तुम्हें नहीं पहचानती। बड़ी मुश्किल से उसने अपना मुँह खोला और बोला- बेटी, तुम मुझे नहीं पहचानोगी, क्योंकि हमारी मुलाकात ही पहली बार हो रही है, लेकिन मैं तुम्हें अच्छी तरह से पहचानता हूँ। तुम अमृत का भंडार हो, लोगों को तृप्त करनेवाली तृप्ति का अवतार हो। जबकि मैं तो रेत का शरीर धारण करने वाला एक सूखा रेगिस्तान हूँ। हमेशा अतृप्त रहता हूँ और अपनी तृप्ति के लिए तड़पता रहता हूँ। कभी कोई बादल का टुकड़ा मेरे पास आता है और दया कर मुझ पर बरस पड़ता है, तो कुछ समय के लिए मेरी आत्मा तृप्त हो उठती है, पर अगले ही पल फिर से तड़प उठता हूँ। मैं प्यासा हूँ, प्यास के कारण मेरा कंठ सूख रहा है। क्या तुम मुझे थोड़ा-सा पानी पिला सकती हो?
नदी तो बूढ़े रेगिस्तान बाबा की बातों को सुनकर, उसकी दशा देखकर कांप उठी। उसे बूढ़े रेगिस्तान पर दया आ गई, कहने लगी- थोड़ा क्यों? आपको जितना पानी पीना है, पी लो और अपनी प्यास बुझा लो। वह सागर की ओर जाने वाली दिशा से वापस मुड़ गई और रेगिस्तान के बीच में समा गई। उसने रेगिस्तान की प्यास बुझाने के लिए अपनी लहरों को उसकी गोद में डाल दिया। लहरों में भीगकर रेगिस्तान खूब खुश हुआ। उसका एक-एक कण पानी में भीग गया। नदी को एक अनोखा काम करने की इतनी खुशी हुई कि वह सागर में समाने की बात ही भूल गई और हमेशा के लिए रेगिस्तान की दोस्त बन गई। वह आज भी दूसरी नदियों को सागर में जाते हुए देखती है, मगर उसे सागर तक न पहुँचने का कोई दुख नहीं है, बल्कि उसे खुशी है कि वह आज वहाँ है, जहाँ उसकी वास्तव में आवश्यकता है। किसी को सुखी करना ही हमारे जीवन का लक्ष्य होना चाहिए, यह बात नदी ने अपने जीवन में अच्छी तरह से सीख ली है। आज वह खुश है, और बहुत खुश।
भारती परिमल

2 टिप्‍पणियां:

  1. dr.saahab aapke ek aalekh kee charchaa aaj ya kal ke amar ujala mein bhee huee hai..cutting pabla jee ko bhej raha hoon jaldi hee wo blog on print par dikhegee..

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  2. तुम अमृत का भंडार हो, लोगों को तृप्त करनेवाली तृप्ति का अवतार हो। जबकि मैं तो रेत का शरीर धारण करने वाला एक सूखा रेगिस्तान हूँ।

    क्या बात कह दी आपने आज पहली बार ऐसा लगा की रेगिस्तान और नदी सजीव रुप मे हम और आपके तरह एक दुसरे से बाते करते हुये आमने सामने हो सकते है....... बहुत ही बढिया

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