शुक्रवार, 29 मई 2009

व्यंग्य युधिष्ठिर का कुत्ता दिल्ली पहुंचा

डा. रामकुमार रामरिया
सरदारया दी दिल्ली
प्रिय भारत !
मैं बड़े मजे से दिल्ली पहुंच गया ।
लोग कहते हैं -दिल्ली बहुत दूर है ,दिल्ली दूर का ढोल है ,दिल्ली भारत की पोल हैं, नक़ली सियार का खोल है ,दिल्ली में नैतिकता गोल है ,दिल्ली में कौन अपना है ? दिल्ली तो सपना है , दिल्ली बकवास है , दिल्ली में प्रेतों का वास है ,दिल्ली की नाक के नीचे संविधान सोता है ,अपराध जागता है , गीदड़ की मौत आती है तो वह दिल्ली की ही तरफ भागता है ,आदि इत्यादि बातें दिल्ली के रास्ते में ट्रकवाले सरदारों ने मुझसे कहीं थीं। वे भी दिल्ली जा रहे थे और मुझे भी दिल्ली ले जा रहे थे। परन्तु आष्चर्य यह था कि न वे गीदड़ थे और न मैं। वे सरदार थे और मैं तो बस श्वान था। आज की भाषा में कहूं तो कुत्ता था। हम किसी किंवदन्ती या मुहावरे से मुक्त थे और दिल्ली जा सकते थे। उनके लिए दिल्ली क्या थी मुझे नहीं मालूम मगर मेरे लिए दिल्ली एक बादषाही मकसद थी। मैने दिल्ली की राजषाही को नज़दीक से देखा था। मैं कोई मामूली कुत्ता नहीं था। एक पौराणिक अभूतपूर्व कुत्ता था। एक सम्राट्वंषी कुत्ता,एक बादषाह कुत्ता।
तो दिल्ली पहुंचने में मुझे बादषाही सुविधा ही प्राप्त हुई औेर दिल्ली पहंुचकर प्रारंभिक दृष्टि से राजनयिक संतोष ही मिला। आषा है तुम मेरी बात अच्छी तरह समझ रहे होगे। हो सकता है कि कुछ कन्फयूज़न भी तुम्हे हो। कन्फयूज़न दिल्ली के नाम को लेकर हो सकता है। वास्तव में शुरुआत में ही मुझसे गल्ती हुई। असल में मुझे पहले ही बताना था कि दिल्ली कोई नई जगह नहीं है। इसे तुम जानते हो। यहां तुम रह चुके हो। यहां राज्य कर चुके हो ।
प्रिय पुत्र !दिल्ली को हस्तिनापुर और इन्द्रप्रस्थ का नया नाम समझ लो। मुग़लों ने बतौर दिल्लगी यह दिल्ली बसाई और इसके मुहल्लों ,रास्तों और गलियों को इन्द्रप्रस्थ और हस्तिनापुर में तब्दील कर दिया। नये भारत की अंग्रेज जेनेरेषन इसे ’न्यू डेल्ही ’ कहती है। कुछ लोगों ने इसे देह’ से जोड़कर ’देहली’ बना लिया है। चूंकि इस नगरी से मेरे संबंध पुराने भी हैं और भावनात्मक भी, अतः मुझे दिल्ली को पहचानने में ज़रा भी देर नहीं लगी । जबकि सुनते हैं,नई पीढ़ी अब भी जे.एन.यू.में इस पर रिसर्च कर रही है। ये सारी बातें वास्तव में सरदारों ने ही नषे की हालत में रास्ते में मुझसे कहीं थी।
पुत्र ! मैं बार बार दिल्ली के मामले में सरदारों का जिक्र कर रहा हूं,, और तुम खामखां टेंषन में आ रहे होगे कि ये सरदार आखिर हैं कौन ? कौन्तेय ! ये बड़े ही मजेदार लोग हैं। इन्हें दिलदार ,मालदार,रौबदार,पायादार और असरदार भी कहा जाता है। इतने सारे ’दार’ लगे होने से ही ये सरदार कहाए। कुछ इन्हें यार या यारों के यार भी कहते हैं। इसकी वजह यह है कि इनके पास ’यार’ लगी हुई कुछ खूबियां भी है...ये कृपाण नामक धार्मिक हथियार रखते हैं , ये जां पर खेल जाने को तैयार रहते हैं ,अपना मयार ये हमेषा ऊंचा रखते हैं । ये होषियार भी हैं। इनकी होषियारी से जलकर कुछ लोगों ने इनपर हंसी उड़ानेवाले चुटकुल भी बनाए हैं । वे लोग भूल जाते हें कि ये बिगड़ जाएं तो खूंख्वार भी हैं ।
पार्थ! सेनानायक होने के नाते तुम जानते ही होगे कि सेना में सरदार नामक प्राणी भी होते हैं। सैनिकों की एक टुकड़ी के सरगना। पूरी टुकड़ी का संचालन उसी के जिम्मे होता है। षायद उन्हीं सरदारों के ये वंषज हैं। सरदारों के बेटे पहले सरदार हुए ,बाद में पूरी कौम सरदार हो गई। जो पान की दूकान चलाता है वह भी सरदार। जो ट्रक चलाता है वह भी सरदार । षराब बेचकर घर चलाने वाला भी सरदार है और गुरुदारा चलानेवाला भी। आजकल ऐसा होता है कि पटवारी का बेटा पटवारी होता है, वही उसकी जात होती है। पनवाड़ी ,पायलट,गोमास्ता ,मुंषी ,कानूनगो, बख्षी, राय, प्रधान षास्त्री आदि उपाधियां पुष्तदरपुष्त प्रवाहित होती चली जाती हैं। इसलिए पंडित का बेटा पंडित और सूत का बेटा सूत हो जाता है। जुलाहे का जुलाहा तो महासचिव का बेटा परंपरा से महासचिव हो जाता है। उसके लिए प्रधानमंत्री की कुर्सी पहले से तैयार रहती है।
जो भी हो सरदार होते बहुत अच्छे हैं। बिलकुल सरदारों की तरह। सर की हिफाजत कोई उनसे सीखे। वे हमेषा पगड़ी से सर को असरदार बनाए रखते हैं । सर भले ही छोटा हो पगड़ी उनकी बड़ी होती है। उनका कौमी गीत है -’’पगड़ी सम्हाल जट्टा..’’ जट्टा भी सरदार को कहते हैं। जैसे दिलदार को दरियादिल भी कहते हैं। ये बात मैं इसलिए कह रहा हूं कि मैंेंने इनकी दरियादिली देखी है। इन्होंने मुझ रिष्तों की तरह प्यार और दुलार दिया। खाना और षराब दी। मेरी तरह थके हुए, भूखे ,प्यासे और कत्र्तव्य की भावना से भरे हुए कुत्ते से कौन ऐसे पेशआता है ? खींचकर लात मारता है और फेंककर पत्थर। इन्सान भी इन्सानों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करता जैसा इन सरदारों ने मेरे साथ किया। मुझे तो लग रहा था जैसे स्वर्ग के लोग रूप बदलकर जमीन पर उतर आएं हैं और ट्रक चला रहे हैं ।
हुआ यह कि मैं धीरे धीरे इन्द्रप्रस्थ यानी दिल्ली के रास्ते पर पैदल ही बढ़ रहा था । पहाड़ी जंगली ,रास्ते पर बिल्कुल अकेला। न पट्टा ,न जंजीर ,न मालिक ,न मल्लिका । मुझे न शेरों का भय था ,न भालुआंे का डर। न सोनकुत्तों की परवाह ,न खरगोषों का लोभ। मैं अपने दिमाग से उन हाथियो को भी निकाल चुका था ,जिनके बारे में कहा जाता है कि वे जब बाज़ार जाते हैं ,तब हम कुत्ते उन पर भौंकते हैं। वैसे भी मैं इस समय बाज़ार के रास्ते पर नहीं था, कामनवेल्थ की पसंद-दिल्ली के रास्ते पर था। फिल्हाल मैं बिल्कुल अकेला था ओर मेरी स्थिति धोबी के उस कुत्ते की तरह थी ,जो घर का होता है ,न घाट का । मैं बुरी तरह थक चुका था और मेरे मन में इतना अवसाद था कि सच कहता हूं ,अपनी जाति की निष्ठागत परम्परा से जुड़ा न होता तो तुमको सैंकड़ों गालियां देता और किसी भी गांव में घुसकर अपना पेट पाल लेता। बहरहाल,में एक सच्चे और स्वाभिमानी कुत्ते की तरह तुम्हारे प्रति निष्ठा का पालन करते हुए ,किसी तरह दिल्ली की तरफ बढ़ रहा था। जैसे पार्टी के निर्णय पर लगी लगाई नौकरी छोड़कर कोई षिक्षक चुनाव के मैदान में डमी प्रत्याषी बनकर दिल्ली के सपने देखने लगता है। मैं भी तुम्हारी इच्छापर तुम्हारे खोए हुए भाई और स्वनामधन्य पांचाली की खोज में दिल्ली के रास्ते पर फिसल रहा था। मेरे लिए यह जीवन मरण का प्रष्न था और प्रण भी ।
तभी अचानक तेज ऱतार से आता हुआ भारी वाहन बिल्कुल मेरे पास आया और किंकिंयाकर खड़ा हो गया। मैं डर गया और ज़ोर ज़ोर से भौंकने लगा जैसे हर डरा हुआ आदमी भौंकता है। जैसे कुत्ते हाथी और शेरों पर भौंकते हैं। तभी वाहन से एक आदमी लड़खड़ाता हुआ उतरा । वह बिल्कुल तुम्हारे सेनापतियों की तरह दढ़मुच्छ था और मुकुट की जगह पगड़ी पहने हुए था । वह मेरे भौंकने की परवाह किए बिना मेरी तरफ बढ़ते हुए बोला -’’ ओय शेर दे पुत्तर ...क्या बाडी साडी है तेरी ..साले हम तो डर गय थे। दूर से तू हमें शेर लग रहा था । अब तो तुझसे यारी करनी पड़ेगी ...हम भी शेर ,तू भी शेर ..’’
इसके पहले कि मैं कुछ सोच पाता उस शेर ने मुझे गोद में उठा लिया । मुझे बहुत अच्छा लगा । ईष्वर ने मेरी सुन ली थी और मेरी निष्ठा का प्रतिफल दे दिया था। एक शेरदिल आदमी ने मुझे ’शेर का पुत्तर’ कहा था । इसे ही कहते हैं -’ खग जाने खग ही की भाषा ’। वह शेरदिल आदमी मुझे लेकर वाहन में चढ़ गया। परली तरफ बैठे आदमी ने चिल्लाकर कहा: ’’ ओय सरदारया ! की कीत्ता ओय..ऐस कुत्ते दे पिल्ले नूं ट्राक बिच कित्थे ले आंदा तुसी..’’
मुझे थामे हुए सरदारया नाम के उस आदमीनुमा प्राणी ने ट्राक के अंदर मुझे लगभग फेंकते हुए कहा: ’दारजी ठंड राख तुसीं..असी तो ये कोई करामाती लंगदा से..वेखते रयां...’’ दूसरा आदमी दारजी था। मैं मन ही मन हर घटती हुई चीज़ को अपनी कौत्तिक बुद्धि से सूंघ रहा था। चैकन्नापन कुत्तों में अपने आप आता है।
पहले आदमी सरदारया ने मेरी खस्ता हालत देखी तो बोला:’’पानी पीवेंगा... थका लगता है तू....इस जंगल बिच...न गांव न शहर...तू कित्थे भटकदा फिरदा है यार ? ले दो घूंट अंगूर दी मार...’’ऐसा कहते हुए उसने मेरे मुंह में बाटली लगा दी। मैं हर अवसरवादी की तरह दो की जगह ़मज़े में चार घूंट पी गया। मुझे इस समय उसकी जरूरत थी। राजभवनों में रहते हुए ,खासकर अंतःपुर के इतने करीब होते हुए मैं अंगूर और बेषकीमती सोमरसों से परिचित था। उनके प्रभावों को जानता था। कई बार तो तुमने ही नषे में मेरे मुंह में प्याला ढठूंस दिया था, तुम्हें याद है?
अस्तु, उन चार घूंटों का तत्काल प्रभाव हुआ ..मेरे बेजान शरीर में जान आ गई। जिन्दगी की एक लहर मेरे पूरे शरीर में दौड़ गई। आंखों में सितारे जगमगा उठे। यह क्या ...क्या मैं पलक झपकते ही स्वर्ग पहुंच गया..ऐसा मैंने सोचा....
कुन्तिपुत्र ! तुम्हें वह दिन याद होगा जब स्वर्ग से आए वाहन को तुमने केवल मेरे कारण ठुकरा दिया था। तुम्हारी परीक्षा के लिए कुछ देर के लिए वह वापिस भी चला गया। उतनी देर में तुमने तय भी कर लिया कि अपने प्रियजनों के बिना स्वर्ग जाना बेकार है...तुम धर्मपुत्र थे न.. इसलिए धर्मसंकट में पड़े हुए तुम मुझे लेकर एक देवदारु के नीचे सरक आए ताकि दोबारा अगर विमान आए तो भटक जाए और इतनी देर में तुम अपने भाइयों को साथ में स्वर्ग ले जाने पर विचार कर सको। हुआ भी वैसा ही। विमान भटक गया और हम दोनों देवदारु यानी देवताओं के वृक्श1 के नीचे खड़े खड़े ठिठुरने लगे। तभी तुमने यह भी सोच लिया कि राजरानी द्रोपदी और बंधुगण -भीम , अर्जुन , नकुल और सहदेव ,जो बीच रास्ते में ही ढेर हो गए थे ,वे हो न हो बदले हुए हालातों में अपने अस्तित्व या अपनी अस्मिता के पुनर्मूल्यांकन के लिए वापस भारत यानी हस्तिनापुर के इंद्रप्रस्थ लौट गए हैं। भाइयों का दिल ऐसा ही सोचता है। तुमने तुरंत तय भी कर लिया कि मैं लौटकर जाऊं और उन लोगों की जासूसी करूं। मैं निष्ठावान रिसर्च स्कालर की तरह लौट पड़ा। मेरे वफादार मन में एक पल के लिए भी यह संदेह नहीं हुआ कि मुझे धरती पर छोड़ देने का समझौता तुम कर लोगे और मुझे भटकाकर स्वर्ग चले जाओगे। मैंने यह भी कल्पना नहीं की थी कि कोई वाहन सुख तुम्हें छोड़ने के बाद मुझे मिलेगा। लेकिन वाहन पर सवार होकर इस तरह के भव्य ख्याल आने लगे..मै सोचने लगा कि मेरी परीक्षा के लिए तुम उस स्वर्गीय यान पर वापस आ गये हो ...सरदारों का रूप लेकर । मैं सोचने लगा कि तुम्हारे आदर्षों और धर्माचरण के साथ साथ मेरी निष्ठा का प्रतिफल यह भव्य वाहन है। मैं अंदर ही अंदर खुशहोने लगा कि ईमानदारी सचमुच पुरस्कृत होती है। परन्तु तत्काल मैं सम्हल गया ..नषे की हालत में भी लगा कि मुझे चढ़ रही है ।
तभी गड्डी ने हल्का सा टर्न लिया और लुड़कते हुए रुक गई। सरदारया ने मुझे थपककर कहा:’’ओय उट्ठ बड़वाग्या....ढाबा आ गया... पंजाबी दा ढाबा..पंजाब नंे क्या नहीं दिया इस मुल्क को ..खाने वास्ते ढाबे दिए...पीने वास्ते पटियाला पैग दिए..’’
अब तक मेरे नथुनों में अब तक रोटी ओर तरकारी की गंध घुंस चुकी थी..सूंघते ही मेरी आंतें मरोड़ खाने लगी। कान खड़े हो गए ,जीभ लपलपाने लगी और दुम डगमगाने लगी।
’’भुक्खा है शेरदा...चल तुझे परौंठे खिलाएं ,राजमें के साथ..’’ सरदारया ने कहा और वे मुझे कुदाकर कूद गए। मैं हवा में उड़ रहा था। ..हवाओं में संगीत बज रहा था... वातावरण अनेक गंधों से महक रहा था। सरदारया और दारजी खाली पड़ी खटियों की तरफ बढ़ गए और उन पर बैठ गए...मैं भी राजकुल की मर्सादा और आदत के मुताबिक बगल की खाट पर चढ़ गया। सरदारया खुशहोकर चिल्लाया,’’ ओय , खुश कर दित्ता मेरे यार ! किसी ऊंचे घर का मालूम पड़ता है तू ? श्षब्बास...’’
फिर ज़ोर से आवाज लगाई:’’लगा ओ छोकरे...दाल फ्राई, शाही राजमा ,चिकन तंदूरी और मक्खन दे परौंठे...आज हमारा शेर ऐश करेगा...’’
मगर दारजी ने डांटकर कहा:’’ होषकर ओय बंत्या ! तू कुत्ते को मक्खन के परौंठे खिलावेंगा ? पागल हो जाते हैं कुत्ते मक्खन और घी खक्के...’’
बंत्या तुरंत होश में आ गया। आश््चर्य से मंुह फाड़कर बोला:’’ ऐसा ? तो ठीक है ...छोकरे... दो तंदूरी रोटी देना अलग से.. कुत्ते नाल....’’
जिस गति से मैं कुत्ते से शेर हुआ था उसी गति से कुत्ता हो गया। ठीक सरदारया की तरह जो होश में आते ही बंत्या हो गया था। बहरहाल मक्खन के परौंठे के स्थान पर मुझे सूखी मगर गरम और कड़क नमकदार रोटियां मिलीं। बंत्या ने उस पर बोटियां रख दीं। मुझे ज़ोर की भूख लगी थी इसलिए मक्खन के परौठे ओर तंदूरी रोटियों में फर्क,तुलना या भेद करना मैंने मुनासिब नहीं समझा। वैसे भी दारजी ठीक ही कह रहे थे -विष्वासपात्र ,निष्ठावान और कत्र्तव्यपरायण कुत्तों को मक्खन और घी नहीं खाना चाहिए। इससे उनकी स्वामीभक्ति में फर्क आ जाता है। चिकनी चुपड़ी का चष्का तो कुत्तों को आदमी बना देता है। इन सब विचारों के साथ साथ रोटियां मेरे पेट में जा रहीं थीं। जैसे जैसे रोटियां पेट में जा रहीं थीं, नषा बढ़ रहा था। थोड़े बहुत नषें में मैंने सुना सरदारया कह रहा था:’’ कयों शेरू मजा आ रहा है न ....तू भी क्या याद रखेगा कि किसी सरदार से पाला पड़ा था...तू जंगल से दिल्ली आ गया है .. यह दिल्ली सरदारों की मिल्कियत है...तू ऐश करेगा यहां...’’ मै कुछ समझा ,कुछ नहीं समझा। नींद और नषे के बीच गहरी दोस्ती हो चुकी थी। मै शायद खाटपर ही लुढ़क चुका था।
सुबह होते ही दो घटनाएं एक साथ घटीं- होश आया और नींद खुली। आमतौर पर नींद खुलती है तब भी हम किसी न किसी नषे में होते हैं। होश आने पर भी हम किसी न किसी नींद में गाफिल होते हैं। किंतु मैं जब जागा तो होश में था। क्या देखता हूं कि सुबह हो गई है और चिड़ियां चहचहाने लगी हैं। सरदारया और दारजी गायब हैं। आसपास की खटियों पर लोग सो रहे हैं। केवल ढाबे का बोर्ड जाग रहा है जिस पर लिखा है-’ पंजाब दा ढाबा...दिल्ली’..यानी मैं दिल्ली में हॅंूं.... ।
मैं उठा ,अंगड़ाया और षरीर को झटकाकर ,दुम उठाकर दिल्ली की सड़कों पर निकल पड़ा ।
शेष फिर
तुम्हारा कुत्ता
-कुकुर मोती प्रताप सिंह ’स्वर्गवर्गीय’

डा. रामकुमार रामरिया

1 टिप्पणी:

  1. बेहतरीन व्यंग्य......डा. रामकुमार रामरिया जी सहित आपका भी इस व्यंग्य रचना को यहां प्रस्तुत करने के लिए आभार.

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